Sunday, September 12, 2010

मनमोहन सिंह का लेखा-जोखा

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री डा¡. मनमोहन सिंह ने अपनी सालाना रस्म अदायगी के तहत संपादकों से बात करते हुए अपना मन खोला। डा¡. सिंह की पहली चिंता कश्मीर के हालात को लेकर है। साथ ही उनकी इच्छा है कि अपनी जन्मभूमि पाकिस्तान से भारत के संबंधों का सुधार हो। पर इसके अलावा भी अगर उनकी सरकार के काम का लेखा जोखा किया जाए तो कोई बहुत प्रभावशाली रिपोर्टकार्ड नहीं बनता। राष्ट्रकुल खेलों में 70 हजार करोड़ रूपये का चूना लग चुका है। इसमें भारी भ्रष्टाचार हुआ है। जिसकी जांच अब खेलों के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयोग करेगा। इधर अप्रत्याशित वर्षा ने न सिर्फ खेल के इंतजाम में पलीता लगा दिया है बल्कि कि देशभर में मुश्किल पैदा कर दी है। हालाकि जल प्रबंधन के मामले में डा¡. सिंह को दोषी करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह बदहाली तो आजादी के बाद बनी हर सरकार की लापरवाही और भ्रष्टाचार का परिणाम है। जो हम एक तरफ तो जल संकट के लिए हाय तोबा मचाते हैं और दूसरी तरफ नदी परियोजनाओं पर खरबों रूपया खर्च करके भी वर्षा के जल का संचय नहीं कर पाते।

अपने ही दल के केन्द्रीय मंत्रीमंडल के मंत्रियों के बीच पारस्परिक छीटाकशी ने डा¡. सिंह बार-बार असहज स्थिति में डाला है। हालाँकि वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल में हुए झगडों के मुकाबले यह कहीं बेहतर स्थिति हैण् पर दूसरी तरफ डा सिंह की सरकार की आर्थिक विकास की दर अपेक्षित 9 फीसदी के निकट ही रही है। जो डा¡. सिंह के लिए संतोष की बात होगी। हालाकि कई क्षेत्रों में अपेक्षित विकास का कोई संकेत नहीं मिल रहा। मसलन केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का हर दिन 20 किमी0 राजमार्ग बनाने का दावा अधर में लटका है। क्योंकि उन्हें भारत के योजना आयोग व पर्यावरण मंत्रालय से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणायें और कार्यक्रम तो बहुत से चालू किये हैं पर जमीनी हकीकत अभी नहीं बदली है। शिक्षा के अधिकार को मूल भूत अधिकार बनाने के बावजूद राज्य सरकारें ऐसी योजनाओं पर काम करने को तब तक तैयार नहीं है जब तब उन्हें केन्द्र पैसा न दे।

हालाकि प्रधानमंत्री ने अपने गृहमंत्री की पीठ थपथपाई है पर जनता का आंकलन यही है कि नक्सलवाद की समस्या को हल करने में पी चिदाम्बरम को कोई सफलता नहीं मिल पाई है। आये दिन नक्सलवादी युवा पुलिसकर्मियों की हत्या करके पुलिस फोर्स का मनोबल गिरा रहे हैं। हालाँकि आतंकवाद के मामले में डा सिंह की सरकार का रिकोर्ड बेहतर रहा है जबकि वाजपेयी सरकार के दौरान आतंकवादियों ने रघुनाथ मंदिर जम्मूए अक्षरधाम मंदिर गांधी नगर ही नहीं भारत की संसद तक पर खतरनाक हमले किये थेण्

डा¡. सिंह की भलमनसाहत के कायल लोग हैरान है कि वे कुछ जादुई करिश्मा क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि वे कुछ कर ही न पाये हों। हम उनकी आर्थिक या परमाणु नीति के समर्थक हों या न हों यह सच है कि 90 के दशक में अल्पमत की इंका सरकार के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने बड़ी होशियारी से भारत में आर्थिक उदारीकरण का रास्ता साफ किया था। इसी तरह अमरीका से परमाणु संधि के मामले में उन्होंने पूरी कड़ाई दिखाते हुए और वामपंथियों के भारी विरोध के बावजूद जो चाहा सो करवा लिया। फिर क्या वजह है कि वे अपने कार्यकाल में ठोस उपलब्धियां नहीं दिखा पा रहे हैं?

यह सब जानते हैं कि मौजूदा यूपीए सरकार की कमान दरअसल 10 जनपथ के हाथ है। पर हकीकत यह है कि हर मामले में सोनिया गांधी दखल नहीं देती। बहुत सारे ऐसे मामले हैं जिन्हें प्रधानमंत्री अपनी पहल पर देखते हैं। जिसमें उन्हें उनके द्वारा चुने गये सलाहकारों की टीम मदद करती है। ऐसी सभी क्षेत्रों में उनसे अपेक्षित कार्यकुशलता का प्रमाण न मिलना लोगों के मन में २kaका पैदा करता है।

आर्थिक उदारीकरण तो इन्होंने कर दिया पर भारत सरकार में व्याप्त लालफीताशाही में कोई कमी नहीं आई। डा¡. सिंह नेता न होकर एक सीईओ की तरह हैं, इसलिए उन्हें लालफीताशाही को खत्म करने की ठोस पहल करनी चाहिए। इसी तरह भ्रष्टाचार के मामले में वैसे तो कोई भी सरकार अपवाद नहीं रही, चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी की ही सरकार क्यों न हों, पर डा¡. सिंह की सरकार के मामले में जो भी विवाद सामने आये हैं उनसे निपटने में उन्होंने अपनी छवि के अनुरूप मुस्तैदी नहीं दिखाई, ऐसा क्यों?

जबसे डा¡. सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं लोग अक्सर सवाल पूछते हैं कि क्या उन्हें उनके कार्यकाल के बीच में ही हटाकर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया जायेगा? इसका जवाब प्रधानमंत्री यह कह कर देते हैं कि वे युवाओं के आगे आने को खुद बढ़ावा देना चाहते हैं। राहुल गांधी भी इसका जवाब टाल जाते हैं। वे कहते हैं कि देश में एक प्रधानमंत्री है जो अच्छा काम करते हैं। अंदर की बात जानने वाले कुछ और ही कहते हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी इस सरकार की नैया मझधार में खेने को तैयार नहीं है। उन्हs डर है कि ऐसा करने से अगले लोकसभा चुनाव में उन्हें इस सरकार की नाकामयाबियों का बोझ ढोना पड़ेगा। जो उनकी अपेक्षित सफलता में पंक्चर कर सकता है। इसलिए वे अपना पूरा ध्यान पार्टी का युवा जनाधार बढ़ाने में लगा रहे हैं। ताकि एक लहर बना कर बड़ी सफलता के साथ चुनाव में जीते और अगली सरकार के प्रधानमंत्री का पद संभाले। इस दृष्टि से डा¡. सिंह के पास “ksष पूरा कार्यकाल है। यह बात वह भी जानते हैं। इसलिए उन्हें अपनी सरकार का आत्मविश्लेषण कर इसके तौर तरीके में ठोस सुधार करना चाहिए। अपने मंत्रियों को भी अपने-अपने मंत्रालय के लक्ष्य निधारित कर हर सप्ताह अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहिए।

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