Friday, May 24, 2002

ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

कालूचक्क (जम्मू) में जो वीभत्स हत्या कांड हुआ उसे तो विदेशी साजिश कह कर पल्ला झाड़ लिया जाए और गुजरात में जो हो उसे सांप्रदायिकता कह कर तूफान मचाया जाए, यह बात गले नहीं उतरती। पिछले दिनों गुजरात की घटनाओं को लेकर देश की राजधानी में धर्म निरपेक्षतावादियों की कई बैठकें हुईं। इसी तरह एक सेमिनार में इंडिया इंटर नेशलन सेंटर में दिल्ली भर के तमाम नामी-गिरामी धर्म निरपेक्षतावादी जमा हुए। गुजरात में अल्प संख्यकों पर हुए सांप्रदायिक हमलों पर काफी चिंता जताई गई। सबकी राय थी कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे जख़्म जल्दी भरे। सांप्रदायिकता से निपटने की लंबी रणनीति बनाने कीे बात भी कही गई। नरेंद्र मोदी सरकार की भर्तसना करते हुए एक प्रस्ताव पर सबने हस्ताक्षर किए। इस बैठक में भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति अहमदी का कहना था कि सांप्रदायिकता दूर करने के लिए गुजरात के अल्प संख्यकों की माली हानि की भरपाई सरकार करे। इस सेमिनार में चूंकि मैं भी मौजूद था और इस बात से सहमत था कि सांप्रदायिकता से लड़ा जाना चाहिए इसलिए प्रस्ताव पर मैंनें भी दस्तखत किए लेकिन एक शर्त के साथ। वह शर्त मैंने अपने हस्ताक्षर के साथ ही दर्ज कर दी। अंग्रेजी में लिखी इस टिप्पणी का आशय यह था कि, ‘अगर देश में सांप्रदायिकता के जख्मों केा भरना है तो शुरूआत गुजरात से नहीं जम्मू-कश्मीर से होनी चाहिए।’ हर वो धर्म निरपेक्षवादी जो सांप्रदायिकता से लड़ना चाहता है उसे जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं पर ढाए गए जुल्मों के विरूद्ध जोरदार आवाज उठानी चाहिए। उसे यह ठान लेना चाहिए कि जब तक कश्मीर की घाटी से मजबूर करके निकाल फेंके गए हिंदुओं को फिर से उनके पुश्तैनी घरों में बसा नहीं दिया जाता तब तक धर्म निरपेक्षता का राग अलापने का कोई मतलब नहीं है। मेरी इस टिप्पणी पर एक आधुनिक नवयुवती, जो इत्तफाकन मुस्लिम समुदाय से थीं, काफी उखड़ गईं। उनका तर्क था कि मैं दो असमान स्थितिओं की तुलना कर रहा हूं। उनके हिसाब से जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध जो कुछ हो रहा है वह विदेशी शक्तियों की साजिश का परिणाम है। जबकि गुजरात में जो हुआ वो सरकारी आतंकवाद था। ऐसी दलील अक्सर धर्म निरपेक्षतावादी देते हैं।

सांप्रदायिक तो हम भी नहीं हैं। हकीकत यह है कि हिंदुस्तान की बहुसंख्यक गैर इस्लामी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा सांप्रदायिक नहीं है। पर सोचने वाली बात यह है कि कालूचक्क (जम्मू) व शेष कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध वर्षों से हो रही आतंकवादी घटनाओं को क्या केवल विदेशी साजिश कह कर अनदेखा किया जा सकता है ? क्या यह सही नहीं है कि कश्मीर की स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के गुपचुप समर्थन के बिना आतंकवादियों का कामयाब होना नामुमकिन था। बेगाने मुल्क में, पहाड़ों और घने जंगलों में और बर्फीली ठंढ में पाकिस्तानी घुसपैठिए कितने दिन जिंदा रह पाते ? खाना, पानी और सर छिपाने को जगह मिले बिना यह असंभव था। उनकी इस जरूरत को कौन पूरा कर रहा है ? क्या यह सच नहीं है कि कश्मीर के मदरसों में हिंदुओं और हिंदुस्तान के खिलाफ लगातार जहर उगला गया है ? क्या स्थानीय मुस्लिम आबादी ने अपने बच्चे इन मदरसों में भेजने में कोई हिचक दिखाई ? क्या ये सवाल उनके मन में उठा कि ऐसे मदरसों में जाकर उनका बच्चा सांप्रदायिक हो जाएगा ? कतई नहीं। हकीकत तो यह है कि इन मदरसों के फलने-फूलने में स्थानीय मुस्लिम आबादी का पूरा सहयोग रहा। यानी कश्मीर की घाटी में सांप्रदायिक फैलाने के लिए स्थानीय मुस्लिम आबादी कम जिम्मेदार नहीं है। जो आबादी सांप्रदायिकता भरी शिक्षा को बढ़ावा देगी वो क्या जेहादी जुनून वाले आतंकवादियों को मदद और संरक्षण नहीं देगी ? यह जानते हुए भी कि ये खुदाई खिदमतगार उसी मजहब की बढत के लिए काम कर रहे हैं जिस मजहब की तालीम लेने उनके बच्चे मदरसों में जाते हैं। कश्मीर में वर्षों से हो रही सांप्रदायिक हिंसा को अगर कोई महज विदेशी साजिश कह कर हल्का करना चाहे तो या तो वह मंद बुद्धि है जो इस गहरी चाल को नहीं समझता या फिर इतना कुशाग्र कि उसे पता है कि सच्चाई को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है।

इसलिए जो भी खुद को धर्म निरपेक्षता का ठेकेदार सिद्ध करना चाहता है उसे इस बात का जवाब देना होगा कि कश्मीर की हिंसा सांप्रदायिक क्यों नहीं है ? यह भी जवाब देना चाहिए कि धर्म निरपेक्षता के देश में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जा सकती ? अगर भारत के मुसलमान भारतीय संविधान के तहत प्रदत्त सभी नागरिक अधिकारों का बराबरी के साथ इस्तेमाल करना चाहते हैं तो फिर मुस्लिम पर्सनल लाॅ की क्या सार्थकता ? अगर भारत के धर्म निरपेक्षतावादी देश में वाकई अमन-चैन चाहते हैं तो उन्हें सामान नागरिक कानून की जरूरत पर शोर मचाना चाहिए। यदि ऐसा हो पाता है तो सांप्रदायिक खुद-ब-खुद कम होती चली जाएगी। हमने पहले भी कहा है और फिर इसे दोहराने की जरूरत महसूस करते हैं कि हिंदुओं की भावनाओं की उपेक्षा करके और मुसलमानों को वोटों के लालच में सिर पर चढ़ा कर कोई भी देश में अमन-चैन कायम नहीं कर सकता। तकलीफ यह देख कर होती है कि आत्मघोषित धर्म निरपेक्षवादियों को क्रोध भी तभी आता है जब मुस्लिम संप्रदाय के लोग पिट रहे होते हैं। दूसरी तरफ जब हिंदू पिटते और मार खाते हैं तो धर्म निरपेक्षतावादियों के मुंह में दही जम जाता है। उनकी इस दोहरी नीति के चलते ही देश में सांप्रदायिक बढ़ी है। हिंदुओं को लगाता है कि उनके साथ व्यवहार ठीक नहीं हो रहा है। पिछले दिनों टीवी पर एक टाॅक शो के दौरान मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने जब सैय्यद शाहबुद्दीन की तरफ इशारा करके कहा कि हिंदू धर्मांधता की बढत के लिए ऐसे लोग जिम्मेदार हैं तो शाहबुद्दीन साहब बौखला गए। काफी तू-तू मैं-मैं हुई पर नकवी साहब की इस बात में काफी दम है कि हिंदू धर्मांध संगठनों की पिछले एक दशक में हुई तीव्र वृद्धि का कारण मुस्लिम धर्मांधता का खुला प्रदर्शन भी है। जब हिंदुओं को लगा कि अपने ही मुल्क में उन्हें परायों की तरह रहना पड़ रहा है तो उन्होंने संगठित होकर लड़ने की ठानी।

ऐसा लगता है कि धर्म निरपेक्ष दिखने के लालच में हमारे समाज के बहुत से महत्वपूर्ण लोग हिंदू धर्म पर जरूरत से ज्यादा हमला करते हैं। ये हमला करते वक्त इतने वाचाल हो जाते हैं कि सही और गलत का भेद भी भूल जाते हैं। आज पूरी दुनिया में योग, ध्यान, आयुर्वेद आदि जैसे तमाम ज्ञान के भंडारों को पाने की होड़ लगी है। पर भारत के धर्म निरपेक्षतावादियों ने कभी भी वैदिक ज्ञान के इस अमूल्य भंडार के संवर्धन और वितरण मेंु रूचि नहीं ली। अगर ली होती तो वे सच्चाई से इतना दूर नहीं होते। वातानुकूलित जीवन जीने वाले भला एक आम आदमी के दिल की बात कैसे जान सकते हैं ? जिन बातों को वे दकियानुसी या पोंगापंथी कह कर हंसी में उड़ा देते हैं उन्हीं बातों को अपना कर आज विकसित देश अपनी समस्याओं के हल ढूंढने में लगे हैं।

ये कितने आश्चर्य की बात है कि इस देश की धरती में उपजे धर्म, संप्रदायों और दर्शन को छोड़ कर वो आयातित धर्मा और संस्कृतियों की तरफ भाग रहे हैं। जो न तो हमारी भावनाओं से जुड़ी है और ना ही हमें वांछित सुख दे पाती है, फिर भी वे वैदिक धर्म के विरूद्ध अपना अनर्गल प्रलाप बंद नहीं करते। उनके इन कारनामों से ही हिंदू धर्मावलंवियों के मन में इन आत्मघोषित धर्म निरपेक्षतावादियों के प्रति आक्रोश बढ़ता जाता है। वैदिक संस्कृति को समझे और अपनाए बिना भारत की जनता का उद्धार नहीं हो सकता। वेद किसी एक समुदाय की नहीं पूरे मानव समाज की भलाई की बात करते हैं। इतनी सी बात अगर धर्म निरपेक्षतावादी समझ लें तो उनकी दृष्टि भी हंस जैसी हो जाएगी जो ज्ञान के इस भंडार में से मोती तो चुग लेगी और दाना-तिनका छोड़ देगी। तब वे हिंदुओं का भी विश्वास जीत पाएंगे। तभी उनकी आवाज में वह नैतिक बल होगी जिसके आधार पर वे समाज को सही दिशा दे पाएंगे। तभी उनकी वाणी में असर होगा। वरना वे पहले की तरह धर्म निरपेक्षता का राग अलापते रह जाएंगे और सांप्रदायिकता की अग्नि पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगी। ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

Friday, May 17, 2002

क्या श्री गिल गुजरात में सफल होंगे ?


फौलादी इरादे और मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रशासन में पूरी निपक्षता किसी भी बिगड़ी स्थिति को संभालने में कामयाब हो सकती है। सुपर काॅप श्री केपीएस गिल इसी भावना से अपनी नई जिम्मेदारी को अंजाम दे रहे हैं। आज गुजरात को इसकी ही जरूरत है। यूं आग अभी शांत नहीं हुई पर जो हो रहा है उसे सांप्रदायिक दंगा कहना भी गलत होगा। जो हो रहा है वो हिंसा की छुटपुट वारदातें हैं। मुट्ठी भर लोग ही इस किस्म की छुटपुट घटनाओं में जुटे हैं। पर अब ऐसा बहुत दिन तक नहीं हो पाएगा। आज गुजरात में सबसे बड़ी समस्या यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा प्रशासन में नहीं है। सबसे पहले इसी भरोसे को दुबारा कायम करना होगा। अपनी नई जिम्मेदारी संभालते ही श्री गिल ने पुलिस प्रशासन में फेरबदल कर इसका संकेत दिया है। इतना ही नहीं उन्होंने पुलिस को हिदायत दी है कि दंगों में जिन परिवारों के जानमाल की हानि हुई है उनकी शिकायत फौरन दर्ज की जाए। ठीक से जांच की जाए। गुजरात जा कर मौके पर हालात का मुआइना करने वाले बहुत सारे स्वयं सेवी संगठनों ने यह शिकायत की थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के दंगा पीडि़त लोगों के साथ प्रशासन न्याय नहीं कर रहा है। श्री गिल के इस कदम से अब वह शिकायत दूर हो जाएगी। गुजरात के स्वयं सेवी संगठनों का भी फर्ज है कि वे एक बार फिर नए विश्वास के साथ सामने आएं और इन शिकायतों को दर्ज करवाने में दंगा पीडि़तों की मदद करें। एक सावधानी उन्हें बरतनी होगी और वह कि स्थिति का सही जायजा लेकर ही उसकी शिकायत की जाए। निहित स्वार्थसत्ता के दलाल और धूर्त लोग इसका नाजायज फायदा उठाकर इन शिकायतों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश न करें।
एक महत्वपूर्ण कदम जो श्री गिल ने उठाया है, वह है दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए पूरी सतर्कता बरतना। बजाए इसके कि किसी इलाके में आगजनी, चाकूबाजी या लूटपाट की घटना होने के बाद पुलिस वहां भाग कर पहुंचे, बेहतर होगा कि ऐसी दुर्घटनाओं की संभावनाओं को समय रहते कुचल दिया जाए। इसके लिए स्थानीय लोगों की मदद, प्रभावशाली खुफिया नेटवर्क और व्यवहारिक कदम समय रहते उठाने होंगे ताकि दुर्घटना को टाला जा सके। पंजाब में आतंकवाद की चरम स्थिति में अपनी बुद्धि और कौशल से हालात को नियंत्रित करने वाले श्री केपीएस गिल इस क्षेत्र में काफी अनुभवी हैं इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने इस प्रयास में सफल होंगे। श्री गिल का मानना है कि दुर्घटनाओं के घट जाने के बाद उनके पीछे भागने से हालात नहीं सुधरा करते बल्कि ऐसी संभावनाओं को समय रहते पहचान कर उसका माकूल इलाज करके ही वाछित परिणाम प्राप्त किया जा सकता है।
इस पूरे अभियान में गुजरात के मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जो हुआ सो हुआ, अब भलाई इसी में है कि ऐसे हालात पैदा किए जा सकें जिनसे समाज में पहले जैसा अमन-चैन पैदा हो सके। तनाव की स्थिति में बहुत दिनों तक नहीं रहा जा सकता। इससे सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो लोगों के कारोबार पर पड़ता है। पीतल की कलाकृतियों के, निर्यात के लिए मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगर मुरादाबाद में अक्सर सांप्रदायिक दंगे हुआ करते थे। क्योंकि वहां हिंदू और मुसलमानों की संख्या लगभग बराबर है। 1980 में वहां महीनों दंगे चले। नतीजा यह हुआ कि सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना का निर्यात तेजी से गिर गया। हालत इतनी बुरी हो गई कि पीतल उद्योग के मजदूरों और कारीगरों ने आत्महत्याएं करनी शुरू कर दी। इस दंगे की आर्थिक मार से मुरादाबाद को उबरने में वर्षों लग गए। यही कारण है कि दस वर्ष बाद जब अयोध्या से जुड़ा मंदिर विवाद उछला तो मुरादाबाद के नागरिकों ने अपने शहर में सांप्रदायिक दंगे नहीं होने दिए। हाल ही में गुजरात में दंगों से जो आर्थिक हानि हुई है उससे उबरने में गुजरात को भी काफी समय लगेगा। यह दुर्भाग्य ही है कि गुजरात की समझदार और देशप्रेमी जनता अभी भूचाल की मार से उबर भी न पाई थी कि येे नई  त्रासदी झेलनी पड़ गई। वैसे भी गुजराती लोग मूलतः व्यवसायिक बुद्धि वाले होते हैं। दुनिया के हर कोने में गुजराती मूल के सफल व्यापारी और उद्योगपति मिल जाएंगे। ऐसी मानसिकता वाले लोग अशांति नहीं शांति चाहते हैं। क्योंकि शांति काल में ही व्यवसाय फलता-फूलता है। अगर गुजरात के हिंदू और मुस्लिम व्यापारी पहल करें और पूरे समाज में अमन-चैन की आवश्यकता पर जोर दें तो गुजरात में शांति की बहाली जल्दी ही हो जाएगी। श्री केपीएस गिल को पूर्ण आत्म-विश्वास है कि वे इस काम को अगले दो-तीन हफ्तों में पूरा कर देंगे।
उधर गुजरात पुलिस को भी अपने रवैए में बदलाव करना होगा। जाने अनजाने में अगर उसके व्यवहार से अल्पसंख्यकों में यह संकेत गया है कि पुलिस प्रशासन निष्पक्ष नहीं रहा तो यह गुजरात पुलिस के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। सरकारें आती जाती रहती हैं। जो आज सत्तारूढ़ दल में हैं वे कल विपक्ष में थे। प्रशासनिक अधिकारियों को अपने हुक्मरानों के वहीं आदेश मानने चाहिए जो न्याय संगत हो और तर्क संगत हो। पिछले कुछ वर्षों से एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति विकसित हो रही है। प्रांतों के प्रशासन का राजनीतिकरण होता जा रहा है। जनता के कर के पैसे से अपना वेतन, सुख-सुविधाएं और सत्ता भोगने वाले अधिकारी जानबूझ कर सत्तारूढ़ दलों के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकते जा रहे हैं। इसके पीछे न तो कोई दबाव है और ना ही उनके सामने अपनी नौकरी बचाने का सवाल। ऐसा होता तो वे तमाम अधिकारी कब के सरकारी नौकरी छोड़ चुके होते जो ईमानदारी, निष्पक्षता और पूर्णपारदर्शिता के साथ काम करते हैं। पर हकीकत यह है कि ऐसे तमाम लोग आज भी व्यवस्था में हैं और तमाम सीमाओं के बावजूद वह सब कर रहे हैं जो उस पद पर रहते हुए उन्हें करना चाहिए। दरअसल सत्तारूढ़ दल के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकाव का कारण व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पूरी करने की अधीरता होता है। समय से पहले या अपनी योग्यता से अधिक महत्वपूर्ण पद पाने के लालच में प्रायः प्रशासनिक अधिकारी ऐसे अनैतिक काम कर जाते हैं। श्री केपीएस गिल तो कुछ समय के लिए गुजरात में भेज गए हैं। पर गुजरात काॅडर में तैनात पुलिस अधिकारियों को तो शेष जीवन गुजरात में ही बिताना है। अगर आज उन पर पक्षपातपूर्ण रवैए का धब्बा लग गया तो उनके कार्यकाल का शेष हिस्सा अच्छा नहीं गुजरेगा। उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाएंगे। तब वे न तो अपनी शक्ति का ही उपयोग कर पाएंगे और ना ही सत्ता सुख भोग पाएंगे। सम्मान के हकदार होंगे।
गुजरात के हालात पर शोर मचाने वाले लोगों को भी अपने रवैए में बदलाव लाना पड़ेगा। शोर अगर सिर्फ राजनैतिक मकसद से वोट भुनाने की भावना से मचाया जा रहा है तो ऐसे शोर से कुछ भी नहीं बदलेगा। किंतु शोर यदि सुधार की मानसिकता से मचाया जा रहा है तो उसका वांछित प्रभाव अवश्य ही पड़ेगा। दुख की बात यह है कि प्रायः शोर मचाने वाले अपने राजनैतिक आकाओं के इशारे पर ही शोर मचाते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं है। पर ऐसे शोर से गुजरात की जनता को फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। हां, यदि प्रशासनिक ईकाइयां अपना कर्तव्य निष्पक्षता से नहीं निभा रही तब उन्हें बक्शने की कोई जरूरत नहीं। ऐसा नहीं है कि गुजरात कीे पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में ऐसे लोग नहीं हैं जिन्होंने वहां भड़के दंगों के दौरान अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया और जो सही लगा वही करा। पंजाब के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक श्री केपीएस गिल की नियुक्ति से ऐसे सभी जिम्मेदार अधिकारियों में आशा की किरण जागी है। क्योंकि उन्हें श्री गिल की निष्पक्षता और कार्यक्षमता पर विश्वास है। वे जानते हैं कि श्री गिल को गुजरात इसलिए नहीं भेजा गया कि गुजरात पुलिस निकम्मी है। बल्कि इसलिए भेजा गया कि उसे इस कठिन परिस्थिति में एक कुशल और अनुभवी पुलिस अधिकारी के अनुभवों का लाभ मिल सके। अगर गुजरात पुलिस श्री गिल के अनुसार चलती है और गुजरात में शांति बहाल हो जाती है तो गुजरात पुलिस को इसका श्रेय पूरी दुनिया में मिलेगा। क्योंकि आज सारी दुनिया की नजर गुजरात पर है। गुजरात में आज यह चर्चा भी चल रही है कि यह कदम इतनी देरी से क्यों उठाया गया? अगर श्री गिल को भेजना ही था तो इतनी देर क्यों लगाई ? गुजरात में हालात जैसे ही बेकाबू हुए थे श्री गिल कोे वहां भेजा जा सकता था। खैर, देर से ही हो पर यह एक सही कदम है। यदि श्री गिल गुजरात में शांति बहाली में कामयाब हो जाते हैं, जिसका उन्हें पूर्ण विश्वास है, तो यह सभी के लिए बहुत संतोष की बात होगी। ये समय श्री गिल को हर संभव सहायता मुहैया करवाने का है ताकि वे अपने मिशन गुजरातसे कामयाब हो कर लौटें।

Friday, May 10, 2002

ग्रामीण नौजवानों के लिए एक नया प्रयोग

कृषि और देहाती जीवन पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है और आने वाले दस-बीस वर्षों में भी यह घटने वाली नहीं है। उधर उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर के बावजूद ग्रामीण बेरोजगारी घटना तो दूर बढ़ रही है। पर तमाम वायदों और दावों के बावजूद कोई भी सरकार इस गंभीर समस्या का हल नहीं ढूंढ पा रही है। कुलीन वर्ग का सत्ताधीशों पर इतना ज्यादा दबाव रहता है कि सरकार की सभी नीतियां इसी वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। जिससे देश के देहाती क्षेत्रों में हताशा बढ़ती जा रही है। लालू यादव जैसे राजनेताओं ने देश के बहुसंख्यक देहाती समाज की इस दुखती रग को पहचान लिया है। इसलिए अपना हुलिया ऐसा बना रखा है मानों देश के दुखियारे गरीबों और किसान-मजदूरों के हितों की सबसे ज्यादा चिंता उन्हें ही है। पर बिहार में भी देहात की बेराजगारी को दूर करने का कोई भी ठोस काम लालू यादव दंपत्ति कार्यकाल में नहीं हुआ है। कुल मिला कर देहात के लोगों के दुखों को दूर करने का गंभीर प्रयास कहीं हो ही नहीं रहा। देहाती की अर्थ व्यवस्था, जमीन, जंगल, पशु, पानी और मानव श्रम से जुड़ी है। इनके ही इस्तेमाल के प्रबंध को सुधार कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वांछित बदलाव लाया जा सकता है। गरीबी दूर की जा सकती है। रोजगार बढ़ाया जा सकता है। यही बापू कहा करते थे। पर उनकी सुनी नहीं गई। यही तमाम समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता कहते आएं हैं। पर कोई परवाह नहीं करता। लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी के वोटों पर टिकी होतीे है। कुलीन वर्ग तो वोट देने ही नहीं जाता। अपने ड्राइंगरूम में देश की हालात की चर्चा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। फिर भी उसकी ही चलती है। विडंबना देखिए कि जिनके वोटों से प्रांतों और देश की सरकार चलती है उनकी किसी को चिंता नहीं। शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात कब से की जा रही है। पर कुछ भी नहीं बदला।
शहरी शिक्षा प्राप्त करके गांवों की हालत सुधार पाना बहुत मुश्किल होता है। शहर का पढ़ा नौजवान गांवों के काम का नहीं रहता। कुलीन पृष्ठभूमि न होने के कारण कायदे का काम उसे शहर में भी नहीं मिलता। चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें। इस तरह देहात के नौजवान दोनों तरफ से मारे जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि गांवों की अर्थव्यवस्था में लगे प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय श्रम और कौशल का विवेकपूर्ण समन्वय करके ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जाए जो देहात के करोड़ों नौजवानों को देहात के प्रति संवेदनशील बनाए। उनमें अपने परिवेश के प्रति गहरी समझ विकसित करे और उनके चारों तरफ उपलब्ध संसाधनों का सही इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित करे ताकि बेरोजगारी के कारण उनकी ऊर्जा का जो अपव्यय हो रहा है वह न हो और वह सकारात्मक काम में लग सके। देश में अनेक गांधीवादी लोगों ने ऐसे प्रयास अतीत में किए हैं। कुछ ने अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से, तो कुछ ने शिक्षा के नए माॅडल विकसित करके। पर उनका व्यापक प्रभाव कहीं दिखाई नहीं पड़ा।

देश के ग्रामीण नौजवानों की बेकारी दूर करने की इच्छा से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण महाविद्यालय ने ऐसे गैर पारंपरिक दिशा में एक नई पहल की है। इसके तहत ‘ग्रामीण संसाधन प्रबंधन’ का एक नया स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किया गया है। संपूर्ण देश में शायद रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली ही वह पहला विश्विविद्यालय है जिसने इस पाठ्यक्रम को स्वीकृति प्रादान की है। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद और चंदौसी के बीच ग्रामीण परिवेश में अमरपुरकाशी ग्रामोदय महाविद्यालय एवं शोध संस्थान, अमरपुरकाशी, ही देश का वह पहला कालेज है जहां यह पाठ्यक्रम आगामी सत्र से चलाया जाएगा। इस कोर्स को विकसित करने वाले श्री मुकुट सिंह का कहना है कि, ‘भारत गांवों का देश है और यहां के सभी संसाधन देहातों में हैं। किंतु अभी तक गांवों के इन संसाधनों का वैज्ञानिक अध्ययन और उनका प्रबंधन करने का कोई पाठ्यक्रम देश के किसी विश्विविद्यालय में नहीं चलाया जाता है। यह एक विडंबना है कि ब्रिटेन के बीस से उपर विश्विविद्यालयों में इस तरह के कोर्स कई वर्षों से चलाए जाते हैं।

श्री सिंह इंग्लैड के मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय में अध्यापन कार्य कर चुके है। यह पाठ्यक्रम उन्होंने पहले इसी विश्विविद्यालय के लिए तैयार किया था। मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय इस पाठ्यक्रम को अपनी संबद्धता देने को तैयार था पर तब इस पाठ्यक्रम की फीस तीन सौ पौंड (बीस हजार रूपए प्रति छात्र प्रति वर्ष) होती। जो भारतीय परिवेश के देहाती नौजवानों की क्षमता से कहीं अधिक होती। इसलिए श्री मुकुट सिंह ने ब्रिटिश यूनिवर्सिटी की संबद्धता को अस्वीकार कर दिया। तब उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों से इसकी संबद्धता की कोशिश की और रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली इसके लिए राजी हो गया। क्योंकि अमरपुरकाशी गांव उसके अधिकार क्षेत्र के भीतर ही था।

पाठ्यक्रम अंतर्विषयी है और पचास फीसदी व्यावहारिक अनुभव पर आधारित है। यह अनुभव और अध्ययन उस ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों की आर्थिक और सामाजिक केस स्टडीज पर आधारित होगा। इलाके में उपलब्ध जल, जंगल, जमीन और जनसंख्या जैसे संसाधनों का गहन अध्ययन करके उनके सदुपयोग के उपयुक्त माॅडल तैयार किए जाएंगे। ताकि क्षेत्र के आर्थिक विकास का प्रारूप तैयार हो सके। ग्रामीण नौजवान आत्मनिर्भर होकर अपना जीविकोपार्जन कर सके। इस पाठ्यक्रम को बीस-बीस सप्ताह के सेमेस्टर और एक-एक वर्षीय शोध पत्रों में बांटा गया है। इस तरह रूरल रिसोर्स मैंनेजमेंट का यह नया कोर्स कई मामलों में अनूठा होगा।

यह कैसी विडंबना है कि कृषि प्रधान देश में मैंनेजमेंट के नाम पर हम केवल एमबीए को ही जानते है। जबकि एमबीए का पाठ्यक्रम बहुत ही सीमित और विशुद्ध शहरी जरूरतों पर आधारित है। उदाहारण के तौर पर सभी उ़द्योगों की स्थापना के लिए प्रचुर भूमि की आवश्यकता होती है। जो गांवो को विस्थापित करके उद्योगपतियों को दी जाती है। एमबीए किए हुए प्रबंधक न तो भूमि संसाधन को जानते हैं और न विस्थापित मानव संसाधन को ही। अन्य प्राकृकि और भौतिक संसाधनों का भी ज्ञान उन्हें नहीं कराया जाता है। ग्रामीण संसाधन प्रबंधन पाठ्यक्रम ऐसी कमियों को पूरा करने का दावा करता है। इस पाट्यक्रम को विकसित करने वाले अनुभवी लोगों का विश्वास है कि इस पाठ्यक्रम में सफल हुए विद्यार्थियों को नौकरी की दिक्कत नहीं आएगी। उनकी इस अनूठी योग्यता की जरूरत मझोले और भारी उद्योगों में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में, विकास की दिशा में स्वैच्छिक रूप से काम कर रही राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय दानदाता संस्थाओं में, संयुक्त राष्ट्र संद्य की विकास एजेंसियों में, सरकारी प्लानिंग और विकास विभागोें में, स्थानीय निकायों में, जिला और ब्लाॅक स्तरीय पंचायतों में और गैर सरकारी संस्थाओं में जल्दी ही महसूस की जाएगी। यह पाठ्यक्रम कहां तक सफल हो पाता है यह तो समय ही बताएगा। पर इसमें शक नहीं कि यह सही दिशा में उठाया गया एक वांछित कदम है। समय की मांग है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय देहात की समस्याओं का हल निकालने को बनाए गए ऐसे तमाम तरह के पाठ्यक्रमों की एक निदेशिका प्रकाशित करे जो बेहद कम कीमत पर ग्रामीण नौजवानों के लिए उपलब्ध हो। जिसे पढ़कर वे जान सकें कि इस दिशा में उनके लिए क्या-क्या विकल्प मौजूद हैं। इससे कई लाभ होंगे। एक तो ये कि बिना क्षमता, योग्यता या इच्छा के मजबूरी में जिन शहरी पाठ्यक्रमों की ओर ग्रामीण युवा भागते है, उसकी जरूरत नहीं पड़गी। उन्हें यह पता होगा कि उनके लिए क्या उपयुक्त है?

अपने देश की सौ करोड़ आबादी और आर्थिक विपन्नता और असमानता को देखते हुए सच्चाई यह है कि चाहे कोई कितने भी सपने क्यों न दिखा दे, भारत को रातो-रात विकसित देशों की तरह संपन्न नहीं बनाया जा सकता। ऐसी दशा में झूठे आश्वासन युवा आक्रोश को ही बढ़ाएंगे। जो आतंकवादी हिंसा के रूप में प्रकट हो सकता है। इसलिए इस दिशा में सकारात्मक सोच की जरूरत है। अमरपुकाशी का यह प्रयोग इस दिशा में एक सराहनीय कदम है।

Friday, May 3, 2002

क्या रवि सिद्धू ही गुनहगार है ?


 पंजाब लोक सेवा आयोग के गिरफ्तार अध्यक्ष रवि सिद्धू मीडिया से बहुत नाराज हैं। रवि का कहना है कि इस ख्ेाल में जो दूसरे लोग शामिल थे उनका नाम क्यों नहीं लिया जा रहा है ? क्या इसलिए कि वे सब लोग ताकतवर नेता, बड़े अफसर या न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग है ? रवि अपने ‘‘विरूद्ध चलाए जा रहे अभियान’’ से लड़ाई लड़ने का ऐलान कर रहे है। ठीक वैसे ही जैसे जैन हवाला कांड में सीबीआई का छापा डलने के बाद एक नेता ने बहराइच से दिल्ली तक की लंबी सत्याग्रह यात्रा निकाली थी। इस यात्रा का उद्देश्य अपने को पाक-साफ सिद्ध करना नहीं बल्कि यह बताना था कि हमाम में सब नंगे हैं तो फिर कुछ व्यक्तियों को ही क्यों बलि का बकरा बनाया जाता है? सिद्धू की गिरफ्तारी और टीवी चैनलों पर सिद्धू के बैंक लाॅकरों में रखी करोड़ों रूपए के नोेटों की गड्डियां सारे देश ने देखी हैं। देश में इस कांड की चर्चा हो रही है। छापे में, इतनी बड़ी मात्रा में किसी अधिकारी के घर से नकद धन की प्राप्ति पहले कभी नहीं हुई, इसलिए ये एक बड़ी खबर बन रही है। पर  उन नेता और रवि सिद्धू के तर्क में काफी वजन है। जो सवाल इससे खड़े हुए हैं उसके जवाब देने की स्थिति में कोई भी नहीं हैं। मसलन, जैन हवाला कांड में जब दर्जनों नेताओं और अधिकारियों के नाम थे तो फिर केवल चै. देवी लाल, आरिफ मोहम्मद खान व ललित सूरी के घर और प्रतिष्ठानों पर ही क्यों छापा डाला गया, बाकी के क्यों नहीं ? क्या इस देश में एक जैसा अपराध करने पर सजा अलग-अलग तरह से मिलती है ? उत्तर होगा हां।
पिछले वर्षों में जितने भी ऐसे घोटाले सामने आए जिनमें बड़े राजनेता या अधिकारी पकड़े गए उन सब केसों का आज क्या हुआ ? क्या किसी को सजा हुई ? अगर नहीं तो रवि सिद्धू कांड पर शोर मचाने का क्या फायदा? देश के मुख्य न्यायाधीश ने सार्वजनिक मंच पर स्वीकारा कि न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्ट है और उनसे निपटने के मौजूदा कानून नाकाफी हैं। इसका क्या मतलब हुआ कि उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायलय में जाने वाला याचिकाकर्ता पहले यह पता लगाए कि उसका मुकदमा उन न्यायधीशों के सामने तो नहीं लग रहा जो भ्रष्ट हैं, क्योंकि तब तो उसे न्याय बिलकुल नहीं मिलेगा। ऐसा भ्रष्ट न्यायधीश पैसे के लालच में सच को दबा कर निर्णय देने से नहीं हिचकेगा। लेकिन किसी याचिकाकर्ता को यह पता कैसे चले कि कौन सा न्यायधीश भ्रष्ट है और कौन सा ईमानदार ? ये फर्ज तो न्यायमूर्ति एस.पी. भरूचा का था, जिन्होंने यह घोषणा की। अगर उन्हें इतना सही पता है कि उच्च न्यायपालिका के बीस फीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं तो उन्हंें उनके नामों का भी खुलासा करना चाहिए था। जब नीचे से ऊपर तक न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का कैंसर फैल चुका हो तो जाहिर है कि साधन संपन्न और ऊंची पहुंच वाले अपराधियों को सजा कभी नहीं मिलेगी। दिवंगत कवि काका हाथरसी कहा करते थे- क्यूं डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।
पत्रकार होने के नाते रवि सिद्धू जानते हैं कि आज पत्रकारिता में क्या हो रहो है इसीलिए उनका हमला मीडिया पर भी है। क्या यह सच नहीं है कि अक्सर जब ताकतवर लोग किसी घोटाले में फंसते हैं तो कई पत्रकार उनकी मदद को सामने आ जाते हैं। वे तथ्यों की उपेक्षा करके, घोटाले उजागर करने वाले के ऊपर ही हमला बोल देते हैं ताकि अपने राजनैतिक आका को खुश करके फायदे लिए जा सकें। दरअसल, सिद्धू को अपने वक्तव्य में थोड़ा संशोधन करना चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि, ‘यह सच है कि मैंने पैसे लिए, पर मेरे साथ और भी लोग इस खेल में शामिल थे, जिन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए।सिद्धू को ऐसे सभी लोगों की सूची बे-हिचक मीडिया को सौंप देनी चाहिए ताकि पूरा खेल खुलकर सामने आ जाए। भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे सिद्धू जैसे अफसरों और नेताओं को उन सारे घोटालों की सूची छापकर बांटनी चाहिए जो राजनैतिक प्रभाव के चलते बिना तार्किक परिणिति के ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। उनकी ताजा स्थिति बताते हुए प्रश्न पूछना चाहिए कि इन मामलों को किसके कहने पर और क्यों दबाया गया ?
सिद्धू का यह कहना  गलत है कि मीडिया उन्हें नाहक बदनाम कर रहा है। मीडिया जो कुछ लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है वो तो जांच एजेंसियों के छापों में बरामद अवैध संपत्ति का ब्यौरा ही तो है। कोई मनगढ़त कहानी तो नहीं। दरअसल, सिद्धू को अपना हमला करते वक्त कुछ ऐसे तर्क देने चाहिए जिनका उत्तर कोई आसानी से न दे सके। मसलन, उसे पूछना चाहिए कि क्या हर अखबार में, हर भ्रष्ट आदमी के पकड़े जाने पर, इसी तरह कवरेज किया जाता है ? क्या यह सच नहीं है कि अखबार मालिक या उसके संपादकों के निजी संबंधों के दायरे में आने वाले ताकतवर लोग जब पकड़े जाते हैं तो ये अखबार पूरी तरह से खामोश रहता है या दबी छिपी जुबान में खबर छाप कर औपचारिकता निभाता है ? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? क्या यह सही नहीं है कि वही अखबार फिर उस ताकतवर व्यक्ति से खबर दबाने की मोटी कीमत वसूलता है। यह कीमत बड़े फायदे के रूप में हो सकती है या नकद राशि के रूम में या फिर राजनैतिक लाभ लेने की जैसे राज्य सभा में मनोनयन। क्या यह सही नहीं है कि जो लोग मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता करते हैंचाटुकारिता से बचते हैं और सच कहने में संकोच नहीं करते उन्हें मीडिया के मठाधीश साजिश करके मीडिया की मुख्य धारा से अलग रखते हैं। क्या ऐसा आचरण भ्रष्टाचार और अनैतिकता की परिधि में नहीं आता ? सिद्धू को जांच एजेंसियांे से पूछना चाहिए कि क्या यह सच नहीं है कि अतीत में जितने घोटाले उन्होंने पकड़े उनमें इन्हीं परिस्थितियों में जब ताकतवर लोग पकड़े गए तो इन जांच एजेंसियों को ऊपर से आदेश आ गया कि मामले को वहीं रफा-दफा कर दो और उन्होंने किया भी? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ?
सिद्धू को पूछना चाहिए कि ऐसा कैसे होता है कि बजट बनाते समय वित्तमंत्री की मिलीभगत से किसी औद्योगिक घरानों को सैकड़ों करोड़ रूपए का मुनाफा रातो-रात हो जाता है। यदि यह पैसा राजकोष में जाता तो गरीबों का भला होता। बजट में इस तरह की हेरा-फेरी करना क्या भ्रष्टाचार नहीं है ? सभी राजनैतिक दल चुनाव के लिए सैकड़ों करोड़ रूपए उद्योग जगत से वसूलते हैं। जाहिर सी बात है कि कोई भी औद्योगिक घराना किसी राजनेता के त्यागमय जीवन या सात्विक आचरण से प्रभावित होकर तो इतनी मोटी रकम दान में देता नहीं, न ही उस उद्योगपति का किसी राजनैतिक दल की विचारधारा में कोई विश्वास होता है। इन उद्योगपतियों के लिए तो यह धन भविष्य में फल प्राप्ति के उद्देश्य से किया विनियोग ही है। उन्हें पता है कि जब उनके पैसे से चुनाव जीता हुआ दल सत्ता में आएगा तो वे इसका कई गुना ज्यादा पैसा बना लेंगे। इस तरह क्या सभी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आ जाते ? सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार का यह कोई पहला मामला नहीं है। हां, अभी तक प्रकाश में आया सबसे बड़ा जरूर  है। फौज में भर्ती हो या पुलिस में, रेल में भर्ती हो या और किसी महकमें में, जहां भी जाइए नौकरियां इसी तरह खरीदी और बेची जाती हैं। कोई घोटाला उजागर हो जाता है तो ज्यादातर दबा दिए जाते हैं। सिद्धू के मामले ने लोगों की कल्पना की सभी सीमाओं को भले ही तोड़ दिया हो पर ऐसा कुछ नहीं किया जो पहले न होता आया हो। जहां तक भ्रष्टाचार की बाता है पंजाब के ही राज्यपाल, सुरेन्द्र नाथ और उनका परिवार जब हवाई दुर्घटना में मरे थे तो उनके हवाई जहाज से नोट भरे बक्सा की बारिश हुई थी। बाद में इसकी कोई भी सफाई दी गई हो पर जनता समझ गई कि मामला क्या है।
जब तक देश में गरीबी और बेराजगारी है तब तक सरकारी नौकरियों के लिए ऐसी ही आपा-धापी मचती रहेगी। अभ्यार्थियों से फीस लेकर आवेदन फार्म भरवाए जाएंगे, उन्हें परीक्षा में बैठाया जाएगा और बाद में फेल बताकर उन्हें बैरंग लौटा दिया जाएगा, क्योंकि जो पैसा देगा वहीं नौकरी पाएगा। सिद्धू के मामले पर शोर कितना ही क्यों न मच ले पर सबको पता है कि अंत में होना कुछ नहीं है। जनता यह मानने को तैयार नहीं है कि इस देश के आला अफसरों और बड़े नेताओं पर कानून का शिकंजा कभी कस भी पाएगा। इसका यह अर्थ नहीं कि रवि सिद्धू के दुराचरण का समर्थन किया जाए या उसे अनदेखा कर दिया जाए। पर हर घटना को उसकी संपूर्णता में देखने की जरूरत होती है। पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्दर सिंह शाही खानदान से हैं। धनी हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि वे राजनीति को लूट का नहीं, सेवा का माध्यम बनाएंगे। वे स्वयं भ्रष्ट हुए बिना पंजाब प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को निर्मूल करने का कठिन प्रयास करेंगे। अगर ऐसा कर सके तो इसका शुभ संदेश देश में जाएगा वरना यह उबाल भी कुछ दिनों में ठंडा पड़ जाएगा। तब लोगों को टीवी चैनलों और अखबारों में किसी ओैर सनसनीखेज घोटाले को देखनी की उत्सुकता होगी। तब कोई नहीं पूछेगा कि सिद्धू घोटाले का परिणाम क्या हुआ ? जैसे अब कोई नहीं जानना वाहता कि बाकी घोटाले कैसे दबा दिए गए। जब तक हम सच्चाई से आंख छिपाते रहेंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे। हर खबर एक मनोरंजन से ज्यादा कुछ भी नहीं होगी।

Friday, April 26, 2002

जरा सैनिकों की भी तो सोचो

सीमाओं पर सेना का इतने महीनों तक युद्ध की मानसिकता में, बिना युद्ध किए ही तैनात रहना क्या उचित है? यह प्रश्न राजधानी की बैठकों में बार-बार पूछे जा रहे हैं। रक्षा मंत्री का कहना है कि सेना अभी नहीं हटाई जा सकती। गुजरात से लौट कर भी रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडिज ने कहा कि गुजरात की सरकार ही यह तय करेगी कि वहां सेना कब तक तैनात रहे ? उनकी इस बयानबाजी से रक्षा मामलों के विशेषज्ञ खासे परेशान हैं। इनको चिंता इस बात की है कि रक्षामंत्री की इस नीति से सेना पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनका मानना है कि उसकी कार्यकुशलता, मनोबल और मानसिकता तीनों पर इसका बुरा असर होगा।

आंतरिक स्थिति से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों बार ऐसा हो चुका है। प्राकृतिक आपदा आए या और कोई संकट तो सेना इसलिए लिए बुलाई जाती है कि उसकी कार्यकुशलता और अनुशासन पुलिस से बेहतर होता है। पर सामाजिक संघर्ष मसलन, जातिगत या सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है। पर इसके लिए केवल रक्षा मंत्री या राजग सरकार दोषी नहीं। पूर्ववर्ती सरकारें भी ऐसा अक्सर करती आई है। सांप्रदायिक दंगे होते ही जनता भी सेना की बुलाने की मांग करती है। गोधरा के हत्या कांड के बाद गुजरात में भड़के सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाने में देर हुई या नहीं इसको लेकर देश का मीडिया और विपक्ष कई दिनों तक उत्तेजित रहे। दरअसल, जनता का यह विश्वास है, और यह सही भी है, कि जब सेना कमान संभाल लेगी तो किसी भी जाति या धर्म के लोग क्यों न हों उनकी रक्षा में कोई कोताही नहीं बतरती जाएगी। जबकि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बल जनता का विश्वास खो चुके हैं। जनता में यह विश्वास नहीं है कि पुलिस या ये बल न्यायपूर्ण ढंग से उसके साथ बर्ताव करेंगे। इस अविश्वास के ठोस कारण हैं। राज्यों की पुलिस का पिछले तीस-चालिस वर्षों में भारी राजनैतिकरण हो चुका है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि मुख्यमंत्री का पद प्राप्त करते ही दलों के नेता राज्य की पुलिस में अपनी जाति या अपने दल के समर्थकों की भर्ती शुरू कर देते हैं। थाने पूरी तरह राज्य की राजनीति से नियंत्रित होते हैं। हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि एफआईआर दर्ज करवाने में भी आम आदमी को दिक्कत आती है। जिस जाति के नेता का सरकार में दबदबा होता है उस जाति के अपराधियों के विरूद्ध आम जनता की शिकायतें थाने में आसानी से दर्ज नहीं की जातीं। चाहे अपराधी के विरूद्ध कितने ही प्रमाण क्यों न हों। इतना ही नहीं है राजनेता या उनके पाले माफिया गिरोह जब कोई संपत्ति हड़प करना चाहते हैं तो सबसे पहले स्थानीय थानेदार को अपनी तरफ करते हैं। पैसे देकर या राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके। जब एक थानेदार और उसके मातहत पुलिस किसी अपराधी गिरोह या बिगड़े राजनेता को फायदा पहुंचाने के लिए अपराध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होगा तो वह प्रशासन करने का नैतिक अधिकार खो देगा। जाहिर है कि दंगों कि उत्तेजना के समय ऐसी पुलिस पर कौन विश्वास करेगा ? इसलिए दंगा होते ही सेना को बुलाने की मांग की जाती है। पर यह खतरनाक
प्रवृत्ति है।

गठिया के रोगी को ऐलोपैथी में दर्द से निजात दिलाने के लिए काॅटीजोन की गोली या इंजेक्शन दिया जाता है। कुछ दिनों बाद इस दवा का असर कम होने लगता है। फिर दवा की मात्रा बढ़ा कर दी जाती है। धीरे-धीरे गठिए का मरीज काॅटीजोन का आदि हो जाता है। अब उसे दूसरी कोई दवा असर नहीं करती। काॅटीजोन देने के बाद भी जब उसकी तकलीफ खत्म नहीं होती तो वह लाचार हो जाता है। शेष जीवन उसे भारी कष्ट में बिताना पड़ता है। सांप्रदायिक दंगों के लिए बार-बार सेना को तलब करना काॅटीजोन की दवा देने के समान है। आज समाज से कट कर रहने के कारण सेना में निष्पक्षता, अनुशासन और कार्यकुशलता बची है। पर जब उसका बार-बार इस तरह दुरूपयोग किया जाएगा तो जाहिर है कि खरबुजे को देख कर खरबुजा रंग बदलेगा ही। अगर सेना में वही बुराई आ गई जो राज्यों की पुलिस में है तो फिर सरकारें सांप्रदायिक दंगों से कैसे निपटेंगी ? तब क्या अहमदाबाद के दंगों को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र की सेना को बुलाना पड़ेगा ? जिस देश में जातीय और सांप्रदायिक दंगों की स्थिति कभी भी कहीं भी भड़क जाती हो, वहां संयुक्त राष्ट्र की सेना भी आखिर कब तक आती रहेगी ? तब सिवाए अराजकता के और क्या शेष बचेगा ? स्थिति इतनी बुरी हो उसके पहले ही इस समस्या से निपटने का निदान खोजना होगा। यह कहना तो संभव नहीं होगा कि अपने समाज को हम रातो-रात इतना परिष्कृत बना लें कि दंगे हों ही न। पर यह तो संभव है कि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को सुधारा जाए। उनके बीच अनुशासन, कार्यकुशलता और समाज के प्रति निष्पक्षता का भाव पैदा किया जाए। यह कोई नया विचार नहीं है। उत्तर प्रदेश में जब पीएससी ने बगावत की थी या जब भी प्रदेशों की पुलिस पर सांप्रदायिक या जातिवादी दंगों में किसी धर्म या जाति का पक्ष लेने का आरोप लगा तब-तब इस समस्या पर गहन चिंतन किया गया। पुलिस विशेषज्ञों ने अनेक समाधान सुझाएं। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन ही इसलिए किया था कि पुलिस में आई विकृतियों को दूर करने के उपाया सोचें जा सकें। इस आयोग में अनेक सद्इच्छा रखने वाले अनुभवी व योग्य लोग सदस्य थे। आयोग ने एक सारगभित रिपोर्ट सरकार को सौंपी। पर तब तक दिल्ली की सत्ता जनता पार्टी के हाथ से निकल चुकी थी। दुबारा सत्ता मिली भी पर किसी को इस रिपोर्ट पर अमल करने का ध्यान नहीं आया। यह रिपोर्ट गृह मंत्रालय के रिकार्ड रूम में आज भी धूल खा रही है। चूंकि वर्तमान प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व रक्षा मंत्री तीनों ही उस सरकार के मंत्रिमंडल में थे इसलिए कम से कम उन्हें तो इस रिपोर्ट को लागू करने की तरफ कुछ सोचना और करना चाहिए था। पर पता नहीं किन कारणों से उन्होंने अभी तक ऐसा नहीं किया। अब भी क्या देर है? गुजरात में सेना कब तक तैनात रहे इसका फैसला भले ही श्री नरेंन्द्र मोदी व श्री जार्ज फर्नाडिज मिल कर करते रहेें पर यदि भविष्य में सेना को इस तरह के दुरूपयोग से बचाना है तो राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करके पुलिस बल और अर्धसैनिक बलों की कार्यसंस्कृति को सुधारना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

नागरिक क्षेत्र में सेना का दुरूपयोग तो ऐसे प्रयासों से रूक जाएगा पर सीमा पर सेना तैनात करके हमारे सैनिकों और अफसरों के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है वह कहीं बड़ा नुकसान न कर बैठे। सेना में युद्ध के जो दस नियम बताए जाते हैं, उसमें पहला है, शत्रु की पहचान और उस पर हमले की मानसिकता। यह परिस्थिति बहुत समय तक बनी नहीं रह सकती। देश में युद्ध का माहौल बनते ही युद्ध करना होता है। अन्यथा न सिर्फ सैनिकों में हताशा फैलती है बल्कि युद्ध जीतने के लिए जैसी मानसिकता चाहिए वह भी नहीं रह पाती। बिना युद्ध के ही सीमा पर तैनात सेना जनता का नैतिक समर्थन भी खो देती है। इस वक्त जो सेना का जमाव सीमा पर है वह बड़ी ही विचित्र स्थिति है। भेजा तो उन्हें युद्ध की मानसिकता से गया था पर काम उनसे चैकीदारी का लिया जा रहा है। यही नहीं सियाचिन जैसी आक्रामक भौगोलिक परिस्थितियों में सेना का इस तरह सावधान की मुद्दा में महीनों खड़ा रहना जवानों की दिमागी और शारीरिक सेहत पर बुरा असर डाल सकता है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हमें पाकिस्तान से युद्ध नहीं लड़ना था तो सेना को यह कवायद कराने की क्या जरूरत थी ? ऐसी कौन सी नई स्थिति पैदा हो गई थी ? ऐसा क्या बदल गया कि युद्ध नहीं किया गया ? अब क्या खतरा है जो सेना को सीमा पर सावधान की मुद्रा में खड़ा कर रखा है ? जहां तक भारत-पाक सीमा से आतंवादियों के घुसने का सवाल है तो यह सर्वविदित है कि आईएसआई के एजेंट वायुवान से पहले नेपाल आते हैं फिर भेष बदल कर नेपाल-भारत सीमा से देश में प्रवेश कर जाते हैं। उनकी जरूरत का असला यहां पहले ही मौजूद होता है।

एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में सेना में भर्ती किसी अनिवार्यता के तहत नहीं होती। जैसाकि तमाम दूसरे देशों में होता है। मसलन, स्वीट्जरलैंड में हर नागरिक को सैनिक मान कर प्रशिक्षण दिया जाता है और यह प्रशिक्षण उसके जीवनकाल में बार-बार दोहराया जाता है। चाहे वह बैंक का अधिकारी हो, शिक्षक हो, व्यापारी हो या उद्योगपति। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर चाहे जितनी सेना खड़ी की जा सके। अमरीका में राष्ट्रपति के पद पर बैठने वाला व्यक्ति भी सामान्यतः सैनिक प्रशिक्षण ले चुका होता है। जब कि भारत में सेना में भर्ती होना लोगों की इच्छा और विवेक पर निर्भर करता है। देखा यह गया है कि कुछ जातियां या कुछ इलाके के लोग मसलन, गोरखा, जाट, सिक्ख, राजस्थानी आदि ऐसी जातियां समुदाय हैं जिनमें सेना में जाना गौरव की बात समझी जाती है। मर्दानगी की निशानी मानी जाती है। इनमें कई पीढि़यों की परंपरा होती है। पर दूसरी तरफ देश में फैली भारी गरीबी और बेराजगारी से आजिज आ चुके नौजवान सेना की तरफ भागते हैं क्योंकि यहां उन्हें जीवन की वो सभी आवश्यकताएं पूरी होती नजर आती हैं जिनकी उन्हें इच्छा होतीे है। इसलिए सेना में भर्ती का विज्ञापन निकलते ही हजारों नौजवान दौड़ पड़ते हैं। पिछले दिनों इस तरह की अभ्यार्थियों की भीड़ में से साठ नौजवानों का लखनऊ में हुई एक दुर्घटना में अकाल मृत्यु को पा लेना एक दुखद घटना। पर इस दुर्घटना की जांच से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह कि बेराजगारी के सताए नौजवान नौकरी पाने की लालच में किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। उनकी इस मानसिकता का नाजायज फायदा भी उठाया जाता है। जिस पर हम भविष्य में एक तथ्यपरख लेख लिखेंगे। फिलहाल इतना ही मान लिया जाना चाहिए कि स्वयं सेवी रूप से सेना में भर्ती हुए समाज के इन सपूतों की चिंता करना केवल उनके परिवारों का ही नहीं पूरे देश का कर्तव्य है। क्यांेकि सेना में भर्ती होकर इन नौजवानों ने अपने जीवन को देश की सुरक्षा के लिए दांव पर लगा दिया है। शहादत कभी भी इनका वरण कर सकती है। इनके इस समपर्ण के भरोसे बैठ कर ही हम अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकते हैं। इसलिए सेना से जुड़े विषयों पर युद्धकाल में ही नहीं शांतिकाल में भी देश में खुल कर चर्चा होनी चाहिए ताकि सेना अपना काम मुस्तैदी से कर सके।

Friday, April 19, 2002

अमरीकी भारतीयों के बीच आध्यात्मिक नवजागरण क्यों ?

अमरीका में जा बसे भारतीयों की समस्याओं पर पिछले कुछ वर्षों में कई अंग्रेजी फिल्म आई है। जिन्होंने न सिर्फ अमरीका में बसे अप्रवासी भारतीयों को आकर्षित किया है बल्कि भारत में रहने वाले लोगों को भी। क्योंकि इन फिल्मों से उन्हें अपने नातेदारों के जीवन के उस पक्ष का पता चलता है जो वे बिना वहां जाए नहीं जान सकते थे। तब उन्हें समझ में आता है कि, ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।इस तरह की फिल्मों के क्रम में हाल ही में एक तमिल अप्रवासी परिवार पर केंद्रित अंग्रेजी फिल्म प्रदर्शन के लिए जारी हुई है। जिसका शीर्षक है, ‘मित्र।हर उस व्यक्ति को जो अमरीका जाना चाहता है यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। उसे भी जिसके नातेदार अमरीका में रहते हैं। 


अमरीका में जाकर बसने की ललक मध्यम वर्गीय परिवारों के हर आधुनिक युवा या युवती के मन में रहती हैं। जिसको जहां भी, जरा भी संभावना दीखती है वही अमरीका पहुंच जाता है। आम भारतीय परिवारों में अक्सर यह धारणा रहती हैं कि ये  युवा डाॅलर कमाने के लालच में अमरीका जाते हैं। इसमें शक नहीं कि भौतिक उन्नति के शिखर पर बैठे अमरीका में आम आदमी का भी जीवन-स्तर इतना ऊंचा है कि भारत के मध्यमवर्गीय परिवार उसके सामने निर्धन नजर आते हैं। पर ऐसा नहीं है कि अमरीका जाते ही सबकी लाॅटरी खुल जाती हो। अमरीका जाकर बसने वाले युवक युवतियों को शुरू के वर्षों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। रात-दिन काम करना पड़ता है। कड़ी मेहनत का यह सिलसिला वर्षों चलता है। यूं कार, किराए का फ्लैट और आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाएं तो इन युवाओं को जाते ही मुहैया हो जाती हैं। पर उसकी कीमत भारतीय जीवन स्तर के चाहे कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, अमरीकी जीवन स्तर के मुकाबले कुछ नहीं होती है। वहां इस बात का महत्व नहीं है कि आपके पास एअरकंडिशन कार और फ्लैट है। वहां तो यह देखा जाता है कि आपका फ्लैट या घर किस क्षेत्र में है। आपकी कार का माॅडल कौन सा है। आपके कपड़े किस मशहूर स्टोर के हैं। जब अमरीका के ऐसे उपभोक्तावादी समाज से इन युवाओं का सामना होता है तब अचानक इन्हें  लगता है कि जिन चीजों को पाने की हसरत लेकर वे अमरीका आए थे, उन्हें इतनी जल्दी पाकर भी वे निर्धन ही रहे। 


यहीं से शुरू होता है एक अंधी दौड़ का सिलसिला। जिसमें इतने वर्ष गुजर जाते हैं कि जब तक अमरीकी समाज में सफल माने जाने वाले जीवन स्तर की संपन्नता हासिल होती है तब तक उनकी जवानी 15-20 वर्ष पीछे छूट चुकी होती है। अब उनके पास रहने को खासा बड़ा घर तो होता है। नई आलिशान कारें भी होती हैं। व्यवसाय में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा होती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजाना भाग-दौड़ की जिंदगी भी होती है। बैंको में करोड़ों रूपया जमा होता है। उनके बच्चे बढि़या और महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे होते हैं। यह सब होता है पर मन फिर भी रीता रहता है। पैसा कमाने की धुन में एकदूसरे के लिए समय ही नहीं बचता। बच्चे अमरीकी संस्कृति के प्रभाव में आजाद ख्यालों के हो जाते हैं। अपने दैनिक जीवन में माता-पिता की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते। उनके भारतीय संस्कारों और जीवनमूल्यों की उपेक्षा करते हुए तथाकथित आधुनिक व स्वच्छंद जीवन जीने लगते हैं। जिससे घर में तनाव पैदा होता है। तब इस पहली पीढ़ी के दंपत्ति को अपने वतन की याद आती है। मातृ भूमि के प्रति प्रेम उमड़ता है। घर-गांव में छूट गए भाई-बहन, नातेदार व मोहल्ले व स्कूल के दोस्तों की याद सताती है। घर लौट जाने को मन करता है। उनकी प्रबल इच्छा होती है कि अपने वतन की सांस्कृतिक धरोहर इन बच्चों को दिखाई जाए। इसलिए उन्हें जबरदस्ती तीर्थाटन कराने भारत लाया जाता है। इस उम्मीद में कि पश्चिमी समाज के जो अवांछित तत्व उनके परिवारों में घुस आए हैं उन्हें बाहर निकाला जा सके। इस प्रयास में किसी को सफलता मिलती है तो ज्यादातर को विफलता। 


ऐसा नहीं है कि अमरीका में बसे सभी भारतीय परिवार इस समस्या से जूझ रहे हैं। प्रायः ऐसे परिवार, जिनकी अमरीका आकर बसने वाली पहली पीढ़ी कम शिक्षित थी उन्हें ही इस समस्या से ज्यादा जूझना पड़ रहा है। क्योंकि इस पीढ़ी ने अपनी सारी ऊर्जा काराबोर जमाने और धन कमाने में लगा दी। परिवार के सदस्यों की भावनाओं का कोई ख्याल ही नहीं रखा। जबकि वे परिवार जिनकी पहली पीढ़ी प्रोफेशनल्स की थी उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया। उन्होंने अमरीकी समाज के तनावों से निपटने के लिए भारतीय अध्यात्म की शरण ली । भारत से अमरीका घूमने जाने वाले उन लोगों को जो यहां आधुनिकरण के नाम पर अमरीकी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, यह सब देख कर बहुत अचंभा होता है। उनकी समझ में नहीं आता कि भौतिक संपन्नता की इस ऊंचाई पर पहंुच कर इन लोगों को अध्यात्म की शरण लेने की क्या मजबूरी आ पड़ी


दरअसल अमरीका आकर पहले 10-15 वर्षों में, संघर्ष तो इन प्रोफेशनल्स ने भी वैसा ही किया जैसा कम पढ़े-लिखे दूसरे भारतीय परिवारों ने किया। पर इन्होंने धन कमाने के साथ ही ज्ञान अर्जन पर भी बहुत ध्यान दिया। अपने बच्चों को अमरीकी संस्कृति में डूबने से पहले ही उन्हें भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के सबक सिखाने शुरू कर दिए। जहां भारत में धर्म की शिक्षा का, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, मखौल उड़ाया जा रहा है, वहीं विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में सबसे आगे बढ़े देश अमरीका में बसे भारत के मेधावी वैज्ञानिक और प्रोफेशनल्स गीता, उपनिषद, वेद, पुराण और दूसरे धर्म ग्रंथों का अध्ययन बड़ी गंभीरता से कर रहे हैं। ये लोग अपने बच्चों को वैदिक मंत्रों के उच्चारण और संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं। इन बच्चों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के अल्पकालिक कोर्स चला रहे हैं। हार्वड और एमआईटी जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले अनेक भारतीय छात्र नियमित ध्यान और जप करते हैं और धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हैं। उनका कहना है कि ऐसा करने से उन्हें बहुत शक्ति मिलती है। वे अपने काम में मन को एकाग्रता से लगा पाते हैं। उनमें सही और गलत को तोलने की समझ पैदा होती है। उन्हें अपने अतीत पर गर्व होता है। उन्हें अमरीकी समाज की सारहीन बातें आकर्षित नहीं कर पाती। इसके साथ ही वे जानते हैं कि इससे उनके माता-पिता को भी बहुत सुख की अनुभूति होती है। ये युवा बहुत संजीदगी के साथ भारतीय संस्कृति को समझने की ईमानदार कोशिश करते हैं। मौका मिलते ही भारत घूमने आते हैं। यहां आकर इनका ध्यान प्रशासनिक अव्यवस्था, गंदगी या दूसरी बुराईयों की तरफ नहीं जाता। जाता भी है तो उसे ये महत्व नहीं देते। ये तो भारतीय समाज के गुणों का अध्ययन करते है और उनसे लाभांवित होते हैं। वहां जाकर ये सब युवा भारत के सांस्कृतिक राजदूत बन जाते हैं। वे साम्प्रदायिक और पोंगापंथी नहीं बनते, बल्कि विवेकपूर्ण और ज्यादा समझदार हो जाते हैं। 


दूसरी तरफ हम भारत में रह कर भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। आधुनिक बनने और दीखने की ललक ने हमारी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। हम बिना विचारे पश्चिम के कचड़े को गले लगाते जा रहे हैं। इससे और निराशा फैल रही है। परिवार टूटने लगे हैं। परिवारों के बीच मन-मुटाव , तनाव और विघटन बढ़ रहा है। संजीव नंन्दा, जेसिका लाल, नताशा सिंह, विकास यादव जैसे दुखद कांड हो रहे हैं। पर फिर भी तथाकथित आधुनिकतावादी जागने को तैयार नहीं हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण का एजंडा लेकर सत्ता में आई भाजपा अनेक कारणों से इस दिशा में कुछ विशेष योगदान नहीं दे पाई। ऐसा नहीं है कि इस काम को करने का एकाधिकार भाजपा का ही हो। जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब भी भारत के ऋषियों और मनीषियों ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सदियों से सहेज कर रखा था। पर राज व्यवस्था के संरक्षण के अभाव में इसका क्रमशः लोप होता गया। आयातित धर्मों और संस्कृतियों ने यहां अपने पैर जमा लिए। बुद्धिमानी इसी बात में है कि अपने समाज और देश की चिंता करने वाले किसी राजनैतिक दल की परवाह किए बगैर जो कुछ राष्ट्रहित में हो उसे करते जाएं। इससे राजनैतिक लाभ या घाटा किसे होता है, यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।




Friday, April 12, 2002

भाजपा मीडिया से नाराज क्यों है ?

भाजपा वाले मीडिया से बहुत नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण है गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर किया गया मीडिया कवरेज। उन्हें शिकायत है कि यह कवरेज पक्षपातपूर्ण था। इससे देश में भ्रामक सूचना फैली और उन्माद भड़का। भाजपा के मीडियाकारों ने 94 पेज की एक विस्तृत रिपोर्ट छपवा कर बंटवाई है। जिसमें विशेषकर स्टार न्यूज चैनल व अंग्रजी अखबारों पर असंतुलित कवरेज करने का आरोप लगाया गया है। अनेक उदाहरणों से यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि मीडिया ने श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को नाहक कटघरे में खड़ा किया। गोधरा के बाद की घटनाओं को सरकारी आतंकवाद बताया। श्री मोदी सरकार पर गुजरात से मुसलमानों की सफाई करवाने का आरोप लगाया। पूरे मामले को इस तरह पेश किया मानो गोधरा के हत्याकांड के बाद जो लोग भी मरे वे सब मुसलमान थे। जबकि आंकड़े देकर यह सिद्ध किया गया कि मरने वालों में दोनों समुदायों के लोग थे। मुसलमान कुछ ज्यादा थे। इस रिपोर्ट को जारी करने के लिए भाजपा के दो राज्य सभा सांसदों श्री बलवीर पुंज व श्री दीनानाथ मिश्रा ने दिल्ली में अखबारों और टीवी वालों की एक गोष्ठी बुलाई। जिसमें राजधानी के कई प्रमुख पत्रकारों ने हिस्सा लिया। इस बहस में कई रोचक बातें सामने आईं।
यह सही है कि अंग्रेेजी मीडिया धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों का पक्ष लेता आया है। जब कभी किसी ईसाई या मुसलमान के साथ कोई दुर्घटना हुई तो अंग्रेजी मीडिया ने उसे बढ़ा-चढ़ा कर उछाला। पर जब वैसी ही दुर्घटना हिंदुओं के साथ हुई तो उसे सामान्य घटना की तरह पेश किया। इसके तमाम उदाहरण इस बहस के दौरान प्रस्तुत किए गए। इसीलिए हिंदू समुदाय को लगता है कि अंग्रेजी मीडिया उनके साथ न्याय नहीं करता। पर टाइम्स आफ इंडिया के संपादक श्री दिलीप पडगांवकर का जवाब था कि उनके अखबार के 90 फीसदी पाठक हिंदू हैं। अगर उन्हें भी ऐसा लगता तो वे ये अखबार न पढ़ते। चूंकि उन्होंने ऐसा नहीं किया इसलिए उनका मानना था कि यह आरोप बेबुनियाद है। अलबत्ता दूसरे कई पत्रकार इससे सहमत नहीं थे।

भाजपा से जुड़े रहने के कारण पत्रकार से सांसद बना दिए गए श्री बलबीर पुंज ने पत्रकारों को हिदायत दी कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता करें किंतु तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश न करें। उन्होंने गुजरात की कवरेज में हिंसा दिखाए जाने की भी आलोचना की। उनका तर्क था कि ऐसी टीवी पत्रकारिता से हिंसा और उन्माद भड़कता है।

उनकी इस टिप्पणी पर ऐतराज करते हुए इस काॅलम के लेखक ने यह बात रखी कि 1990 में जब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल सरकारी नियंत्रण में दूरदर्शन ही था। उस समय हमने कालचक्र वीडियो मैंगजीन के तीसरे अंक में अयोध्या में कार सेवकों पर हुए गोली कांड की जो रिपोर्ट तैयार की थी उसका भाजपा ने खूब लाभ उठाया था। कालचक्र के इस अंक की वीडियो प्रतियां पूरे भारत में दिखा कर अपने पक्ष में जनमत तैयार किया। तब भाजपा के विचारकों को इस कैसेट में कार सेवकों पर चली गोलियां और बहता खून दिखाना नहीं खला था। पर जब गुजरात में हो रही हिंसा का टीवी चैनलों पर प्रसारण हुआ तो अचानक भाजपा को लगने लगा कि यह ठीक नहीं है। दरअसल भाजपा ही नहीं हर राजनैतिक दल यह चाहता है कि मीडिया उसका भोंपू बन कर रहे। पत्रकार उसका प्रशस्तिगान करते रहें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता है। उन्हें दूरदर्शन पर भौंड़े कार्यक्रम प्रस्तुत करने के ठेके देकर या दूसरे चैनलों पर काम दिलवाकर करोड़ों रूपए साल की आमदनी कराई जाती है। चाहे दूरदर्शन का भट्टा ही क्यों न बैठ जाए। ऐसे पत्रकारों को तमाम तरह के फायदे पहुंचा कर उपकृत किया जाता है। जो पत्रकार सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। पर्दे के पीछे से दबाव डलवा कर उन्हें मीडिया की मुख्यधारा से अलग करवा दिया जाता है। उनके काम के रास्ते में रोड़े अटकाए जाते हैं। ऐसा पहले भी होता आया है। मसलन, आपातकाल के दौरान जो हुआ उसकी आज तक आलोचना की जाती है। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रकारों को भ्रष्ट करने में या उनकी आवाज नियंत्रित करने में भाजपा ने पिछले सब रिकार्ड तोड़ दिए हैं।

पिछले चार वर्षों के अपने शासन के दौरान भाजपा ने तमाम फायदे पहुंचा कर कुछ बडे़ मीडिया मालिकों को इस तरह मैनेज कर रखा था कि विरोध के स्वर स्वतः ही दबा दिए जाते थे। यह स्थिति आपातकाल से भी भयंकर थी। पर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। मीडिया का रूख वाकई बदल गया है। हाल में हुए विधानसभा चुनावों और दिल्ली नगर-निगम के चुनावों के बाद भाजपा का पतन होता सबको साफ दिखाई दे रहा है। वैसे भी उगते सूरज को सलाम और डूबते को लात मारने की प्रथा रही है। भाजपा से मीडिया का हनीमून पूरा हुआ। इसीलिए भाजपा के मीडिया मैनेजर हैरान हैं। पर यह कोई नई बात नहीं। हर नई सरकार के कार्यकाल का पूर्वाद्ध मीडिया से जुगलबंदी का होता है और उत्तरार्द्ध तकरार का। अभी तो यह आगाज है, जैसे-जैसे भाजपा के शासन का अंत निकट आता जाएगा वे सभी लोग जो अब तक भाजपा के शासन में मलाई खाते रहे, बढ़-चढ़ कर भाजपाईयों के घोटाले छापेंगे। अपनी विश्वसनीयता को बचाने के लिए ऐसा करना उनके लिए मजबूरी होगा। तब भाजपा और भी छटपटाएगी। जरूरत इस बात की थी कि बजाए चाटुकार और भोंपू किस्म के लोगों को रेवड़ी बांटने के भाजपा अपने शासनकाल में कम से कम दूरदर्शन पर तो ऐसे सवालों पर बहस शुरू करवाती जिनका इस राष्ट्र के निर्माण में भारी महत्व है। देश के सैकड़ों उन लोगों को अपनी बात कहने का मौका देती जिन्होंने अपने आचरण से राष्ट्र और समाज के प्रति अपने समर्पण के झंडे गाड़े हैं। माना कि साझी सरकार होने के नाते भाजपा कई मामलों में कड़े कदम नहीं उठा सकती थी। पर तकलीफ तो इस बाती की है कि जो कर सकती थी वह भी नहीं किया। इसीलिए आज पिट रही है और हर गांव-गली में आलोचना का शिकार बन रही है। यह बोध हमें आज उसके पतन के दौर में अचानक नहीं हुआ। हमने तो इस काॅलम में ही पिछले चार वर्षों में बार-बार भाजपा के कई अच्छे कामों का समर्थन और गलत नीतियों की आलोचना करते हुए इस तरह के तमाम सुझाव रखे थे जिनसे उसकी छवि बन सकती थी। पर सत्ता के मद में बैठे लोग ’निंदक नियरे’ नहीं रखना चाहते।

जहां तक भाजपा से जुड़े पत्रकारों का यह आरोप है कि गुजरात का कवरेज करने वाले कुछ पत्रकारों ने तथ्यों को दबाया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया तो उन भाजपाई पत्रकारों से कोई यह प्रश्न भी पूछ सकता है कि क्या उन्होंने अतीत में ऐसा ही नहीं किया ? हवाला कांड के दौरान भाजपा से जुड़े पत्रकारों ने जिस तरह महत्वपूर्ण खबरों को दबाया या तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया उसके तमाम उदाहरण हमारे पास सुरक्षित हैं। इसलिए उनके मुख से यह सुनना कि पत्रकारों को किसी राजनैतिक दल का पक्ष लिए बिना निष्पक्ष पत्रकारिता करनी चाहिए और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं चाहिए, कुछ अटपटा लगता है।

इसी गोष्ठी में बोलते हुए संघ से जुड़े विचारक श्री देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल ने पत्रकारों से अभियान न चलाने की अपील की। उनकी सलाह थी कि पत्रकार तथ्यों को प्रस्तुत करें पर किसी राजनैतिक दल के हाथ में हथियार बन कर उसका अभियान न चलाएं। इस पर टीवी से जुड़े एक युवा पत्रकार ने ध्यान दिलाया कि रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख दैनिक ने बढ़चढ़ कर श्री मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ भाजपा का अभियान चलाया था। श्री अग्रवाल की सलाह सराहनीय है। पर क्या यह सच नहीं है कि भाजपा के मौजूदा केंद्रीय मंत्री श्री अरूण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस के संपादन के दौरान लगातार ढाई वर्ष तक बोफोर्स का अभियान चलाया था ? समाज या राष्ट्रहित के किसी मुद्दे पर अभियान चलाना कोई गलत बात नहीं है। पर तकलीफ तब होती है जब अभियान चलाने वाले, मुद्दे का चयन भी अपने राजनैतिक समीकरण तय करने के बाद करते हैं। जिस सवाल पर वे एक दल का विरोध करने में आसमान सिर पर उठा लेते हैं वैसा ही सवाल जब उनके रहनुमा राजनैतिक दल के बारे में उठता है तो चुप्पी साध लेते हैं। राजनीति में जाकर अगर श्री शौरी ऐसा करते तो स्वीकार्य था क्यांेकि दल के भीतर रहने पर स्वतंत्रता की सीमाएं बंध जाती है। पर उन्होंने तो पत्रकार रहते हुए ऐसा किया। विडंबना ये कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के एवार्ड या भारत के सर्वोच्च अलंकरण भी उन्हीं पत्रकारों को दिए जाते हैं जो किसी दल विशेष के हित में काम करते हों। निष्पक्ष पत्रकारिता करने का उपदेश तो सब देते हैं, पर ऐसे पत्रकार किसी को भी फूटी आंख नहीं सुहाते।

यदि भाजपा से जुड़े पत्रकार और विचारक वास्तव में मीडिया की भूमिका को लेकर चिंतित हैं तो यह स्वस्थ संकेत हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस सवाल पर दूरदर्शन पर व सार्वजनिक मंचों पर खुली बहस आयोजित की जाएं। सबको अपनी बात कहने का अवसर मिले। वरना यह प्रयास भी केवल चारण और भाट परंपरा में सिमट कर रह जाएंगा। मीडिया ही क्यों देश के सामने दूसरे भी कई बड़े सवाल यक्ष प्रश्न बन कर खड़े हैं। अगर भाजपा का नेतृत्व वाकई देश की ंिचंता करता है तो उसे इन प्रश्नों का हल सार्वजनिक मंचों पर खोजना चाहिए। चाटुकारों की गोपनीय समितियों में नहीं, जहां सुझाव भी निहित स्वार्थ मन में रख कर दिए जाते हैं। अगर भाजपा को लगने लगा है कि एक बार सत्ता हाथ से चली गई तो धर्मनिरपेक्षवादी उसके लिए कोई मंच खाली नहीं छोड़ेंगे, तब तो यह और भी जरूरी है कि जो मुद्दे भाजपा को शुरू से प्रिय रहे हैं उन पर वह जनसंचार माध्यमों पर मुक्त बहस करवा ले। इसका उसे बेहद लाभ मिलेगा, अब न सही तो भविष्य में, बशर्ते भाजपाई अब भी तंद्रा से जागने को तैयार हों।