Friday, March 28, 2003

बेकार का युद्ध


इराक पर जबरन थोपा गया युद्ध अमरीका द्वारा अपनी दादागीरी विश्व पर कायम रखने का ही एक प्रयास है। इराक पर हजारों बम गिराकर उसने जता दिया है कि वह जो चाहेगा, करेगा। चाहे विश्व समुदाय उसे सही माने या गलत, इससे उसे कोई मतलब नहीं। वैसे इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। सत्ता के मद में शासक ऐसा बार-बार करते आए हैं। मानवता का इतिहास जर, जोरू और जमीन के लिए हुई सैकड़ों लड़ाइयों की दास्तानों से भरा पड़ा है। सिंकदर-ए-आजम ने छोटी सी उम्र में दुनिया के एक बड़े हिस्से को रौंद डाला था। पर, भारत की सीमा तक पहंुचते-पहंुचते उसे बोध हुआ ऐसे युद्धों की निरर्थकता का। जब एक फकीर ने उससे प्रश्न किया कि तुम अपने वतन से इतनी दूर तक लड़ते हुए क्यों चले आए ? तो सिकंदर का जवाब था कि वो पूरी दुनिया पर नियंत्रण करना चाहता है। फकीर हंसा और सिकंदर से कहा  कि तुम दुनिया पर क्या नियंत्रण करोगे, तुम तो जिस चमड़े पर खड़े हो वो भी तुम्हारी सत्ता को नहीं मानता। तुम जिधर पैर रखते हो दब जाता है। पर जहां से तुम्हारा पैर उठता है वहां चमड़ा भी फिर उठ खड़ा होता है। सिंकदर ने अपने पैरों के नीचे दबे सूखे चमड़े को देखा और उसे बोध हुआ। वो बिना आगे बढ़े लौट गया। कहते हैं कि जब सिकंदर का अंत समय आया तो उसने इच्छा जाहिर की कि उसके जनाजे के साथ उसकी दौलत का भी जनाजा निकाला जाए ताकि दुनिया को पता चले कि पूरी दुनिया का बादशाह जब दुनिया से गया तो उसके दोनों हाथ खाली थे। सदियों से सुनी जा रही यह कहानियां बेमानी नहीं हैं। इनके पीछे इक संदेश छिपा है। राष्ट्रपति बुश जैसे हुक्मरानों के लिए। सत्ता के मद में इतना अहंकार मत करो कि दुनिया  तबाह हो जाए। एक बार मैंने अमरीका के शहर विस्कोन्सिन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान अमरीका के सबसे ज्यादा ताकतवर रक्षा सचिव रहे मैक नमारा से पूछा कि उन्होंने वियतनाम के विरुद्ध जो लंबी लड़ाई लड़ी उससे उन्हें क्या हासिल हुआ ? शायद श्री नमारा ऐसे सवाल पहले भी कई बार झेल चुके थे। उन्होंने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, कि वो हमारी एक बड़ी भूल थी। पर, कुछ इंसानों की भूल केवल उनकी निजी जिंदगी को प्रभावित करती है और जब सत्ताधीश ऐसी बड़ी भूल करते हैं तो लाखों-करोड़ों जिंदगियां तबाह हो जाती हैं। बच्चे अनाथ हो जाते हैं। महिलाएं विधवा हो जाती हैं। बूढ़े मां-बाप अपने बुढ़ापे की लाठी खो देते हैं। शहर के शहर खंडहरों में तब्दील हो जाते हैं। इन युद्धों से केवल नफरत पैदा होती है। जो इन अनाथ बच्चों को अपराधी बना देती है। वे हिंसक हो जाते हैं। दशाब्दियां लगती हैं इन जख्मों के भरने में। वियतनाम ने अमरीकी सैनिकों की स्थानीय महिलाओं के साथ की गई जबरदस्ती के परिणामस्वरूप पैदा हुई हजारों अवैध संतानें आज तक सामान्य जीवन नहीं जी पा रही हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु हमले के बाद जो मौत का तांडव हुआ उसने पूरी दुनिया का दिल दहला दिया था। वहां आज भी मांएं पूरी तरह स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं देतीं। मानवता के विरुद्ध ऐसा जघन्य अपराध करने के बाद अगर श्री मैक नमारा जैसे जिम्मेदार लोग केवल इतना ही कहते हैं कि वह हमारी बड़ी भूल थी, तो इससे अगर जख्म न भरें, पर कम से कम यह तो मानना चाहिए कि समझदार आदमी दुबारा ऐसी भूल नहीं करेगा। दुख की बात है कि अमरीका यूं तो अपने को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश बताता है और आम अमरीकी एक गर्व और अहंकार की भावना के साथ जीता है, पर अमरीकी राष्ट्रपति और सत्ताधारी वर्ग को इतनी भी सामान्य समझ नहीं कि अपने जिस कदम को वो पहले अपनी भूल मान चुके हों वैसे कदम फिर न उठाएं। 

पूरे भारत पर अपनी विजय पताका फहराने के बाद मौर्यवंशी सम्राट अशोक को कलिंग के युद्ध के बाद जो ग्लानि हुई, उसने उसे बौद्ध धर्म अपनाने को प्रेरित किया। देवानाम प्रियदस्सी अशोक ने उसके बाद बहुजन हिताय जीवन जिया। मानव ही नहीं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए शेष जीवन जुटा रहा। राजा होते हुए भी एक बौद्ध भिक्षुक जैसा जीवन अपना लिया। गलती करना इतनी बुरी बात नहीं, जितना गलती से सबक न लेना है। आज अमरीका ईराक में जो कुछ कर रहा है वह केवल उसके अहंकार का प्रदर्शन है। पूरी दुनिया इस वक्त अमरीका के इस अमानवीय कृत्य का विरोध कर रही है। दूसरे देशों के लोगों की उसे परवाह न भी हो तो भी ये कम महत्वपूर्ण नहीं कि बहुसंख्यक अमरीकी समाज जार्ज बुश के इस कृत्य से बेहद दुखी है। लाखों अमरीकी स्त्री-पुरुष-नौजवान अमरीका के हर शहर की सड़कों पर अपने ही राष्ट्रपति की ईराक नीति का विरोध कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले ही बुश का विरोध हो चुका है। बावजूद इसके अगर अमरीका ईराक में तबाही मचाने पर आमादा है और उसके लड़ाकू विमान ईराक के सामान्य नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि लोकतंत्र और मानवीय स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षक और दावेदार अमरीका इस किस्म का वहशियाना कृत्य करे और लोकतांत्रिक तरीके से उसके विरुद्ध  दुनिया भर में हो रहे जन प्रदर्शनों की उपेक्षा कर दे ? साफ जाहिर है कि समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र का अमरीका केवल ढकोसला करता है। उसका इन मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है। होता तो जन भावनाओं की ऐसी उपेक्षा करने का नैतिक बल उसमें न होता। 

इस युद्ध का प्रभाव केवल ईराक के लोगों पर ही पड़ेगा, ऐसी बात नहीं है। युद्ध के बादल दुनिया भर के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। पर्यावरणविद् अनेक आशंकाओं से भयभीत हैं। दुनिया भर के अखबार उनके वैज्ञानिक आंकलन से भरे पड़े हैं। इस युद्ध का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। खुद अमरीका की अर्थव्यवस्था भी काफी हद तक हिल जाएगी। इतनी भारी कीमत चुकाकर आखिर अमरीका को हासिल क्या होगा ? ईराक के तेल के कुओं पर नियंत्रण ही तो। एक धु्रवीय विश्व व्यवस्था कायम हो जाने के बाद अमरीका पहले से ही दुनिया का ठेकेदार बना हुआ है। किसी की मजाल नहीं जो उससे निगाह मिलाकर बात कर ले। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि खानपान और संस्कृति पर भी अब अमरीकी दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में दुनिया का आर्थिक दोहन करने की असीम संभावनाएं अमरीका के पास हैं। अगर एक सद्दाम कब्जे में नहीं आ रहा तो कौन सा आसमान फटा पड़ रहा है ? पर इन बातों से क्या फायदा ? जिसने अपने मन की ही करने की ठान ली हो उसे भगवान भी नहीं समझा सकता। यह बात दूसरी है कि 11 सितंबर के हमले के बाद से आम अमरीकी बेहद डरा हुआ है तथा भय और आतंक के बीच जी रहा है। ईराक पर हमला करके अमरीका ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। कहीं ऐसा न हो कि ईराक के बागी जवान दुनिया में जगह जगह अमरीका के लोगों को अपने आक्रोश का निशाना बनाएं। हो सकता है कि जार्ज बुश, सद्दाम को नेस्तनाबूद कर दें और यह भी हो सकता है कि वियतनाम की तरह अमरीका को इस युद्ध में भी मुंह की खानी पड़े। तब फिर सेवानिवृत्त जार्ज बुश भी मैक नमारा की तरह किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में किसी पत्रकार के प्रश्न पर यही कहेंगे कि ईराक का युद्ध मेरे जीवन की बहुत बड़ी भूल थी। उनकी इस भूल की भारी कीमत दुनिया को आज चुकानी पड़ रही है। कितनी अजीब बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ, सशक्त मीडिया और राष्ट्रों के अनेक संगठनों के बावजूद पूरी दुनिया आज कितनी असहाय है कि एक अडि़यल जार्ज बुश को सद्बुद्धि नहीं दे सकती। फिर इन संस्थाओं और संगठनों का क्या औचित्य ? क्यों इन पर गरीब देशों का अरबों रुपया खर्च किया जाता है ? अगर दुनिया की राजनीति में जिसकी लाठी उसकी भैंस ही चलनी है तो इस सब नाटक की क्या जरूरत ? विश्व समुदाय के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण सवाल है। फिर कोई अडि़यल राष्ट्रपति ऐसा न कर पाए इसलिए दुनिया भर के संवेदनशील लोगों को कोई रास्ता निकालना होगा।

No comments:

Post a Comment