पिछले महीने दिल्ली में षिक्षा पर दक्षिण एषियाई देषों का एक सेमिनार हुआ। इस तीन दिवसीय सेमिनार में विषेशकर लड़के और लड़कियों के षिक्षा अनुपात में अंतर पर जोर दिया गया। सात देषों से आए बुद्धिजीवियों ने लड़कियों की कम साक्षरता पर चिंता जताई। इसी सम्मेलन में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती षीला दीक्षित ने एक महत्वपूर्ण सवाल की ओर लोगों का ध्यान आकृश्ट कराया। उनका सवाल था कि क्या कारण है कि षिक्षित होने के बावजूद भी लोग जघन्य अपराध करते हैं। क्या वजह है कि उच्च षिक्षा हासिल करने के बावजूद भी लोगों में नैतिकता नहीं आ पाती? देखा जाए तो सवाल बड़े गंभीर हैं। साथ ही सरकार तथा दर्जनों स्वयंसेवी और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा साक्षरता के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर भी सवालिया निषान लगा देते हैं। साल भर में हजारों करोड़ रुपये खर्च करके सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं सैकड़ों-हजारों बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाती हैं और उनमें समाज में स्वाभिमान के साथ जीने का माद्दा पैदा करती हैं। इनकी कोषिषों के बलबूते ही ऐसे अनेक लड़के और लड़कियां ककृखकृगकृघकृ सीख चुके हैं, जिन्हें, और जिनके मां-बाप को कभी उम्मीद नहीं थी कि उनके लाड़ले कभी पेन्सिल भी पकड़ पाएंगे। भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देष में अपराध भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं।
आंकड़ांे के मुताबिक वर्श 2001 में भारत की साक्षरता दर 65 प्रतिषत थी। इस मामले में भारत कई पड़ोसी देषों से बहुत आगे है। यूनेस्को की सांख्यकीय इयरबुक 1999 के मुताबिक, भारत में जहां 44.2 फीसदी लोग ही निरक्षर हैं, वहीं पाकिस्तान में यह संख्या 56.7 प्रतिषत, नेपाल में 58.6 प्रतिषत, बांग्लादेष में 59.2 प्रतिषत तथा अफगानिस्तान में निरक्षरता का प्रतिषत 63.7 है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत में अनपढ़ों की संख्या हमारे पड़ोसी मुल्कों से काफी कम है। उधर, भारत की सरकार भी सबको षिक्षा देने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। नई-नई योजनाएं और कानून बनाकर हरेक के लिए षिक्षा को जरूरी बनाया जा रहा हैं। सरकार का प्रयास है कि बच्चे तो बच्चे, बडे-बूढे़ भी पढ़ना-लिखना सीखें। इसके लिए प्रौढ़ षिक्षा कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। जहां बिना किसी भेदभाव के किसी भी आयु वर्ग के लोग आकर साक्षर लोगों की जमात में षामिल हो सकते हैं। वैसे सरकार इस बात से चिंतित भी है कि अनेक तरह से प्रोत्साहित करने के बावजूद भी लोग लड़कियों को षिक्षा दिलाने में अभी भी संकोच करते हैं। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, वर्श 2001 में भारत में जहां 76 फीसदी पुरुश षिक्षित थे, वहीं महिलाओं का प्रतिषत मात्र 54 ही था। वैसे देखा जाए तो पिछले वर्शों में इसमें इजाफा ही हुआ है।
षिक्षा पर पैसा खर्च करने में भी सरकार पीछे नहीं है। भारत ने षिक्षा पर वर्श 2001-02 के दौरान सकल घरेलु उत्पाद का 4.02 फीसदी धन खर्च किया। यह बहुत बड़ी राषि है, परंतु इसके बावजूद करीब 44 फीसदी लोग अभी भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। इसके लिए बहुत से कारण जिम्मेवार हैं। साक्षरता के मामले में सबसे आगे केरल है। वहां के करीब 91 प्रतिषत लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं जबकि सबसे कम बिहार में 48 फीसदी लोग ही साक्षर हैं। इसके अलावा झारखण्ड, जम्मू-कष्मीर, अरुणाचल प्रदेष तथा उत्तर प्रदेष में भी साक्षर लोगों की संख्या देष के कुल साक्षरता प्रतिषत से काफी नीचे है। पिछले कुछ सालों में देष में स्कूलों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वर्श 2001-02 में जहां 6,64,041 प्राइमरी स्कूल थे, वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों की संख्या 2,19,626 थी। हाईस्कूल-इंटर कालेज 1,33,492 थे जबकि स्नातक और परास्नातक स्तर के काॅलेज की संख्या 8,737 पार कर गई। इंजीनियरिंग, तकनीकी, चिकित्सा आदि व्यावसायिक षिक्षा देने वाले काॅलेजों की संख्या भी 2,,409 थी। इसके अलावा देष में 272 यूनीवर्सिटी तथा राश्ट्रीय महत्व के संस्थान थे। स्कूल-काॅलेजों की इतनी बड़ी फौज और सरकार द्वारा हजारों-करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी सवाल आखिर वही है। इन स्कूल-काॅलेजों में दी जाने वाली षिक्षा को हासिल करके भी लोगों में नैतिकता क्यों नहीं आ पाती? क्यों वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते? क्यों देष में अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है कि हमारी षिक्षा प्रणाली में कहीं न कहीं कमी है। हमें जो करना चाहिए, वह हम नहीं कर पा रहे हैं। नैतिकता और मानवता कोई घुट्टी तो है नहीं, जो लोगों को पिला दी जाए।
व्यक्ति के आंतरिक मूल्यों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला सांसारिक और दूसरा मानवीय। सांसारिक मूल्यों के अंतर्गत सांस्कष्तिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यवसायिक और सामाजिक मूल्य आते हैं। इनमें सांस्कष्तिक मूल्य सामान्यता अनुभव, स्वभाव और प्रथाओं से संबंधित होते हैं। राजनीतिक मूल्य इंसान को संकीर्ण मानसिकता से उबरकर उदार बनाते हैं। आर्थिक मूल्य इस बात की प्रेरणा देते हैं ‘‘हमेषा अच्छा खरीदो-हमेषा सस्ता खरीदो।’’ व्यापारिक मूल्य व्यक्ति के व्यापारिक संबंधों को परिभाशित करते हैं। सामाजिक मूल्यों के जरिए व्यक्ति समाज से जुड़ाव महसूस करता है। इसी तरह स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, समानता, आत्मनियंत्रण और सहयोग की भावना मानवीय मूल्यों के तहत आती हैं। ईमानदारी, एकता, अहिंसा, सच्चाई तथा न्याय नैतिक मूल्यों में षुमार होते हैं। प्यार, षांति, षुद्धता, मानवता, सच्चाई, करुणा, आदर,, क्षमाषीलता, मैत्री, एकजुटता तथा खुषी के भाव आध्यात्मिक मूल्यों की षाखाएं हैं। यदि इन सभी मूल्यों को व्यक्ति आत्मसात कर ले, तो वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। अब जरूरत है ऐसी षिक्षा तथा ऐसी प्रणाली को विकसित करने की, जो व्यक्तियों में इन गुणों का विकास कर सके।
आजकल की षिक्षा केवल प्रतियोगितात्मक वातावरण को बढ़ावा दे रही है। जैसा कि आम तौर पर माना जाता है कि उच्च षिक्षा पाने से व्यक्ति भला-बुरा सोचने में सक्षम हो जाता है। साथ ही उसमें सहृदयता का प्रादुर्भाव हो जाता है। पर, यह पूरी तरह सच नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपराध नहीं करता। पर यह कटु सत्य है कि देष ही नहीं दुनिया भर में होने वाले अपराधों को अंजाम देने वाले अनपढ़ नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे व्यक्ति होते हैं। इनमें से बहुत से तो ऐसे होते हैं जिनके हाथों में देष और देषवासियों की बागडोर होती है, जैसे कि राजनेता। कुछ नेता राजनीति रूपी तालाब को गंदा कर रहे हैं, और इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है षरीफ प्रतिनिधियों को। हालत यहां तक बदतर हो गई है कि नेताओं को भ्रश्टाचार और घोटालों का पर्याय माना जाने लगा है। देष में आज तक सैकड़ों घोटाले हुए हैं। अगर देखा जाए तो उनमें से अधिकांष में किसी न किसी नेता का हाथ होता है। बहुत से डाॅक्टर, इंजीनियर भी ऐसे हैं जो थोड़े से दहेज के लिए अपनी पत्नी को सूली पर चढ़ाने से नहीं चूकते। यहां तक कि अपराधों को रोकने की जिम्मेदारी जिनके ऊपर होती है, वह भी कानून के ढीले पेंचों को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। विज्ञान में मनुश्य के बढ़ते कदमों का भी नैतिकता का कोई सरोकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो जिस गति से मानव विज्ञान में तरक्की कर रहा है, उसी गति से उसमें नैतिकता भी बढ़ती। संचार और सूचनाओं के वैष्विक फैलाव का भी असर उलटा ही पड़ा है। कोई व्यक्ति गलत काम तभी करता है, जब उसके अंदर नैतिकता खत्म हो जाती है। मानवीय मूल्यों का पतन हो जाता है। उसकी आत्मा मर जाती है। आजकल लोगों में जिस तेजी से नैतिकला का लोप होता जा रहा है, वह बहुत ही चिंता की बात है।
इसलिए सिर्फ षिक्षित करना ही पर्याप्त नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों को ऐसी षिक्षा दी जाए, जो उनकी तरक्की में तो सहायक हो ही, साथ ही उन्हें नैतिकता का पाठ भी पढ़ाए। उन्हें समाज में षांति से रहना सिखाए।