Friday, January 16, 2004

पर देहाती भारत कैसे माने ‘फील-गुड’ ?


भाजपा और उसके उत्साही महासचिव प्रमोद महाजन ताल ठोक कर कह रहे हैं कि उनकी सरकार के चलते देश में फील-गुडका माहौल है लोग संतुष्ट हैं और भविष्य में आगे बढ़ने के हौसले बुलंद हैं। टीवी पर राजग सहयोग दलों के नेता अतिउत्साह और आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ विपक्ष के नेताओं के चेहरे पर चिंता साफ दिख रही है। भाजपा ये दावा कर रही है कि उसने जो पांच साल में कर दिखाया वह पिछले 50 साल में नहीं हुआ। हर राजनैतिक दल को अपनी उपलब्धियों का बढ़-चढ़ कर दावा करने का हक है। सभी करते हैं तो भाजपा क्यों न करें। पर फील गुडबड़े शहरों में तो जरूर आया है लेकिन देहातों की हकीकत क्या है ये भी जानने की जरूरत है। शहरी लोग तो अपनी बात टीवी पर कह देते हैं। पर देहात वालों को या उनके सही नुमाइंदों को टीवी चैनलों पर बुलाकर उनकी सुनी नहीं जाती या दिलखोलकर कहने नहीं दिया जाता तो इसका मतलब ये तो नहीं कि उनकी कोई हैसियत ही नहीं।

प्रवासी दिवस के समापन समारोह में बोलते हुए कई प्रवासी भारतीयों ने यह कहा कि, ‘ये फील-गुडकेवल दिल्ली, मुंबई और बैंग्लोर तक सीमित है। देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर बसे दादरी बाॅर्डर पर जाते ही एक दूसरा ही भारत नजर आता है।इन प्रवासियों ने भी भारत सरकार को चुनौती दी कि जब तक देश के देहातों में फील-गुडकी भावना नहीं पहुंचती तब तक ये बातें केवल स्टंटबाजी से ज्यादा कुछ मायने नहीं रखती। दरअसल, यह सब मीडिया मैनेजमेंट का खेल है। टीवी पर खाए-पिए, सुविधाभोगी, सत्ता के चाटुकारों को बिठा कर अगर देश की परिस्थिति का मूल्यांकन करवाया जाएगा तो सबको फील-गुडही लगेगा। सरकारी पैसे पर पांचसितारा होटलों में गोष्ठियों के नाम पर मुर्गे और दारू उड़ाने वाले और सरकारी खर्चे पर विदेश घूमने वालों को तो देश में हमेशा ही फील-गुडलगता है। चाहे कोई दल सत्ता में हो ऐसे चारण और भाट हमेशा यही करते हैं। अगर वाकई भाजपा का यह दावा सही है कि उसने पांच साल में ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की है तो इसका मूल्यांकन हिंदुस्तान के देहातों में करना होगा। जहां 70 फीसदी भारत बसता है।

टीवी कैमरा लेकर हिंदुस्तान के किसी भी देहात में चले जाइए खासकर उन प्रांतों में जहां भाजपा की सरकार है या रही है और गांव वालों से पूछिए कि पिछले पांच साल में उनके गांव में कितनी तरक्की हुई है ? क्या नई सड़कें बनी है ? क्या बिजली की आपूर्ति बढ़ी ? क्या गांव के स्कूलों में पढ़ाई का इंतजाम हुआ? क्या प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र में डाक्टर या दवा मिलते हैं ? क्या पुलिस गांव के अपराधियों को काबू में कर पाई है ? क्या गांव के सौ-पचास बेरोजगार नौजवानों को नौकरी मिली ? क्या लोगों की आमदनी पिछले पांच वर्षों में बढ़ी ? इनमें से अगर आधे सवालों का जवाब भी हां में हो तो मानना चाहिए कि वास्तव में भाजपा के शासनकाल में तरक्की हुई और तब फील-गुडमानने का पर्याप्त आधार होगा।

ये मानना पड़ेगा कि अन्य नेताओं के मुकाबले भाजपाई अभिनय करने में ज्यादा सक्षम हैं। मार्केटिंग की ट्रेनिंग देने वाले संस्थानों में ये सिखाया जाता है कि जब तुम किसी प्रोड्क्ट का सेल्स प्रमोशन करने जाओ तो तुम्हारे कपड़े चुस्त-दुरूस्त और आकर्षक होने चाहिए। चेहरे पर बनावटी ही सही पर ताजगी झलकनी चाहिए। आंखों में चमक होनी चाहिए। बात करते वक्त सामने वालों की निगाह में झांक कर आत्मविश्वास से देखना चाहिए। प्रस्तुति करते समय चेहरे पर मनमोहक मुस्कान होनी चाहिए और बदन से किसी विदेशी इत्र की खुशबू आनी चाहिए। जो सेल्समैन ऐसा करते हैं वो आधी लड़ाई तो कमरे में घुसते ही जीत लेते हैं। भाजपा ने मार्केटिंग के इस फार्मूले को अच्छी तरह समझ लिया है। इसलिए उसने पहले दिन से ही यह जताने की कोशिश की कि अब भाजपा हिन्दू धर्म के पोंगापंथी नियमों में बंध कर चलने वाली पार्टी नहीं बल्कि नई सदी की नई पार्टी है। इसके लिए सबसे पहले तो अपने नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का ही कायाकल्प किया गया। उन्हें तरह-तरह के नए फैशन के डिजाइनर सूट पहनाए गए। चश्मा भी विदेशी चमक वाला और अमरीकी राष्ट्रपति की नकल पर सात रेसकोर्स में कमरे से बाहर निकल कर बयान देने का स्टाइल भी बिलकुल नया कर दिया गया। कहां अंग वस्त्रम और धोती कुर्ता धारण करने वाले कवि हृदय वाजपेयी जी और कहा उनका ये माॅर्डन रूप। पर देश की जनता के हृदय पर अगर काबिज होना है तो ये हथकंडे तो अपनाने ही पड़ते हैं। इसमें शक नहीं कि वाजपेयी जी इस वक्त अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। अकेले वाजपेयी जी ही क्यों जयश्री राम के उदघोषसे सत्ता की ओर बढ़ने वाली भाजपा के ज्यादातर नेता अब सूट-टाई में नजर आते हैं। वे भी जिनकी प्राथमिक शिक्षा संघ की शाखाओं में हुई। ये छवि बनाने का एक उदाहारण है। जिसमें भाजपा सफल नहीं है। दूसरा काम जो भाजपा ने किया वो ये कि एक-एक करके लगभग सभी टीवी चैनलों पर अपने आदमी फिट कर दिए, जो समाचारों और कार्यक्रमों पर इस तरह नियंत्रण रखे हुए हैं जिससे भाजपा की छवि बनाने और विपक्ष की छवि ध्वस्त करने का काम बड़ी सफाई से हो रहा है। इतना ही नहीं बड़ी तादाद में भाजपा ने सभी प्रमुख पत्रकारों को इलेक्ट्रांनिक मीडिया में काम या ठेके दिलवाकर धंधे से लगा दिया है ताकि उसकी असलियत पर बेबाक रिपोर्ट लिखने वाले बचें ही न। जिन बातों के लिए भाजपा और उसके छिपे प्रवक्ता रहे कुछ नामी पत्रकार राजीव गांधी पर आए दिन हमला करते थे वो सब बातें, वो मौजमस्तियां, वो सैर सपाटे, वो उत्सवों के नाटक, भाजपा के शासन काल में राजीव गांधी के जमाने से कहीं ज्यादा बड़ी तादाद में हुए हैं, पर अब कोई विरोध नहीं करता। 

जहां तक आर्थिक मोर्चे पर सफलता और भारी विदेशी मुद्रा संग्रह के दावे किए जा रहा हैं। तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इसमें भाजपा की उपलब्धि कम और अमरीका व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का खेल ज्यादा है। वित्तीय जानकार बताते हैं कि जिस तरह इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और बैंकों ने भारत में आर्थिक सुदृढ़ता का माहौल दिखाने की कोशिश की है उसमें एक बहुत बड़ा खतरा अंतरनिहित हैं और वह ये कि इस सारे तंत्र का नियंत्रण अब भारत के हाथ से निकल कर उनके हाथ में चला गया है और वो जब चाहे भारत को झटका दे सकते हैं। आर्थिक रूप से ब्लैकमेल कर सकते हैं। पर यह भी सही है कि पिछले तीन वर्षों में भारत के बाजारों में रौनक लौट आई है। जिसका श्रेय वित्तमंत्री जसवंत सिंह और प्रधानमंत्री को देना होगा। कई बार केवल माहौल अच्छा बन जाने से उद्ययमियों में उत्साह आ जाता है और वे जोखिम उठाने को तैयार हो जाते हैं जो एक अच्छी बात है। शायद इसीलिए प्रवासी भारतीयों ने भी भारत सरकार को चेतावनी दी कि भारत के गांवों की अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ किए बिना भारत में फील गुडका कोई मतलब नहीं रह जाता। 

जहां तक पाकिस्तान के मोर्चे पर ऐतिहासिक सफलता का दावा किया जा रहा है वहां भी कोई ठोस उपलब्धि नहीं है। अपनी जान पर मंडराते खतरे को देखकर और अमरीकी दबाव के चलते अगर जनरल परवेज मुशर्रफ आज बदले-बदले से नजर आते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि भारत में आतंकवाद और कश्मीर समस्या का हल ढूंढ लिया। जिनके खून में जेहाद की घुट्टी पिला दी गई हो वो मुशर्रफ के नियंत्रण में आने वाले नहीं हैं। इसीलिए भाजपा इस तथाकथित कामयाबी का ढिंढोरा पीटकर इसे जल्दी भुना लेना चाहती है। कहीं ऐसा न हो कि आतंकवादी और पाकिस्तानी फिर कुछ ऐसा कर बैठे कि लाहौर और आगरा की तरह टाॅय-टाॅय फिस हो जाए। वैसे भाजपा का भी जवाब नहीं। एक चुनाव कारगिल में सैकड़ों नौजवानों को शहीद करके और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का माहौल बना कर जीत लिया तो दूसरा चुनाव पाकिस्तान से गले मिलने का नाटक करके जीतने की तैयारी है। पर इसमें भाजपा का क्या दोष ? जब विपक्ष बिखरा है, कोई साझी समझ नहीं है। निहित स्वार्थ और अहम ने विपक्ष को दर्जनों दलों में बांट दिया है। जनहित की चिंता किसी को नहीं है। तो फिर भाजपा फील गुडक्यों न माने। अपने विरोधियों की कमजोरी का फायदा उठाकर और अपनी कमजोरी को छिपा कर तथा उपलब्धियों को भुना कर ही तो लोकतंत्र में चुनाव जीते जाते हैं। कांग्रेस भी ऐसी करती आयी थी। दूसरे दल भी यही करते हैं और अब भाजपा ने भी वहीं सब सीख लिया और इसलिए सत्ता पर काबिज है और विपक्ष का यही आलम रहा तो शायद अगले पांच साल भी भाजपा-राजग सत्ता पर काबिज रहेंगे और फील गुडके मूड में रहेंगे। जनता गुड फीलकरे या बैड फीलकरे इसकी चिंता न तो भाजपा को है और नाही विपक्ष को।

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