Friday, December 31, 1999

नई सदी या दिमागी दिवालियापन

इंडियन एअर लाइंस के विमान के अपहरण के बाद उसमें सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने जिस तरह अपने गुस्से का इजहार किया वह अप्रत्याशित था। किसी हादसे के बाद सरकारी तंत्र की विफलता पर नागरिकों का गुस्सा हो जाना एक स्वभावित बात होती है। अक्सर ऐसा होता भी रहता है। लोग संबंधित अधिकारियों को कोसते हैं, राजनेताओं पर संवेदनशून्यता का आरोप लगाते हैं और खुद स्थिति से जूझने में जुट जाते हैं। इस बार जो नई बात थी वह ये कि जैसे ही इस वायुयान में सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों को पता चला कि आतंकवादी अपने साथियों को रिहा करवाने की मांग कर रहे हैं और सरकार उनसे बातचीत करके मामला निपटाना चाहती है, तो उनका क्रोध आपे के बाहर हो गया। उनका तर्क था कि पूर्व गृहमंत्रh श्री मुफ्ती मौहम्मद की बेटी कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा उठा ली गई थी तब तत्कालीन सरकार ने बिना हील-हुज्जत के आतंकवादियों की मांगों के आगे समपर्ण कर दिया था और गृहमंत्राी की बेटी को बचाने के लिए कई खूंखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया था। जबकि इस बार वायुयान में 150 से ज्यादा मुसाफिरों की जान अटकी है पर सरकार वैसी फुर्ती नहीं दिखा रही। मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने बार-बार जोर देकर कहा, ‘चूंकि इस वायुयान में कोई राजनेता या उसका परिवारजन सफर नहीं कर रहा इसलिए सरकार निर्णय लेने में इतना वक्त खराब कर रही है। जबकि वायुयान में सवार मुसाफिरों के प्राण जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं।’ इन लोगों में इस कदर गुस्सा था कि इनका एक झुंड शोर मचाते हुए सीधे वहां पहुंच गया जहां विदेश मंत्राी श्री जसवंत सिंह सम्मवाददाता सम्मेलन कर रहे थे। वहीं विदेश मंत्राी को पत्राकारों के सामने ही इन लोगों ने खूब खरी-खोटी सुनाई।

दूसरी तरफ मुसाफिरों के कुछ दूसरे नातेदारों का लगातार प्रधानमंत्राी पर दबाव बनाए रखना यह सिद्ध करता है कि हिंदुस्तानी जनता अब राजनेताओं को कटघरे में खड़ा करने लगी है। 27 दिसंबर को तो मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने दिल्ली के सेंट्योर होटल से प्रधानमंत्राी निवास तक पैदल मार्च किया और देर रात तक प्रधानमंत्राी आवास के बाहर खड़े रहे। इन लोगों के इस तर्क में निसंदेह बहुत दम है कि अगर कोई राजनेता या उसका परिवारजन इस वायुयान में होता तो निर्णय लेने में सरकार इतनी देर न लगाती। अपनी इस भावना का खुला प्रदर्शन इन रिश्तेदारों ने अलग-अलग टेलीविजन कंपनियों के सामने खुल कर किया। देश के बिगड़ते निजाम और सूचना क्रांति के चलते भारतीय लोकतंत्रा के पांचवें दशक में जनता में जिस तरह की जागरूकता आ रही है और जिस तरह की जवाबदेही की अपेक्षा वह राजनीतिज्ञों से करने लगी है वह एक स्वस्थ्य प्रवृत्ति है। इससे भारतीय लोकतंत्रा मजबूत ही होगा। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा क्यों हो गया है कि राजनेता किसी भी विचारधारा या दल के क्यों न हों जनता की निगाह में उनकी तस्वीर एक फिल्मी विलेन से ज्यादा नहीं बची है। आज खादी के सफेद कपड़े पहनने वाले को सरेआम दलाल कहा जाता है। सुरक्षा गार्डों को लेकर चलने वाले नेताओं पर नौजवान फब्ती कसते हैं, ‘देखो एक और चोर जा रहा है।’ एक जमाना था जब केंद्र और प्रांत की सरकार आमतौर पर एक ही दल चलाता था पर आज दो दर्जन दल देश की सरकार चलाने पर मजबूर है। क्योंकि जनता का विश्वास किसी भी दल या विचारधारा में नहीं रहा। उसने अब ये अच्छी तरह समझ लिया है कि विचारधाराओं के मुखौटे तो जनता को बरगलाने के लिए होते हैं, पर्दे के पीछे तो सबकी मिली भगत है। इस सदी के आखिरी वर्ष में अगर हम देश की राजनैतिक स्थिति का मूल्यांकन करs तो कुछ रोचक तथ्यों को अनदेखा नहीं कर पाएंगे। इस सदी के शुरू में श्री बालगंगाधर तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री लाला लाजपत राय, श्री गोपाल कृष्ण गोखले, श्री सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे महान्, त्यागी, राष्ट्र भक्त और युग दृष्टा राजनेताओं की एक लंबी कतार पाते हैं। जबकि आज के दौर की राजनीति के कुछ चमकते सितारें हैं श्री अमर सिंह, श्री ओम प्रकाश सिंह चैटाला, श्री लालू यादव, श्री पप्पू यादव, श्री सुखराम, श्री गुलामनबी आजाद आदि। कोई इन राजनेताओं से पूछे कि आप कौन-सी राजनैतिक विचारधारा में पले, बढ़े ? उस विचारधारा से आपके जीवन का क्या संबंध है ? आपने अपने जीवन में समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए कौन सा संघर्ष किया? क्या तकलीफें सही ? किन सुख, सुविधाओं का त्याग किया ? आखिर आपने देश और समाज के लिए ऐसा क्या योगदान किया कि आज आप देश के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं ? हो सकता है कि जवाब मिले ‘क्या करें हालात ही ऐसी है कि हमें न चाहते हुए भी बहुत कुछ ऐसा-वैसा करना पड़ता है।’ तब प्रश्न किया जा सकता है कि जिसने हालात के आगे समर्पण कर दिया हो उसे नेता कैसे माना जा सकता है ? नेता तो वह होता है जो विपरीत हालात में भी अपनी बात मनवाने की कुव्वत रखता हो। जो समाज और राष्ट्र को दिशा और नेतृत्व देने की क्षमता रखता हो। ऐसे सक्षम कितने नेता आज देश में हैं ? कितने नेता देश में हैं जिनकी एक झलग देखने को गांव के गांव उमड़े चले आते हों ? आज हर दल को किराए की भीड़ क्यों जुटानी पड़ती है ? ये कैसा लोकतंत्रा है जिसमें नेताओं के बेटे तो घर बैठे नेता बन जाते हैं और कार्यकर्ता जीवन भर कार्यकर्ता ही बने रहते हंक ? इस सदी में भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में आए इस प्रमुख परिवर्तन का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। आज देश का प्रबंधन और प्रगति की दिशा देश में उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रख कर या लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। बल्कि निहित स्वार्थों के आत्मपोषण के लिए है।

साफ बात है कि जब समाज सेवा का ढोंग रच कर लुटेरी मानसिकता के लोग राजनीति मंे हावी हो जाएंगे तो उनके प्रति जनता का रवैया इससे भिन्न और क्या हो सकता है ? कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर राजनेताओं की देश में इज्जत नहीं बची है। यह राष्ट्र और समाज के लिए दुखद स्थिति है। राजनेताओं को ही इसके कारण खोजने चाहिए। उन्हें धरातल पर उतरना चाहिए। उन्हें सदी के इस अंतिम वर्ष में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के इस पतन पर आत्मविश्लेषण करना चाहिए ताकि नई सदी में वे सही मायने में देश को नेतृत्व दे सकें। जिसकी भारत जैसे देश को अभी बहुत जरूरत है। ऐसा नहीं है कि सभी राजनेताओं का एक जैसा हाल है। अगर केंद्रीय सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल की तरफ ही देखें तो हर मामले में न सही, पर कुछ मामलों में अनूठे आदर्श सामने दिखाई देते हैं। मसलन, केंद्रीय रेल मंत्राी सुश्री ममता बनर्जी ने अभी तक अपने पद के अनुरूप सरकारी बंगला नहीं लिया है। वे बिना किसी तामझाम के, बेहद सादगी से, अपने उसी फ्लैट में रह रही हैं जिसमें बतौर सांसद वे आज तक रहती आई हैं। कोई अनजान व्यक्ति भी आसानी से उनके घर में घुस सकता है। इतना ही नहीं सुश्री बनर्जी अपने टिफिन में घर से अपना लंच लेकर जाती हैं। उनसे मिलने आने वालों को रेल मंत्रालय की कैंटीन से चाय मंगवा कर पिलाती हैं और उसका भुगतान भी खुद ही करती हैं। जबकि आज तक परंपरा यही थी कि रेलमंत्राी के मेहमानों की खातिर शाही तरीके से रेल विभाग द्वारा की जाती थी और इस फालतू खर्च का भार पड़ता था जनता पर। क्या ममता बनर्जी की तरह ही केंद्रीय सरकार के बाकी मंत्राी भी इसी तरह ही सादगी और मितव्यता से काम नहीं कर सकते ? दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है केंद्रीय रक्षा मंत्राी श्री जार्ज फर्नाडीज का। उनके पद की संवेदनशीलता को देखते हुए उनके साथ सेना के जवानों और सुरक्षा कर्मियों का लगातार उनके इर्द-गिर्द बने रहना स्वभाविक सी बात है। पर श्री जार्ज फर्नाडीन ने ये सारे भ्रम तोड़ डाले हैं। यूं कहने को तो वे रक्षा मंत्राी है पर उनके बंगले के दरवाजे पर कोई भी सुरक्षा कर्मी तैनात दिखाई नहीं देते। नई दिल्ली के कृष्णा मेनन मार्ग पर स्थित रक्षा मंत्राी के सरकारी आवास का आलम यह है कि इतने बड़े बंगले में एक फाटक तक नहीं लगा है। कोई भी सड़क चलता आदमी रक्षा मंत्राी के शयन कक्ष तक बे-रोक-टोक पहुंच सकता है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है और वह यह कि जब देश का रक्षा मंत्राी बिना सुरक्षा कर्मियों के आराम से रह सकता है, उसे कोई खतरा नहीं नजर आता, तो देश के बाकी नेताओं और उनके चमचे चाटुकारों को ऐसा कौन सा खतरा पैदा हो गया है जो सारे के सारे अपने इर्द-गिर्द सुरक्षा कर्मियों को लटकाए घूमते हैं। राज्यों के मुख्यमंत्राी जब सड़कों पर निकलते हैं तो उनके आगे-पीछे आला अफसरों की गाडि़यों का इतना बड़ा हुजूम होता है कि दुनिया के ज्यादातर देशों के राष्ट्राध्यक्ष तक देख कर घबड़ा जाएं। ये फिजूलखर्ची क्यों ? आर्थिक रूप से दीवालिया हो चुके उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हर विधायक तक एक एक सुरक्षाकर्मी को साथ लेकर घूमता है। खर्चा पड़ता है प्रदेश की जनता पर। जो जनप्रतिनिधि बन कर भी जनता के बीच जाने से घबड़ाता हो उसे जनता अपना नेता क्यों माने ? देश में नेतृत्व और आदर्शवादी राजनीतिज्ञों का अभाव सदी के अंतिम वर्षों में एक बहुत बड़े संकट के रूप में उभर कर सामने आया है।

राजनीति में आई इस गिरावट के लिए वो सब लोग जिम्मेदार हैं जो राजनीमि को अछूत मानते आए हैं। फिर चाहे वो समर्पित और त्यागी सामाजिक कार्यकर्ता हों या अन्य व्यवसायों से जुड़े संवेदनशील जागरूक नागरिक- सबको सोचना चाहिए कि इस तरह हजारों झुंडों और खेमों में बंट कर वे समाज को कैसे बदल पाएंगे? किले का सदर दरवाजा तोड़ने के लिए लकड़ी का एक लट्ठा ही काफी होता है। बशर्ते कि उसे सामुहिक रूप से उठाने के लिए कुछ लोग तैयार हों और वे सब सामुहिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उस लट्ठे से किले के सदर दरवाजे पर बार-बार आघात करें। दुर्भाग्य से राष्ट्र व समाज के बारे में सोचने वाले लोग अपने अहम के चलते किसी दूसरे के काम को न तो समझना चाहते हैं और न उसकी प्रशंसा करना चाहते हैं। सबको अपनी सोच, अपनी क्षमता और अपना काम ही सर्वश्रेष्ठ लगाता है। अगली सदी में यह स्थिति बदल सके इसके लिए जागरूक नागरिकों को ही पहल करनी होगी। ताकि देश की राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह और पारदर्शी बनाया जा सके। इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। भारत के बिगड़े हालात सुधारने चीन या पाकिस्तान के नागरिक तो करूणावश यहां आएंगे नहीं ? अगर हम चाहते है कि हमारे नेताओं का व्यक्तित्व गर्व करने योग्य हो तो हम सबको इसके लिए सतत प्रयास करना होगा। ताकि जब इंडियन एअर लाइंस का विमान अपहरण करके ले जाया जाए तो लोगों को प्रधानमंत्राी और विदेश मंत्राी के घर के सामने धरना न देना पड़े, उनकी आलोचना न करनी पड़े, उनकी औपचारिक बैठकों में दखन न देना पडे़, बल्कि उन्हंे विश्वास हो कि सरकार जो भी करेगी सर्वश्रेष्ठ करेगी, उनके हित में करेगी और जितनी जल्दी हो सके करेगी। पिछले दो दशकों में सरकार और प्रशासन पर से जनता का भरोसा लगभग उठ चुका है। किसी देश के लिए इससे ज्यादा चिंता की बात और क्या होगी कि उसकी जनता का अपनेे नेतृत्व में विश्वास ही न हो ? इस बिखराव को रोकना होगा और लोगों का विश्वास फिर से राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में जमाना होगा। तभी अगली सदी में वह सब हासिल हो पाएगा जिसके सपने आज देखे और दिखाए जा रहे हैं।

केवल नारो से कोई राष्ट्र मजबूूत नहीं बना करता। नारो के पीछे समर्पण और आदर्श-जीवन के उदाहरण होते हैं, तभी नारे सार्थक हो पाते हैं। पर दुर्भाग्य से बाजारू शक्तियों ने राष्ट्र के जीवन में आने वाले हर ऐतिहासिक अवसर को माल बेचने के अवसर में बदल देने में महारथ हासिल कर ली है। फिर चाहे वो कारगिल युद्ध हो या नई सदी के उत्सव। बाजारू शक्तियां मीडिया पर किस कदर हावी हैं इसका उदाहरण है नई सदी का बुखार, जो बिना वजह ही पूरे देश को चढ़ गया है। 1 जनवरी 2000 से बीसवीं सदी का आखिरी वर्ष शुरू हो रहा है ना कि नई सदी की शुरूआत। नई सदी तो 1 जनवरी 2001 से शुरू होगी। पर जिस तरह विज्ञापन एजेंसियां मिट्ठी को सोना बता कर बेंच देती हैं उसी तरह अब ये इतनी ताकतवर हो चुकी हैं कि बड़ी आसानी से लोगों की सोच पर कब्जा जमा लेती हैें। फिर चाहे वह सोच देश की समस्याओं के बार में हो या राजनैतिक नेतृत्व के बारे में या एड्स जैसी किसी तथाकथित महामारी के बारे में या क्रिकेट मैच के टीवी प्रसारण के बारे में, सब कुछ फास्ट-फूड की तरह पहले बाजारू शक्तियों के प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है और फिर उसे बड़ी होशियारी से लोगों के दिमागों में दर्ज करा दिया जाता है ताकि उसका फायदा कुछ कंपनियों के माल को बेचने में उठाया जा सके। इस तरह हमारी सोच और जेब दोनों पर डाका डाला जा रहा है। इस सदी के अंतिम दशकों में आ खड़े हुए इस नए खतरे के बावजूद अगर हमें अपने जीवन स्तर को वाकई उठाना है, भारत को महान् बनाना है और अपने राजनेताओं का रवैया सुधारना है, तो हमें कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे। वरना अगली सदी में सपने टूटते देर नहीं लगेगी। जाहिर है कि शराब पीकर ‘न्यू ईयर्स ईव’ पार्टियों में थिरकने वाले तो ऐसे कदम उठा नहीं सकते। फिर ये पहल कौन करेगा ?

Friday, November 5, 1999

हम तो जीना ही भूल गये


उज्जैन के एक युवा उद्योगपति पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, पर उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनने लगे हैं। हमेशा खुश रहने वाले गुलाबी चेहरे के 46 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने आज तक न तो कोई दवा का सेवन किया है औरा न ही किसी सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग किया है इसीलिये वे आज तक बीमार नहीं पड़े। पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ है। ? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं ? पहली बार मिलने पर श्री ऋषि की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औ़द्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों को सैल्फ मैनेजमेंटपर व्याख्यान देने जाते हैं, जिसकी वह कोई फीस या खर्चा नहींे वसूलते। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट आयुष्मान भवके झंडे तले करते हैं। उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है।
उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथ ब्रश-टूथ पेस्ट, चाय, काॅफी, शेविंग, क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर लगभग साढे चार सौ करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके अलावा रोज सुबह आठ से रात तक छह सौ करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय,पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है जिनसे उन्हें कोई फायदा नहीं होता, उल्टे उनके शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जिनके इस्तेमाल से वे बीमार पड़ते हैं। फिर अंगेजी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च होता है सो अलग। इस तरह सालाना 365 हजार करोड़ रुपया फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 10 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं। अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। इतना ही नहीं, टीवी के विज्ञापनों में रोजाना चमक दमक के साथ दिखाई जाने वाली ये उपभोक्ता वस्तुयंे जनता को बहुत बड़ा धोखा देकर बेची जाती हैं। मसलन, बाजार में बिकने वाला एक सौंदर्य साबुन 15 रुपये से कम नहीं आता, जबकि इसकी लागत का विश्लेषण करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। इस साबुन की एक टिकिया पर टीवी में विज्ञापन का खर्च पड़ता है अढा़ई रुपया। इसके फुटकर विक्रेता से लेकर वितरक व कैरिंग एंड फार्वडिंग एजेंट का मुनाफा व यातायात की लागत होती है अढ़ाई रुपया। साबुन की इस टिकिया पर उत्पादन शुल्क व बिक्री कर आदि लगता है लगभग साढ़े तीन रुपया। इसकी आकर्षक पैकिंग पर डेढ़ रुपया खर्च होता है। इस साुबन को बनाने वाली बड़ी कंपनी का प्रशासनिक खर्च भी प्रति साबुन की टिकिया दो रुपये से कम नहीं होता। इन सबके बाद साबुन निर्माता कंपनी काप्रति साबुन मुनाफा होता है अढ़ाई रुपये तक। इस तरह साबुन की टिकिया बनाने के लिये कुल 50 पैसे बचते हैं यानी पचास पैसे का माल उपभोक्ता को 15 रुपये में मिलता है। 15 रुपये में 50 पैसे का माल लेकर भी तसल्ली कर ली जाती अगर यह माल कारामद होता। पर दुभाग्य यह है कि साबुन हमारी त्वचा की स्वाभाविक स्निग्धता यानी चिकनाई को खत्म कर देता है, इसलिये त्वचा रूखी सूखी हो जाती है जिसको तरोताजा बनाने के लिये फिर इसी तरह कोल्ड क्रीम बेची जाती है। वहां भी लागत और मूल्य का यही अनुपात रहता है।
यह तो एक उदाहरण है। टीवी के विज्ञापनों में दिखाये जाने वाले ऐसे तमाम सौन्दर्य प्रसाधनों तथा चाय, काॅफी, सिगरेट व शराब की भी लागत और बिक्री में लगभग यही अनुपात रहता है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अन अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीटे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे। प्राकृति वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम बैठा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में। सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यां कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।
 हम कैसे बैठकर खाना खायें ? क्या खाना खायंे ? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें ? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे ? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शस्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को इकट्ा करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये सैल्फ मैनेजमेंटकह दें या आर्ट आफ लिविंगकहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे है। और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।
ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे ? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं देशी तरीके से बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष खड़े होकर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैद के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है।
कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। दीपावली आने वाली है और ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते,पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।
जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकष्तिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं ओर लम्बे समय तक जीते हैं।
यहां उस राजा का उल्लेख करना उचित रहेगा जो अपने देश का दौरा करने निकला तो एक ऐसे गांव में जहा पहंुचा जहां सारा का सारा गांव ही भुखमरी में जी रहा था। केवल एक घर था जहां दोनों वक्त रोटी बनती थी। उस घर के मुखिया को सारा गांव शाह जी कहता था। गांव वालों के पास राजा के स्वागत के लिये कुछ भी नहीं था सो उन्होंने पानी का छिड़काव करके गांव के चबूतरे पर पत्ते बिछा दिये और उन पर दो आसन बिछा दिये। तय हुआ कि राजा के सम्मान में गांव की तरफ से एक आसन पर शाह जी बैठेंगे और दूसरे पर राजा। राजा ने जब अपनी प्रजा की गरीबी का यह हाल देखा तो वहीं खड़े अपने मंत्री ये घोषणा करवाई कि सब लोग अपने घर दौड़ कर जायें और जो भी बर्तन हो ले आयें, सबको दान मिलेगा। राजा की बगल में बैठे, गवै से उन्मुक्त, शाह जी ने सोचा अगर मैं भी दौड़ गया तो राजा मुझे इन्हीं लोगों की तरह भिखारी समझ लेगा। सो वह नहीं गया।राजा ने उस दिन हर आदमी को उसके बर्तन में भरकर अशर्फियां दान दीं। उस दिन से सारा गांव तो सम्पन्न हो गया और शाह जी रह गये फटेहाल। हम भारतीयों की भी हालत शाह जी जैसी है। जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैंे ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश उस गांव के दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होे जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं इस तरह हम जो सोने की चिडि़या कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।
यह सदी का ही नहीं सहस्त्राब्दि का अंतिम दौर है। हमें इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है ? ताकि अगली सदी और अगली सहस्त्राब्दि का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।

Friday, January 22, 1999

ये रईसजादे

दिल्ली की एक प्रमुख सड़क पर तड़के चार बजे 140-150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 60 लाख रुपए की कीमत वाली बीएमडब्लू कार चला रहे एक युवक ने अपने मित्रों के साथ, सात लोगों को कुचल दिया। इनमें से छह मर चुके हैं और सातवां अस्पताल में है। इन युवकों ने रुक कर घायलों का प्राथमिक उपचार कराने या अपने मोबाइल फोन से पीसीआर को सूचना देने की भी जरूरत नहीं समझी। बल्कि दुर्घटना में फटी पेट्रोल टंकी वाली कार लेकर किसी तरह अपने दोस्त के घर पहqच गए। दोस्त और उसके पिता को भी यह अनुचित या अनैतिक नहीं लगा। वे भी तुरत-फुरत अपने ड्राइवर और चैकीदार के साथ मिलकर इतनी बड़ी दुर्घटना के सबूत मिटाने में जुट गए। कम से कम कार की हालत से तो उन्हें पता चल ही गया होगा कि दुर्घटना मामूली नहीं थी। उन्होंने तो घर के बाहर निकाल कर अथवा छत पर जाकर यह देखने की भी जरूरत महसूस नहीं की कि कोई पीछा करता हुआ आ तो नहीं रहा है।

यह पूरा मामला एक उदाहरण है जिससे पता चलता है कि हमारा ‘सभ्य और कुलीन’ समाज कहां जा रहा है ? इस समाज में पैसे वाले या बड़े कहे जाने वाले लोगों की नैतिकता व समाज के प्रति जिम्मेदारी का क्या हाल है ? इस वर्ग के लोगों में सिर्फ अपनी खाल बचाने की चिंता किस कदर हावी हो चुकी है? ये कोई मामूली लोग नहीं हैं जो रोजी-रोटी की जुगाड़ में ही इतने परेशान रहते हैं कि ‘आ बैल मुझे मार’ की सोच भी नहीं सकते हैं। ये तो ऐसे लोग हैं जिनके पास अकूत पैसा है, बड़े से बड़े वकील रख सकते हैं और कोर्ट-कचहरी के काम के लिए दो तीन आदमी तैनात कर सकते हैं। इस सबके बावजूद इन्हें जानलेवा गलती करके भी कोई पश्चाताप नहीं हुआ या इसके लिए कुछ भी करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इन्हें अपने बिगडै़ल बच्चों को ही बचाने की फिक्र थी। उन अनाथ हुए बच्चों और विधवा हुई महिलाओं की नहीं जिनके सुहाग इन ‘साहबजादों’ के नशे का शिकार हो गए।

अब बहस का मुद्दा ये नहीं है कि सड़क पर खड़े सात के सात लोगों को कुचल देने के बाद संजीव नंदा ने गाड़ी क्यों नहीं रोकी। कचहरी में बहस इस बात पर हो रही है कि पुलिस ने इन्हें गलत धाराओं में निरूद्ध किया है। जाहिर है कि पुलिस ने इन पर जो धारा लगाई है वह ज्यादा कड़ी है और उसमें छूटने की संभावना कम है और ज्यादा सजा का प्रावधान है। पुलिस की इस कार्रवाई को किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि संजीव नंदा और उसके मित्रा अगर दुर्घटना के बाद रुककर घायलों के उपचार में लगते या इन्हें अस्पताल ले जाने की व्यवस्था करते तब बात कुछ और ही होती। फिर भी तब क्या इन्हें छोड़ दिया जाता? जाहिर है नहीं। ऐसी हालात में इन लोगों के खिलाफ शायद सड़क दुर्घटना का मामला ही बनता। क्योंकि तब यह साफ हो जाता कि इनके इरादे नेक थे। हो सकता है कि कुलीन समाज के लोग ये तर्क करें कि अगर वे ऐसी पहल करते तो उन्हें पुलिस तंग करती। यह सही है कि पुलिस की जो छवि जनता में बनी है उसके कारण आम आदमी ऐसे हर झमेले से बचना चाहता है जिसमें उसे पुलिस से उलझना पड़े। पर मानवीय संवेदना और सामाजिक दायित्व भी तो कोई चीज होती है। आए दिन समाज में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब किसी साधारण से आदमी ने सड़क पर घायल पड़े लोगों की ऐसी मदद की कि उनकी जान बच गई। यह शालीनता प्रायः समाज के निम्न वर्ग में ज्यादा पाई जाती है। राजधानी दिल्ली के ही ऐसे कितने उदाहरण है जब इस तबके के लोगों ने सड़क पर बुरी तरह घायल पड़े जिन नौजवानों को अस्पताल पहुंचाया वे रईसों के साहबजादे थे। इस मदद से कायल हुए उन परिवारों ने जब निम्न वर्ग के ऐसे प्राणदाताओं को मोटी रकम ईनाम में देनी चाही तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि वे अपने इंसानी फर्ज की कोई कीमत नहीं लगाना चाहते। आदमी को पैसे से तौलने वाले ठगे से रह जाते हैं, जब देखते हैं कि एक सड़क छाप आदमी उनको नैतिकता में बौना बना कर चला गया।

महंगाई और गरीबी की मार से सताए हुए एक तरफ ये आम लोग हैं जिनमें आज भी नैतिकता और सामाजिक सारोकार बाकी है और दूसरी तरफ एडमिरल नंदा के पोतेनुमा लोग हैं जो पांच सितारा मस्ती में इतना खोए हैं कि अपनी ही गलती के शिकार हुए लोगों की जान बचाने की कोशिश भी करने को तैयार नहीं हैं। दुर्घटना की घबड़ाहट में उस स्थल से भाग जाना भी एक बार को समझा जा सकता है। पर अगले थाने पर समर्पण न करना और घायलों के बारे में पुलिस कंट्रोल रूप को सूचना न देना आपराधिक मानसिकता का प्रतीक है। ऐसी मानसिकता एक दिन में पैदा नहीं होती। उसकी एक लंबी पृष्ठभूमि होती है। जैसे संस्कार वे अपने परिवार और परिवेश में देखते हैं वैसा ही बर्ताव फिर वे समाज में करते हैं। अगर वे सूचना भर दे देते तो कौन जाने कुछ बेगुनाह जाने बच सकती थी? इस पूरे घटनाक्रम से जो खबर अखबारों के दफ्तर में पहले आई वह थी कि जिन धाराओं में इन युवकों को निरूद्ध किया गया है उनके कारण मृतकों के आश्रितों को ‘मोटर दुर्घटना दावा पंचाट’ से मुआवजा नहीं मिलेगा। मृतकों के साथ-साथ उनके आश्रितों के साथ सहानुभूति रखने वाले तमाम लोगों के लिए यह चिंताजनक खबर थी। पर बाद में जब खबर आई कि मुआवजा मिलने में इन धाराओं से कोई फर्क नहीं पडे़गा, तो सबने राहत की सांस ली।

इसके बावजूद अभियुक्तों ने जो किया है उसके लिए उन्हें सामान्य से ज्यादा सजा मिलनी चाहिए-इसमें कोई दो राय नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हर तरह से पैसा कमाने में जुटे और अमीर या बड़े बने लोगों को यह समझ में आ जाए कि रईसी, गरीब को नशे में कुचलने का लाइसेंस नहीं देती। वैसे भी देश में अमीरों और गरीबों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हैं। फिर भी दिल्ली के अमीरजादे इस गलतफहमी के शिकार हैं कि पैसें हों तो लालबत्ती पर रुकने की जरूरत नहीं। अव्वल तो कोई रोकता नहीं है और कोई रोक भी ले तो जुर्माना अदा करके छूटा जा सकता है। इसी लिए यहां के आत्मघोषित सुसंस्कृत लोग लालबत्ती पर नहीं रुकने में गर्व महसूस करते हैं।
घटना के पांच दिनों बाद सामने आए चश्मदीद गवाह सुनील कुमार ने अखबार वालों को बताया है कि टक्कर मारने के बाद संजीव ने आगे बढ़कर गाड़ी रोकी थी। उसने और उसके साथ बैठे दूसरे युवक ने उतर कर गाड़ी का हाल देखा और फिर वहां से फरार हो गए। इस तरह स्पष्ट हैं कि इन लोगों को मरने वालों से ज्यादा चिंता अपनी महंगी विदेशी कार की थी। होती भी क्यों नहीं ? आखिर यही कार उनके बाप-दादों की संपन्नता की प्रतीक थी और इसी संपन्नता के बल पर उन्हें यकीन था कि वे बचा लिए जाएंगे। यह तो उनकी किस्मत खराब थी कि पीसीआर जिप्सी पर इंस्पेक्टर जगदीश पांडे की ड्यूटी थी, दुर्घटना एकदम भोर में हुई और वह इतवार का दिन था। वरना विदेशी पासपोर्ट और अंतर्राष्ट्रीय ड्राइविंग लाइसंेस वाले इस युवक के लिए देश छोड़कर भाग जाना कोई मुश्किल काम नहीं था। क्योंकि हर तरह से पैसे कमाने में मशगूल ऐसे लोग यही समझते हैं कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।

भला हो पीसीआर के इंस्पेक्टर जगदीश पांडे का कि उन्होंने सिर्फ सरकारी खानापूर्ति से आगे बढ़कर बुद्धिमता का इस्तेमाल किया और बीएमडब्लू कार और सबूत मिटाने वालों को रंगे हाथों पकड़ लिया। इससे दिल्ली पुलिस भारी बदनामी और नालायक व निकम्मी होने के आरोपों से बच गई। आम लोगों को भी लगा कि कानून को हाथ में लेने वाले बड़े बाप के बच्चें ही क्यों न हो उनके खिलाफ कार्रवाई तो हुई। लोगों को यह देखकर अच्छा लगा कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में अभी भी ऐसे लोग हैं कि नौसेना प्रमुख एडमिरल नंदा के पोते को भी तिहाड़ जेल की हवा खानी पड़ी। वरना नंदा परिवार के सदस्यों को तो पैसे का इतना घमंड था कि ये लोग नोटों के बंडल के साथ अदालत पहंुच गए थे। मानों वहीं जमानत मिल जाएगी और इसकी रकम जमा हो जाएगी।

देश के कई मशहूर और महंगे वकीलों से सलाह लेने के बाद इन्हें विश्वास था कि सड़क दुर्घटना के इस मामले में जमानत तो हो ही जाएगी। पैसे के नशें में चूर इन लोगों ने यह जानने की भी जरूरत नहीं समझी कि जमानत लेने की प्रक्रिया क्या होती है ? अगर नौसेना प्रमुख जैसे उच्च पदों पर रहे परिवार के सदस्यों का यह हाल है तो ऐसे मां-बाप के बच्चों से क्या उम्मीद की जाए? वह भी तब जब नौसेना प्रमुख रह चुके व्यक्ति का बेटा अंतर्राष्ट्रीय हथियारों का सौदागर हो जाए। ऐसे घर और संस्कार वालांे का 20 साल का पोता अगर बिना नंबर की बीएमडब्लू कार चलाएगा तो उससे भी और क्या उम्मीद की जा सकती है? अदालत में बचाव पक्ष भले ही उसे बच्चा कहे, पर उसके मां-बाप उसे बच्चा मानते तो बीएमडब्लू कार से पार्टी में नहीं जाने देते। कम से कम इस ‘बच्चे’ की हिफाजत के लिए एक ड्राइवर तो साथ भेजते ही। पर रातो रात रईस बने लोग तो आज इस बात पर फक्र करते हैं कि उनका बच्चा कौन सी गाड़ी चलाता है ? कैसी गाड़ी चलाता है? किस ‘ब्रांड-नेम’ के कपड़े पहनता हैं ? कैसी डांस पार्टियां आयोजित करता है ? आदि। एक ऐसे ही घनाड्य महिला अपनी मित्रा को बता रहीं थी कि उनका सोलह साल का बेटा सातों गाडि़यां चला लेता है। इस एक वाक्य में उनकी पूरी मानसिकता का परिचय मिलता है। गाड़ी एक चलाए या सातों, क्या फर्क पड़ता है ? हां, इस तरह अपने वैभव का प्रदर्शन जरूर होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि कानूनों के पालन के प्रति इस वर्ग में कितनी अरूचि है। कानून तोड़ने की इस संस्कृति से ही पनप रहे ये धनाड्य लोग भारत में उसी मानसिकता से रहते हैं जैसे औपनिवेशिक शासक देश लूटने के लालच में भीषण गर्मी की मजबूरी झेलकर भी यहां पड़े रहते थे। जब तक उन्हें भारत से आर्थिक फायदा मिला, वे यहां टिके रहे। जब भारत उन पर भार बनने लगा, तो इसे छोड़ भागे। ये नवधनाड्य लोग भी तभी तक भारत के सीने पर मूंग दलेंगे, जब तक कि यहां पड़े रहना फायदे का सौदा है। जिस दिन यह घाटे का सौदा बन जाएगा ये यहां रूकने वाले नहीं है। इन सबने अपने अवैध धन से विदेशों में जायदादे बना रखी हैं। गुप्त खातों में मोटी रकम जमा करवा रखी हैं। जब देश के हालात नाजुक देखेंगे तो देश छोड़कर भाग जाएंगे। यह जिम्मेदारी तो मध्यम और निम्न वर्ग के उन युवाओं की है जिन्हें इसी भारत भूमि पर जीना और मरना है। उन्हें चाहिए कि इन रईसजादों के भड़काऊ जीवन की चकाचैंध से भ्रमित न हों बल्कि इनके कारनामों, इनकी जिंदगी और रवैए पर कड़ी निगाह रखें, ताकि भौंडे उपभोक्तावाद के इस नासूर को बढ़ने से पहले ही कुचल दिया जाए।