पिछले दिनों मैं उत्तरी दिल्ली के व्यावसायिक क्षेत्र में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सम्भाषण करने गया। जिज्ञासावश वहां उपस्थित लोगों से दिल्ली के भावी चुनाव पर कुछ सवाल किए। जब ये पूछा कि उनकी दृष्टि में श्रीमती शीला दीक्षित और श्री मदनलाल खुराना में क्या अंतर है तो बहुत ही रोचक उत्तर मिले जो पाठकों को दिल्ली की नब्ज का कुछ एहसास करा सकते हैं।
इन लोगों का कहना था कि श्री मदनलाल खुराना जनता को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। जबकि सारी दिल्ली श्री खुराना के पोस्टरों और होर्डिंगों से पटी पड़ी है। एक से एक आकर्षक रंगीन इश्तहारों के मार्फत श्री खुराना को परिवर्तन का मसीहा बताया जा रहा है। उनकी परिवर्तन यात्रा दिल्ली के हर इलाके से बड़ी शान-शौकत से गुजर रही है। भड़काऊ और सत्ता विरोधी भाषण हो रहे हैं। प्रायोजित भीड़ भी जुटाई जा रही है। जिस इलाके से यात्रा गुजरती है उसे झंडियों और पोस्टरों से लाद दिया जाता है। अगर यही सब सफलता का मापदंड होता तो श्री खुराना की परिवर्तन यात्रा दिल्ली में आने वाले राजनैतिक तूफान का संकेत देती पर वास्तविकता कुछ और है।
लोगों का मानना है कि श्री खुराना केवल गाल बजाते हैं ठोस कुछ भी नहीं करते। जिन समस्याओं को लेकर आज वो दिल्ली की जनता को जगाने निकले हैं उनका कोई हल उनके पास नहीं है। जब वे खुद मुख्यमंत्री थे तब भी ये समस्याएं यूं ही बरकरार थीं। वे श्रीमती शीला दीक्षित पर दिल्लीवासियों के लिए कुछ भी नहीं कर पाने का आरोप लगाते हैं पर दिल्ली के नागरिक इतने भोले नहीं कि सच्चाई को इतनी आसानी से अनदेखा कर दें। इन नागरिको का कहना है कि श्रीमती शीला दीक्षित धीर-गंभीर और प्रशासनिक रूप से सक्षम महिला हैं। वे ना तो खुराना जी या भाजपा के विरूद्ध किसी मंच पर जहर उगल रहीं हैं और ना ही अपने भाषणों में किसी भी तरह का हलकापन आने दे रही हैं। दिल्ली के नागरिकों का मनना है कि नागरिकों की सुविधा के लिए मेट्रो रेल का निर्माण करवा कर श्रीमती दीक्षित ने राजधानी वासियों की बहुत बड़ी सेवा की है। अभी मेट्रो रेल पूरी तरह से चालू नहीं हुई। इसलिए ज्यादा लोग इसका उपयोग नहीं कर रहे हैं पर भविष्य में यही मेट्रो दिल्ली की परिवहन व्यवस्था में रक्त धमनियों की तरह काम करेगी। श्रीमती दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली में सबसे ज्यादा फ्लाइओवरों का निर्माण हुआ है। जिनसे दिल्ली में परिवहन व्यवस्था में काफी सुधार आया है। अब दिल्ली के प्रमुख चैराहों, खासकर रिंग रोड पर ट्रैफिक जाम बहुत कम होता है और यातायात सुचारू रूप से चलता रहता है। एक ही चैराहे पर अगर बहुत देर तक डीजल की गाडि़यां खड़ी रहें तो सारा शहर प्रदूषित हो जाएगा पर फ्लाइओवरों के बनने से रिंग रोड जैसी व्यस्ततम सड़क पर भी अब प्रायः ट्रैफिक रूकता नहीं है।
श्रीमती दीक्षित इतने बड़े काम के लिए कोई बहुत गर्व में नहीं हैं। वे हर जनसभा में विनम्रता से अपने कामों का लेखाजोखा पेश कर देती हैं और जनता से अपने विवेक का इस्तेमाल करके फैसला करने को कहती हैं। उनके उद्बोधनों में आत्म-विश्वास भरपूर झलकता है। श्रीमती दीक्षित की सबसे बड़ी उपलब्धि तो ‘भागीदारी‘ कार्यक्रम है। जिसके तहत उन्होंने सरकारी मशीनरी और संसाधानों को जनता के लिए उपलब्ध करा दिया। इस उम्मीद में कि जनता अपने फायदे के कार्यक्रमों को पूरा करने में सहयोग करेगी और अफसरशाही ये समझ जाएगी कि उसे जनता पर हुकूमत नहीं बल्कि उसकी सेवा करनी है। इसलिए प्रशासन पहले की तुलना में कहीं ज्यादा चुस्त, दुरूस्थ्त और जवाबदेह बन गया है। उन्होंने भागीदारी कार्यक्रम के तहत दिल्ली के स्कूलों में जा-जाकर छात्रों को सामुदायिक कार्यों में सहयोग देने के लिए आमंत्रित किया, इससे जनता की निगरानी समितियां बन गईं और विकास के कार्य काफी हद तक निष्ठापूर्वक किए गए। इसका दिल्ली की जनता पर बहुत अच्छा असर पड़ा। वैसे ऐसी ही एक स्कीम आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री चन्द्रबाबू नायडु ने ‘मातृभूमि’ नाम से आंध्र प्रदेश में चलाई थीं। इसका उन्हें काफी लाभ मिला।
लोकतंत्र का मतलब ही ये है कि ‘लोक’ यानी आम जनता, ‘तंत्र‘ यानी सरकारी व्यवस्था, दोनों का आपसी मिलन और वे एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक होकर काम करें। इस पहल के लिए श्रीमती शीला दीक्षित ने राजधानी के सभी जागरूक नागरिकों और स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग लिया। दिल्ली के निवासियों के लिए यह बड़े संतोष की बात है कि अब सरकार चलाने में उनकी भी हिस्सेदारी है। इससे सरकार और जनता के बीच की खाई पटी है और विकास का कार्य आगे बढ़ा है।
दिल्लीवालों का कहना है कि मुकाबला भाजपा या कांग्रेस की विचाधारा के बीच नहीं है बल्कि ठोस काम करने वालों और गाल बजाने वालों के बीच है। जनता ठोस काम चाहती है और उसे लगता है कि श्रीमती शीला दीक्षित ने बिना वायदे तोड़े काम करके दिखाया है और उम्मीद है कि आगे भी वे इसी गति से दिल्लीवासियों की सेवा करती रहेंगी। इसलिए दिल्ली के वो लोग भी जो पारंपरिक रूप से भाजपा के लिए समर्पित रहे हैं, श्रीमती दीक्षित को एक कर्मठ मुख्यमंत्री के रूप में देखते है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक भाजपा से छूट कर इंका की गोद में आ जाए।
चाहे अस्पताल हो या थाने, बस स्टाप हो या बगीचे और स्टेशन हो या बाजार हर जगह या तो व्यवस्था सुधरी हुई मिलेगी या सुधार के लिए गंभीर प्रयास चल रहे होंगे। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि श्रीमती दीक्षित ने तमाम तूफानों को झेलते हुए भी अपनी मशाल जलाए रखी है। वे अपने काम में लगी रहीं और विरोधियों पर न पहले कोई हमला किया न अब कोई कर रही हैं। उनकी यह शैली दिल्लीवासियों को भा गई है। जबकि भाजपा कि छवि वायदा करके मुकर जाने वालों की बन रही है। इन हालातों में यह कोई आश्चर्यजनक बात न होगी यदि दिल्ली की जनता एक बार फिर ताज श्रीमती शीला दीक्षित के सिर पर रख दे।
वैसे भी दिल्ली में भाजपा का प्रशासनिक रिकार्ड कोई बहुत प्रभावशाली नहीं रहा है। अपने कार्यकाल में भाजपा ने तीन-तीन मुख्यमंत्री बदले हैं। पहले श्री मदनलाल खुराना जिन्हें ‘जैन हवाला कांड‘ में आरोपित होने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। दूसरे श्री साहिब सिंह वर्मा जो भाजपा के अंदरूनी कलह के कारण बदले गए। तीसरी श्रीमती सुषमा स्वराज जिनके नेतृत्व में भाजपा ने दिल्ली प्रदेश की चुनाव का बिगुल बजाया और उसे मुंह की खानी पड़ी। जबकि इंका नेतृत्व ने अंदरूनी गुटबाजी को हवा न देकर दिल्ली की बागडोर श्रीमती शीला दीक्षित को ही सौंपे रखी जिसके अच्छे परिणाम आए। दिल्ली वाले ये जानते हैं कि अगर इंका चुनाव जीतती है तो श्रीमती शीला दीक्षित ही उनकी सरपरस्ती करेंगी। जबकि भाजपा आज भले ही श्री खुराना को भावी मुख्यमंत्री बना कर पेश कर रही हो पर कोई जरूरी नहीं कि वो ऐसा ही करे। उसकी अंदरूनी गुटबाजी को भाजपा नेतृत्व में हवा देने वाले कई खेमें हैं इसलिए वहां निर्माण कम और सिर-फुटव्वल की संभावना ज्यादा रहेगी। बाकी आगे समय ही बताएगा कि कौन जीतता है ?