Friday, June 13, 2003

मुंबई का एक अद्भुत अस्पताल


कुछ हफ्ते पहले टीवी समाचार चैनलों पर मुंबई के एक अद्भुत अस्पताल की खबर देखने को मिली। उसमें यह नहीं बताया गया था कि अस्पताल कहां स्थित हैं। पिछले हफ्ते मुंबई में इस अस्पताल के बारे में जब पता चला तो उत्सुकतावश इसे देखने गया। देखकर इतनी सुखद अनुभूति हुई कि उसे पाठकों से बांटने की इच्छा हुई। विश्व के तमाम देशों का मैंने भ्रमण किया है। पर ऐसा अस्पताल आज तक नहीं देखा। मुंबई की सीमा के बाहर थाणा जिले में मीरा रोड पर स्थित यह अस्पताल सारे देश के चिकित्सकों के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा का केन्द्र है। हर डाक्टर को कम से कम एक बार इस अस्पताल को देखने जरूर जाना चाहिए। 

क्या आपने दुनिया में कोई ऐसा अस्पताल देखा है जहां अस्पताल की एक विशेष किस्म की गंध या दुर्गंध न आती हो ? पर इस अस्पताल में सबसे पहला अजूबा तो यही है कि अस्पताल की दवाइयों की दुर्गंध की बजाए पूरे अस्पताल में एक मनमोहक सुगंध आती है। इसका कारण यहां की बहुत उच्च कोटि की सफाई व्यवस्था तो है ही पर असली कारण ये है कि भाक्तिवेदांत नाम के इस अस्पताल की सारी संरचना और व्यवस्था एक मंदिर के रूप में की गई है। यूं यहां सवा सौ से ज्यादा डाक्टर और चार सौ के करीब नर्स और कंम्पाउंडर हैं और एलोपैथी, नैचुरोपैथी आदि से जुड़ी चिकित्सा पद्धतियों के अनुरूप तमाम आधुनिक यंत्र एवं उपकरण मौजूद हैं। अस्पताल के संस्थापक श्री राधानाथ गोस्वामी महाराज का अपने शिष्य डाक्टरों को यह स्पष्ट निर्देश रहा है कि मरीजों के तन के इलाज के साथ ही उनकी आत्मा का भी इलाज किया जाए। इसीलिए इस आधुनिक अस्पताल का निर्माण एक मंदिर जैसी आकृति का किया गया है। अस्पताल में घुसते ही सुंदर बाग-बगीचे के साथ स्वागत हाॅल के बीचों-बीच विराजी भक्तिवेदांत स्वामी की सजीव सी प्रतिमा आगंतुकों का मन मोह लेती है। हर सुबह अस्पताल के डाक्टर, कर्मचारी और नर्स आदि इस प्रतिमा के चारों ओर खड़े होकर सामुहिक प्रार्थना करते हैं। अस्पताल के किसी भी कोने में आप चले जाइए, चाहे मरीज का कमरा हो, चाहे आप्रेशन थिएटर, चाहे कैफिटेरिया हो या लिफ्ट, चाहे स्वागत कक्ष हो या दवा खरीदने वालों की लंबी कतार, हरेक के कानों में, हर समय हरे कृष्ण महामंत्र सुनाई देती है। पूरे अस्पताल में हर कोने में स्पीकर लगे हैं। मरीज या उसके तीमारदारों को दो विकल्प हैं- या तो वे भजन सुने या आध्यात्मिक प्रवचन।

अस्पताल के ज्यादातर कर्मचारी माथे पर वैष्णव तिलक लगाकर रहते हैं और खाली समय में या तो जप करते हैं या गीता जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन। किसी भी मरीज को मांसाहार या अंडा आदि खाने की सलाह नहीं दी जाती। इसलिए अस्पताल की कैंटीन में बननेवाला सभी भोजन पहले भगवान को अर्पित किया जाता है और फिर उसे खाया जाता है। मरणासन्न लोगों को उनके अंत समय पर अस्पताल की स्प्रीचुअल केयर यूनिट के सुपूर्द कर दिया जाता है। इस यूनिट के सदस्य डाक्टर और नर्से उस मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी और गंगाजल दे कर गीता पढ़कर सुनाते हैं।

चूंकि इस अस्पताल में आने वाले मरीजों की एक बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है इसलिए ऐसा करने से पहले हर धर्म के तीमारदारों को अपने धर्मानुसार आचरण करने की छूट होतीे है। यानी मुसलमान चाहे तो अपने मरीज के पास बैठ कर कुरान पढ़ता रहे और ईसाई बाइबल।  आश्चर्य की बात ये है कि अस्पताल के डाक्टर, नर्सों की विनम्रता देखकर और भक्तिमय व्यवहार देखकर मुसलमान तीमारदार तक यही कहते हैं कि अगर उनके मरीज को तुलसी, गंगाजल दिया जाता है या उसे गीता सुनाई जाती है तो इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। 

पिछले दिनों उसी इलाके की एक मुसलमान लड़की रूबीना ने आत्महत्या का प्रयास किया। उसे 90 फीसदी जली हुई हालत में अस्पताल लाया गया। अस्पताल वालों ने उसके घर वालों को साफ बता दिया कि ये लड़की दो दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रहेगी। आप इसके पास बैठकर कुरान शरीफ का पाठ करें। उन्हीं की अनुमति से अस्पताल वालों ने रूबीना के सिरहाने गीता का पाठ भी शुरू कर दिया। जब अट्ठारह अध्याय पढ़ लिए गए और कुरान का भी पाठ पूरा हो गया तो रूबीना को नींद आ गई। सुबह आंख खुलते ही उसने दुबारा गीता सुनने की इच्छा व्यक्ति की।  बड़े ध्यान से उसने फिर अट्ठारह      अध्याय सुने और इस तरह गीता सुनते-सुनते उसका देहांत हो गया। 

इस अस्पताल के मैनेजमेंट में वे डाक्टर जुटे हैं जो अपने स्कूली जीवन से ही निर्धन लोगों के बीच जाकर स्वास्थ्य चेतना का काम करते आए थे। इन्हीं के मुखिया डाक्टर विश्वरूप का कहना है कि हम शरीर का इलाज तो करते ही हैं- आत्मा का भी इलाज करते हैं, इसलिए हमारे यहां आने वाले मरीज न सिर्फ प्रसन्नचित्त रहते हैं बल्कि उनके स्वास्थ्य में भी तेजी से सुधार होता है। जिसकी आत्मा ही बीमार है यानी जो हरि से विमुख है और भोगों में लिप्त है वो कितना भी इलाज कर ले तब तक ठीक नहीं हो सकता जब तक उसे आध्यात्मिक खुराक न मिले। यूं तो अस्पताल के भीतर बलदेव, सुभद्रा और जगन्नाथ जी का सुंदर मंदिर है। पर जो मरीज पलंग से उठकर मंदिर नहीं जा सकते उन पर कृपा करने के लिए भगवान जगन्नाथ खुद हर रोज उनके पलंग तक आते हैं। यह अत्यंत रोचक दृश्य होता है। उड़ीसा में तो साल में एक बार ही जगन्नाथ जी की सवारी निकलती है।  जबकि यहां हर शाम 6 बजे जगन्नाथ जी की सवारी अस्पताल के भीतर निकली है। यह सवारी एक ट्रालीनुमा रथ पर सवार होती है और नर्सें इस छोटे से रथ को धकेलती हुई हर मरीज के विस्तर तक आती हैं। मरीज को एक फूल देती हैं जिसे वह जगन्नाथ जी पर चढ़ाता है और फिर उसे प्रसाद मिलता है। इसी तरह यह रथ अस्पताल के हर मरीज तक जाता है। इससे मरीजों को अत्यंत सुख की अनुभूति होती है। गुजरात का भूंकप हो या मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी ऐसे सभी क्षेत्रों में जाकर भक्तिवेदांत अस्पताल के डाक्टर गरीबों की निस्वार्थ सेवा करते हैं। इस अस्पताल में मेडिकल साइंस से जुड़ी सभी आधुनिक मशीने और डाक्टर मौजूद हैं फिर भी यह अस्पताल नहीं मंदिर ही लगता है। एक ऐसा मंदिर जहां जाकर बीमारी अपने आप पीछा छोड़ देती है।

मेडिकल व्यवसाय में आजकल कमीशन की प्रथा काफी आम बात हो गई है। हर मरीज को डाक्टर तमाम तरह के टेस्ट करने के लिए भेज देते हैं। इससे जो बिल बनता है उसका एक मोटा कमीशन डाक्टरों को मिलता है। किंतु भक्तिवेदांत अस्पताल के सभी डाक्टर इस नीच कर्म से पूरी तरह मुक्त हैं। वे चिकित्सा व्यवसाय को पेशा नहीं सेवा का माध्यम मानते हैं। उनके चेहरों पर सदैव प्रसन्नता और संतोष का भाव झलकता है। इस अस्पताल में इलाज कराने वाला हर मरीज और उसका परिवार अस्पताल की व्यवस्था और सेवा से इतना अभिभूत हो जाता है कि ठीक होने के बाद भी अस्पताल से नियमित संपर्क बनाए रखता है। ऐसे सभी ठीक हुए मरीज अपने घर जाकर भी आध्यात्मिक कार्यक्रम चालू रखते हैं और हर महीने अस्पताल में अपना मिलन आयोजित करके खुद के और संसार के सुख के कामना के लिए भक्ति करते हैं। 

आज के युग में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, संवेदनशून्यता आम बात हो गई है तो अस्पताल किसी कसाइखाने का स्मरण दिलाए तो अजीब बात नहीं। पर यह अस्पताल नहीं एक मंदिर है। जहां जाकर जन्म-जन्मांतर के रोगों से मुक्ति मिलती हैै। यह अस्पताल नहीं तीर्थ है। हिन्दुस्तान के हर डाक्टर को इस तीर्थ का दर्शन करने जरूर जाना चाहिए। इससे उन्हें सद्कार्य की प्रेरणा मिलेगी और समाज का अकल्पनीय लाभ होगा। आज जब यह माना जा रहा है कि शहरों में ज्यादातर लोग मानसिक तनाव का शिकार होते जा रहे हैं और यही तनाव बीमारियों को जन्म दे रहा है तो ऐसे में जब मेडिकल इलाज के साथ आध्यात्मिकता जुड़ जाती है तो मरीज का मन-मस्तिष्क दोनों स्वस्थ्य हो जाते है। इसलिए ऐसा अस्पताल अंधकार के बीच में एक दीए की तरह जगमगा रहा है।

Friday, June 6, 2003

सिक्खों से पे्ररणा ‘ब्रज रक्षक दल’ करेगा ब्रज की रक्षा


सिक्ख समुदाय से हर धर्मावलम्बी को बहुत कुछ सीखना चाहिए। सेवा करने का जो भाव सिक्ख स्त्री और पुरुषों में देखने को मिलता है वैसा दूसरे किसी समुदाय में नहीं। 1997 की बात है मैं छत्तीसगढ़ इलाके के कांकेड़ नाम के शहर से एक जनसभा सम्बोधित करके लौट रहा था। आधी रात से भी बाद का समय था। घने जंगल, ऊंचे-ऊंचे वृक्ष और सुनसान सड़क पर हमारी टाटा सफारी तेजी से दौड़ रही थी। मैं और मेरे साथ चल रहे मध्य प्रदेश पुलिस के सुरक्षाकर्मी व कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भूख से बेहाल थे। उस दिन सुबह से रात तक पूरे छत्तीसगढ़ में मैंने लगभग आठ जनसभाओं को सम्बोधित किया। एक शहर से दूसरे शहर का सफर कई घंटे का था। इसलिए समय का पालन करना जरूरी था। वर्ना आगे की सब जनसभाओं में इन्तजार करती भीड़ को नाहक कष्ट होता। इसलिए खाने का भी समय नहीं मिला। ऐसे घने जंगल में अचानक एक सरदार जी का जगमगाता हुआ विशाल ढाबा देखकर सबकी जान में जान आई। सब खाने की तरफ लपक पड़े पर मैं ये देखकर ठिठक गया कि उस ढाबे में मांस और मुर्गे भी परोसे जा रहे थे। मैं लौट कर गाड़ी में बैठ गया। दूर से ढाबा मालिक सरदार जी ने यह देख लिया और दौड़ कर मेरे पास आए। पूछा कि मैं खाना क्यों नहीं खा रहा। मैंने कहा कि जहां मास पकता है वहां मैं अन्न नहीं लेता। उन्होंने बिना एक क्षण सोचे कहा कि आप मेरे घर चल कर भोजन कीजिए। मुझे लगा कि घर पर ही जाने से क्या अन्तर पड़ेगा। वहां भी तो मांस पकता होगा। सरदार जी बोले, ”जी नहीं। हमने अमृत छका है। हमारे घर मांस अण्डा नहीं पकता।सरदार जी मुझे ही नहीं मेरे साथ आए छः-सात लोंगों को भी बड़े उत्साह से अपने घर ले गये। ढाबे से कई किलोमीटर दूर जंगल में उनका बंगला था। उन्होंने घर की बहू बेटियों को रात के डेढ बजे सोते से जगाया और आधे धण्टे में गर्मागर्म खाना परोस कर हमें अभिभूत कर दिया। इस पे्रम की कीमत पैसे देकर तो चुकाई नहीं जा सकती थी। पर चलते वक्त मेरी आंखें नम थीं। आज भी जब उन सरदार जी की याद आती है तो यही सोचता हूं कि उनका मेरा क्या लेना देना था। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि मैं कौन था और कहां से आया था। उन्होंने तो अतिथि देवो भव का धर्म निभाया। द्वार से कोई भूखा न लौटे ये सब धर्मों में सिखाया जाता है। पर इसका जीता जागता रूप उस दिन देखने को मिला।

वाहे गुरू जी की वाकई सिक्ख भाई-बहनों पर बड़ी कृपा है। आप भारत के गांवों में तो अतिथि देवों का भाव पायेंगे पर हम शहर वाले बड़े शुष्क और आत्मकेद्रित हो गये हैं। अनजाने को भोजन कराना तो दूर हम तो अपनों को भी भोजन कराने में भार महसूस करते हैं। दूसरी तरफ सिक्ख समुदाय के लोग जहां भी रहें शहर में, गांव में, देश में या विदेश में अतिथि की सेवा करने में पीछे नहीं हटते। कहने को तो भारत धर्म प्रधान देश है। पर केवल गुरूद्वारा ही वह स्थान है जहां आने वाले हर व्यक्ति को भरपेट मुफ्त भोजन मिलता हैं। गरीब और अमीर का भेद नहीं किया जाता। एक साथ पंगत में भोजन होता है। खिलाने वाले उत्साह और पे्रम से खिलाते हैं। इतना ही नहीं तीर्थयात्रियों के जूते साफ करना, उनके रहने खाने की उत्तम व्यवस्था करना और गुरूद्वारों और अपने तीर्थ स्थलों को अपने हाथों से साफ करना, संजाना और संवारना। सिक्खों के इस गुण को सीखने की जरूरत है। आज हमारे लगभग सभी तीर्थस्थल तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। यातायात और संचार की बेहतर व्यवस्थाओं और मध्यमवर्ग की समृद्धि ने तीर्थाटन को पहले की तुलना में कई गुना बढ़ा दिया है। इस हद तक भीड़ होने लगी है कि अक्सर तीर्थस्थलों की व्यवस्था चरमरा जाती है। सब तीर्थयात्री यही चाहते हैं कि उन्हें अपनी आस्था का केन्द्र साफ सुथरा और सुन्दर मिले। हराभरा हो और बुनियादी सुविधाओं की कमी न रहे। पर उनको अक्सर निराशा हाथ लगती है। तीर्थस्थलों की दुर्दशा देखकर आस्थावान लोग रो देते हैं। पर रोने से और सरकार की आलोचना करने से कोई व्यवस्था सुधर तो नहीं सकती। उसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत होती है। कुछ त्याग और तपस्या की जरूरत होती है। जिसकी जिस धर्म में आस्था हो उसे अपनी आस्था के केन्द्र की सेवा अपने हाथों से करनी चाहिए। जिस आमतौर पर पंजाबी में कार सेवाकहा जाता है, उसका सही हिन्दी शब्द है कर सेवा। कर यानी हाथ से सेवा। धन का दान तो हर साधन सम्पन्न व्यक्ति कर सकता है पर श्रम का दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह धन दान करने से नहीं। कर सेवा करके हम अपने प्रभू का मन आकर्षित करते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि देश के हर तीर्थ स्थल की सेवा और सुरक्षा के लिए आस्थावान लोग संगठन बनाऐं। उस तीर्थस्थल की जो समस्याएं हैं उनकी सूची बनाएं। फिर एक एक समस्या का क्रमशः निदान करते जाएं। यह काम सामूहिक भावना से किया जाए, यश प्राप्ति की भी कामना न हो तो कोई कारण नहीं कि सफलता न मिले। लोग भी जुटेंगे और साधन भी। 

अजमेर शरीफ की दरगाह में या नाथद्वारे के श्रीनाथ मन्दिर में जिस समय भीड़ का रेला घुसता है उस समय बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं को अपनी जान बचाना भारी पड़ जाता है। दर्शनार्थी इस तरह कुचल जाते हैं कि अच्छे भले आदमी की भीड़ में घुसने की हिम्मत न पड़े। जरा सोचिए कितने अरमान लेकर कितनी तकलीफ उठाकर आपकी बूढ़ी मां या दादी अपने इष्ट को देखने आईं और उन्हें इस तरह की भयावह स्थिति का सामना करना पड़ा। ये कैसी धार्मिकता है ? ज़रा उन बच्चों की तो सोचिये जिन्हें धर्म के नाम पर ऐसी अराजकता, लूटखसोट या गन्दगी के साम्राज्य का सामना करना पड़ता है। बालमन पर पड़ी ये छाप उनके मन में अपने धर्म के प्रति अरूचि पैदा कर देगी। इसलिए सभी धर्मावम्बियों को अपने अपने धर्म क्षेत्र की रक्षा के लिए सेवाभाव से आगे आना चाहिए और सिक्ख समुदाय से पे्ररणा लेकर कुछ ऐसा करना चाहिए कि आने वाली सदियां भी उनके कामों को याद रखें।

इस मामले में एक अच्छी पहल ब्रज में शुरू हुई है। भगवान श्री राधाकृष्ण की सैकड़ों लीला स्थलियों को स्वयं में धारण किए श्री ब्रजधाम इस भूमण्डल से भिन्न गोलोक वृन्दावन का ही अभिन्न अंग माना जाता है। पांच हजार साल से साधु सन्तों और भक्तजनों ने अपने पे्रमाश्रुओं और जप-तप से इसके कण-कण को पोषित किया है। इसके अद्भुत सौंदर्य की प्रशस्ति में हजारों पद और श्लोक रचे गये हैं। बृन्दावन या ब्रजमण्डल का नाम लेते ही कृष्णभक्तों के हृदय में जो चित्र उभरता है वह है हरेभरे लता कुंजों का, शीतल जल से भरे मनोरम कुंडों का, यमुना के दिव्य घाटों का और फलों से आच्छादित वनों और पर्वतों का। पर वहां आकर जो कुछ देखने को मिलता है उससे नए-नऐ भक्तों का कलेजा धक्क रह जाता है। वे समझ ही नहीं पाते कि ब्रज का इतना विनाश कैसे हो गया। दरअसल पिछले एक हजार वर्ष से ब्रज का विनाश किया जा रहा है। आजादी के बाद विनाश की यह गति घटने के बजाय बढ़ी है। पिछले दस वर्षों में ब्रज का और भी तेजी से विनाश हुआ है। बिना रोके यह रुकने वाला नहीं है। इसलिए ब्रज के विरक्त सन्तों की पे्ररणा से अनेक ब्रजवासी नौजवानों, देश के अन्य भागों में रहने वाले कृष्ण भक्तों और कुछ अत्यन्त मशहूर लोगों नें साझे प्रयास से ब्रज रक्षक दल नाम का स्वयंसेवी संगठन बनाकर ब्रज की सेवा एवं संरक्षण का काम शुरू किया है। कुछ ही दिनों में इस संगठन को जो चमत्कारिक उपलब्धियां हुई हैं उससे यह विश्वास दृढ़ होता है कि अब ब्रज की दुर्दशा के दिन थोड़े से ही बचे हैं। निःस्वार्थ भाव से ब्रज की सेवा को तत्पर हजारों लोग ब्रज रक्षक दल से जुड़ते जा रहे हैं। ब्रज रक्षक दल प्रचार से बच कर ठोस काम में विश्वास रखता है। इसमें शामिल होने वाला हर कृष्ण भक्त ब्रज रक्षक कहलाता है। कोई पदों के बंटवारे का झगड़ा नहीं है। कोई पे्रस विज्ञप्ति और नाम छपवाने की होड़ नहीं है। कोई पैसे का लालच नहीं है। सब अपनी क्षमता अनुसार तन मन धन से सेवा में जुटे हैं। ब्रज रक्षक दल का पहला बड़ा अभियान ब्रज के सैकड़ों कुण्डों और सरोवरों का जीर्णोद्धार करना है। इनमें जमीं मिट्टी बाहर निकालना। जल के स्रोत खोलना। इनके चारों तरफ बने ऐतिहासिक घाटों की मरम्मत करना और इनके चारों ओर सुन्दर वृक्ष लगाकर घाटों को इनका खोया हुआ स्वरूप पुनः प्रदान करना। काम बड़ी तेजी से चल रहा है। कई कुण्डों का उद्धार हो चुका है। आजकल बरसाना स्थित श्री वृषभानु कुण्ड की खुदाई का काम चल रहा है। खुदाई की बड़ी मशीनें और टैªक्टरों के साथ ही विरक्त सन्त और भक्त खुद भी जुट कर इस काम को करवा रहे हैं। 

चूंकि आजकल गर्मियों की छुट्टियां हैं और नौजवनों के पास करने को कुछ खास नहीं। ऐसे में कृष्ण भक्तों को एक अवसर मिला है कि वे श्रीमती राधारानी के गांव इस पवित्र सरोवर और इसमें स्थापित जल महल की सेवा के लिए बरसाना पहुंचें और ब्रज रक्षक दल से जुड़ कर ब्रज की सेवा के कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। कुण्डों के उद्धार के साथ ही ब्रज रक्षक दल कई अन्य मोर्चों पर भी महत्वपूर्ण काम कर रहा हैं जिसकी जानकारी आनेवाले दिनों में देशवासियों को मिलनी शुरू हो जायेगी। फिलहाल ऐसे सिविल इंजीनियरों की जरूरत है जो सेवामुक्त हो चुके हों या बिना पैसा लिए सेवा-भावना से कुण्डों के जीर्णोद्धार के इस महायज्ञ में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। इससे सेवा में लगे साधुओं को दूसरे क्षेत्रों में भी काम शुरू करने का मौका मिलेगा। ब्रज रक्षक दल की सदस्यता के लिए कोई औपचारिकता नहीं है। जो भी ब्रज की सेवा करना चाहता है वही ब्रज रक्षक दल का सदस्य है। उसे ब्रज रक्षक दल के संयोजकों से मार्गनिर्देशन लेकर ब्रज की सेवा में जुट जाना चाहिए। इस तरह एक ऐसी शुरुआत होगी जो कि ब्रज का कायाकल्प करके ही रुकेगी।

Friday, May 30, 2003

दहेज लोभियों को सबक और टी वी चैनल


जबसे टी.वी. न्यूज चैनलों की बाढ़ आई है तब से नई-नई रिपोर्टों को खोजने की प्रतिस्पद्र्धा भी बढ़ गई है। छोटी सी घटना अगर कहीं हो जाए तो मिन्टों में वहां दर्जनों टी.वी. क्रू पहुंच जाते हैं। हर टीम खबर की तह तक जाना चाहती है। घटना से जुड़े हर वाकये और व्यक्ति को पर्दे पर दिखाना चाहती है। अनूठा करने की होड़ में लोगों के पीछे पड़ जाती है। ऐसे माहौल में अगर दहेज विरोधियों को सबक सिखाने वाली नोएडा की लड़की निशा को रातों रात देश भर में ख्याति मिल गई तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं। इस घटना से दो बड़ी उपलब्धियां हुईं। एक तो यह कि अब निशा जैसी तमाम लड़कियों को यह पता चल गया कि अगर वे दहेज के लोभियों के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं तो मीडिया उनका साथ देगा। दूसरा यह कि नई कहानियों की तलाश में हमेशा प्यासे छटपटाने वाले मीडिया को कहानियों का खजाना मिल गया। 

इस देश में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं रोज देश के हर हिस्से में होती हैं। पर अपने संस्कारों के कारण महिलाएं अक्सर सबकुछ चुपचाप सह लेती हैं। आर्थिक असुरक्षा के कारण भी विरोध नहीं कर पाती। उन्हें डर होता है कि अगर पति ने घर से निकाल दिया तो उन्हें बाप की देहरी पर लौटना पड़ेगा। जबकि मान्यता यह है कि लड़की विवाह के बाद बाप की देहरी से जब जाती है तो उसे यही कहा जाता है कि अब पूरे जीवन तुझे ससुराल की सेवा करनी है। माना यह जाता है कि उसकी अर्थी ही ससुराल से निकलेगी। भारतीय समाज में व्यवस्था बनाए रखने के ऐसे तमाम रस्मो रिवाज हैं। पर उनके मूल में है सहृदयता और पारस्परिक पे्रम। पर जब समय से पहले ही नववधु की अर्थी निकलने लगें तो यह चिन्ता की बात है। यह इस बात का परिचायक है कि अपनी महानता का गुण गाने वाला भारतीय समाज सम्वेदन शून्य ही नहीं पाशविक होता जा रहा है। दहेज के लोभी अगर किसी कन्या को सताएं या उसकी जान लेने पर उतारू हो जाएं तो चुप बैठना मूर्खता होगी। प्रताडि़त होने और अबोध बच्चों को अनाथ छोड़ कर जल कर मर जाने से कहीं अच्छी है विरोध का स्वर मुखर करना। एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि सबका पालनहार भगवान है और दूसरी तरफ हम यह चिन्ता करें कि अगर हमारे पति या ससुराल वाले ने घर से निकाल दिया तो हमारा क्या होगा, यह ठीक नहीं। निशा ने विरोध किया तो उसे सारे देश ने पलकों पर बिठा लिया। यह पहली घटना थी इसलिए शायद इतना प्रचार उसे मिला उतना भविष्य में न मिले। क्योंकि एक ही तरह की घटना पर बार बार उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। पर इसमें शक नहीं कि खबरों की खोज की होड़ में लगे मीडिया को ऐसी घटनाओं में हमेशा रुचि रहती है इसलिए जब भी कोई लड़की अपने अत्याचार की शिकायत निशा की तरह मीडिया से करेगी उसे किसी न किसी टी.वी. चैनल या अखबार से मदद जरूर मिलेगी। 

वैसे भी समाज में दूसरे के फटे में पैर देने की आदत होती है। महानगरों की अति आधुनिक बस्तियों को छोड़ दें तो शेष भारत में यानी छोटे शहरों कस्बों और गांवों में किसी के व्यक्तिगत जीवन की घटनाएं या दुर्घटनाएं शेष समाज के लिए कौतुहल का विषय होती है। गावों में जरा ज्यादा शहरों में थोड़ा कम। पहाड़ों में तो छोटी सी घटना मिन्टों में जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल जाती है। लोग नमक-मिर्च लगाकर ऐसी घटनाओं का मजा लेते हैं। जब कभी किसी की बेटी अपने पे्रमी के साथ भाग जाए या पति-पत्नी में मार-पिटाई हो या पत्नी रूठ कर मायके चली जाए या कोई अनैतिक कर्म में लिप्त पाया जाए तो ये घटनाएं हफ्तों चर्चा में रहती हैं। इसलिए मीडिया वाले जानते हैं कि इस तरह की खबरों के दर्शक और पाठक बड़ी तादाद में होते हैं। इन्हें ह्यूमन इन्टेªस्ट स्टोरीज कहा जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि किसी की कमजोरी को उछाल कर मजा लिया जाए। यहां इसका उल्लेख करने का आशय यही है कि यदि कोई महिला अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत खुलकर करना चाहती है और उसे मीडिया पर आने में कोई संकोच नहीं है तो उसे अपनी स्थिति से निपटने में मीडिया की खासी मदद मिल सकती है। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को खूब सोच विचार लेना चाहिए। अपने शुभचिन्तकों, मित्रों और परिवार की राय सलाह भी ले लनी चाहिए। जहां तक सम्भव हो बड़ी सावधानी से अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के प्रमाण जमा करते जाना चाहिए ताकि समय पर काम आ सकें। ये प्रमाण अपने पास न रखकर किसी मित्र के पास रखे जाएं तो बेहतर होगा। कहीं अत्याचारी ससुराल वालों को ये पता चल गया कि उनके विरुद्ध ऐसे प्रमाण इकट्ठा किए जा रहे हैं तो वे धोखे से उसकी जान भी ले सकते हैं। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को यह भी सोच लेना चाहिए कि मीडिया की ये चमक-दमक दो चार दिन ही रहती है। फिर बाकी लड़ाई उसे खुद ही लड़नी पड़ती है। 

दूसरी तरफ मीडिया की खासकर टी.वी. मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। निशा की कहानी को जिस तरह मीडिया ने उछाला और उसे जिस तरह जन समर्थन मिला उससे यह सिद्ध हो गया कि ऐसी कहानियों के दर्शक भारी मात्रा में हैं। इसलिए टी.वी. मीडिया को अब कुछ और कदम उठाने चाहिए। मसलन अपने चैनल पर वे एक फोन नम्बर प्रसारित कर सकते हैं जिस पर मुसीबत ज़दा महिलाओं को सम्पर्क करने की छूट हो। हो सकता है कि मीडिया वालों को ये काम बवाल का लगे। ऐसे प्रश्न उठाये जा सकते हैं कि हमारा काम खबर देना है महिला उत्थान करना नहीं। ये भी कहा जा सकता है कि इस तरह की सेवाएं प्रदान करने से न्यूज चैनल पर खर्चे का अतिरिक्त भार पड़ जायेगा। इसलिए जरूरी नहीं कि सब शहरों में ये फोन सुविधा दी जाए या चैबीस घन्टे दी जाए। कुछ खास शहरों में हफ्ते में दो घन्टे की अगर ये टेलीफोन सेवा दी जाए  तो यातना भोग रही लड़की टी.वी. पर फोन नम्बर देखकर अपनी सुविधा अनुसार सूचना टी.वी. चैनल तक भिजवा सकती हैं। इस तरह इतनी सारी रोचक खबरें टी.वी. चैनल तक आने लगेंगी कि उन्हें कवर करना भारी पड़ जायेगा। फिर आज की तरह नहीं होगा जबकि सभी न्यूज चैनल एक समय में लगभग एक सी खबर दिखाते हैं। और उन्हीं को बार बार दोहराकर खबरों को उबाऊ बना देते हैं। 

देश में जब पहली बार 1989 में मैंने हिन्दी में स्वतन्त्र टी.वी. समाचारों का निर्माण शुरू किया और उन्हें कालचक्र वीडियो कैसेट के नाम से देश की वीडियो लाइबे्ररियों में भेजा तो पूरे देश में हंगामा मच गया। कारण यह था कि दूरदर्शन सामाजिक मुद्दों पर केवल चर्चाएं करवाता था जो काफी उबाऊ होती थीं। हमने यह नया प्रयोग किया कि हम टी.वी. कैमरा लेकर बाहर निकले और लोगों के बीच जाकर घटनाओं को कैमरे में सजीव कैद किया। हमारी हर रिपोर्ट तथ्यात्मक होने के साथ ही काफी तीखी और धारदार होती थी। यही वजह है कि कालचक्र वीडियो के प्रचार प्रसार के लिए धेले पैसे का वजट न होने के बावजूद कालचक्र वीडियो मैगजीन पूरे देश में एक जाना हुआ नाम हो गई थी। महिलाओं के हक को लेकर जैसी सम्वेदनाील रिपोर्ट हमनें 1989 से 1992 के बीच दिखाईं वैसी रिपोर्ट आज भी टी.वी. चैनलों पर दिखाई नहीं दे रही हैं। जबकि आज हर चैनल के पास साधनों की कोई कमी नहीं है। हमारे पास आज के न्यूज चैनलों के मुकाबले एक फीसदी साधन नहीं थे। फिर भी हमारी रिपोर्ट पर देश में काफी बवाल मच गया। अखबारों और पत्रिकाओं के पन्ने भर जाते थे हमारी रिपोर्ट पर खबरे देने में। इसलिए मैं अनुभव और विश्वास से कह सकता हूं कि महिलाओं के हक में अगर टी.वी. मीडिया बहादुरी से और रचनात्मक मनोवृत्ति से सक्रिय हो जाए तो दोनों का लाभ होगा। न्यूज चैनल का भी, क्योंकि उसके पास खबरों का अकाल नहीं रहेगा और दर्शकों की संख्या बढ़ेगी। समाज का भी जिसकी सताई हुई महिलाओं को भारी नैतिक समर्थन और हिम्मत मिलेगी। इस तरह जो जनचेतना फैलेगी वह दूर तक समाज के हित में जायेगी। पर साथ ही कुछ सावधानियां बरतने की भी जरूरत है। 

उत्साह के अतिरेक में कई बार टी.वी. रिपोर्टर बहुत बचकाना व्यवहार कर बैठते हैं। मसलन जिसके घर में मौत हुई है या और कोई दुखद हादसा हुआ है उसकी मनोदशा का विचार किए बिना सवालों की झड़ी लगा देना और जवाब देने के लिए पीछे पड़ जाना बहुत असम्वेदनशील लगता है। ऐसे टी.वी. रिपोर्टरों के ऊपर उस परिवारजनों को ही नहीं दर्शकों को भी खीझ आती है। अच्छी टी.वी. रिपोर्ट तैयार करने के लिए कुछ होमवर्क करना होता है। अगर रिपोर्टर में परिपक्वता है तो वह बड़ी शालीनता से सब कर सकता है। खबर दिखाने के उत्साह में ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उस परिवार को क्षति पहुंचे। हां, अपराधियों के साथ कोई लिहाज करने की जरूरत नहीं। पर इसका फैसला कुछ मिनटों में घटनास्थल पर जाकर नहीं किया जा सकता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं। इसलिए शक की गुंजाइश भी रखनी चाहिए। दूसरी सावधानी इस बात की भी बरतनी होगी कि लोकप्रियता हासिल करने की चाहत में कहीं कोई महिला गलत आरोप तो नहीं लगा रही है। इसलिए उसके आरोपों को लेकर उसके निकट के सामाजिक दायरे में पूछताछ करके तथ्यों की जानकारी हासिल की जाए तो इस सम्भावना से बचा जा सकता है। वैसे समय और अनुभव धीरे-धीरे सब सिखा देता है।

जिस देश में संसद महिलाओं को उनका राजनैतिक हक देने में संकोच कर रही है और महिला आरक्ष्ण बिल बार बार टाला जा रहा हो और देश की बड़ी बड़ी नामी-गिरामी योद्धा महिलाएं भी अपना हक लेने में नाकामयाब हो रही हैं वहां निशा जैसी महिलाएं टी.वी. चैनलों की मदद से समाज में क्रांति ला सकती हैं। पूरे समाज में महिलाओं के विरुद्ध काम करने वाली मानसिकता को झकझोर सकती हैं। महिला पर अत्याचार करने वालों के दिल में खौफ पैदा कर सकती हैं। यह टी.वी. न्यूज चैनलों की बड़ी उपलब्धि है। पर यह उपलब्धि उनके कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी डाल रही है। उम्मीद है भविष्य में इसमें और भी निखार आयेगा। हमें सभी टी.वी. सम्वाददाताओं को शुभकामना ओर आशिर्वाद देना चाहिए कि वे केवल खबर के ढिंढोरची न बन कर समाज के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निमित्त बन सकें।

Friday, May 23, 2003

आईएसओ प्रमाणन में धांधली


जैसे-जैसे दुनिया के बाजार का एकीकरण होता जा रहा है वैसे-वैसे सेवाओं और उत्पादनों की गुणवत्ता निर्धारित करने के अंतर्राष्ट्रीय मानक भी स्थापित होते जा रहे हैं। यह जरूरी है ताकि उपभोक्ता को इस बात की गारंटी हो कि दुनिया के एक हिस्से मेें बैठकर दूसरे हिस्से से जो वस्तु या सेवा वह खरीद रहा है, वह सही है और उसके साथ कोई धोखा नहीं हो रहा है। इस तरह के मानक देने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था आईएसओ है। जिसका मुख्यालय स्वीट्जरलैंड के शहर जिनेवा में है। दुनिया के सभी देश आईएसओ के सदस्य हैं। ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय स्तर पर एक एक्रेडिटेशन काउंसिल होती है जो आईएसओ का प्रमाण पत्र देने वाली स्थानीय इकाइयों (सर्टिफाइंग बाॅडिज) को मान्यता देती है। एक्रेडिटेशन काउंसिल का फर्ज है कि वो हर साल सर्टिफाइंग बाॅडिज के काम की जांच करे और यह सुनिश्चित करे कि ये सर्टिफाइंग बाॅडिज अंतर्राष्ट्रीय मानकों के तहत ही काम कर रही हैं और जिन कंपनियों को ये प्रमाण पत्र प्रदान कर रहीं हैं वे वाकई इसके लायक हैं और सभी निर्धारित मापदंडों का पालन कर रही हैं। चिंता की बात ये है कि भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।  

इस पूरी प्रक्रिया में काफी धांधली हो रही है। धांधली की शुरूआत वाणिज्य मंत्रालय से ही होती है। कायदे से भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय को चाहिए था कि वो एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखे। पर हाल ही में वाणिज्य मंत्री श्री राजीव प्रताप रूड़ी ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कि, ‘‘आइएसओ 9000 और आईएसओ 14001 प्रमाण पत्र प्रदान करने वाले इन अभिकरणों पर सरकार द्वारा निगरानी नहीं रखी जा रही है क्योंकि प्रमाणन की प्रक्रिया स्वैच्छिक है न कि अनिवार्य।’’ जबकि दूसरी ओर सरकार के ही अनेक मंत्रालय अपनी संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आईएसओ 9001/14001 लेने का आदेश दे रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार जो निविदाएं आमंत्रित करती है उसमें यह सर्टिफिकेट अनिर्वाय रूप से मांगा जा रहा है। 7 अप्रैल 2003 को संसद में दिए गए इस उत्तर में ही वाणिज्य मंत्री श्री रूड़ी ने यह भी स्वीकार किया कि इस तरह की व्यवस्था से आइएसओ सर्टिफिकेट की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाता है। 

सरकारी धांधली इतने पर ही खत्म नहीं होती। सरकार लघु उद्योगों को आईएसओ सर्टिफिकेट लेने के लिए प्रोत्साहित करती है और उन्हें इस प्रमाण पत्र को हासिल करने में हुए खर्चे का 75 फीसदी या 75 हजार रूपए तक की वित्तीय सहायता तक मुहैया कराती है। इस मामले में भी एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण न होने के कारण देश भर में खूब धांधली चल रही है। रातो-रात बनी सर्टिफाइंग बाॅडिज 10-15 हजार रूपया लेकर लघु उद्योग मालिकों को, बिना उनकी गुणवत्ता का परीक्षण किए, प्रमाण पत्र दे देती हैं। ये लघु उद्योग मालिक सरकार से 75 हजार रूपए वसूल लेते हैं। इस तरह 1994 से आज तक 3198 लघु उद्योग इकाइयां ये सर्टिफिकेट ले चुकी हैं। जिसके बदले में अनुमान है कि वे सरकार से लगभग 24 करोड़ रूपया वसूल चुकी हैं। 

वैसे सरकार ने यह योजना सद्इच्छा से चालू की थी। मकसद था अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के लघु उद्योगों को चीन, कोरिया, मलेशिया के समकक्ष खड़ा करना। पर इन धांधलियों को चलते यह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है। रातो-रात बनी फर्जी सर्टिफाइंग बाॅडिज और लघु उद्योग मालिकों की मिलीभगत से सरकार को चूना लग रहा है और उत्पादनों की गुणवत्ता सुधर नहीं रही है। जिसके लिए पूरी तरह भारत सरकार का वाणिज्य मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय जिम्मेदार है। जो सब कुछ जानते हुए भी कुम्भकरण की नींद सो रहा है। श्री रूड़ी का जवाब कितना विरोधाभासी है। एक तरफ तो वे मानते हैं कि सरकार का सर्टिफाइंग बाॅडिज पर कोई नियंत्रण नहीं है। और दूसरी ओर वे इनकी विश्वसनीयता को संदेहास्पद मानते हैं। यहां तक कि उन्हें ये भी नहीं मालूम की देश में ऐसी सर्टिफाइंग बाॅडिज की संख्या कितनी है । तो कोई उनसे पूछे कि मंत्री महोदय आप क्या कर रहे हैं ? अपना कारवां लुटते देख रहे हैं। 

इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत सरकार की अपनी एजेंसियां भी किस तरह इस धांधली को होने दे रही है। इस तरह की एक सरकारी एजेंसी क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया एक भारतीय एक्रेडिटेशन काउंसिल है। इसका काम सर्टिफाइंग बाॅडिज को मान्यता देना है। इस पूरे घोटाले को लेकर चिंतित और सक्रिय प्रोफेशनल कैप्टन नवीन सिंहल ने जब इसके सेक्रेट्री जनरल से मार्च 2000 में इस पूरी धांधली की शिकायत की तो उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि उनकी संस्था का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारा काम पुलिस की तरह तहकीकात करना नहीं है। यह एक हास्यादपद जवाब था। क्योंकि एक सरकारी मानक संस्था के वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी कि इस मामले की सूचना सरकार को देते और उन्हें सलाह देंने कि इस धांधली से कैसे निपटा जाए। पर वे खामोश रहे। पर कैप्टन सिंहल खामोश नहीं बैठ सके। उन्होंने क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता सहित कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को एक प्रश्नावली भेजी। जिसमें उन्होंने इस सारे मामले को उठाते हुए इस समस्या से निपटने के सुझाव मांगे। इस प्रश्नावली के उत्तर में नाॅर्वे की एक मानक संस्था डीएनवी के क्षेत्रीय अध्यक्ष ने कहा कि क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल ही इस समस्या से निपटने के लिए सही व्यक्ति हैं। इसलिए उन्होंने भी यह प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को भेज दी। पर जब संसद में वाणिज्य मंत्री श्री अरूण जेटली से यह प्रश्न पूछा गया कि इस मामले में क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता को क्या कोई प्रश्नावली समय रहते, आगाह करते हुए, भेजी गई थी या नहीं तो आश्चर्य की बात है कि श्री जेटली ने संसद में उत्तर दिया कि ऐसी कोई प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को नहीं भेजी गई। 

कहते हैं, ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। जो बनी आवे सहज में, ताहि में चित दे।जो हो गया सो गया अब भी सुधरने का वक्त है। अगर वाणिज्य मंत्रालय चाहे तो इस धांधली को रोक सकता है। सबसे पहले तो वाणिज्य मंत्रालय को उन सर्टिफाइंग बाॅडिज का चयन करना चाहिए जो एक्रेडिटेड हैं और जिनका हर साल एक्रेडिटेशन काउंसिल से आॅडिट होता है। 

दूसरा काम ये करना चाहिए कि जितनी भी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने आईएसओ सर्टिफिकेट ले रखा है उन सबकों सरकारी नोटिस भेज कर एक निर्धारित समय के भीतर अपने सर्टिफिकेशन के समर्थन में यह प्रमाण भेजना अनिवार्य हो कि उनकी सर्टिफाइंग बाॅडिज अपने भारतीय कामकाज के लिए एक्रेडिटेड है या नहीं है। अगर है तो प्रमाण दें और नहीं है तो निर्धारित समय के अंदर इसे उस सर्टिफाइंग बाॅडिज से प्राप्त कर लें जिन्हें सरकार ने मान्यता दी है। इस तरह फर्जी सर्टिफिकेट लेकर घूमने वाले खुद ही बेनकाब हो जाएंगे। 

इसके साथ ही जो सबसे जरूरी काम है वो ये कि सरकार एक स्वायत्त संस्था का गठन करे जिसकी जिम्मेदारी हो इस सब सर्टिफाइंग बाॅडिज पर निगाह रखना और उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करना। जब तक सरकार ये करे तब तक कुछ उत्साही लोगों ने मिलकर जनहित में एक गैर मुनाफे वाली स्वयंसेवी संस्था ेंअमपेव/तमकपििउंपसण्बवउ का गठन कर लिया हैं। जो ऐसे सभी मामलों में शिकायतों की जांच करने का काम कर रही हैं। पर असली जिम्मेदारी तो सरकार की है। वाणिज्य मंत्री पलायनवादी उत्तर देकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक तरफ तो हम भारत को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हमें अपनी गुणवत्ता में हो रही धांधलियों की भी चिंता नहीं है। यह चलने वाली बात नहीं है। अगर सरकार अब भी नहीं जागी तो भारत के उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काली सूची में डाल दिया जाएगा। क्योंकि इनके आईएसओ प्रमाण पत्रों की विश्वसनीयता संदेहास्पद होगी।