Friday, December 3, 2004

दाल हो तो खेसारी


हर जो चीज़ चमकती है उसको सोना नहीं कहते। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-दमक और प्रचार के पीछे यही सच्चाई छिपी है। कभी बच्चों के लिए पाउडर का दूध बढि़या खुराक है, कह कर मूर्ख बनाते हैं। कभी कहते हें रासायनिक उर्वरक अच्छे हैं। कभी इन्हें खराब बनाते हैं। हम मूर्ख बनकर लुटते रहते हैं। यही किस्सा खेसारी दाल की भी है। देश में मिलने वाले ज्यादातर नमकीन इसी दाल से बनते हैं जो बेसन के बने जैसे लगते हैं पर ज्यादा खस्ता होते हैं।

खेसारी, विज्ञान के अनुसार एक दाल की फसल है परन्तु सामान्य लोगों का सूखा एवं आकाल के समय इसका उपयोग करके असंख्य लोगों ने अपना अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखा एवं प्राणों की रक्षा भी की है। अन्य प्रचलित दालों से इसमें सबसे ज्यादा मात्रा में अर्थात 32 से 34 प्रतिशत आसानी से पचने वाला उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं तथा सबसे कम कीमत पर मिलने तथा स्वादिष्ट एवं कुरकुरे पदार्थोंं के बनने से यह बहुसंख्यक लोगों की पहली पसंद की दाल है। दुधारू जानवरों का दूध एवं बैलों की शारीरिक स्फूर्ति एवं कार्यक्षमता को बढ़ाने तथा कम कीमत में मिलने वाला उत्तम क्वालिटी का राशन एवं चारे का काम करती है। जमीन में नाइट्रोजन जमा कर उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में मदद करने से धान का उत्पादन भी ज्यादा होता है।
खेसारी के पौष्टिक एवं औद्योगिक गुण, शून्य उत्पादन खर्च व आकाल के समय में भी खेतों में लहराते हुए ज्यादा उत्पादन देने तथा संकट के समय खाद्यानों की तरह मनुष्यों एवं जानवरों के प्राणों की रक्षा करने की क्षमता से प्रभावित होकर, ’’फसलों पर आधिपत्य जमाने वाले विकसित राष्ट्रों के वैज्ञानिकों’’ ने सूखे एवं आकाल के समय पर अन्य कारणों से इक्का-दुक्का पाए जाने वाले लेथारिज्म के रोगियों को मनगढ़ंत तरीकों से इसके रोगी बताकर उपयोगिता के प्रति गुमराह किया एवं लक्ष्य प्राप्त नहीं होने से आज भी कर रहे हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने भी बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन, शोधकार्यों के नतीजों अथवा लोगों के अनुभवों को देख, 1961 में राज्य सरकारों को बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दे दी। ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल इत्यादि ने अपने किसानों के अनुभवों के आधार पर प्रतिबंध लगाने से इन्कार कर दिया।
खेसारी दाल की बिक्री पर प्रतिंबध लगा देने तथा पाठ्य पुस्तकों में जहरीली दाल बताकर पढ़ाने से संपूर्ण देश की युवा पीढ़ी एवं शिक्षित नागरिक उपयोग के प्रति गुमराह हो गए। अन्य दालों का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं होने से देश दालों का आयात करने के लिए बाध्य हुआ। किसान लाभदायक फसल का उत्पादन नहीं कर पाने से आर्थिक रूप से पिछड़ा  एवं आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुआ। सामान्य जनता में खेसारी जैसी कम कीमत (क्रय शक्ति) पर आसानी से पचने एवं ज्यादा प्रोटीन वाली दाल के नहीं मिलने से कुपोषण बढ़ा एवं माताओं, बच्चों एवं युवाओं में तो उसने उग्र रूप धारण कर लिया। इस तरह राज्य सरकारों द्वारा बंदी लगाने से आम जनता एवं किसानों में असंतोष पनपा एवं फैला।
खेसारी दाल पर आधिपत्य जमाने वाले अमेरिका एवं इंग्लैन्ड के वैज्ञानिकों तथा वहां की सामाजिक संगठनों ने 1984 में ‘‘थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाऊंडेशन’’ की स्थापना न्यूयार्क एवं लन्दन में कर के ‘‘लाईक माईन्डेड वैज्ञानिकों’’ की गोष्ठियों का आयोजन करने लगे। इन गोष्ठियों में भारत, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इन्डोनेशिया, इथोपिया, इत्यादि राष्ट्रों के साथ कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, फ्रांस, स्पेन इत्यादि राष्ट्रों के वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया जाने लगा। गोष्ठियों में सबने यह मान लिय कि खेसारी के टाॅक्सीन रहीत अथवा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित खेसारी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हैं तथा एशिया एवं अफ्रीका के लोगों के लिए यह उत्तम खाद्यान तथा पशुओं के उत्तम चारे की फसल है।
कम टाॅक्सीन के बीजों के खोज कार्यों को गति देने की दृष्टि से थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन ने 1985 में ‘‘इन्टरनेशनल नेटवर्क फाॅर दी इम्पु्रव्हमेंट आॅफ लेथाइज्म सेटाईवस एवं इरेडीकेशन आॅफ लेथारिज्म’’ नामक संस्थ की न्यूयार्क में स्थापना की कृषि अनुसंधान संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में कम टाॅक्सीन के बीजों को खोजने का शोध कार्य प्रारंभ करने वालों को आथर््िाक मदद दी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है की इन ‘‘लाईक माइन्डेड वैज्ञानिकों’’ ने कम टाॅक्सीन के मतलब को समझने एवं बीजों के गुणों की आर्थात उससे उत्पादित होने वाली दाल के गुणों की पहचान करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित एवं लाभदायक बताया, इससे शोध कार्यों को प्राथमिकता के उद्देश्यों के प्रति शंका निर्माण होना स्वभाविक है। खेसारी दाल में बी.ओ.ए.ए. नामक टाॅक्सीन होता है तथा उससे ही लेथारिज्म रोग होता है, यह बात सिद्ध हो जाने के पूर्व ही दुष्प्रचार प्रारंभ कर देना एवं प्रतिबंध लगा देना गलत है। खेसारी दाल में कितना टाॅक्सीन होने पर तथा उस दाल का कितनी मात्रा में कितने दिन तक उपयोग करने से लेथारिज्म रोग होता है, यह तथ्य वैज्ञानिक धरातल पर आज तक सिद्ध नहीं हुआ है। इसी तरह ‘‘कम टाॅक्सीन वाले बीजों’’ के उत्पादन की आवश्यकता को प्रतिपादित करना एवं जन्म के पूर्व गुणों बाबत् शोर मचाकर गुमराह करने का यह दूसरा उदाहारण है। इसे विज्ञान की खोज समाज के उत्थान के लिए बतलाना गलत है। टाॅक्सीन की मात्रा कितनी होने पर बीज कम टाॅक्सीन का कहलाएगा, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। किसी भी देश में अथवा प्रान्त में कम टाॅक्सीन के बीजों से खेसारी का उत्पादन एवं उपयोग नहीं हो रहा है। लम्बे समय तक खेतों में उत्पादन एवं खाद्यानों अथवा पशु खाद्य के रूप में उपयोग करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक, खाने से लेथारिज्म रोग नहीं होगा एवं किसानों के लिए लाभदायक मतलब उत्पादन शुल्क, अकाल व सुखे के समय भी शून्य होने का दावा व्यापारिक विज्ञान ही कर सकता है, विज्ञान नहीं। क्योंकि ऐसा दावा करना सरासर धोखा एवं छल है। सामान्यतः बीजों की खोज करने के बाद 20 से 30 साल के उत्पादन एवं उपयोग के अनुभवों के आधार पर गुणों की व्याख्या करना सही माना जाता है।
संयोग की बात ही कही जाएगी कि जब अमेरिका एवं इंग्लैंड के वैज्ञानिक खेसारी फसल पर अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से देश के ‘‘लाईक माईंडेड’’ आयुर्विज्ञान एवं कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिकों से संबंध स्थापित कर रहे थे उस समय अकेडमी आॅफ न्यूट्रीशन इम्प्रुव्हमेंट, नागपुर के वैज्ञानिक अपने अध्ययनों से जनता के बीच सिद्ध कर रहे थे कि खेसारी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सस्ती एवं छोटे किसानों (जिनकी खेती वर्षा पर ही निर्भर करती है) के लिए सबसे लाभ दायक फसल है। आकाल व सूखे के समय ज्यादा उत्पादन देने से मनुष्य जाति का उत्तम खाद्यान तथा पशुओं का उत्तम चारे का काम करके इसने उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता को बनाए रखा तथा प्राणों की रक्षा भी की है। अकेडमी ने अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों द्वारा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित होने वाली दाल के उपयोग को उसके जन्म के पूर्व ही स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित बतलाने एवं दुष्प्रचार को षड़यंत्र का भाग बताकर किसानों को बचने के लिए आगाह किया।
अकेडमी की मांग को वैज्ञानिक धरातल पर सही पाने तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा गठित कमेटियों के सामने लेथारिज्म रोग का एक भी रोगी अथवा खेसारी एवं लेथारिज्म रोग में संबंध स्थाापित करने वाला शोध पत्र सामने नहीं आने के बाद भी, आधिपत्य जमाने वाले अंर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दबाव के कारण हमारे वैज्ञानिक ऊंचे पदों पर बैठे वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को बनावटी अथवा जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षणों के तथाकथित नतीजों से भविष्य में, लेथारिज्म रोग हो जाने पर उनकी ही बदनामी होगी का डर तथा अधिक शोध की आवश्यकता को अपनी रोज़ी-रोटी के लिए प्रतिपादित कर निर्णय लेने से रोक देते थे।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की गई यह स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करती है कि अकेडमी ने 18 सालों के अपने संघर्ष और अध्ययन से उस षंड़यंत्र को पूरी तरह विफल कर दिया जिसमें इस बहुउपयोगी खाद्यान की पारंपरिक फसल को समाप्त कर अपना बीज-फसल थोपने का प्रयास किया जा रहा था। इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि खेसारी एक अच्छा खाद्यान तथा पशु-खाद्य है। अब जब महाराष्ट्र में प्रतिबंध समाप्ति का निर्णय किया जा चुका है तो एक बार फिर अपना बीज फसल थोपने के प्रयास में यह वैज्ञानिक समूह सम्मेलन का आयोजन कर रहा है, वहां तीसरी दुनिया के उनके पक्षधर वैज्ञानिकों को अपने ओर से खर्च देकर आमंत्रित किया गया है। इन षड़यंत्रकारियों को यह पता है कि महाराष्ट्र में लगे प्रतिबंध को हटा देने से किसान खेती करने एवं बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। इससे अकेडमी के प्रयास की सफलता पर मोहर लग जाएगी और वे अपने बीजों को तीसरी दुनिया के किसानों पर थोपने में सफल नहीं हो पाएंगे। साथ ही इस दाल के संबंध में अनेक वर्षों से जो हो-हल्ला मचा रखा था तथा डर पैदा किया गया था, उसकी पोल भी खुल जाएगी।

No comments:

Post a Comment