भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त देश से भ्रष्टाचार दूर करने को कमर कस चुके हैं, ऐसा वे हर जनसभाओं में कह रहे हैं। वे यह भी कहते हैं कि जब उनका कार्यकाल समाप्त होगा तो भ्रष्टाचार का जो रूप आज देश में है, वैसा नहीं रहेगा। भ्रष्टाचार से लड़ने की रणनीति के तहत उन्होंने तीन कदमों की घोषणा की है। पहला; सरकारी कामकाज की व्यवस्था को पारदर्शी बनाना। दूसरा; आम जनता को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए तैयार करना और तीसरा भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाना। अब जरा उनके पिछले 15 महीनों के कामकाज की समीक्षा की जाए। क्योंकि अगर यह सब लक्ष्य उन्हें पांच वर्ष में पूरे करने हैं तो उनका चैथाई वक्त बीत चुका है। पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। जो सवा साल में हुआ है उससे कोई बहुत भिन्न आगे हो पाएगा, इसकी उम्मींद कम ही नजर आती है।
मुख्य सतर्कता आयुक्त का पद संभालते ही श्री विट्ठल ने सबसे पहला आदेश तो यह जारी किया कि अगर किसी विभाग में कोई गुमनाम शिकायत आती है तो उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाए। ऐसा करने के पीछे उनका तर्क है कि इससे फर्जी शिकायतों पर रोक लगेगी और ईमानदार अधिकारियों को परेशान होने से बचाया जा सकेगा। श्री विट्ठल का इरादा नेक हो सकता है पर उनके इस एक कदम से भ्रष्टाचार के मामलों में सूचना मिलने का सबसे सशक्त स्रोत बंद कर दिया गया है। सीबीआई में आज जितने केस दर्ज हैं उनमें से ज्यादातर गुमनाम शिकायतों पर ही आधारित हैं। किसी भी जांच एजेंसी के अनुभवी अधिकारी 90 फीसदी शिकायतों को तो पढ़कर ही समझ जाते हैं कि वे सही है या फर्जी। मसलन, अगर कोई व्यक्ति एक गुमनाम शिकायत भेजता है और उसमें लिखता है कि फलां अधिकारी रिश्वत लेता है या चरित्राहीन है या देशद्रोही है तो ऐसी शिकयतों को अनुभवी जांच अधिकारी खुद ही रद्दी की टोकरी में फेंक देता है। पर अगर कोई ये लिखे कि फलां अधिकारी के फलां-फलां शहरों में फलां-फलां पते पर बंगले हैं, तो इसकी जांच की जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करना संभव है। ठीक ऐसे ही अगर कोई शिकायतकर्ता किसी अधिकारी के बेनामी बैंक खातों का विवरण देता है, तो उसकी भी जांच की जा सकती है। अगर कोई यह बताता है कि फलां अधिकारी अपने वेतन से ज्यादा किराए के पाॅश मकान में रहता है, अपने वेतन से कहीं ज्यादा स्तर के ठाट-बाट से जिंदगी जीता है, मसलन उसकी महंगी कारों के नंबर या महंगे स्कूलों के नाम जहां उसके बच्चे पढ़ते हैं, शिकायत में देता है, तो इसकी भी जांच की जा सकती है। सीबीआई आज तक ऐसा ही करती आई है। जिस देश में नेताओं के गुंडे, असामाजिक किस्म के पुलिस वाले, माफिया या तस्कर आम आदमी को सरेआम गोली से उड़ाने के बाद भी कानून के फंदे से बच निकलते हों, वहां श्री विट्ठल कैसे उम्मीद करते हैं कि एक साधारण नागरिक इतना बड़ा जोखिम उठाएगा ?
सीबीआई में एक प्रथा रही है कि वो संदेहास्पद चरित्रा के लोगों के चाल-चलन पर निगाह रखती है, ताकि उन्हें पदोन्नति या विशेष जिम्मेदारी देते वक्त ऐसी जानकारी काम आ सके। सीबीआई संदेहास्पद व्यक्ति उन्हें मानती हैं जो भ्रष्टाचार के किसी कांड में आरोपित रह चुके हों या उन पर मुकदमा चल चुका हो। पिछले कुछ वर्षों में इस देश के अनेक महत्वपूर्ण नेता और अफसर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े कांडों में पकड़ गए। फिर अपनी ताकत का इस्मेमाल करके बड़ी आसानी से कानून के शिकंजे से छूटते भी गए। उनमें से काफी लोग आज भी महत्वपूर्ण और संवेदनशील पदों को सुशोभित कर रहे हैं। क्या श्री विट्ठल ने संदेहास्पद चरित्रा के ऐसे लोगों की ताजा सूची सीबीआई से मंगवा कर देखी है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सूची बनाने की सीबीआई या मुख्य सतर्कता आयुक्त में हिम्मत ही नहीं है ?
सर्वोच्च न्यायालय के जिस फैसले के तहत मुख्य सतर्कता आयुक्त को यह नई भूमिका दी गई है उसमें एक भूमिका यह भी है कि सीबीआई के निदेशक पद पर नियुक्ति हो या प्रवत्र्तन निदेशक के पद पर, दोनो ही चयन समितियों में श्री विट्ठल भी एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं। फिर क्या वजह है कि सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री त्रिनाथ मिश्र को हटा कर श्री आरके राघवन को उन्होंने सीबीआई का निदेशक बनाया ? जबकि श्री राघवन को आपराधिक जांच करने का कोई अनुभव नहीं है। वे कभी सीबीआई में नहीं रहे। उन्होंने कभी किसी बड़े घोटाले की जांच नहीं की। जबकि श्री मिश्र न सिर्फ सीबीआई में कई वर्ष काम कर चुके थे बल्कि उनका क्षेत्राीय स्तर पर अपराधों की जांच करने और कानून व्यवस्था बनाए रखने का लंबा अनुभव था। क्या यह सही नहीं है कि सीबीआई जैसी संवेदनशील और सर्वोच्च जांच एजेंसी के निदेशक के रूप में श्री मिश्र राजनैतिक दबाव के तहत समझौते करने को तैयार नहीं थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया ? ठीक ऐसे ही प्रवत्र्तन निदेशक श्री इंद्रजीत खन्ना के साथ भी किया गया। क्या श्री विट्ठल यह सिद्ध कर सकते हैं कि इन दो महत्वपूर्ण पदों पर जिन व्यक्तियों को लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है वे भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने वाले योद्धा रहे हैं या इस काम का उन्हें ज्यादा अनुभव रहा है ? अगर ऐसा नहीं है तो क्या श्री विट्ठल ने चयन समितियों में अपना विरोध लिख कर दर्ज किया था? अगर नहीं किया और अगर ये फैसले राजनैतिक हित साधने के लिए किए गए हैं तो श्री विट्ठल ने अपनी भूमिका निभाने में कोताही बरती है। जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध जांच की एजेंसियों के सर्वोच्च पदों पर नियुक्तियों के मामले में उनकी ऐसी भूमिका रही है तो कैसे माना जाए कि ये जांच एजेंसियां अपना काम ईमानदारी और निष्पक्षता से करेंगी ? इसके प्रमाण मिलने शुरू हो गए हैं।
निचली अदालत से सर्वोच्च अदालत तक मानती है कि जैन हवाला कांड में सीबीआई की भूमिका शर्मनाक रही है। हवाला मामले में फैसला सुनाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को सीबीआई के कामकाज पर निगरानी का अधिकार दिया है। साथ ही सीबीआई के निकम्मे अफसरों को सजा देने का भी। चाहे हवाला कांड हो या मट्टू हत्या कांड की जांच, सीबीआई के अधिकारियों ने आरोपियों से सांठ-गांठ करके उन्हें बचाने का काम किया है। जब यह बात सिद्ध हो चुकी है तो क्या वजह है कि न तो सीबीआई के निदेशक ने और ना ही श्री विट्ठल ने ऐसे अधिकारियों को सजा देने की कोई पहल की ? ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी सुध न रही हो। इस संबंध में आवश्यक सूचना उन्हें सितंबर 1998 में, पद-ग्रहण करते ही दे दी गई थी। पर उन्होंने आज तक कुछ नहीं किया। वे जन सभाओं में अपने विद्वतापूर्ण भाषण देकर ये उद्घोषणा करते हैं कि वे भ्रष्टाचार को हटा कर ही दम लेंगे या कि लोग उनसे शिकायत करें, तो वे कड़े कदम उठाएंगे। तब कोई उनसे जब यह पूछता है कि आपने हवाला कांड में आरोपियों को बचाने वाले सीबीआई के अधिकारियों को आज तक सजा क्यों नहीं दिलवाई या उनके नाम अपनी वेबसाइट पर क्यों नहीं जारी किए, तो उनका जवाब होता है कि सीबीआई के निदेशक ने उन्हें बताया है कि, ‘‘सीबीआई पर इस मामले को दबाने के लिए भारी दबाव था।’’ क्या यह सफाई कानूनन जायज है ? क्या कोई जांच अधिकारी यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है ?
लगता है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल भी भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलांे में कुछ नहीं कर पाएंगे। केवल छोटे अधिकारियों को ही धर-पकड़ करने में उनका कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। इसी तरह आज देश में निजीकरण के नाम पर बड़े-बड़े कांड हो रहे हैं। मसलन, माॅडर्न फूड इंडस्ट्रीज की संपत्ति थी पांच सौ करोड़ रूपए। पता चला है कि इस सार्वजनिक प्रतिष्ठान को मात्रा सवा सौ करोड़ रूपए में बेच दिया गया। इसी तरह इंडियन पेट्रो कैमिकल्स लिमिटेड की, लेखाकारों द्वारा आंकी गई, संपत्ति है 70 हजार करोड़ रूपए। सरकार इसे बेचने जा रही है। एक विदेशी कंपनी ने बोली लगाई है मात्रा साढ़े बारह सौ करोड़ रूपए की और एक भारतीय कंपनी ने बोली लगाई है मात्रा चैदह सौ करोड़ रूपए। कल अगर यह कंपनी इस तरह निजी हाथों को बेच दी जाती है तो यह आज तक का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला होगा। सरकार तब सफाई देगी कि उसने तो सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को कंपनी बेची है। क्या मुख्य सतर्कता आयुक्त की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे सब फैसलों को लागू होने से पहले ही उनकी पूरी तरह समीक्षा करें, ताकि समय रहते ही ऐसे निर्णयों में बड़े घोेटाले होने से रोके जा सकें। खासकर तब जबकि सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के कामकाज पर निगरानी रखना श्री विट्ठल के अधिकार क्षेत्रा में आता है।
देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों के बड़े अधिकारियों की मिली भगत से इन बैंकों में जमा देश की आम जनता का 55 हजार करोड़ रूपया उद्योगपतियों पर बकाया है। जिसे लौटाने से ये उद्योगपति वर्षों से बच रहे हैं और आज सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि उनका कर्ज माफ कर दिया जाए। पड़ौस के देश पाकिस्तान में भी यही चल रहा था। पर जनरल मुशर्रफ का डंडा क्या घूमा कि वहां के बैंको में उद्योगपतियों से भारी मात्रा में वसूली होना शुरू हो गई है। हमारे देश में गरीब आदमी या छोटे किसाने से छोटे-छोटे कर्जों की वसूली के लिए बैंक उनकी कुर्की तक करवा देते हैं। पिछले दिनों आध्र प्रदेश व महाराष्ट्र के तमाम छोटे किसाने ने बैंकों के कर्जें न लौटा पा सकने के गम में आत्म हत्याएं कर लीं थीं। क्या श्री विट्ठल ने भारत के इन बड़े राष्ट्रीकृत बैंकों के अध्यक्षों के खिलाफ कोई कार्रवाई की है, ताकि उद्योगपतियों से कर्जा वसूला जा सके ? अगर कोई कारवाई नहीं की तो क्यों नहीं?
जहां तक श्री विट्ठल का दावा व्यवस्था को पारदर्शी बनवाने का है तो यह काम अकेले उनके बस का नहीं, क्योंकि कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है और दुर्भाग्य से हमारे सांसद व्यवस्था बदलने वाले फैसला लेने को तैयार नहीं हैं। फिर चाहे राजनीति के अपराधीकरण का सवाल हो या चुनावों में काले धन के प्रयोग का। ऐसे तमाम विधेयक वर्षों से संसद में पारित होने का इंतजार कर रहे हैं। जब सांसद ही नहीं चाहेंगे कि व्यवस्था पारदर्शी बने, तो अकेले श्री विट्ठल क्या कर लेंगे? हां अगर जनता सड़कों पर उतर आए और इसकी मांग करे, तब जरूर कुछ बात बन सकती है।
इसलिए श्री विट्ठल का ये कहना कि वे जनता को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए तैयार करेंगे, ठीक बात है। पर इस काम में अगर वे नौकरशाही और सरकारी तंत्रा पर ही निर्भर रहेंगे तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। जैसे साक्षरता अभियान व गरीबी हटाओं कार्यक्रम जैसे तमाम अभियान पिछले पचास वर्षों में भ्रष्ट व्यवस्था के चलते केवल कागजों पर ही पूरे हुए हैं, वैसे ही भ्रष्टाचार से लड़ने का अभियान भी कहीं भाषणों, घोषणाओं और आदेशों तक ही सिमट कर ही न रह जाए ? दरअसल भ्रष्टाचार से पूरी तरह किसी भी युग में भी निपटा नहीं गया। पर इसकी तीव्रता और व्यापकता को जरूर कम किया जा सकता है। कहते हैं मौत से ज्यादा मौत का डर आदमी को मार देता है। अगर श्री विट्ठल कुछ चुनिंदा मशहूर बड़े कांडों को लेकर, उन्हें अंजाम तक ले जाने की लड़ाई में सहयोग देते हैं, तो उन्हें अपने लक्ष्यों में सफलता मिल सकती है। एक पेड़ पर सौ चिडि़यां बैंठी हों और एक पर गोली दाग दी जाए तो कितनी बचेंगी ? ठीक ऐसे ही अगर श्री विट्ठल कुछ महत्वपूर्ण बड़े लोगों को सजा दिलवा पाते हैं तो बाकी देश इसके आतंक से ही सीधे रास्ते पर चलने लगेगा। अब तक अफसरशाही का ही हिस्सा रहे श्री विट्ठल के लिए लड़ाई का यह तरीका अंजाना भले ही हो पर आखिर में असर यही दिखाएगा, केवल भाषण और फरमान जारी करना नहीं।