भाजपा वाले मीडिया से बहुत नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण है गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर किया गया मीडिया कवरेज। उन्हें शिकायत है कि यह कवरेज पक्षपातपूर्ण था। इससे देश में भ्रामक सूचना फैली और उन्माद भड़का। भाजपा के मीडियाकारों ने 94 पेज की एक विस्तृत रिपोर्ट छपवा कर बंटवाई है। जिसमें विशेषकर स्टार न्यूज चैनल व अंग्रजी अखबारों पर असंतुलित कवरेज करने का आरोप लगाया गया है। अनेक उदाहरणों से यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि मीडिया ने श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को नाहक कटघरे में खड़ा किया। गोधरा के बाद की घटनाओं को सरकारी आतंकवाद बताया। श्री मोदी सरकार पर गुजरात से मुसलमानों की सफाई करवाने का आरोप लगाया। पूरे मामले को इस तरह पेश किया मानो गोधरा के हत्याकांड के बाद जो लोग भी मरे वे सब मुसलमान थे। जबकि आंकड़े देकर यह सिद्ध किया गया कि मरने वालों में दोनों समुदायों के लोग थे। मुसलमान कुछ ज्यादा थे। इस रिपोर्ट को जारी करने के लिए भाजपा के दो राज्य सभा सांसदों श्री बलवीर पुंज व श्री दीनानाथ मिश्रा ने दिल्ली में अखबारों और टीवी वालों की एक गोष्ठी बुलाई। जिसमें राजधानी के कई प्रमुख पत्रकारों ने हिस्सा लिया। इस बहस में कई रोचक बातें सामने आईं।
यह सही है कि अंग्रेेजी मीडिया धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों का पक्ष लेता आया है। जब कभी किसी ईसाई या मुसलमान के साथ कोई दुर्घटना हुई तो अंग्रेजी मीडिया ने उसे बढ़ा-चढ़ा कर उछाला। पर जब वैसी ही दुर्घटना हिंदुओं के साथ हुई तो उसे सामान्य घटना की तरह पेश किया। इसके तमाम उदाहरण इस बहस के दौरान प्रस्तुत किए गए। इसीलिए हिंदू समुदाय को लगता है कि अंग्रेजी मीडिया उनके साथ न्याय नहीं करता। पर टाइम्स आफ इंडिया के संपादक श्री दिलीप पडगांवकर का जवाब था कि उनके अखबार के 90 फीसदी पाठक हिंदू हैं। अगर उन्हें भी ऐसा लगता तो वे ये अखबार न पढ़ते। चूंकि उन्होंने ऐसा नहीं किया इसलिए उनका मानना था कि यह आरोप बेबुनियाद है। अलबत्ता दूसरे कई पत्रकार इससे सहमत नहीं थे।
भाजपा से जुड़े रहने के कारण पत्रकार से सांसद बना दिए गए श्री बलबीर पुंज ने पत्रकारों को हिदायत दी कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता करें किंतु तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश न करें। उन्होंने गुजरात की कवरेज में हिंसा दिखाए जाने की भी आलोचना की। उनका तर्क था कि ऐसी टीवी पत्रकारिता से हिंसा और उन्माद भड़कता है।
उनकी इस टिप्पणी पर ऐतराज करते हुए इस काॅलम के लेखक ने यह बात रखी कि 1990 में जब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल सरकारी नियंत्रण में दूरदर्शन ही था। उस समय हमने कालचक्र वीडियो मैंगजीन के तीसरे अंक में अयोध्या में कार सेवकों पर हुए गोली कांड की जो रिपोर्ट तैयार की थी उसका भाजपा ने खूब लाभ उठाया था। कालचक्र के इस अंक की वीडियो प्रतियां पूरे भारत में दिखा कर अपने पक्ष में जनमत तैयार किया। तब भाजपा के विचारकों को इस कैसेट में कार सेवकों पर चली गोलियां और बहता खून दिखाना नहीं खला था। पर जब गुजरात में हो रही हिंसा का टीवी चैनलों पर प्रसारण हुआ तो अचानक भाजपा को लगने लगा कि यह ठीक नहीं है। दरअसल भाजपा ही नहीं हर राजनैतिक दल यह चाहता है कि मीडिया उसका भोंपू बन कर रहे। पत्रकार उसका प्रशस्तिगान करते रहें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता है। उन्हें दूरदर्शन पर भौंड़े कार्यक्रम प्रस्तुत करने के ठेके देकर या दूसरे चैनलों पर काम दिलवाकर करोड़ों रूपए साल की आमदनी कराई जाती है। चाहे दूरदर्शन का भट्टा ही क्यों न बैठ जाए। ऐसे पत्रकारों को तमाम तरह के फायदे पहुंचा कर उपकृत किया जाता है। जो पत्रकार सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। पर्दे के पीछे से दबाव डलवा कर उन्हें मीडिया की मुख्यधारा से अलग करवा दिया जाता है। उनके काम के रास्ते में रोड़े अटकाए जाते हैं। ऐसा पहले भी होता आया है। मसलन, आपातकाल के दौरान जो हुआ उसकी आज तक आलोचना की जाती है। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रकारों को भ्रष्ट करने में या उनकी आवाज नियंत्रित करने में भाजपा ने पिछले सब रिकार्ड तोड़ दिए हैं।
पिछले चार वर्षों के अपने शासन के दौरान भाजपा ने तमाम फायदे पहुंचा कर कुछ बडे़ मीडिया मालिकों को इस तरह मैनेज कर रखा था कि विरोध के स्वर स्वतः ही दबा दिए जाते थे। यह स्थिति आपातकाल से भी भयंकर थी। पर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। मीडिया का रूख वाकई बदल गया है। हाल में हुए विधानसभा चुनावों और दिल्ली नगर-निगम के चुनावों के बाद भाजपा का पतन होता सबको साफ दिखाई दे रहा है। वैसे भी उगते सूरज को सलाम और डूबते को लात मारने की प्रथा रही है। भाजपा से मीडिया का हनीमून पूरा हुआ। इसीलिए भाजपा के मीडिया मैनेजर हैरान हैं। पर यह कोई नई बात नहीं। हर नई सरकार के कार्यकाल का पूर्वाद्ध मीडिया से जुगलबंदी का होता है और उत्तरार्द्ध तकरार का। अभी तो यह आगाज है, जैसे-जैसे भाजपा के शासन का अंत निकट आता जाएगा वे सभी लोग जो अब तक भाजपा के शासन में मलाई खाते रहे, बढ़-चढ़ कर भाजपाईयों के घोटाले छापेंगे। अपनी विश्वसनीयता को बचाने के लिए ऐसा करना उनके लिए मजबूरी होगा। तब भाजपा और भी छटपटाएगी। जरूरत इस बात की थी कि बजाए चाटुकार और भोंपू किस्म के लोगों को रेवड़ी बांटने के भाजपा अपने शासनकाल में कम से कम दूरदर्शन पर तो ऐसे सवालों पर बहस शुरू करवाती जिनका इस राष्ट्र के निर्माण में भारी महत्व है। देश के सैकड़ों उन लोगों को अपनी बात कहने का मौका देती जिन्होंने अपने आचरण से राष्ट्र और समाज के प्रति अपने समर्पण के झंडे गाड़े हैं। माना कि साझी सरकार होने के नाते भाजपा कई मामलों में कड़े कदम नहीं उठा सकती थी। पर तकलीफ तो इस बाती की है कि जो कर सकती थी वह भी नहीं किया। इसीलिए आज पिट रही है और हर गांव-गली में आलोचना का शिकार बन रही है। यह बोध हमें आज उसके पतन के दौर में अचानक नहीं हुआ। हमने तो इस काॅलम में ही पिछले चार वर्षों में बार-बार भाजपा के कई अच्छे कामों का समर्थन और गलत नीतियों की आलोचना करते हुए इस तरह के तमाम सुझाव रखे थे जिनसे उसकी छवि बन सकती थी। पर सत्ता के मद में बैठे लोग ’निंदक नियरे’ नहीं रखना चाहते।
जहां तक भाजपा से जुड़े पत्रकारों का यह आरोप है कि गुजरात का कवरेज करने वाले कुछ पत्रकारों ने तथ्यों को दबाया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया तो उन भाजपाई पत्रकारों से कोई यह प्रश्न भी पूछ सकता है कि क्या उन्होंने अतीत में ऐसा ही नहीं किया ? हवाला कांड के दौरान भाजपा से जुड़े पत्रकारों ने जिस तरह महत्वपूर्ण खबरों को दबाया या तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया उसके तमाम उदाहरण हमारे पास सुरक्षित हैं। इसलिए उनके मुख से यह सुनना कि पत्रकारों को किसी राजनैतिक दल का पक्ष लिए बिना निष्पक्ष पत्रकारिता करनी चाहिए और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं चाहिए, कुछ अटपटा लगता है।
इसी गोष्ठी में बोलते हुए संघ से जुड़े विचारक श्री देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल ने पत्रकारों से अभियान न चलाने की अपील की। उनकी सलाह थी कि पत्रकार तथ्यों को प्रस्तुत करें पर किसी राजनैतिक दल के हाथ में हथियार बन कर उसका अभियान न चलाएं। इस पर टीवी से जुड़े एक युवा पत्रकार ने ध्यान दिलाया कि रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख दैनिक ने बढ़चढ़ कर श्री मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ भाजपा का अभियान चलाया था। श्री अग्रवाल की सलाह सराहनीय है। पर क्या यह सच नहीं है कि भाजपा के मौजूदा केंद्रीय मंत्री श्री अरूण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस के संपादन के दौरान लगातार ढाई वर्ष तक बोफोर्स का अभियान चलाया था ? समाज या राष्ट्रहित के किसी मुद्दे पर अभियान चलाना कोई गलत बात नहीं है। पर तकलीफ तब होती है जब अभियान चलाने वाले, मुद्दे का चयन भी अपने राजनैतिक समीकरण तय करने के बाद करते हैं। जिस सवाल पर वे एक दल का विरोध करने में आसमान सिर पर उठा लेते हैं वैसा ही सवाल जब उनके रहनुमा राजनैतिक दल के बारे में उठता है तो चुप्पी साध लेते हैं। राजनीति में जाकर अगर श्री शौरी ऐसा करते तो स्वीकार्य था क्यांेकि दल के भीतर रहने पर स्वतंत्रता की सीमाएं बंध जाती है। पर उन्होंने तो पत्रकार रहते हुए ऐसा किया। विडंबना ये कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के एवार्ड या भारत के सर्वोच्च अलंकरण भी उन्हीं पत्रकारों को दिए जाते हैं जो किसी दल विशेष के हित में काम करते हों। निष्पक्ष पत्रकारिता करने का उपदेश तो सब देते हैं, पर ऐसे पत्रकार किसी को भी फूटी आंख नहीं सुहाते।
यदि भाजपा से जुड़े पत्रकार और विचारक वास्तव में मीडिया की भूमिका को लेकर चिंतित हैं तो यह स्वस्थ संकेत हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस सवाल पर दूरदर्शन पर व सार्वजनिक मंचों पर खुली बहस आयोजित की जाएं। सबको अपनी बात कहने का अवसर मिले। वरना यह प्रयास भी केवल चारण और भाट परंपरा में सिमट कर रह जाएंगा। मीडिया ही क्यों देश के सामने दूसरे भी कई बड़े सवाल यक्ष प्रश्न बन कर खड़े हैं। अगर भाजपा का नेतृत्व वाकई देश की ंिचंता करता है तो उसे इन प्रश्नों का हल सार्वजनिक मंचों पर खोजना चाहिए। चाटुकारों की गोपनीय समितियों में नहीं, जहां सुझाव भी निहित स्वार्थ मन में रख कर दिए जाते हैं। अगर भाजपा को लगने लगा है कि एक बार सत्ता हाथ से चली गई तो धर्मनिरपेक्षवादी उसके लिए कोई मंच खाली नहीं छोड़ेंगे, तब तो यह और भी जरूरी है कि जो मुद्दे भाजपा को शुरू से प्रिय रहे हैं उन पर वह जनसंचार माध्यमों पर मुक्त बहस करवा ले। इसका उसे बेहद लाभ मिलेगा, अब न सही तो भविष्य में, बशर्ते भाजपाई अब भी तंद्रा से जागने को तैयार हों।