आसार पहले से ही ऐसे दिख रहे थे। क्योंकि दलों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है और राजनेताओं के बयानों में ईमानदारी नहीं है। इसलिए गर्मी के अलावा मतदाता को लगने लगा कि वो चाहे जिसे चुन ले, कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि चुनाव के बाद सब एक हो जाते हैं। तब शुरू होती है सत्ता की बंदरबांट। एक-एक, दो-दो सीट जीतने वाले दल भी सत्ता का ऐसा मोलतोल करते हैं कि सबसे मलाईदार विभाग लेकर ही छोड़ते हैं। जनता को साफ दिखाई देता है कि चुनाव के पहले लम्बे चैड़े वायदे करने वाले दरअसल इस देश की सम्पदा को लूटने के मकसद से राजनीति में आ रहे हैं। इसलिए उसकी रूचि अब इस व्यवस्था में न के बराबर रह गई है। यही वजह है कि इस बार निर्दलीय उम्मीदवारों को ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े दलों को भी कार्यकर्ताओं का टोटा रहा।
चुनाव का कर्मकाण्ड तो हो ही जाएगा पर ये ऐसा विवाह होगा जो कन्या की रूचि के विरूद्ध जबरन सात फेरे डालकर करवाया गया हो। यह गम्भीर स्थिति है। बहुत से लोग इसके बारे में सोच रहे हैं। वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था की तैयारी में 1977 से ही जुटे हैं। जब पहली बार जनता दल के गठन का प्रयोग जन आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा था। पर ऐसा सोचने वाले समाज सुधारक व बुद्धिजीवी आज तक कोई देश व्यापी विकल्प खड़ा नहीं कर पाये। कई चुनाव लड़े भी पर कोई सीट नहीं जीत पाये। दूसरी तरफ इस हताशा के माहौल में बड़े राजनैतिक दलों ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि देश में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए। जो भी हो यह निश्चित है कि लोकतंत्र का यह स्वरूप अब बुरी तरह विखण्डित हो रहा है। एक के बाद एक जनसभाओं में राजनेताओं पर फिंकते जूते क्या बता रहे हैं? हद तो तब हो गयी जब गुजरात में एक सांसद की चुनावी सभा में श्रोता ने उसके उपर भारी-भरकम ईंट फैंक कर मारी। वह बाल-बाल बच गया। अगर जनता अपने आक्रोश का इस तरह प्रदर्शन करना शुरू कर देगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी, इसका अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता? मीडिया क्रांति ने जहां लोगों को देश के कोने-कोने में घटने वाली घटनाओं से जोड़ा है, वहीं ऐसे नकारात्मक विचार भी अब आग की तरह फैल जाते हैं। आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और बुनियादी सेवाओं का अभाव, ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं जिनपर जनता का आक्रोश कब फूट पड़े और वह क्या स्वरूप ले ले, नहीं कहा जा सकता।
काॅर्ल माक्र्स ने सर्वाहारा के ‘एलिएनेशन’ का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उसकी मूल मान्यता यह है कि जब मजदूर का उत्पादन की जा रही वस्तु से कोई सारोकार नहीं होता तो उसकी उत्पादन प्रक्रिया में अरूचि बढ़ती जाती है। उदाहरण के तौर पर कार बनाने वाले मजदूर जानते हैं कि वे कभी कार नहीं खरीद पायेंगे। माक्र्स का यह सिद्धांत भी अन्य सिद्धांतों की तरह शाश्वत नहीं है। जयपुर के कुन्दन कारीगर करोड़ों रूपये के जेवर बनाते हैं पर उनकी स्त्रियां यह जेवर कभी पहन नहीं पातीं। फिर भी वे सदियां से इस कार्य में जुटे हैं। पर भारत के चुनावों में माक्र्स का यह सिद्धांत सही सिद्ध हो रहा है। चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार लुप्त होते जाना कार्यकर्ताओं और मतदाताओं दोनों के मन में इस प्रक्रिया के प्रति अरूचि पैदा कर रहा है। इसीलिए न तो दलों को कार्यकर्ता मिल रहे हैं और न ही हाईकमान द्वारा चुने गये उम्मीदवार को जनता के वोट।
अगर देश के बुद्धिजीवी, राजनैतिक विश्लेषक व स्वंय राजनेता मानते हैं कि लोकतांत्रिक परपंरा ही भारत जैसी विविधता वाले देश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है, तो शायद अब वह समय आ गया है कि जब इसकी खामियों पर चिंतन छोड़ उन्हें दूर करने की दिशा में ठोस, प्रभावी व त्वरित कदम उठाये जायें। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनाव के नतीजे विखण्डित नेतृत्व देने वाले होंगे। ऐसी लंगड़ी सरकार शायद अपना कार्यकाल पूरा न कर पाये और फिर मध्यावधि चुनाव का अनावश्यक भार इस देश की अर्थ व्यवस्था को झेलना पड़े। ऐसे में जन आक्रोश अबसे भी ज्यादा खतरनाक रूप में सामने आ सकता है। इसलिए सबकी भलाई इसी में है कि चुनाव होते ही राजनैतिक सुधार के कार्यक्रमों को देश में हर स्तर पर गम्भीरता से लिया जाये और जनमत संग्रह कराकर इन सुधारों को लागू किया जाये। इस प्रक्रिया में नई संसद, चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय और मीडिया को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।
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