सुनने में यह अटपटा लगेगा पर हकीकत यही है कि सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर भारतीय राजनीति के परिदृश्य से 10 बरस पहले हटाने की मुहीम चलाने वाली भाजपा को ही आज “kk;n सोनिया गांधी के नेतृत्व की जरूरत है। जो पार्टी को एक जुट रख सके। वरना पार्टी लगातार बिखरती जा रही है। जसवंत सिंह को इस तरह बे-आबरू करके कूचे से निकाला जाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा में आज नेतृत्व नाम की कोई चीज बची नहीं है। दिशाहीनता और भारी हताशा के बीच बिना सोचे समझे एक के बाद एक अटपटे फैसले लिये जा रहे हैं। अचानक संघ एक बार फिर मंच पर सामने आ गया है और खुलकर भाजपा के अंदुरूनी मामलों में दखल दे रहा है। राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व पर उठा विवाद हो या आडवाणी का वारिस चुनने का सवाल दूसरी लाईन के नेताओं में काफी तू-तू मै-मै हो रही है। आडवानी की कुर्सी पर निगाह रखने वालों की लंबी कतार है। सब दूसरे को नीचा दिखाकर अपने नंबर बढ़ाने चाहते हैं। कहीं मौका न छूट जाए। भाजपा के शिखर नेतृत्व में बैठने के लिए जो अनुभव और संस्कार चाहिए वो इनमें दिखाई नहीं दे रहा है।
सबसे प्रबल दावेदार माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी का ग्राफ गिरना “kqरू हो गया है। पहले तो वे संघ और विहिप की आंखों में खटकते थे पर अब भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य में आने नहीं देना चाहता। इसलिए भाजपा में उनकी खिलाफत करने वाले काफी लोग है। खुद मोदी भी अभी गुजरात छोड़ना नहीं चाहते। सुषमा स्वराज और अरूण जेटली दोनों ही भाजपा के नेतृत्व के लिए स्वयं को सबसे बड़े दावेदार मानते हैं। समस्या यह है कि इन दोनों ही नेताओं का कोई प्रभावशाली जनाधार नहीं है। पर एक बात स्पष्ट है कि अगर भाजपा हालात से मजबूर होकर और संध के दबाव फिर से हिंदुत्व को अपनाना चाहती है तो सुषमा स्वराज का नेतृत्व हिंदुत्व के ज्यादा निकट है जबकि दूसरी तरफ से अरूण जेटली के आध्यात्मिक रूझान के कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिले है। जेटली की छवि रणनीतिकार व चुनाव व्यवस्था करने की ज्यादा है हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ने की नहीं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि जेटली हिंदुत्व की लहर पैदा कर देंगे।
उधर राजनाथ सिंह कब से आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें दल में नंबर एक पोजिशन मिले। वे तो चुनाव के पहले यह भी कहते थे कि कि इंग्लैंड में लोकतंत्र की परंपराओं की तरह भारत में भी विपक्ष के नेता को ही प्रधानमंत्री बनना चाहिए। पर आडवाणी जी ने उन्हें उसी वक्त चुप करवा दिया था। चुनावी परिणाम ने तो आडवाणी जी की भी यह हसरत पूरी नहीं की। इसलिए आडवाणी जी ने विपक्ष के नेता का पद छोड़ने का अपना निर्णय लटका दिया। “kk;n वे चाहते हैं कि उत्तराधिकार का मामला उनके सामने ही निपट जाए। पर यह टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। आज पूरी भाजपा दिशाहीन है। उसके प्रमुख विचारक, लेखक, सांसद, पत्रकार व मंत्री रहे अरुण ही भाजपा के नेतृत्व पर तोपें दाग रहें हैं। आज भाजपा में अगर सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व होता तो उसकी ऐसी दुर्गति नहीं होती। भाजपा के समर्थक कहेंगे कि वे वंशवाद में नहीं लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। इसलिए यह परिस्थिति अपरिहार्य है। पर सवाल है कि जसवंत सिहं को हटाया जाना या राजनेताओं के पुत्र-पुत्र वधुओं को चुनाव में लड़ाना या कार्यकर्ताओं के मतों की उपेक्षा कर दिल्ली से निर्णय थोपना क्या लोकतांत्रिक परंपराओं का प्रमाण है?
पिछले दो दशक में हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर भाजपा नेतृत्व ने जिस तरह बार-बार अपनी नीति और बयान बदले हैं उससे उसकी विश्वसनीयता उसके ही वोट बैंक के बीच खतरे में पड़ गयी है। इस चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन का कारण उसकी गिरी हुई साख ही है। ऐसे में उसे अपनी विचारधारा के विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए। जब तक दृष्टि साफ न हो जाए तब तक कोई नीति घोषित नहीं करनी चाहिए। शिमला की चिंतन बैठक में ऐसे सवालों पर चर्चा होनी चाहिए थी फिर वो चाहे जसवंत सिहं की किताब का सवाल ही क्यों न हो। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।
आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा के रणनीतिकार केन्द्र में अपनी सरकार न बनने से इतने हताश हैं कि उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा। यह दुखद स्थिति है। पांच बरस अपनी खोई प्रतिष्ठा को लौटाने का अच्छा अवसर है। चिंतन, मंथन, क्रियानवन सब कुछ इस तरह किया जा सकता है कि भाजपा राष्ट्र और व्यापक हिंदू हितों की पैरोकार बनकर पुनः स्थापित हो सकती है। पर उसके लिए जिस तरह की मेधा, ऊर्जा, ताज़गी और समर्पण चाहिए वैसा एक भी नेता भाजपा में आज दिखाई नहीं दे रहा है। यदि कोई हो और उसे मौका मिले तो वह इस हताशा को आशा और नये उत्साह में बदल सकता है। सत्ता की नहीं जनता की बात करनी होगी। मजबूती से अपनी बात रखनी होगी। राहुल गांधी को हल्की तरह से लेने वाले आज धीरे-धीरे राहुल के व्यक्तित्व और प्रयासों के मुरीद होते जा रहे हैं। सारा समाज कभी किसी एक नेता या दल के पीछे नहीं चलता। हर विचारधारा के समर्थक समाज में होते हैं। जिसका पलड़ा भारी दिखता है बाकी लोग उसके पीछे खड़े होने लगते हैं। भाजपा को २ाायद यही डर सता रहा है कि राहुल गांधी की कार्यशैली और रफ्तार अब भाजपा को जल्दी पैर जमाने नहीं देगी। इसलिए संघ और उसके नेतृत्व ने हिंदुत्व की बात करना “kqरू कर दिया है। पर यह मानना कि लोग भाजपा को इस मामले में गंभीरता से लेंगे बचपना होगा। लोग इतने मूर्ख नहीं है कि हिंदुत्व के मामले पर भाजपा नेतृत्व के लचर और अवसरवादी इतिहास को भूल जाए। इसलिए बयानों और नारों से आगे बढ़ना होगा। वरना भाजपा अपनी सार्थकता खो देगी।
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