बहुत प्रतीक्षा के बाद आखिर श्री मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश की गद्दी तीसरी बार मिल ही गई। अब मुलायम सिंह पहले वाले नहीं रहे। समय ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया है। साझी सरकार चलाना वक्त की मांग है। साझी सरकार चलाने की कुछ सीमाएं होती हैं। जहां इसमें एक दूसरे को साथ लेकर चलना जरूरी होता है, वहीं ब्लैकमेल होने की संभावनाएं भी काफी होती हैं। इसके लिए जरूरी है कि समन्वय समिति बहुत प्रभावी ढंग से काम करे। सत्ता भोगने के लिए नहीं, जनता की सेवा के लिए मिलती है। पर आमतौर पर सभी राजनेता सत्ता मिलने से पहले तो जनता के सवालों को लेकर घूमते हैं और सत्ता मिलने के बाद मुनाफे वाले मंत्रालय के लिए खींचतान मचा देते हैं। चंूकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार में आए दलों को ज्यादा सावधानी बरतनी होगी क्योंकि इनके काम का असर लोकसभा चुनावों पर पड़ेगा। यूं तो श्री यादव बहुत सुलझे हुए, अनुभवी और समझदार नेता हैं, पर इस दौर में उनके सामने कई चुनौतियां हैं।
सबसे बड़ी तो चुनौती तो उत्तर प्रदेश की खस्ता माली हालत की है। साधनों के बिना प्रदेश का विकास करना तो दूर, सरकार चलाना ही नामुमकिन होता है। उत्तर प्रदेश की पिछली सरकारें कर्जे लेकर तनख्वाह बांटती आई हैं। यह स्थिति कब तक चलेगी ? नए संसाधन तो जुटाने ही होंगे। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री अमर सिंह के औद्योगिक जगत में खासे संबंध हैं। इसका लाभ उठाकर श्री मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में कई बड़े उद्योग लगवा सकते हैं, जिससे लाखों नौजवानों को रोजगार मिल सकता है। उत्तर प्रदेश के गांवों में बेरोजगारी आज सबसे बड़ी समस्या है, जिसका हल ढूंढा जाना किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके साथ ही किसानों के भुगतान की समस्या को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। मायावती सरकार ने इस ओर ध्यान न देकर किसानों को नाराज ही किया है
आज से दस वर्ष पहले भाजपा मुलायम सिंह पर राजनीति के अपराधीकरण का आरोप लगाती थी। पर सत्ता में आने के लिए भाजपा ने जिस तरह नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर हर व्यक्ति से हाथ मिलाया उससे उसके श्रेष्ठ होने का दावा ध्वस्त हो गया। इधर मुलायम सिंह यादव ने प्रयास करके अपनी छवि सुधारने का काम किया। अब उनकी छवि एक गंभीर राजनेता की है। अपनी इस छवि को बनाए रखने के लिए श्री यादव को अपराधी तत्वों से दूर रहना होगा। न तो उन्हें प्रश्रय दें और न ही कोई सरकारी जिम्मेदारी ही उन्हें सौंपी जाए, वरना इसका गलत संकेत जाएगा। बेरोजगारी और राजनैतिक भ्रष्टाचार के चलते उत्तर प्रदेश के हर जिले में अपराधी तत्वों का बोलबाला है। जिन पर लगाम कसना श्री यादव की सबसे बड़ी चुनौती है। अगर वे इन पर लगाम कस पाते हैं तो वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर बने रह सकते हैं। साझी सरकार की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि दर्जनों की तादाद में मंत्री बनाए जाते हैं। हर मंत्री पर आने वाला खर्चा उत्त्र प्रदेश की गरीब जनता पर अनावश्यक भार होता है। इससे प्रदेश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था पर और भी चोट लगती है। वैसे भी दर्जनों मंत्री बिना काम के ही लाल बत्ती की गाड़ी में घूमा करते हैं। मंत्रिमंडल का आकार छोटा और प्रभावी बनाने पर श्री यादव को आशातीत सफलता मिलेगी।
श्री यादव के सामने एक बड़ी चुनौती सुश्री मायावती से निपटने की है। हालांकि श्री अमर सिंह ने कहा है कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी, पर अक्सर राजनीति में जो कहा जाता है उसका उल्टा किया जाता है। मतलब स्पष्ट है कि मायावती सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच और उन पर तेजी से कार्रवाई करने के लिए श्री यादव सभी जांच एजेंसियांे पर दबाव डालेंगे। उधर, ताज काॅरीडोर कांड में बुरी तरह फंस चुकी मायावती की गति केन्द्र सरकार जयललिता जैसी कर देगा। तब मायावती के वो तेवर नहीं रह जाएंगे, जो वे आज दिखा रही हैं। ये बात दूसरी है कि मायावती की जितनी ही छीछालेदर होगी उतना ही उनका जातिगत जनाधार ठोस बनता जाएगा। इसके लिए यादव सरकार को जरूरी होगा कि मायावती के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को ज्यादा प्रचारित न करे।
हां यह जरूरी है कि सुश्री मायावती ने दलित नेताओं के नाम को भुनाते हुए प्रदेश के सभी शहरों और गांवों में सार्वजनिक जमीन पर हो रहे कब्जों को अनदेखा किया है या प्रश्रय दिया है। जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ा है। लेकिन सुश्री मायावती के आतंक के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी। श्री मुलायम सिंह यादव की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे पूरे प्रदेश में थानों को दुरुस्त करें और यह आदेश दें कि इस तरह के सभी अवैध कब्जे फौरन हटाए जाएं ताकि जनता का विश्वास प्रशासन में फिर से कायम हो सके।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले चैदह वर्ष से धर्म से जुड़कर चल रही है। साम्प्रदायिकता, द्वेष और दंगे इसका परिणाम हैं। सबसे दुख की बात तो यह है कि धर्म की दुहाई देकर भी भाजपा की सरकार ने हिन्दू तीर्थस्थलों के विकास के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया। श्री यादव कई बार कह चुके हैं कि वे धर्म में आस्था रखते हैं, लेकिन धर्म की राजनीति नहीं करना चाहते। अपनी इस भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण इस नए शासनकाल में वे दे सकते हैं। वे उत्तर प्रदेश में तीर्थस्थलों का जोर शोर से जीर्णोद्धार करवाएं। इससे उनका यश दूर दूर तक फैलेगा और अगले लोकसभा चुनाव में तो इसका फायदा उन्हें निश्चित ही मिलेगा। सबसे पहले यदुवंशी भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र के विकास कार्य को गति प्रदान किए जाने की आवश्यकता है। श्री यादव को चाहिए कि वे ब्रज का स्वरूप इतना सुन्दर बना दें, कि देश विदेश से आने वाले भक्त उनका यशगान करें। यह किसी से छिपा नहीं है कि तीर्थस्थलों की दुर्दशा पिछले कुछ सालों में बहुत बढ़ गई है। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक और गैर साम्प्रदायिक की श्रेणी में बंट गए हैं। परंतु किसी ने भी तीर्थस्थलों की ओर ध्यान नहीं दिया, चाहे वह हिन्दुओं के हों या मुसलमानों के अथवा सिखों के या ईसाइयों के। इनकी दशा सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किए। बस उनका एक ही ध्येय रहा कि कैसे भी जनता के ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएं।
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश का भविष्य अब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की जुगलबंदी से ही निर्धारित होगा। इसके लिए इन दोनों ही दलों को काफी परिपक्वता का परिचय देना होगा। चूंकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए दोनों ही दल अपना जनाधार बढ़ाना चाहेंगे। इससे कार्यकर्ताओं के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है, जिसे टाला जाना चाहिए। हालात की नजाकत को समझकर दोनों दलों को शीर्ष स्तर पर ही ऐसी समझदारी पैदा करनी चाहिए जिससे यह लंबे समय तक मिलकर साथ चल सकें और एक दूसरे के पूरक बन सकें, प्रतिद्वन्द्वी नहीें क्योंकि प्रतिद्वन्द्वी बनकर यह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे। इसमंे ज्यादा जिम्मेदारी श्री यादव के ऊपर है। यदि वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहना चाहते हैं तो उन्हें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए मैदान छोड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए। बड़ी स्पष्ट समझ बन सकती है कि समाजवादी पार्टी राज्य स्तर की राजनीति में आगे रहे और इंका केन्द्र के मामले में। इससे प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता भी दूर होगी और जनता के सामने एक ठोस विकल्प भी दिखाई देगा।
पता नहीं राजनेताओं के बीच यह गलतफहमी क्यों पैदा हो गई है कि जनता मूर्ख है और वो चुनाव के पहले फुसलाई जा सकती है, चाहे विकास कार्य कोई किया जाए या नहीं। पर अब समय बदल रहा है। सूचना क्रांति के दौर में जनता पहले की तरह कूपमंडूक नहीं है। जैसे जैसे उसकी जानकारी बढ़ रही है उसकी अपेक्षा भी बढ़ रही है। बिना जन अपेक्षाओं पर खरा उतरे कोई राजनेता या दल बहुत लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए श्री यादव को चाहिए कि उत्तर प्रदेश के प्रशासन को जनता के प्रति जवाबदेह होने के लिए मजबूर करें। इस मामले में राजस्थान और आंध्र प्रदेश का उदाहरण अनुकरणीय है। जहां के मुख्यमंत्रियों ने राजनीतिक स्टंटबाजी की जगह जनहित में कई ऐसे ठोस काम किए, जिससे प्रशासन का रवैया जनता के प्रति बदल गया है। ऐसी पहल उत्तर प्रदेश में भी होनी चाहिए। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का मूल उद्देश्य जनता की सेवा करना है, पर फिर भी यह हमारे प्रशासक खुद को राजा मानकर चलते हैं और जनता का प्रजा। लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है?