जनवरी 2001 में प्रकाशित हुए ‘जुझारू पत्रकारों की कमर तोड़ दी जाती है पंजाब में’ शीर्षक वाले लेख में मैंने पंजाब के एक पत्रकार की जीवटता का जिक्र किया था। छोटे से अखबार से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इस नौजवान ने जब पंजाब पुलिस की गुंडागर्दी तथा स्वास्थ्य तथा अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कच्चे चिट्ठे खोले, तो पुलिस के साथ‘-साथ कुछ सफेदपोश भी उसके दुश्मन बन गए। उस पर तथा उसके परिवार पर कई बार जानलेवा हमले हुए। सब कुछ जानकर भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब किसी भी तरह यह नौजवान इन लोगों की यातनाओं के आगे न झुका तो एक लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले में उसे और उसके पूरे परिवार को फंसा दिया गया। करीब दो साल मुकदमा लड़ने के बाद अब फास्ट ट्रैक अदालत ने इस नौजवान पत्रकार और उसके परिजनांे को निर्दोष मानते हुए सभी आरोपों से मुक्त कर दिया है।
यह कहानी सिर्फ एक पत्रकार की नहीं है बल्कि लगभग हर उस कलमकार की स्थिति को बयां करती है, जो समाज से बुराइयों को मिटाने के लिए कमर कस चुका है। परेशानियों का स्वरूप बदल सकता है, मगर यह जान लेना चाहिए कि देशसेवा की राह आसान नहीं है। यह सही है कि सच्चाई कभी न कभी सामने आ ही जाती है, मगर अंग्रेजी में एक कहावत है जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। मतलब, यदि न्याय मिलने में देरी होती है तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। इस पत्रकार का यह मुकदमा सुनने में तो बहुत साधारण सा प्रतीत होता है, मगर यह कई महत्वपूर्ण सवाल हमारे बीच छोड़ जाता है। मसलन, अदालती कार्यवाही के दौरान झूठे मुकदमें मंे फंसे लोगों को होने वाली परेशानियों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को आखिर सजा क्यों नहीं मिलती? इन लोगों का कीमती समय, जो अदालतों और पुलिस के चक्कर काटने में बरबाद होता है, उसकी भरपाई कौन करेगा? थोड़े से लाभ के लिए लोगों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली पुलिस के खिलाफ कार्रवाई करने वाला कोई है क्या?
पत्रकारों को समाज का दर्पण कहा जाता है। उनकी लेखनी से निकले एक-एक शब्द समाज को अंदर तक हिला देने की ताकत रखते हैं। मगर क्या हमने कभी गौर किया है कि कितनी परेशानियों को झेलते हुए वे सामाजिक बुराइयों को मिटाने का प्रयास करते हुए समाज को एकजुट रखते हैं। आज भारतीय समाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उनके बीच हमारे पुरातन जीवन मूल्य खो से गए हैं। जिस सभ्यता पर हमें गर्व हुआ करता था, आज हम उसकी अनदेखी कर पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने में जुट गए हैं। हम यह भूल गए हैं कि उसी संस्कृति की वजह से भारत को विश्व का सिरमौर माना जाता है। जैसे-जैसे बाजारीकरण हम पर हावी हुआ, हमारी नीयत में भी फर्क आ गया। हम सिर्फ अपने तक सीमित होकर रह गए। पहले जहां लोग कोई काम करने से पहले खुद के साथ-साथ समाज के अन्य लोगों के बारे में भी सोचते थे, अब यह सोच पूरी तरह लुप्त हो गई है। स्वार्थसिद्धि की इसी आदत ने आज समाज को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां व्यक्ति सिर्फ अपने हित साधने के लिए काम करता है। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसके ऐसे काम से दूसरे को कितनी तकलीफ होगी या उसका कितना नुकसान होगा। हो सकता है उसका जीवन भी तबाह हो जाए। ऊंचे ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी सिर्फ अपने तक सीमित हो गए हैं। समाज के प्रति उसके दायित्व अब दूसरे पायदान पर आ गए हैं। समाज की यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। खासकर ऐसे समय में जब भारत परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां समूचे विश्व की नजर उस पर लगी हुई है।
देखा जाए तो लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार भी समाज में आए बदलाव से अछूते नहीं रह गए हैं। समय का पहिया घूमने के साथ साथ पत्रकारिता के उद्देश्य और मायने भी बदल गए हैं। अब पत्रकारिता ने समाज सुधारक का चोला उतारकर व्यवसायिकता का लबादा ओढ़ लिया है। उसकी प्राथमिकताओं की सूची में व्यक्तिगत हित ऊपर आ गए हैं। इसकी वजह भी बहुत साफ है। पहले जो लोग पत्रकारिता करते थे, वे इसे कमाई का साधन नहीं बल्कि देश सेवा का एक जरिया मानते थे। वे जानते थे कि उनकी कलम में वह ताकत है, जो समाज को आंदोलित भी कर सकती है, तो उसमें फूट भी डाल सकती है। कलम की ताकत कम नहीं हुई है बल्कि सही मायने में इसमें इजाफा ही हुआ है, मगर इसकी धार आज कुंद हो गई है। आजादी से पहले जब किसी अखबार में ब्रिटिश सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई समाचार प्रकाशित होता था तो ब्रिटिश सरकार परेशान हो जाती थी। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर देशभक्त पत्रकारों पर कहर बरपाया करती थी। अंग्रेजी सरकार के नुमाइंदे यह चाहते थे कि पत्रकार सिर्फ वही लिखें, जो उन्हें पसंद हो।
इस परिप्रेक्ष्य में आजादी के पहले की और आज की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है। सरकारें बदल गई, सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन हो गया मगर आज भी ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग वही देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें पसंद हो। चाहे वह कितने भी घोटाले कर लें, देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का लाखों-करोड़ों रुपया हजम कर जाएं, पर उनके खिलाफ आवाज नहीं उठनी चाहिए। जो पत्रकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाते हैं, उनकी राह कांटों से भर दी जाती है। उन पर तरह-तरह से अंकुश लगाने का प्रयास किया जाता है। अपना रौब गालिब कर पुलिस से उन्हें प्रताडि़त करवाया जाता है। समाज की रक्षक कहलाने वाली पुलिस भी भक्षक बन जाती है। उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। ऐसी परेशानियों के मकड़जाल में उलझेे अधिकतर पत्रकार अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं। जो डटे रहे हैं, वे जाबांज कहलाते हैं। मगर परेशानियों से लोहा लेते हुए समाज के नासूर को उखाड़ फंेकने का जज्बा बहुत ही कम लोग दिखा पाते हैं।
लोकतंत्र की सजग प्रहरी कही जाने वाली पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह समाज में होने वाले अपराधों पर कड़ी निगाह रखे और उनकी रोकथाम के लिए समुचित कार्रवाई करे। पर, सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करती है? क्या वह देश में लागू नियम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकारों का सही उपयोग करती है? क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ पुलिसवाले अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके अनैतिक काम करने से भी बाज नहीं आते। ऐसे पुलिसकर्मियों की वजह से पूरे विभाग पर कालिख पुत जाती है। उनके अच्छे कामों को भी नजरंदाज कर दिया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए ऐसे ही धनलोलुप पुलिसकर्मी निर्दोष लोगों को भी ऐसे मामलों में फंसा देते हैं, जिनसे उनका कभी कोई सरोकार ही नहीं रहा। आए-दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों और अदालतों के सामने ऐसी अर्जियां आती हैं जिनमें कहा गया होता है कि फलां इलाके की पुलिस, अपराधियों से मिलकर निर्दोष लोगों का उत्पीड़न कर रही है। सब सबूत होते हुए भी वह उन्हें धमका रही है। आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या पुलिसवालों में इतनी भी गैरत बाकी नहीं रह गई है कि वह अच्छे और बुरे में फर्क कर सकें? किसी निर्दोष को फंसाकर वह तीन तरह से समाज को नुकसान पहुंचाते हैं। पहला तो वह, जिसे झूठे मुकदमें में फंसाया जाता है, उसका जीवन बर्बाद करके। दूसरे, उसके परिवारीजनों का चैन छीनकर और तीसरा समाज को गलत संदेश देकर। जो लोग झूठे मुकदमों में फंसते हैं, उनका अधिकांश समय कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने में ही बीत जाता है। मानसिक परेशानी होती है वह अलग। इन परेशानियों के चलते वह यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर क्यों उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कदम उठाया? जो जाबांज होते हैं, वह तो गलत व्यवस्थाओं से लड़ते रहते हैं, मगर अधिकांश टूट जाते हैं। सामने आई परेशानियों से घबराकर अपने कदम वापस खींच लेते हैं।
आज समाज को जरूरत है पंजाब के उस नौजवान पत्रकार जैसे जीवट लोगों की, जो सामने आने वाली समस्याओं न डिगते हुए समाज से बुराइयों को उखाड़ फेंकने के अपने काम में जुटे रहते हैं। पर यह काम अकेले का नहीं है, इसके लिए सभी को एकजुटता के साथ आगे आना होगा। यदि ऐसा हो गया तो एक बार फिर से भारत को विश्व का सिरमौर बनने से कोई नहीं रोक सकता।