Friday, November 22, 2002

अमर सिंह की बयानबाजी

समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता कहे जाने वाले श्री अमर सिंह बहुत नाराज हैं। पिछले दिनों उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के उप चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को लेकर कड़ी टिप्पणियां कीं। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा पर मिलीभगत का भी आरोप लगाया और कांग्रेस को गुजरात में सबक सिखाने का ऐलान किया। जाहिर है कि इंका ने इस उप चुनाव में वोट न डालकर सत्तारूढ़ संगठन बसपा और भाजपा के प्रत्याशी को जीतने का मौका दिया। यदि इंका सत्तारूढ़ संगठन के प्रत्याशी के विरुद्ध मतदान करती तो न सिर्फ विपक्ष का प्रत्याशी विजयी होता बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर भी संकट आ जाता क्योंकि इससे यह साफ सिद्ध हो जाता कि सरकार अल्पमत में है। पिछले दिनों जिस तरह के प्रयास सपा ने उत्तर प्रदेश की सरकार को गिराने के लिये किये उससे ऐसे संकेत दिये गये मानो सपा और इंका में निकटता बढ़ रही है। पर, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। लगता है इंका लोकसभा में 1999 में हुए अपने उस अपमान को भूली नहीं है जो उसे सपा के रुख के कारण झेलना पड़ा था। जब इसी तरह सपा ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर वाजपेई सरकार को बचा लिया। इस घटना के बाद अमर सिंह की निकटता प्रधानमंत्री कार्यालय से इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा तक के वरिष्ठ नेता यह कहते पाये जाते थे कि राजग की सरकार में श्री अमर सिंह के काम फौरन हो जाते हैं जबकि भाजपा के वरिष्ठ नेता भी महीनों धक्के खाते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि वही अमर सिंह अब भाजपा और इंका पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। सब समय की बात है। कभी नाव पानी में और कभी पानी नाव में।

पिछले विधानसभाई चुनाव में सपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। जानकार बताते हैं कि इस चुनाव में सपा को अपनी जीत का काफी भरोसा था। सपा के निकट के लोग कहते हैं कि शायद यही वजह थी जो श्री अमर सिंह ने मुम्बई के एक मशहूर औद्योगिक घराने से इस चुनाव में अच्छी खासी मदद जुटा ली। पर अपेक्षित कामयाबी फिर भी नहीं मिली और तब श्री अमर सिंह और श्री मुलायम सिंह यादव की समझ में आया कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिये उन्हें इंका की मदद लेनी ही पड़ेगी। तब से ही अपनी गलती पर प्रायश्चित करते हुए दोनों ने श्रीमती सोनिया गांधी से सम्पर्क जोड़ने की भरसक कोशिश की और हर तरह की मध्यस्थता भी करवाई। बावजूद इसके इंका ने सपा को कोई ज्यादा घास नहीं डाली। ना भी नहीं किया और हां भी नहीं की। पशोपेश में रखा। पिछले दिनों जब श्री अमर सिंह ने लखनऊ में यह घोषणा की कि वे चैबीस घंटे में सरकार गिरा देंगे तो उन्हें विश्वास था कि इंका उनका साथ देगी। पर इंका ने सपा को फिर रास्ता दिखा दिया। यह कहकर कि पहले अंकगणित ठीक करो।

दरअसल इंका पूरे आत्मविश्वास में है। वह मानती है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे जनता का व्यापक समर्थन मिलेगा। इसलिये वह राजग सरकार को कहीं भी अस्थिर करके अपने सिर पाप नहीं लेना चाहती। वह मानती है कि सरकार की नीतियों से जनता खुश नहीं है और इसलिये उसे इंका की झोली में आना पड़ेगा। केन्द्र में सरकार बनाने के लिये उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में मजबूत हुए बिना ऐसा संभव नहीं होगा। जब तक सपा उत्तर प्रदेश में मजबूत रहेगी तब तक इंका का वोट बैंक उसे वापस नहीं मिलेगा। इसलिये उसकी नीति उत्तर प्रदेश में सपा को मदद न करने की ही रही है। इंका चाहती है कि सपा अपने विरोधाभासों के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद ही हाशिये पर चली जाए ताकि इंका का जनाधार बढ़ सके। ऐसे में लगता नहीं है कि किसी भी कीमत पर इंका सपा के साथ खड़ी होना पसंद करेगी। जहां तक श्री अमर सिंह का यह दावा है कि सपा इंका को गुजरात में चुनौती देगी तो इस धमकी में कोई खास दम नजर नहीं आता। गुजरात में सपा का आधार नगण्य है। पिछले दिनों सपा ने गुजरात में एक ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जिसका लगातार चार चुनाव जीतने का रिकार्ड था। जसपाल सिंह जो बड़ौदा के पुलिस कमिश्नर भी रह चुके थे, वे भाजपा के मंत्रिमंडल में मंत्री थे। अमर सिंह ने उन्हें बड़े मान सम्मान के साथ सपा में शामिल करवाया और गुजरात में चुनाव लड़वाया। पर सपा का बिल्ला लगते ही जसपाल सिंह की ऐसी दुर्गति हुई कि जमानत तक जब्त हो गयी।

अगर श्री अमर सिंह इंका पर भाजपा से मिलीभगत की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं तो इससे बड़ा मजाक कोई नहीं हो सकता। इस समय देश में भाजपा को अगर किसी से चुनौती है तो वह सिर्फ इंका से है और उसकी भावी चुनावी रणनीति इंका और सोनिया गांधी को केन्द्र में रखकर बन रही है। इन दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के निकट आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

श्री अमर सिंह ने इंका पर छद्म धर्मनिरपेक्षता का आरोप भी लगाया है। यूं राजनीति में एक दूसरे पर आरोप लगाना सामान्य बात है पर यह भी सच है कि कोई भी दल किसी विचारधारा पर ईमानदारी से नहीं चलता। इंका धर्मनिरपेक्ष है या छद्म धर्मनिरपेक्ष यह तो सारा देश जानता है। पर सपा का जो चरित्र परिवर्तन हुआ है उसे लेकर देश के प्रमुख समाजवादियों को तो तकलीफ है ही खुद सपा के तमाम छोटे नेता और कार्यकर्ता भी खुश नहीं हैं। चूंकि अब किसी भी दल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन तो होता नहीं इसलिये कार्यकर्ताओं को अपनी बात शिखर तक पहंुचाने में बहुत तकलीफ होती है। अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर पार्टी से निकाले जाने का भय हमेशा बना रहता है। यही बात सपा पर भी लागू होती है। पर निजी चर्चाओं में ऐसे तमाम सपाई मिलेंगे जो मानते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा ने अपनी पहचान खो दी है। अब वह औद्योगिक घरानों का एक मुखौटा बनकर रह गयी है। जिन श्री राम मनोहर लोहिया के विचारों पर चलने का सपा दावा करती आई थी उनके विचार और सपा के कृत्यों में अब उत्तर दक्षिण का रिश्ता बन चुका है। सपा के तमाम नेता इस बात को स्वीकार करते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा में धन और साधनों की आमद तो बढ़ी है पर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की हैसियत दरबारी कारिन्दों से ज्यादा नहीं बची। यहां तक कि श्री मुलायम सिंह यादव तक का व्यक्तित्व श्री अमर सिंह की मौजूदगी में बौना होता जा रहा है। यह छोटे नेता और कार्यकर्ता इस परिवर्तन को देखकर परेशान भी हैं और हैरान भी। परेशान इसलिये कि उनकी कोई सुनता नहीं और हैरान इसलिये कि श्री मुलायम सिंह यादव जैसा जमीन से उठा नेता कैसे अपने व्यक्तित्व पर इस तरह दूसरे को हावी होने दे रहा है। आखिर वजह क्या है ? इसमें शक नहीं कि श्री अमर सिंह सही मौके पर सही सम्पर्क साधने में कुशल हैं। दोस्तों के दोस्त हैं। जिसकी चाहते हैं जमकर मदद करते हैं। खासकर बड़े औद्योगिक घरानों की। पर उनके जीवन और व्यवहार में समाजवादी विचारधारा का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। ऐसे में श्री अमर सिंह का यह कहना कि इंका छद्म धर्मनिरपेक्षता कर रही है, कोई खास मायने नहीं रखता। पर जैसा सभी जानते हैं कि राजनीति में जो बयानबाजी की जाती है उसके पीछे प्रायः कोई गंभीरता नहीं होती। सपा वही करेगी जो उसके हित में हो। चाहे जनता का हित उसमें निहित हो या न हो। इंका भी वही करेगी जो उसके हित में होगा। इसलिये उत्तर प्रदेश में बार बार अपने सपने टूटते देख सपा की निराशा स्वाभाविक है। पर इससे इंका अपनी रणनीति बदलने नहीं जा रही। सपा इंका को गुजरात में कितनी चोट दे पाएगी यह तो विधानसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा। पर यह स्पष्ट है कि राजग के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता के परचम तले एक होने की जो मुहिम बार बार छेड़ी जाती है वह परवान नहीं चढ़ पा रही। हर दल की अपनी क्षेत्रीय सीमायें और अपनी प्राथमिकतायें उसे दूसरे दलों के पास आने से रोकती हैं। अगर धर्म निरपेक्षता की ही बात होती तो फिर तेलगूदेशम, डीएमके व समता जैसे दल भाजपा के साथ न होकर इंका, साम्यवादियों व सपा जैसे दलों के साथ खड़े होते। पर सुविधा की राजनीति में विचारधारा तो मात्र एक हथियार है सत्ता हथियाने का। इसलिये श्री अमर सिंह इंका की ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’’ से परेशान न हों और जो कुछ अपने दल को मजबूत बनाने के लिये करना है, करते जायें। कहते हैं समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता।

सपा के नेता श्री मुलायम सिंह यादव गुणी व्यक्ति हैं। बहुत छोटे स्तर से शुरू करके राष्ट्रीय स्तर तक अपने बलबूते पर पहंुचे हैं। अपने ही पुरुषार्थ से मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं। उन्हें अपनी शक्ति, साधन और अनुभव का प्रयोग देहात के लोगों की समस्याओं को हल करने में लगाना चाहिये। इससे उनका जनाधार भी बढ़ेगा और उनकी जमीन से जुड़े होने की छवि भी फिर से उभर कर सामने आएगी। जिस पर फिलहाल कुछ बादल छाये हैं। राजनैतिक दल चलाने के लिये हर किस्म के गुण वाले लोगों की जरूरत पड़ती है। पर वे अकबर के दरबार में नवरत्न की तरह होते हैं। आज सपा का नाम सामने आते ही श्री मुलायम सिंह यादव का नहीं श्री अमर सिंह का चेहरा सामने आता है। इसमें कोई बुराई नहीं बशर्ते कि श्री मुलायम सिंह यादव श्री अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाकर वानप्रस्थ आश्रम की सोच रहे हों तो। पर यदि उन्हें सक्रिय राजनीति में रहना है तो अपनी इस छवि से उबरना होगा। श्री अमर सिंह बहुत विश्वसनीय सहयोगी हैं। इसलिये उन पर श्री यादव की निर्भरता तो बनी ही रहेगी पर एक सहयोगी से अत्यधिक निकटता कहीं बाकी सहयोगियों का मन न तोड़ दे इसकी चिंता भी उन्हें करनी होगी। चाटुकारिता के दौर में ऐसी खरी बातें सुनना लोग पसंद नहीं करते। पर नीति कहती है कि ‘‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय’’। बुद्धिमान लोग स्वस्थ आलोचना का स्वागत करते हैं। फिर वह चाहे श्री मुलायम सिंह यादव हों या श्री अमर सिंह। आखिर दोनों ही देश के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी कार्यशैली पर जनता और मीडिया को अपनी बात कहने का हक है। सुनना या न सुनना ये उनकी मर्जी।

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