Sunday, April 27, 2008

भाजपा को मुद्दों की तलाश


Rajasthan Patrika 27-04-2008
गत दिनों संघ समर्थित स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन वृन्दावन में हुआ। जिसमें भाजपा से बहुत पहले अलग हट चुके गोविन्दाचार्य को वैकल्पिक राजनीति के नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया। देश भर से आये सैकड़ों लोगों ने जो जमीनी स्तर पर रचनात्मक  कार्यों से जुड़े हैं, देश में नई और देशी राजनीति की जरूरत पर जोर दिया। कई वक्ताओं ने साफ-साफ कहा कि गोविन्दाचार्य को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए। क्योंकि उनकी सोच और जीवन जमीन से जुड़ा है। वे बेदाग है। उनमें राजनीतिक सूजबूझ है और उनको स्वीकारने में अनेक दलों को संकोच नहीे होगा। आश्चर्य की बात यह है कि जब इस तरह के वक्तव्य दिये जा रहे थे तो संघ के सह-सरसंघचालक मदन दास देवी, भाजपा के सांसद बलबीर पुंज, लालकृष्ण आडवाणी के निकट सहयोगी एस गुरू मूर्ति और तमाम दूसरे भाजपा नेता भी वहीं मौजूद थे। ऐसे में कई प्रश्न खड़े हुए।

 क्या संघ आडवाणी जी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी से संतुष्ट नहीं है ? क्या गोविन्दाचार्य को फिर से भाजपा में लाने की तैयारी की जा रही है? क्या वास्तव में गोविन्दाचार्य यह महसूस करते हैं कि देश में वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने का वक्त आ गया ? या फिर ये सारी कसरत भाजपा के लिए चुनावी मुद्दे तय करने को की जा रही है ? दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले इन समर्पित लोगों को देश की मौजूदा परिस्थिति से घोर निराशा है। उनकी चिंता का विषय है आम आदमी का जीवन। देश के जंगल, पर्वत, पानी और जमीन पर मंडराते खतरे। कृषि की तेजी से बिगड़ती हालत। युवाओं में तेजी से बढ़ती बेरोजगारी, हताशा और हिंसा। अमीर और गरीब के बीच चैड़ी होती खाई और राजनेताओं में समाज के प्रति घटती प्रतिबद्धता। ऐसे लोगों को इस बात पर बेहद नाराजगी है कि देश की मौजूदा समस्याओं के समाधान देश में ही मौजूद होने के बावजूद हमारे हुक्मरान और वैज्ञानिक पश्चिम के बाजारीकरण के शिकंजे में फंसते जा रहे है। अपने ही हाथों अपने देश की स्वस्थ परंपराओं, संसाधनों और क्षमताओं का गला घोंट रहे हैं। इसलिए देश को आज वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है।

जिस तरह के क्रान्तिकारी फैसले ऐसे सम्मेलनों में लिए जाते हैं उनका कोई प्रभावी क्रियान्वन कभी हो पाता हो ऐसा पिछले तीस साल में तो देखा नहीं गया। 1977 के जनता शासन के बाद से ही ऐसे तमाम सम्मेलन देश भर में होते रहे हैं और उनमें सŸाा पलटने के मंसूबे दोहराए जाते रहे हैं। पर व्यवाहरिक समझ की कमी और राजनीति की शतरंज पर बिछी गोटियों को पार पाने की कुटिलता के अभाव में ऐसे मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं। फिर ये गबायद क्यों की गई। एनडीए के राष्ट्रीय संयोजक जाॅर्ज फर्डानीज की मौजूदगी में इस तरह की बातें करना साफ जाहिर करता है कि इस सम्मेलन में कुछ लोगों का छिपा उदेश्य भाजपा के लिए मुदों की तलाश करना ही था।

 जहां तक भाजपा या एनडीए के नेतृत्व का प्रश्न है इसमें कोई संदेह नहीं कि लाल कृष्ण आडवाणी को नेता स्वीकार कर लिया गया है। अगर केन्द्र में एनडीए की सरकार बनती है तो प्रधान मंत्री पद के लिए उन्हीं का नाम रहेगा। हां अगर यह सरकार बसपा जैसे दलों के सहयोग से बनती है तो समीकरण बदल सकते हैं। गोविन्दाचार्य अगर भाजपा से फिर जुड़कर काम करना चाहेंगे तो उनके विचारों को तरजीह दी जा सकती है। उन्हें चुनावी रणनीति बनाने की छूट मिल सकती है। उनकी दिक्कत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपनी जो छवि बनाई है वह उन्हें भाजपा में लौटने से रोक रही है।

दूसरी तरफ आज देश के हालात कुछ ऐसे है कि लोकसभा चनावों के परिणाम चैंकाने वाले आ सकते हैं। पिछले 10 वर्षों से देश की जनता को यह अनुभव हुआ है कि कई दलों कीसाझी सरकार से काफी नुकसान होता है। हर सहयोगी दल मोल-तोल की राजनीति करके Ÿाा में अपना हिस्सा बढ़ाना चाहता है। इन दलों की नजर मलाईदार विभागों पर रहती है। इनकी मंशा जनहित से अधिक अपना फायदा करने की होती है। दूसरी तरफ इस खींचतान में
सरकार कड़े निर्णय नहीं ले पाती। इसलिए लगता ये है कि इस बार जनता कांग्रेस या भाजपा को बहुमत देकर सŸाा में भेजे। आज यह आंकलन अटपटा लग सकता है। खासकर उन लोगों को जो खुद को राजनीति का पंडित मानते है। पर ये वही लोग है जिन्हें गुजरात और उ. प्रके विधानसभा के चुनावों के मतदान के दिन तक यह पता नहीं था कि हवा का रूख किस तरफ होगा। समस्या ये है कि टेलीविजन चैनलों पर ही नहीं राजनैतिक दलों के भीतर भी विश्लेक्षण करने वाले लोग जमीन से कटे हुए है। पर लगता यही है कि इस बार मतदाता चैकाने वाले परिणाम देगा। इसलिए दोनों ही दलों को ठोस मुदों की तलाश है।

जहां तक भाजपा का सवाल है उसके पास वाकई ठोस मुदों और विश्वसनीय चेहरों का अभाव है। इसलिए भाजपा का शिखर नेतृत्व हर संभव माध्यम से सूचना संचय करके अलगे चुनाव की ठोस रणनीति बनाना चाहता है। लगता है कि संघ की सभी इकाई मुद्दे खोजो अभियान में जुट गयी है। स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन भी इसी कड़ी में किया गया एक प्रयास था। पर जिन मुद्दों पर इस सम्मेलन में सहमति बनी उनको स्वीकारना भाजपा के लिए आसान नहीं है। दुख की बात ये है कि क्रान्तिकारी कदमों के बिना हालात बदलेंगे नहीं और दक्षिण पंथी दल क्रान्तिकारी फैसले लिया नहीं करते। इसलिए कुछ ठोस बदलता भी नहीं। आज के हालात में सŸाा चाहे भाजपा की हो या इंका की या यूं कहे कि एनडीए की हो या यूपीए की नीतियां बदलने वाली नहीं हैं। गत 10 वर्षों से दोनों सरकारों के कार्यकाल में ऐसा ही अनुभव देशवासियों का रहा है। जरूरत इस बात कि है कि भाजपा उन सवालों को उठाए जिन्हें हल करना उसके बस में हो। अगर कथनी और करनी में भेद की गुंजाइश कम से कम होगी तो विश्वसनीयता भी बढ़ेगी और जीत की संभावना भी। देश के सामने ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका हल मौजूद है। बशर्तें कि भाजपा जनता को वायदों से आगे बढ़कर कुछ ठोस देना चाहती हो।

No comments:

Post a Comment