Rajasthan Patrika 6-Dec-2009 |
ऐसी ही एक घटना 2006 के ‘ज्वाइंट ऐन्ट्रेंस एक्ज़ाम’ में हुई। इस परीक्षा को आईआईटी खड़गपुर ने संचालित किया था। इसी आईआईटी के कंप्यूटर साइंस के प्रो0 राजीव कुमार को यह बइमानी नागवार गुजरी और तब से वे अपनी ही संस्थान की परीक्षा प्रणाली की बखियां उखेड़ने में जुट गए। इसके लिए पिछले 3 सालों es उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय, केंद्रीय सूचना आयोग, संसद व अदालतों में काफी भागा-दौड़ी की। उन्होंन इस परीक्षा प्रणाली के विषय में तमाम तरह का शोध किया। अपने संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी दबाव डालकर उन्हें सच उगलने पर मजबूर किया। जो सच सामने आया वह चैंकाने वाला है। 2006 की इस परीक्षा में जिन विद्यार्थियों के अंक क्रमशः 231, 251 या 279 आये थे वे तो असफल रहे। पर जिन विद्यार्थियों के अंक 154, 156 या 174 आये थे वे सफल रहे। ऐसा इसलिए हुआ कि चयन कर्ताओं ने भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र व गणित में न्यूनतम अंकों की जो सीमा तय करी थी वह काफी धांधलीपूर्ण थी। उसका कोई तार्किक आधार नहीं था।
इसी खोज में यह बात भी सामने आई कि आईआईटी कानपुर और आईआईटी खड़गपुर के रसायन शास्त्र के प्रोफेसरों के साहबजादों को रसायन शास्त्र विषय में 184 में से 135, 130, 125 या 120 जैसे उच्च अंक प्राप्त हुए। जबकि उनका अन्य विषयों में प्रदर्शन काफी निम्न स्तर का था। फिर भी उनका चयन हो गया। जब बार-बार चयन कर्ताओ से केंद्रीय सूचना आयोग ने चयन की प्रक्रिया पर असुविधाजनक सवाल पूछे तो हर बार उसे विरोधाभासी उत्तर दिया गया। जाहिर है कि चयनकर्ता तथ्यों को छिपा रहे थे क्यों कि उन्हें पकड़े जाने का भय था। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात तो यह हुई कि जब सूचना आयोग का दबाव बढ़ने लगा तो आईआईटी खड़गपुर ने अपने ही नियम के विरुद्ध जाकर 2006 के परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिकाएं नष्ट कर दी, ताकि कोई प्रमाण ही न बचे। जबकि नियमानुसार उन्हें एक वर्ष तक सलामत रखना चाहिए था।
ऐसा नहीं है कि इन अधिकारियों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय व केंद्रीय सूचना आयोग में विचाराधीन है। फिर भी उन्होंने उत्तर पुस्तिकाओं को नष्ट करने की हड़बड़ी क्यों की? जब इस मामले पर संसद में सवाल पूछा गया तो मानव संसाधान विकास राज्यमंत्री ने लीपा-पोती करके मामला टाल दिया। इसी तरह 2007 के जेईई में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसका संचालन मुंबई आईआईटी ने किया था। इस परीक्षा में भी ऐसे छात्र सफल हो गए जिन्हें गणित में 1 अंक, भौतिक शास्त्र में 4 अंक और रसायन शास्त्र में मात्र 3 अंक प्राप्त हुए थे। 2008 में भी कोई सुधार नहीं हुआ। गणित में 15 फीसदी और भौतिक शास्त्र में 5 फीसदी अंक पाने वाले को भी आईआईटी खड़कपुर में दाखिला मिल गया। एक छात्र को भौतिक शास्त्र में 104 अंक, गणित में 75 और रसायन शास्त्र में 52 अंक मिले। उसका कुल योग 231 था पर उसका चयन नहीं हुआ, जबकि कुल 174 अंक पाने वाले छात्र का दाखिला हो गया। ऐसा इसलिए हुआ कि इस विद्यार्थी के भौतिक शास्त्र में 50, रसायन में 73 और गणित में 51 अंक थे और चयन कर्ताओं ने इस वर्ष यह तय किया रसायन शास्त्र में 55 से कम अंक पाने वाले को दाखिला नहीं दिया जायेगा। ऐसे ही बेसिर-पैर के गोपनीय फैसलों से आईआईटी के चयनकर्ता लाखों मेधावी छात्रों के साथ वर्षों से खिलावाड़ करते आ रहे है। देश के ज्यादातर छात्र/छात्रा व अभिभावकों को इस गोरखधंधे का पता नहीं। पर पिछले कुछ महीनों से देश के अंग्रेजी मीडिया में विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। केंद्रीय सूचना आयोग भी दबाव बनाये हुए हैं। प्रो0 राजीव कुमार जैसे योद्धा वैज्ञानिक तर्कोंं के साथ चयनकार्ताओं के छक्के छुड़ा रहे हैं। यही समय है जब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को इस पूरे मामले की गहरी छान-बीन करवानी चाहिए और इस प्रतिष्ठित परीक्षा को पारदर्शी बनाना चाहिए। नए-नए आईआईटी खोलने की जल्दी में अगर श्री सिब्बल ने इस नासूर को दूर नहीं किया तो यह कैंसर की तरह फैल जायेगा और आईआईटी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी कीमत खो देंगे। तब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आकर महंगी शिक्षा बेचेंगे और भारत के मेधावी किन्तु साधनहीन युवाओं को असहाय बनाकर छोड़ देगें, क्योंकि उनके माता-पिता इतनी मंहगी शिक्षा का भार वहन नहीं कर पायंगे।
इसलिए देशभर के छात्रों को भी, जिन्हे आईआईटी प्रवेश में रुचि है, जेईई को पारदर्शी बनाने के लिए ज़ोरदार आवाज़ उठानी चाहिए। अपने सांसदों, अखबारों के संपादकों को पत्र लिख कर इस मुदns पर ध्यान दिलाना चाहिए। अभिभावकों को भी जनहित याचिकाएं दाखिल करके आईआईटी को मजबूर करना चाहिए के वह जेईई को पारदर्शी बनाये। भारत की भावी वैज्ञानिक पीढ़ी के भविष्य के लिए यह एक ज़रूरी प्रयास होगा।
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