Sunday, January 4, 2009

नये साल में हो नैतिकता की बात

Rajasthan Patrika 04-01-2009
जब देश में चारों ओर प्रशासनिक ढाँचें में तेजी से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा हो तो सकारात्मक सोच की मशाल जलाना असम्भव लगता है। पर संतोष की बात यह है कि आज इस माहौल में भी ऐसे तमाम लोग देश में हैं जो सरकार और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए लगातार तत्पर हैं। नये वर्ष में नकारात्मक जीवन मूल्यों पर टिप्पणियों की बजाय बेहतर होगा कि ऐसी सकारात्मक सोच पर एक नजर डाली जाए। 

पहला उदाहरण उत्तर प्रदेश का है। जहाँ शासन में बैठे लोगों में सकारात्मक सोच और नैतिक मूल्यों की स्थापना के उद्देश्य से गत 18 वर्षों से कबीर शांति मिशनचलाने वाले व्यक्ति कोई संत या समाज सुधारक नही हैं। बल्कि उत्तर प्रदेश काॅडर के ही एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी श्री राकेश मित्तल हैं। श्री मित्तल से मिलने वाला आम आदमी ही नहीं आई.ए.एस. अधिकारी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। पिछले दिनों एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी श्री राजन शुक्ला के कक्ष में जिस तरह का स्वागत हुआ, वैसा आज के माहौल में कल्पना करना असम्भव है। श्री शुक्ला ने पहली ही मुलाकात में तत्परता से स्वागत किया और अपना जरूरी काम छोड़कर ब्रज की धरोहरों की रक्षा के संदर्भ में हमारी बात ध्यान से सुनी और उस पर फौरन कार्यवाही करी। जब हम उठने को हुए तो शुक्ला लौंग इलायची का डिब्बा खोलकर खड़े हो गए। इस अप्रत्याशित व्यवहार का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि वे कबीर शांति मिशन के सदस्य हैं। जिसके संस्थापक श्री मित्तल से वे बेहद प्रभावित हैं। उत्तर प्रदेश शासन में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। श्री मित्तल सेवा, सादगी, विनम्रता, सद्भावना और कर्तव्यपरायणता का पर्याय हैं। उनका निजी जीवन जितना दुःखद है, उतना ही सुख उन्होंने जीवनभर दूसरों को बाँटा है। उनके दो जवान खूबसूरत, पढ़े-लिखे बेटे एक ऐसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हैं कि उनकी शौच आदि जैसी प्रतिदिन की नितांत निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उन्हें अपने माता-पिता की मदद लेनी पड़ती है क्योंकि उनके अंग उनका साथ नहीं देते। आई.आई.टी. रूढकी के टाॅपर रहे श्री मित्तल ने इस चुनौती को भी सेवा का अवसर मानकर जीया है। वे किसी भी नकारात्मक विचार को अपने पास फटकने नहीं देते। परनिन्दा में उनकी रूचि नहीं है। वे कहते हैं कि अपना व्यक्तित्व इतना ऊँचा बनाओ कि दूसरे को छोटा कहने की आवश्यकता ही न पड़े। 
ऐसा ही एक उदाहरण दक्षिण भारत में केरल का भी है। वायुसेना में पायलट रहे श्री सच्चिदांनंद एक दुर्घटना के बाद ऐसे जगे कि जीवन की धारा ही बदल गयी। धर्म भारती मिशननाम की संस्था के माध्यम से वे देश और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए जुटे हैं। अपने इस मिशन को वे आजादी की दूसरी लड़ाई बताते हैं। उनके प्रयास से केरल के एक महत्वपूर्ण तबके में भारी बदलाव आया है। 
उधर पश्चिमी भारत में अन्ना हजारे की पीढ़ी से बहुत बाद के एक युवा अविनाश धर्माधिकारी आई.ए.एस. की नौकरी भरी जवानी में छोड़कर युवा पीढ़ी के निर्माण में जुटे हैं। अविनाश एक प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक के पुत्र हैं। जिन्होंने आर्थिक अभाव और नैतिक सम्पन्नता बचपन से भोगी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के निजी सचिव पद पर रहते हुए अविनाश को लगा कि जितना आकर्षण इस नौकरी का है, वैसा इसमें कुछ भी नहीं। तुम गुलाम की जिन्दगी जीते हो और चाहकर भी कुछ बहुत ज्यादा समाज के लिए नहीं कर पाते। नौकरी छोड़ दी और अपने गृहनगर पुणे में युवाओं को पढ़ाने के लिए चाणक्य एकेडमी की स्थापना की। इसके माध्यम से अविनाश युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं। पर साथ ही साथ उन्हें नैतिक और सनातन मूल्यों के संस्कार भी देते हैं। चाणक्य एकेडमी की शाखाएँ अब पूरे महाराष्ट्र में फैल चुकी हैं।
देश की राजधानी दिल्ली भी ऐसे प्रयासों से अछूती नहीं। दिल्ली की मैट्रो रेल को ऐतिहासिक सफलता बनाने वाले श्री ई. श्रीधरन अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर देश में राष्ट्रीय मूल्यों की स्थापना का प्रयास कर रहे है। उनकी संस्था फाउण्डेशन फाॅर रेस्टोरेशन आॅफ नेशनल वैल्यूजइस काम में जुटी है।

राजस्थान के तिलोनिया क्षेत्र में काम करके मजदूरों को उनका हक दिलाने वाली और सूचना के अधिकार की लड़ाई को निर्णायक दौर तक ले जाने वाली अरूणा राय को अब पूरा देश जानता है। अरूणा ने भी युवावस्था में आई.ए.एस. की नौकरी को तिलांजली देकर सच्ची जनसेवा का संकल्प लिया और उसे आज तक निभा रही है।

आज मन्दी का दौर है। कुछ महीनों पहले तक उपभोक्तावाद की आँधी बह रही थी। दोनों ही माहौल में देश का युवा दिग्भ्रमित है। न तो उसे परिवार में और न ही समाज या शिक्षा संस्थानों में नैतिक मूल्यों की खुराक मिल रही है। भटकाव, हवस, असीमित इच्छाएँ, बिना करे मोटा धन कमाने की लालसा उसमें हताशा और हिंसा पैदा कर रही है। चिन्ता की बात तो ये है कि एन.सी.ई.आर.टी. हो या मानव संसाधन मंत्रालय, राज्यों के शिक्षा विभाग हों या शिक्षा संस्थान चलाने वाले इस गम्भीर समस्या के प्रति उतने सचेत नहीं हैं जितना उन्हें होना चाहिए। पिछली पीढ़ी ने तो झेल लिया, क्योंकि तब लोगों की जरूरतें कम थीं। पर अबकी पीढ़ी झेल नहीं पायेगी। समाज में अशांति बढ़ेगी। इसलिए देश में विशेषकर युवाओं में नैतिक मूल्यों के प्रति आदर और उनकी पुर्नस्थापना की भारी जरूरत है। श्री राकेश मित्तल जैसे लोग इस समस्या का हल दे सकते हैं। आवश्यकता है उनके जीवन पर फिल्में बनाकर देश के विद्यालयों में दिखायी जाऐं। ऐसे सभी स्वंयसिद्ध लोगों को एक मंच पर लाया जाए। उनसे देश की शिक्षा और समाज के लिए कुछ नीति और कुछ कार्यक्रम बनाने को कहा जाए। फिर उन कार्यक्रमों को लागू करने में ऐसे लोगों की ही मदद ली जाए। अगर ऐसा होता है तो पतन को काफी हद तक रोकने में मदद मिलेगी। वरना तो देश राम भरोसे चल ही रहा है।

Sunday, November 9, 2008

आम आदमी के हवाले कानून

Rajasthan Patrika 9-11-2008
भिवानी (हरियाणा) के बी.ए. के छात्र कुलदीप को पुलिस वालों ने अकारण बदमाश समझकर जान से मार डाला। इससे भिवानी में लोग बेकाबू हो गये, पुलिस वालों की जमकर धुनाई की। सरकारी सम्पत्ति को आग लगायी और शहर बन्द हो गया। हत्या के आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस दर्ज हो गया। दिल्ली पुलिस से सेवानिवृत्त हुए संयुक्त पुलिस आयुक्त मैक्सवैल परेरा ने अपनी हाल में प्रकाशित हुई पुस्तक ‘द अदर साईड आॅफ पुलिसिंग’ में लिखा है कि लोग पुलिस को भ्रष्ट, निकम्मी, असंवेदनशील और अराजक समझते हैं। वे नहीं जानते कि वर्दी के पीछे छिपे इन्सान की क्या मजबूरी है? क्या सभी भ्रष्ट हैं? क्या सभी पुलिस वाले झूठी मुठभेड़ दिखाकर बेकसूर लोगों को मारते हैं? क्या सभी पुलिस अधिकारी निकम्मे हैं? वे कहते हैं कि हर महकमे की तरह पुलिस में भी हर तरह के लोग हैं, पर अपने काम को मुस्तैदी से अंजाम देने वालों की तरफ जनता का ध्यान नहीं जाता। वे स्वीकार करते हैं कि पुलिस का भारी पतन हुआ है पर इस पतन के लिए जिम्मेदार न सिर्फ राजनेता हैं, बल्कि आम जनता भी जिसने इस पतन को होने दिया और उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की।

VARTA 14-11-2008
इसी बात को हाल ही में जारी हुयी एक फिल्म ‘ए वैडनसडे’ में बहुत ही सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म का नायक नसरूद्दीन शाह मुम्बई का एक आम नागरिक है। वो इस बात से हैरान हैं कि आतंकवादियों के चलते वो सामान्य जिन्दगी नहीं जी पा रहा। उसकी बीबी को हर वक्त डर लगा रहता है। वो घड़ी-घड़ी फोन करके उसकी खैर-खबर लेती है। ये आम आदमी इस बात से परेशान है कि आतंकवादियों के चलते मुसलमान दाढ़ी बढ़ाकर और हाथ में तसबी लेकर चलने में डरते हैं कि कहीं उन्हें आतंकवादी न समझ लिया जाए। इस आम आदमी को पुलिस से सख्त नाराजगी है। जो आतंकवादियों से निपटने में नाकाम है। ये आम आदमी बहुत समझदारी से एक ऐसा तानाबाना बुनता है कि पुलिस की कैद में बन्द चार खूँखार और मशहूर आतंकवादियों को पुलिस के हाथों ही बड़ी सूझबूझ से मरवा देता है। फिर मुम्बई के पुलिस आयुक्त को एक लम्बा-चैड़ा भाषण पिलाता है। इससे ज्यादा बताने से फिल्म का मजा चला जाएगा। पर ये फिल्म हर उस इन्सान को जरूर देखनी चाहिए जो आतंकवाद से परेशान है। फिल्म का पैगाम साफ है कि अगर पुलिस, कानून और हुक्मरान हमारी मुश्किलें कम नहीं कर सकते तो आम आदमी को मजबूर होकर कानून अपने हाथ में लेना होगा।

दरअसल अगर गइराई से देखा जाए तो नक्सलवाद का जन्म पुलिस और सरकार के ऐसे ही नकारात्मक रवैये के कारण हुआ था। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में नक्सलवादियों की समस्या से जूझ रहे एक संयुक्त सचिव ने मुझे बताया कि जब वे आन्ध्र प्रदेश मंे जिलाधिकारी थे तो उन्हें एक दिन नक्सलवादियों ने जंगल में पकड़ लिया। एक
पेड़ से बांध दिया। फिर एक फूलनदेवीनुमा लड़की बन्दूक तानकर उन्हें मारने आयी। चंूकि वे तेलगू भाषी थे और नक्सलवादियों के प्रति संवेदनशील थे इसलिए उन्होंने बातों में उलझाकर धीरे-धीरे उन लोगों का दिल जीत लिया। इस लड़की की कहानी रोंगटे खड़े करने वाली थी। बूढ़े माँ-बाप की जवान लड़की गाँव में अपने ही घर में स्थानीय नेता के लड़के और उसके दोस्तों की हवस का शिकार हो गयी। उसी वक्त उसका जवान भाई खेत से लौट आया। जिसे उन बदमाशों ने वहीं ढेर कर दिया। बेचारी लुटी-पिटी बदहाल थाने पहुँची तो थाने वालों ने कई दिन तक उसके साथ बलात्कार किया। किसी तरह भाग छूटी और नक्सलवादियों से जा मिली। अब पुलिस, नेता और प्रशासनिक अधिकारियों को देखते ही उसकी आँखों में खून उतर आता है। बड़ी बेदर्दी से मारती है उन्हें।

ऐसी घटनाएंे हमारे अखबारों और टीवी चैनलों पर रोज दिखाई जाती हैं। हम चटखारे लेकर उन्हें पढ़ते हैं या उपेक्षा से पन्ना पलट देते हैं। पर कुछ करने को पे्रेरित नहीं होते। नतीजतन हालात रोजाना बद से बदतर होते जा रहे हैं। एक तरफ तो हम इस बात पर फक्र करते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। दूसरी तरफ हम आज भी राजतंत्र पसन्द करते हैं। कोई काबिल प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, जिलाधिकारी या पुलिस कप्तान तैनात हो जाए और हमारे सब दुख दर्द दूर कर दे। ‘‘उमरे दराज माँगकर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गए दो इन्तजार में।’’ इसी उम्मीद में बैठे रहते हैं कि दूसरा हमारे हालात सुधार देगा। सिविल सोसाइटी का ये मतलब नहीं होता। अब वक्त आ गया है कि हम जिस भी पेशे में हों, अपने गाँव, मुहल्ले और शहर के बन्दोबस्त में कुछ वक्त निकालें। प्रशासनिक व्यवस्था पर दबाब बनायें। जाति, धर्म और क्षेत्र के संकुचित दायरों से निकलकर उन मुद्दों पर अपनी आवाज बुलन्द करें जिनका हमारी जिन्दगी से सरोकार है। केवल प्रदर्शन करने और बयान जारी करने से हल नहीं निकला करते। समस्या है तो समाधान भी होगा। हम संगठित हों और समस्याओं को रेखांकित करें फिर उनका समाधान लेकर प्रशासन पर जाऐं। उस पर लगातार दबाब बनायें। तब कहीं जाकर हालात बदलने शुरू होंगे।

यह कोरी कल्पना नहीं है। पुणे, सूरत, दिल्ली, हैदराबाद जैसे कई शहरों में नागरिकों ने जबसे जनहित के मु्द्दों पर संगठित होकर आवाज उठानी शुरू की है और सरकार के साथ समाधान ढूंढने में सहयोग करना शुरू किया है, हालात बदलने लगे हैं।पान की दुकानों, चाय के ढाबों, काॅलेज और दफ्तर की कैंटीनों और मौहल्ले के चैराहों पर जितना वक्त हम फालतू गप्प करने मं े जाया करते हैं, उतने वक्त में इलाके का थाना, बिजली-पानी दफ्तर और नगर पालिका के सफाई कर्मी, सब दुरूस्त हो सकते हैं। अगर हम चाहते हैं कि कुलदीप की तरह किसी और के कुल का दीपक नाहक पुलिस के हाथ मारा न जाए। अगर हम चाहते हैं कि आतंकवादी सड़क पर आने की हिम्मत न जुटा सकें। अगर हम चाहते हैं कि हमारी सड़कें और गलियाँ हमेशा साफ और रोशन रहें। अगर हम चाहते हैं कि हमारे कर के पैसे सरकारी मुलाजिम अपनी जेबों में न ठूंसें तो हमें खबरदार रहना होगा। लोकतंत्र में तंत्र लोक के हाथ में होना चाहिए। हुक्मरानों को अपनी जिन्दगी की जिम्मेदारी सौंपकर न तो हम निश्चिन्त हो सकते हैं और न ही सुकून से जी सकते हैं। फैसला हमें ही करना है।

Sunday, November 2, 2008

राज ठाकरे जवाब दो

Rajasthan patrika 2-11-2008
बिहार के लोग मुम्बई में छठ का पर्व नहीं मना सकते। ये कहना था राज ठाकरे का। उनका मानना है कि हर त्यौहार उसी प्रान्त में मनाया जाना चाहिए जहाँ का वो है। जब उनसे एक पत्रकार सम्मेलन में पूछा गया कि गणेश चतुर्थी तो सारा देश मनाता है तो क्या बाकी देश को यह त्यौहार नहीं मनाना चाहिए? वे हँस कर टाल गए। राज ठाकरे को यह लाइन भारी पड़ेगी। अगर मराठी मानस व मराठी संस्कृति पर उनका इतना ही आग्रह है तो सबसे पहले उन्हें अपनी पेंट और कमीज उतार देनी चाहिए और धारण करनी चाहिए मराठी धोती, कुर्ता और पगड़ी। दूसरा उनको अपनी पत्नी श्रीमती शर्मिला ठाकरे को भी समझाना चाहिए कि वे सलवार कुर्ता पहनकर मुम्बई में न डोलें। क्योंकि ये तो पंजाब की भेषभूषा है। उन्हें तो मराठी लांगदार साड़ी पहनकर ही बाहर निकलना चाहिए। सारे देश ने टीवी पर देखा कि जब राज ठाकरे एक रात के लिए गिरफ्तार हुए तो उनकी पत्नी सलवार कमीज में उनसे मिलने पहुँचीं।

राज ठाकरे को देश को यह भी बताना चाहिए कि क्या उनके बच्चे बचपन से आज तक मराठी भाषी स्कूल में पड़े हैं या किसी दूसरी संस्कृति में पले बढ़े हैं? राज ठाकरे को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि अपने चाचा से मौहब्बत के दिनों में उन्होंने जो विश्वविख्यात पाॅप गायक माइकल जैक्सन का शो मुम्बई में करवाया था, क्या वो मराठी संस्कृति का ही हिस्सा था?

राज ठाकरे को ईमानदारी से यह भी बताना पड़ेगा कि वे सुबह नाश्ते से रात के खाने तक कहीं गैर मराठी भोजन तो नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें दक्षिण भारत का इडली दोसा, लखनऊ का बटर चिकन, कश्मीर का रूमाली कबाब, हैदराबाद की बिरयानी, कलकत्ता का रोसोगुल्ला और पंजाब का आलू परांठा बेहद पसंद हो? अगर ऐसा है तो उन्हें यह सब त्यागने का व्रत लेना पड़ेगा और इस बात की सरेआम माफी मांगनी पड़ेगी कि आज तक वे दूसरे राज्यों के व्यंजन क्यों खाते रहे हैं। उन्हें संकल्प लेना पड़ेगा कि वे और उनका परिवार अब शेष जीवन केवल श्रीखण्ड और पूरनपूरी जैसे मराठी व्यजंन खाकर ही रहेंगे। देश नहीं विदेश के भी किसी व्यंजन को कभी नहीं चखेंगे। क्योंकि ऐसा करने से उनका मराठी मानस खतरे में पड़ जायेगा।

राज ठाकरे को अपने स्कूल और यूनिवर्सिटी के सर्टिफिकेट भी खंगाल कर देखने होंगे। कहीं ऐसा न हो कि ये प्रमाण पत्र औपनिवेशिक भाषा अंगे्रजी में लिखे हों? मराठी मानस के स्वाभिमान के लिए तो यह बहुत ही शर्मनाक बात होगी। उन्हें अपने ऐसे सभी प्रमाण पत्र फाड़कर रद्दी में फेंक देने चाहिए या फिर एक जनसभा में खेद प्रकट करना चाहिए कि वे ऐसे संस्थानों में पढ़े जहाँ उन्हें मराठी संस्कृति की उपेक्षा करनी पड़ी।

आज राज ठाकरे छठ मनाने को मना कर रहे हैं। कल बोलेंगे कि गोविन्दा आला रे भी मुम्बई में नहीं मनाया जायेगा क्योंकि भगवान कृष्ण का जन्म तो उत्तर प्रदेश में हुआ और राजपाट गुजरात में। फिर उनका जन्मदिन में मुम्बई में क्यों मनाया जाए? इतना ही नहीं उन्हें लता मंगेशकर, आशा भोंसले जैसे गायक कलाकारों के उन सब गानों को प्रतिबन्धित करना होगा जो उन्होंने गैर मराठी भाषा में गाए और विश्वभर में ख्याति अर्जित की। राज ठाकरे को फिर तो यह भी अपील करनी होगी कि गैर मराठी राज्यों में महान राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के विषय में विद्यालयों में कुछ न पढ़ाया जाये। उनकी मूर्तियाँ इन राज्यों से हटा दी जाऐं। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।

राज ठाकरे का यह सरासर अहमकपन है। ऐसा विष बोकर वे भारतीय समाज में नाहक वैमनस्य और तनाव पैदा कर रहे हैं। एक ऐसा तनाव जो आने वाले समय में भारत को बहुत कमजोर कर देगा। फिर मराठा स्वाभिमान भी अछूता नहीं रहेगा। दरअसल अपने दिल में राज ठाकरे भी जानते हैं कि जो वो कर रहे हैं वह सही नहीं है। केवल मराठी संस्कृति के शिकंजे में कसे रहकर ठाकरे परिवार भी साँस नहीं ले सकता। सांस्कृतिक विविधता जीवन को रसमय बनाती है। भारत विविधता का देश रहा है। यहाँ अनेक संस्कृतियाँ आकर एक हो गईं। आज भारत के हर कोने में शेष भारत का प्रतिनिधित्व इतनी प्रमुखता से दिखाई देता है कि लगता ही नहीं हम दूसरे क्षेत्र में हैं। उदाहरण के तौर पर दक्षिण भारत के लोग शेष भारत में अपना खाना खा सकते हैं। इसी तरह पंजाब का परांठा भारत के हर शहर व कस्बे में मिलता है। स्थानीय पहचान के साथ शेष भारत से जुड़कर हम सांस्कृतिक रूप से और भी समृद्ध होते हैं। इस तरह के अहमकपन से राजनेता अपना भविष्य तो बना सकते हैं पर करोड़ों का वर्तमान बिगाड़ देते हैं। राज ठाकरे  भी कुछ ऐसा ही खतरनाक खेल खेल रहे हैं। पर इस खेल में वे अकेले नहीं हैं। हर क्षेत्रीय नेता आगे बढ़ने के लिए ऐसे शगूफे छोड़ता रहा है। मंजिल हासिल होने के बाद न तो ये धार बचती है और न ही ये आग। सब पहले जैसा हो जाता है। पर ये चुनावी दौर है। वोटों के धु्रवीकरण के लिए राज ठाकरे को इस

बेहतर हथियार मिल नहीं सकता। इसलिए कोई लाख समझाये या निन्दा करे, वे अगले चुनाव तक तो मानने वाले नहीं। कानून ऐसे लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं पाता, ये वे अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए जेल जाने से नहीं डरते। वे तो चाहते हैं कि सरकार उन्हें जेल भेजे और वे जिन्दा शहीद बनकर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकें। ऐसे में महाराष्ट्र की जनता को ही समझदारी दिखानी होगी और राज ठाकरे को ये बताना होगा कि अगर वे वास्तव में मराठी मानस का भला चाहते हैं तो उसकी जिन्दगी में बुनियादी बदलाव लाने के तरीके सुझाऐं, उनकी और बाकी प्रान्तों में रह रहे मराठी मानसों की जिन्दगी खतरे में न डालें। आजादी की लड़ाई में और समाज परिवर्तन के आन्दोलनों में महाराष्ट्र की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका रही है। उस महान विरासत को भूलकर रातों-रात पूरा मराठी समाज राज ठाकरे की तरह अहमक और वहशियाना नहीं हो सकता। इसलिए ये पागलपन जल्द ही खत्म हो जायेगा।


Sunday, October 26, 2008

बाराक हुसैन ओबामा और भारत


Rajasthan Patrika 26-10-2008
2008 के अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी से नामांकन के लिए सफल हुए प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा चुनाव जीतंेगे या नहीं ये तो कुछ ही दिनों में साफ हो ही जायेगा। पर इसमें शक नहीं कि ओबामा ने अपनी ताकतवर शख्सयित के बल पर अमरीका में रह रहे एशियाई मूल के निवासियों और अश्वेतों का ही नहीं, गोरों का भी दिल जीत लिया है।

ईराक युद्ध के शुरू से कटु आलोचक रहे ओबामा की बातों में गोरों को दम नजर आता है। गोरों का दिल जीतने का उनका अपना अंदाज है। यह कहते हैं, ‘‘मैं इन लोगों को जानता हूँ। ये मेरे दादा-दादी, नाना-नानी के समान हैं... इनका आचरण, इनकी संवेदनशीलता, इनका सही या गलत मानने का अधिकार - मैं इन सबसे परिचित हूँ।’’ दरअसल अफ्रीकी मूल के पिता और अमरीकी मूल की श्वेत माँ से जन्मे ओबामा की परवरिश उनके गोरे नाना-नानी ने की है। इसलिए वे इन दोनों ही समाजों की संवेदनशीलता से भली-भाँति परिचित हैं। राजनैतिक हथकण्डा कहा जाए या एक उदार हृदय और खुले दिमाग का प्रमाण, ओबामा, मुसलमान पिता के इसाई बेटे हैं और अपने गले की जंजीर में हनुमान जी की मूर्ति अपनी रक्षा के लिए सदा साथ रखते हैं। आज की बदलती दुनिया में जब शहरी युवा पीढ़ी इण्टरनेट के जरिए, देश, धर्म, व जाति की सीमाओं को तोड़कर तेजी से अंतर्राष्ट्रीय वैवाहिक बंधनों में बंध रही है। दुनिया के हर कोने में नौकरी लेने में उसे गुरेज नहीं है और वो खुले दिल से दूसरों की तहजीब और जीवन मूल्यों को समझना चाहती है। ऐसे में अमरीकी इतिहास में राष्ट्रपति पद के पाँचवे सबसे युवा उम्मीदवार, ओबामा में इस पीढ़ी को अपना नेता नजर आता है।

यूँ तो उनके प्रतिद्वन्दी जाॅन मैक्केन और खुद ओबामा दोनों ही पर्यावरण और आर्थिक प्राथमिकताओं के सवाल पर क्रान्तिकारी सोच रखते हैं और दावा करते हैं कि अगर वे जीते तो अमरीका की नीतियों में भारी बदलाव लायेंगे। पर भारत के राजनैतिक नेतृत्व को जाॅन मैक्केन अपने ज्यादा करीब लगते हैं। कारण साफ है, रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति जाॅर्ज बुश ने जिस तरह अनेक मसलों पर लीक से हटकर भारत का साथ दिया है, उससे भारतीय नेतृत्व का यह मानना स्वाभाविक ही है कि रिपब्लिकन पार्टी का उम्मीदवार अगर चुनाव जीतता है तो बुश की विदेश नीति को ही आगे बढ़ायेगा। उधर अमरीका में रह रहे भारतीयों का मानना है कि जीते चाहे जो भी, उसे भारत केन्द्रित विदेश नीति अपनानी चाहिए। उनका तर्क है कि चीन से आर्थिक प्रतिद्विन्दता का सवाल हो या आतंकवाद से लड़ने का, भारत अमरीका के लिए दक्षिण एशिया में ही नहीं पूरे विश्व में एक ताकतवर और विश्वसनीय सहयोगी सिद्ध हो सकता है। इसलिए अमरीका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को भारत के प्रति अपनी नीति और दृष्टि साफ कर देनी चाहिए। इन भारतीयों का मानना है कि जाॅन मैक्केन ईरान के कट्टर दुश्मन हैं और वे इस बात को पचा नहीं पायेंगे कि भारत अपनी ऊर्जा आपूर्ति के लिए ईरान के निकट बना रहे। ऐसे में भारत के लिए दुविधा खड़ी हो सकती है।

इसमें संदेह नहीं कि पर्यावरण, आतंकवाद और अब अर्थव्यवस्था, तीनों ही सही मायनों में वैश्विक मुद्दे बन चुके हैं। यह सम्भव नहीं कि भारत में हो रहे पर्यावरण के विनाश का असर अमरीका पर न पड़े और अमरीका में हो रही बेइन्तहा पेट्रोल की खपत या उत्तरी धु्रव पर हिमखण्डों का पिघलना भारत के लिए मुसीबत खड़ी न कर दे। इसलिए यह जरूरी है कि अमरीका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की दृष्टि वास्तव में वैश्विक हो। क्योंकि अमरीका हमेशा अपने देश की भौगोलिक, राजनैतिक और आर्थिक सीमाओं से परे देखने का आदि रहा है। हाल ही में अनेक देशों के राजनायिकों के एक भोज में मुझे यह सुनना काफी रोचक लगा कि यूरोप के राजदूतों की पत्नियाँ अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में शेष दुनिया के प्रतिनिधि वोटों को सम्मिलित किये जाने का तर्क दे रही थीं। उनका कहना था कि अमरीका का राष्ट्रपति केवल अमरीका का ही नेतृत्व नहीं करता। बल्कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद जब से दुनिया दो धु्रवों से सिमटकर एक धु्रव तक सीमित हो गयी है, तब से अमरीका बिना उद्घोषणा के विश्व का नेता बन गया है। अमरीका का राष्ट्रपति जो नीति अपनाता है, उसका शेष दुनिया पर भी असर पड़ता है। तो फिर क्यों न शेष दुनिया की राय भी उसके चुनाव में शामिल की जाए? यह बात एक मजाक के तौर पर कही गयी पर इससे अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की अहमियत का पता चलता है। सारी दुनिया का मीडिया यूँ ही इस चुनाव को इतना महत्व नहीं देता। अगर यह सच है तो यह भी सच है कि अमरीका का राष्ट्रपति वास्तव में व्यापक दृष्टि वाला हो। श्वेत और अश्वेत समाज, अमीर और गरीब लोगों या विकसित और अविकसित देशों में फर्क न करके, सर्वजन हिताय की सोचता हो। आज की तारीख में तो यही लगता है कि ओबामा सही मायने में ऐसी ही सोच का व्यक्तित्व हैं। जिसने अपने बचपन और जवानी में इन सब रंगों का स्वाद चखा है। इनके अन्र्तविरोधों को भोगा है और इन समाजों की महत्वकांक्षाओं को नजदीक से जाना है। बाबजूद इसके यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि चुनाव में ओबामा विजयी होंगे। अमरीका का श्वेत समाज बात चाहे कितनी कर ले पर व्हाइट हाउस में एक काले को देखने के लिए अभी तैयार नहीं है और इसलिए वोट डालते समय उनके हाथ काँप सकते हैं। फिर भी अगर ओबामा जीत जाते हैं तो अमरीका का ही नहीं शायद दुनिया का भी नया इतिहास लिखा जाए।

Sunday, August 31, 2008

कश्मीरी नहीं चाहते आजादी

Rajasthan Patrika 31-08-2008
देश के अंग्रेजीदा लोग कभी इस देश की नब्ज को समझ ही नहीं पाए। पहले तो इंडिया और भारत में बड़ी खाई थी। पर जब इंडिया में रहने वालों को लगा कि भारत के साथ जुड़े बिना पहचान नहीं बनेगी तो वे उतर कर जमीन पर आने लगे और दुनिया की नजर में एक्टिविस्ट कहलाने लगे। पिछले दिनों देश की एक मशहूर अंग्रेजी पत्रिका की कवर स्टोरी का निचोड़ था कि कश्मीरी पूरी आजादी चाहते हैं। ये सही नहीं है। कश्मीर को जानने वाले और श्रीनगर की घाटी में मुसलमानों के साथ लगातार संपर्क रखने वाले भी यही बताते हैं कि ‘हमें चाहिए आजादी’, का नारा मुट्ठी भर चरमपंथियों की देन है। जिसे नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने केवल सियासत के मकसद से समर्थन दिया है।

हकीकत तो यह है कि घाटी का मुसलमान न तो आजादी चाहता है और न ही पाकिस्तान के साथ विलय। पिछले 50 सालों में जो मुसलमान पाकिस्तान गए वे वहां आज तक मुहाजिर बन कर रह रहे हैं। घाटी के युवाओं को पाकिस्तान के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में बड़ी तादाद में ले जाया गया। जहां न सिर्फ उनका मानसिक शोषण हुआ बल्कि उन्हें शारीरिक दुराचार का भी शिकार बनाया गया। घाटी के लोग जानते हैं कि अगर वो पाकिस्तान में मिल गए तो पाकिस्तानी उनकी नस्ल बिगाड़ देंगे। उनकी औरतों की इज्जत बचना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए वे पाकिस्तान के साथ कतई जाने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ अगर वे आजाद हो जाते हैं तो उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाएगी। आज भारत सरकार घाटी के हर आदमी पर 9,754 रूपए प्रति वर्ष खर्च करती हैं जबकि बिहार में प्रति व्यक्ति 876 रूपए खर्च किए जाते हैं। अगर कश्मीर को आजादी दे दी जाए तो इस राहत की भरपाई कौन करेगा?

कश्मीर के मुसलमानों ने पूरे भारत के हर बड़े और छोटे शहर में अरबों रूप्ए की संपत्ति खरीद ली है। उनके लम्बे-चैड़े कारोबार चल रहे हैं। बड़े-बड़े शोरूम और गेस्ट हाउस चल रहे हैं। अगर कश्मीर अलग देश बनता है तो ये सब कश्मीरी भारत के लिए विदेशी नागरिक बन जाएंगे और तब इन्हें सवा सौ करोड के भारत के साथ तिजारत करने की या यहां सम्पत्ति रखने की छूट नहीं रहेगी। ये सदमा कश्मीर का व्यक्ति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।

वैसे भी जम्मू-कश्मीर के तीन प्रमुख हिस्से हैं। लद्दाख, श्रीनगर घाटी और जम्मू। लद्दाख भारत के साथ पूर्ण विलय चाहता है और अपनी हैसियत एक संघ शासित प्रदेश के रूप में चाहता है। जबकि जम्मू इलाका पूरी तरह भारत में विलय चाहता है। उल्लेखनीय है कि इस इलाके में डोडा, पुंछ और राजौरी जैसे इलाके भी हैं जहां ज्यादातर मुसलमान रहते हैं। श्रीनगर घाटी के पहाड़ी बोलने वाले लोग जिनमें उड़ी, गंधार, कुरेज शामिल हैं, वे भी भारत से अच्छे संबंध रखना चाहते हैं और इस आजादी के नारे के खिलाफ हंै। यहां तक कि घाटी का गुर्जर समुदाय भी भारत के साथ ही रहना चाहता है।

अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने का मामला कोई मामला ही नहीं था। वो तो बहाना बन गया घाटी के नेताओं की सियासत को परवान चढ़ाने का। दरअसल हुर्रियत के नेताओं को भारत से राजनैतिक पैकेज चाहिए। 1975 के इंदिया गांधी-शेख समझौते के बाद कश्मीर में जो 1953 के विशेषाधिकार मिले थे वे समाप्त कर दिए गए। जिसे वहां के राजनेता आज तक पचा नहीं पाए। 1987 के चुनाव में हुई धांधलियां भी इन नेताओं को बर्दाश्त नहीं हुई। भारतीय फौजों का घाटी में दुव्र्यवहार भी आक्रोश का कारण बना। इसलिए जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार संवेदनशीलता के साथ घाटी के राजनेताओं को मुख्यधारा में लाए।

जम्मू का आंदोलन भाजपा की देन नहीं है जैसाकि तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी, चरमपंथी और आग्रेजीदा पत्रकार बताने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल भाजपा का तो जम्मू में कोई जनाधार ही नहीं है। इस इलाके में भाजपा का एक भी सांसद नहीं है और 37 विधायकों में से केवल 1 विधायक भाजपा का है जबकि 36 विधायक गैर भाजपाई हैं। जम्मू वालों ने भाजपाई नेताओं को अपनी सभाएं सम्बोधित नहीं करने दिया। यह आंदोलन तो पूरी तरह जनांदोलन है। इस आंदोलन में जम्मू क्षेत्र के मुसलमान, हिन्दु और सिक्ख सब शामिल हैं और ये आंदोलन भी केवल अमर नाथ के मुद्दे पर नहीं चल रहा है। इसके पीछे डोगरों के मन में जो आक्रोश वर्षों से दबा पड़ा था वो ज्वालामुखी बन कर फटा है। जम्मू वालों की शिकायत है कि घाटी के साथ केन्द्र सरकार पक्षपात करती आई है। जम्मू की आबादी 28.5 लाख और उनके विधायक हैं 37 व सांसद दो हैं जबकि श्रीनगर की आबादी 25.5 लाख है पर विधायक हैं 46 और सांसद 3। ये जाहिरन नाइंसाफी है। जम्मू इन सीमाओं का पुनर्निर्धारण चाहता है। दूसरी शिकायत जम्मू वालों को इस बात से है कि केन्द्रीय आर्थिक मदद की 70 फीसदी रकम घाटी में खर्च होती है और लद्दाख व जम्मू के हिस्से आता है मात्र 30 फीसदी। इतना ही नहीं सत्ता का सर्वोच्च शिखर होता है राज्य सचिवालय। जिसमें 90 फीसदी नौकरियों श्रीनगर वालों को मिली हुई हैं। इसके लिए जम्मू नाराज है और अपना हक चाहता है। जम्मू के डोगरे चाहे हिन्दू हों या मुसलमान आर्थिक प्रगति चाहते हैं जो उन्हें भारत के साथ जुड़ कर ही मिल सकती हैं पर अब वो घाटी के साथ पक्षपात को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। घाटी के नेताओं को इसका अंदाजा था और इसी डर से उन्होंने अमरनाथ के मुद्दे को इतनी हवा दी। ‘हमें चाहिए आजादी‘ का नारा भी इसी डर से दिया गया कि कहीं जम्मू के दबाव में भारत सरकार घाटी को मिल रहे फायदों को कम न कर दे। आजादी का नारा एक धमकी भर है, इसमें दम बिलकुल नहीं। इसलिए अगर कोई भी ये कहता है कि कश्मीर आजादी चाहता है तो उसने कश्मीर की जनता के दिलों को टटोला ही नहीं है।



Sunday, August 24, 2008

बड़े वकीलों के कद छोटे

Rajasthan Patrika 24-08-2008
दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश के दो नामी और बड़े वकीलों को सजा दी है। उन पर बी.एम.डब्लू. कार दुर्घटना कांड के गवाह को खरीदने का आरोप है। अदालत का मानना है कि ऐसा करके इन बड़े वकीलों ने न्याय की प्रक्रिया में दखल देने की  नापाक कोशिश की है। सजा के तौर पर इनको वरिष्ठ अधिवक्ता से कनिष्ठ अधिवक्ता बना कर इनकी पदावनति कर दी गयी है। अगले चार महीने तक इन पर अदालत में पेश न होने की पाबंदी भी लगा दी गयी है। न्यायधीशों के इस फैसले के विरुद्ध दिल्ली की विभिन्न अदालतों ने हड़ताल करने की चेतावनी दी है। सजा प्राप्त वकील मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की तैयारी कर रहे है।

इस पूरे प्रकरण में जो बात मीडिया ने देश के सामने रखी है वह आम आदमी की जिंदगी में अक्सर सामने आती है। दूसरे तमाम पेशों की तरह वकालत भी कोई साफ सुथरा पेशा नहीं रह गया है। वकीलों के काले चोगे में कमर के पीछे एक छोटी सी जेब लटकी होती है। यह विलायत की परंपरा है। जहां कि न्याय व्यवस्था को भारत के ऊपर थोप दिया गया था। इस परंपरा के अनुसार वकील मुवक्किल से फीस तय नहीं करते। तय करना तो दूर मांगते भी नहीं। मुवक्किल मुकदमा खत्म होने के बाद अपनी मर्जी से और अपनी हैसियत के मुताबिक जो देना चाहता है वह वकील की पीठ पर टंगी कपड़े की जेब में डाल देता है। खैर ये तो प्रतीकात्मक बात रही। इंग्लैंड में भी वकालत कोई खैरात में नहीं करता। वहां के वकील खूब मोटी रकम वसूल करते हैं। पश्चिमी देशों में तो ये माना जाता है कि डाॅक्टर और वकील सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। खुद वकील होते हुए महात्मा गांधी ने 1909 में लिखा था, ‘‘ अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कंुजी उसकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। यदि वकील वकालत छोड़ दें और ये धंध वैश्या के धंधे जैसा नीच माना जाए, तो अंग्रेजी राज्य एक दिन में टूट जाए।’’

अदालतों में भ्रष्टाचार की बात आम आदमी, कार्यपालिका, मीडिया ही नहीं करता बल्कि खुद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशगण तक कई बार यह कह चुके हैं कि नीचे से ऊपर तक अदालतों में भ्रष्टाचार है और इसे रोकने के मौजूदा कानून नाकाफी है। अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश ही स्वीकारते हैं कि अदालतों में भ्रष्टाचार है तो प्रश्न उठता है कि इस भ्रष्टाचार का स्वरूप क्या है ? अदालत में भ्रष्टाचार यानी न्याय का खरीदा बेचा जाना। न्याय को खरीदने बेचने का माध्यम बनते हैं वे वकील जो भ्रष्ट न्यायाधीशों से मिलकर अपने मुवक्किल के हक में अनैतिक रूप से फैसला करवाते हैं। बिना किसी लालच के कोई न्यायधीश किसी वकील की सिफारिश पर न्याय का गला क्यों घोटेगा ? सबको पता है कि ऐसे न्यायधीश वकीलों की मार्फत रिश्वत लेकर फैसले दिया करते हैं। इस रिश्वत का अच्छा खासा हिस्सा उस वकील की जेब में भी जाता है।

सच्चाई तो ये है कि अक्सर साधन संपन्न मुवक्किल कचहरी में वकील का चयन करते समय इस बात की परवाह नहीं करते कि उसकी काबलियत कितनी है बल्कि ये पता लगाते हैं कि उसकी न्यायधीश से निकटता कितनी है ? क्या वह ले-देकर फैसला हमारे पक्ष में करवा देगा ? जो वकील इसकी गारंटी लेते हैं उनसे ही वे पैरवी करवाते हैं। इस तरह देश की अनेक अदालतों में हजारों मामलों में हर दिन न्याय का गला घोटा जाता है। पिसता तो है आम आदमी जिसकी न्याय प्रक्रिया में आस्था होती है। वह टूट जाती है जब वो देखता है कि गुनहगार छूट गया। उसे कोई सजा नहीं मिली तो वह हताश हो जाता है। पर वह कर कुछ भी  नहीं पाता। यह दुखद स्थिति है। जो घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। इस पतन पर सेमिनार, गोष्ठी और लेख तो बहुत लिखे जाते हैं। पर हालात सुधरते नहीं। चिंता की बात तो यह है कि जनता के बीच या मीडिया पर जो वकील नैतिकता की दुहाई देते है उनमें से अनेकों मौका आने पर अपने ताकतवर मुवक्किल के लिए न्याय खरीदने में संकोच नहीं करते। ऐसे तमाम अनुभव देश के तमाम बड़े वकीलों के बारे में अक्सर सुने जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में सभी तत्व ऐसी अनैतिक सोच वाले हैं। एक से एक ईमानदार, मुवक्किल के हित के प्रति सजग, न्यायपालिका की गरिमा में विश्वास रखने वाले वकील हर अदालत में हैं। इन वकीलों से अगर यह कहा जाए कि आप फैसला हमारे पक्ष में दिलवाने की गारंटी करें तो हम आपको मुंह मांगी फीसदेने को तैयार हैं। तो वे ईमानदार वकील उखड़ जाते हैं और कड़ाई से जवाब देते हैं कि वे वकालत करते हैं दलाली नहीं। अब ये मुवक्किल पर निर्भर है कि उसे पैरवी अच्छी करवानी है या न्याय खरीदना है। देखने में यही आया है कि आम आदमी ही नहीं बड़े बड़े औद्योगिक घराने तक वही वकील ढूंढ़ते हैं जो उनके हक में फैसला दिलवा सके। फिर हम केवल वकीलों को ही दोषी कैसे ठहरा सकते हैं ?

दरअसल न्याय प्रक्रिया की खामियों पर निगाह तो सबकी है पर इन हालातों को बदलने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी भी राजनैतिक दल में नहीं है। इसलिए सभी दल कभी कभी  संसद शोर मचा कर चुप हो जाते हैं। न्याय व्यवस्था की इन खामियों को सुधारने की पहल या तो लगातार हताश होती जा रही जनता करेगी या फिर वकीलों को करनी चाहिए। अगर पीडि़त जनता ने ये पहल की तो हालात काफी वीभत्स हो सकते हैं। तब न्याय व्यवस्था की गरिमा को भारी झटका लगेगा। बेहतर हो कि हर जिले, प्रांत और देश की अदालतों के न्यायधीशों और प्रमुख वकीलों का एक सम्मेलन हो और उस सम्मेलन में न्याय व्यवस्था को सुधारने के बारे में कोई ठोस निर्णय लिए जाएं जो फिर सरकार के माध्यम से कानून बनें। अगर ऐसी पहल उनकी तरफ से नहीं होती है तो आने वाले समय में न्याय व्यवस्था का व्यापक पतन देखने को मिलेगा।

Sunday, August 17, 2008

कितने आजाद हैं बुद्धिजीवी ?

Rajasthan Patrika 17-08-2008
जब हम अपनी आज़ादी की 51वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तभी रूस में वैचारिक आजादी के सितारे, नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्जेंडर सोलझेनित्स के महाप्रयाण पर लोग आंसू बहा रहे हैं। सोलझेनित्स ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ इतना दबंगाई से लिखा कि उन्हें देश निकाला दे दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने वालों से गोरी सरकार कड़ाई से निपटती थी। उनके प्रकाशन जब्त कर लिए जाते थे। उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था या देशद्रोही करार कर दिया जाता था। यह सब सहकर भी गुलाम भारत के बुद्धिजीवियों ने समझौता नहीं किया और हमें आजादी मिली।

आजादी के बाद हम विदेशी हुकूमत के गुलाम नहीं थे। हमारी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी थी। हमारे यहां संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों थे। संविधान में हमें लिखने और बोलने की आजादी दी गयी थी। आपातकाल के स्याह दौर को छोड़कर या पश्चिमी बंगाल की साम्यवादी सरकार के खिलाफ खड़े हुए नक्सलवादियों पर हुए दमन को छोड़कर, देश में शायद ऐसा कोई दौर नहीं गुजरा जब इस देश के बुद्धिजीवियों से उनकी आवाज छीनी गयी हो या सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने पर दमनात्मक कारवाही की गयी हो। फिर क्या वजह है कि हमारे देश के बुद्धिजीवी आजाद नहीं हैं ? वे गुलाम की तरह जीते हैं। विश्वविद्यालयों में, शोध संस्थानों में, साहित्य में और पत्रकारिता में कितने लोग हैं जो आत्मा की आवाज पर लिखते हैं। देश के करोड़ों निरीह लोगों के हक में बोलते हैं ? देश में कितने बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सच को सच कहने की ताकत रखते हैं ?

क्या वजह है कि खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले अपनी बुद्धि को गिरवी रखकर जीते हैं ? फिर भी भ्रम यही पाले रहते हैं कि हम ही देश को समझते हैं, दूसरे नहीं। दरअसल आजादी के बाद विशेषकर तीसरी पंचवर्षीय योजना के विफल होने के बाद नेहरू खेमे में घबराहट हो गयी। जो सपने दिखाये गये थे पूरे नहीं हो रहे थे। स्थिति हाथ से निकल रही थी। तब पंडित नेहरू के प्रबंधकों ने विरोध का स्वर दबाने के लिए बुद्धिजीवियों को ‘मैनेज’ करना शुरू किया। उन्हें विदेश यात्रा, फैलोशिप, सरकारी समितियों की सदस्यता, सरकारी मकानों के आवंटन, प्राथमिकता के आधार पर अनेक सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना जैसे तमाम हथकंडे अपनाये गये।

सरकार के इस नए रूख को सबसे पहले ’साम्यवादी बुद्धिजीवियों’ ने पकड़ा और इस हद तक पकड़ा कि इस देश की सोच पर, शिक्षा पर, सूचना तंत्र पर, ये लोग हावी हो गये। ऐशोआराम की एक बेहतर जिंदगी जीने के लालच में इन्होंने न सिर्फ खुद को सरकार का चारण और भाट बना लिया बल्कि सच कहने वालों को अपने संस्थानों में हर स्तर पर दबाने का काम भी किया। इनका जाल इस कदर फैल गया कि ये देश की सभी प्रमुख बौद्धिक संस्थाओं पर हावी हो गये। इनकी देखा-देखी अनेक गांधीवादियों और समाजवादियों की भी यही हालत हो गयी।

ऐसे माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से जुड़े पढे लिखे लोग खुद को राष्ट्रभक्त बता कर सरकारी बुद्धिजीवियों का उपहास करते थे। तब लगता था कि जब संघ समर्पित सरकार बनेगी तो यह लोग सत्ता की मोहिनी से दूर रहकर देश हित में लिखेगें और बोलंेगे। पर ऐसा नहीं हुआ। राजग के शासनकाल में या जिन-जिन प्रांतों में भाजपा की सरकार रही है और आज भी है, वहां संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भी वही आचरण दिखाया जो पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में साम्यवादी और समाजवादी बुद्धिजीवियों का था। अपने राजनैतिक आकाओं के विरुद्ध बोले जा रहे सच को दबाना, झूठ का प्रचार करना, प्रतिभाओं की उपेक्षा कर भाई-भतीजावाद करना, एक ही तरह के मुद्दे पर मौके के अनुसार अलग-अलग टिप्पणी करना और यहां तक कि सत्ता की दलाली करना। अपवाद हर दौर में रहे हैं। लेकिन केवल अपवाद ही।

लगता है कि सत्ता की मोहिनी इतनी आर्कषक है कि किसी भी विचारधारा में पले-बढ़े बुद्धिजीवी क्यों न हों, भौतिक सुख की लालसा में अपनी खुद्दारी और हैसियत को भूल जाते हंै। सरकार के भाट बन कर तमाम फायदे लेते हैं और जब उनकी विरोधी विचारधारा के लोग सत्ता में आते हैं तो यही बुद्धिजीवी मुखर हो जाते हैं। तिल का ताड़ बना देते हैं। कोई मंच नहीं छोड़ते तूफान मचाने से। यही आचरण हर पक्ष करता है। हर पक्ष अपने मौके पर निजी लाभ के लिए देश और समाज का हित बलि चढ़ा देता है। यही वजह है कि जब जिसकेे पक्ष के लोग सत्ता में आते हैं उसी पक्ष के चारण और भाट बुद्धिजीवियो को पद्मभूषण देने से लेकर सांसद, राजदूत और न जाने क्या-क्या बनाया जाता है। इस तरह सच्चाई को दबाकर, झूठ का साथ देकर, अपने फायदे के लिए समाज के हित की उपेक्षा करके जीवन जीने वाले बुद्धिजीवी कैसे हो सकते है ?

ऐसे लोग न तो समाज को दिशा दे सकते हैं और न ही समाज में उठ खड़े होने का जज़्बा पैदा कर सकते है। आजाद भारत के लोगों के लिए यह बहुत दुखद स्थिति है कि इसने बुद्धिजीवियों की एक जमात खड़ी नहीं की। बुद्धिजीवियों के नाम पर राजनैतिक दलों के दरबार में खड़े रहने वाले याचक पैदा किए हैं। पर संतोष की बात यह है कि फिर भी देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो सही लिखते बोलते और सोचते हैं पर उन्हें जानबूझकर गुमनामी के अंधेरे में रखा जाता है। उन्हें अखबारों में छापा नहीं जाता, कोई टीवी चैनल उनका साक्षात्कार प्रसारित नही करता या उन्हें बौद्धिक चर्चाओं में नहीं बुलाता। विचारों के मुक्त आदान प्रदान के लिए बने विश्वविद्यालय भी ऐसे वक्ताओं को बुलाने में संकोच करते हैं। ’आत्मघोषित बुद्धिजीवी माफिया’ की रणनीति के तहत ऐसे लोगों को दबा कर रखा जाता है। दूसरी तरफ जिन्हें बुद्धिजीवी बता कर प्रचारित किया जाता है वे केवल किराये के भांड हैं। यही हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिससे हमें निकलना ही होगा।