Friday, October 11, 2002

साधन सम्पन्न महिलाएं क्या करें ?

माक्र्सवादियों की मान्यता है कि पूंजीपति लोग समाज का शोषण करते हैं। जबकि साम्यवादी व्यवस्थाओं में गरीब और अमीर के बीच की खाई पाट दी जाती है। पर सच्चाई यह है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी सत्ताधीश लोग आम जनता से कहीं बेहतर जिंदगी जीते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे तमाम मशहूर माक्र्सवादी चेहरे हैं जो श्रमिकों की रैलियों में गाढे का कुर्ता पहन कर बड़े भावावेश में पूंजीपतियों के विरूद्ध गर्जना करते हैं पर पर्दे के पीछे उन्हीं पूंजीपतियों या भ्रष्ट सत्ताधीशों की पांच सितारा पार्टियों में विदेशी शराब पीते और मुर्गे उड़ाते पाए जाते हैं। हृदय में करूणा और दुखीजनो की सेवा का भाव जरूरी नहीं है कि माक्र्सवाद का लबादा ओढ कर ही पैदा हो। यह सही है कि देश की जो व्यवस्था आज चल रही है उसमें बेइंतहा धन रातोरात कमा लेने वाले कोई सीधे रास्ते नहीं चलते। सरकारी नीतियों को प्रभावित करके, बैंकों के ऋण को हजम करके, पर्यावरण का विनाश करके और भारी मात्रा में कर वंचना करके मोटे मुनाफे कमाए जाते हैं।

धन सीधे रास्ते कमाया जाए या टेढ़े रास्ते, धन-धन ही होता है। एक संत कहते हैं कि लक्ष्मी का रंग गोरा या काला नहीं होता, उसका प्रयोग उसे काला या सफेद बनाता है। अगर धन का प्रयोग सद्कार्यों में किया जाए तो वह राष्ट्र के निर्माण और समाज की भलाई में काम आता है और यदि धन का प्रयोग व्यसनों में किया जाए तो वह विनाश की ओर ले जाता है। आमतौर पर देखा यह गया है कि खानदानी धनी परिवारों में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जिसे अपने धन और वैभव से विरक्ति हो जाती है और उसकी रूचि समाज के कार्यों में लग जाती है। ऐसे अनेक उदाहारण है। मशहूर बजाज खानदान के श्री गौतम बजाज को कौन नहीं जानता। वे चाहते तो उद्योग और व्यापार में लगे रह कर करोड़ो रूपया कमाते। पर जवानी में ही वे आचार्य विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गए और तब से आज तक बाबा के दिखाए रास्ते पर समाज की सेवा में जुटे है। बेहद सादगी का जीवन जीते हैं। ऐसे अनेक उदाहारण देश में हैं। राजस्थान के किसान और मजदूरों के बीच पिछले दो दशक से भी ज्यादा से समर्पित भाव से काम करने वाली श्रीमती अरूणा राय भी एक मजदूरिन की जिंदगी जीती हैं। ये जीवन उन्होंने जिंदगी में असफल होकर नहीं अपनाया, बल्कि भरी जवानी में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तिफा देकर अपनाया। क्योंकि उन्हें लगा कि सरकार में रह कर वे आम आदमी के लिए वह सब नहीं कर पाएंगी जो उनके बीच रह कर कर सकती हैं। अपनी-अपनी रूचि और अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप सद्विचार रखने वाले लोग अपना कार्यक्षेत्र चुन ही लेते हैं। इसमें उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है। जीवन की पूर्णता का अनुभव होता है और जिंदगी सार्थक लगने लगती है।

देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले भारत के सुप्रसिद्ध औद्योगिक डालमिया परिवार में बहू बन कर आई श्रीमती अरूणा डालमिया का बचपन भी कानपुर के सुप्रसिद्ध औद्योगिक सिंघानिया परिवार में बीता, जिसकी वे बेटी हैं। समाज के लिए कुछ करने की कसक ने उन्हें सामान्य मारवाड़ी परिवारों से भिन्न जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने ऐसे लोगों की सेवा का बीड़ा उठाया जिन्हें समाज अपंग कहता है। वे उन्हें ‘ चुनौती झेलने वाला ‘ कह कर संबोधित करती हैं। दक्षिण दिल्ली में ‘अक्षय प्रतिष्ठान ‘ के नाम से चलने वाली उनकी संस्था में आज सैकड़ों विक्लांग बच्चे न सिर्फ सामान्य शिक्षा पा रहे हैं बल्कि प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक अपूर्णता से भी डट कर मुकाबला कर रहे हैं। पिछले 14 वर्ष से अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस संस्थान में समर्पित कर देने वाली 61 वर्षीय अरूणा जी इन सभी बच्चों के लिए फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तरह ममत्व और करूणा की मूर्ति बन कर अवतरित हुई हैं। अपने संस्थान में उन्हें दिन भर बड़ी निष्ठा, धैर्य और समर्पण के साथ विभिन्न सेवा कार्यों में लीन देखा जा सकता है। एक तरफ तो महात्मा गांधी की समाधि पर हर 2 अक्टूबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाने वाले देश के नेता आज प्रशासनिक व्यवस्था में फिजूलखर्ची बढ़ाते जा रहे हैं। अब सरकारी कार्यालयों में नेता और अफसर ही नहीं क्लर्क और चपरासी तक वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं। यह जानते हुए भी कि देश में बिजली की कमी है और वातानुकूलित कमरों में बैठना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर आज यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। समाज सेवा के क्षेत्र मंच काम करने वाले लोग तक विदेशी शराब और सिगरेट फूंकते हैं और काॅरपोरेट आफिस जैसी तड़क-भड़क वाले दफ्तरों में बैठना पसंद करते हैं। तुर्रा ये कि वे समाज के अति दीन-हीन लोगों की सेवा का कार्य कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर वो लोग होते हैं जिन्होंने अपने जीवन में या इनके बाप-दादाओं ने कभी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी नहीं देखी होगी। दूसरी तरफ हैं श्रीमती अरूणा डालमिया जिनका जन्म ही समस्त ऐश्वर्यों के बीच हुआ और आज भी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी उनके कार्यालय में गर्मियों में भी एक पंखा ही टुकर-टुकर कर चलता रहता है। उनके कार्यालय की खिड़कियों से आने वाली जाड़े की तीखी ठंडी हवा और दिल्ली की तपती दोपहरी की लू उन पर वैसे ही थपेड़े मारती है जैसे किसी भी सामान्य जन को। इस सादगी और वैराग्य के पीछे केवल सद्विचार ही नहीं भगवत् भक्ति का भी प्रभाव है। श्री राधा कृष्ण भगवान और श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्य भक्तिन अरूणा जी को इस सेवा कार्य में भक्तिरस की प्राप्ति होती है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी शिक्षाष्टक में कहा है, ‘स्वयं को तिनके से भी अधिक विनम्र बनाओ, एक वृक्ष से भी ज्यादा सहिष्णु बनों, उस व्यक्ति को भी सम्मान दो जिसे कोई मान नहीं देता और सदा हरि का कीर्तन करते रहो’, महाप्रभु की इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारा है अरूणा जी ने। अक्षय प्रतिष्ठान के सभी कर्मचारी, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र उनके प्रति अगाध प्रेम रखते हैं। यूं तो उन्हें डालमिया परिवार के अलावा कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी इस सेवा कार्य के लिए वित्तीय सहायता मिलती रही है, पर अपने दान और सेवा को उन्होंने इस दोहे में समाहित कर लिया है। दोहा है:-

देनहार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, यासौ नीचे नैन।।

यह दोहा प्रसिद्ध मुस्लिम कृष्ण भक्त अब्दुल रहीम खानखाना ने कहा था। अकबर के राजदरबार से मंत्री रहे श्री रहीम सारा दिन अपना खजाना गरीबों में लुटाते रहते थे। लेकिन दान देते वक्त अपना सिर और निगाहे झुका लेते थे। तब किसी ने उनसे पूछा कि आप दान तो इतना देते हैं पर आॅखें नीचे क्यों कर लेते हैं ? श्री रहीम ने तब उक्त दोहे के माध्यम से यह उत्तर दिया कि दरअसल दान देने वाला तो कोई और है (भगवान) पर लोग ये समझते हैं कि मैं दान दे रहा हूं। यही सोच-सोच कर मैं शर्म से गड़ा जाता हूं। श्रीमती डालमिया ने इस दोहे को अक्षय प्रतिष्ठान के प्रतीक चिन्ह ;लोगोद्ध का अंग बनाया है।

अक्षय प्रतिष्ठान में निर्बल वर्ग के अपंग छात्रों को न सिर्फ आधुनिक शिक्षा दी जाती है बल्कि उनको विशिष्ट परिस्थितियों से जूझने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज में अपनी जगह बना सकें। हर तरह की आधुनिक सुविधाओं से युक्त अक्षय प्रतिष्ठान को अनेक विशेषज्ञों की सलाह और सहयोग मिलता रहता है। यहां तक कि इन बच्चों को अक्सर अपने चहेते सितारों को भी देखने का मौका मिल जाता है। पिछले दिनो इन बच्चों की व्यवसायिक प्रक्षिशण कार्यशाला का उद्घाटन करने सचिन तेंदुलकर जब प्रतिष्ठान में आए तो ये बच्चे फूले न समाए।

श्रीमती डालमिया के इस प्रतिष्ठान में विशिष्ट शारीरिक स्थिति के इन बच्चों के साथ ही शारीरिक रूप से सामान्य बच्चे भी पढ़ते हैं ताकि सामान्य बच्चों में अपंग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न हो और वे उनका उपहास न बनाएं। दूसरी तरफ इस प्रयोग से विकलांग बच्चों को जीवन में सामान्य शारीरिक स्थिति वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है। श्रीमती डालमिया इस अद्भुत विचार के लिए डा. उमा तुली का आभार मानती हैं। डाः तुली इस क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और उनके ही सुझाव पर अक्षय प्रतिष्ठान में यह प्रयोग किया गया। जिसके नतीजे उत्साहजनक रहे। अक्षय प्रतिष्ठान की कोशिश रहती है कि इन बच्चों को इस लायक बना दिया जाए कि वे भविष्य में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। संस्थान में अनेक कर्मचारी आज ऐसे हैं जो स्वयं विकलांग हैं। अनेक किस्म की गतिविधियां संस्थान में निरंतर चलती रहती हैं। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, फिजियोथेरेपी जैसी सुविधाएं तो हैं ही कला, संगीत, और पाक शास्त्र का भी विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान की बेकरी में बनने वालीे ब्राउन बे्रड और कूकिज़ काउंटर पर आते ही हाथो-हाथ बिक जाते हैं।

ऐसी तमाम संस्थाएं देश में चल रही हैं जहां समाज के उपेक्षित लोगों को सम्माननीय जीवन जीने का मौका मिलता है। अक्सर इन संस्थाओं में ऐसे लोगों की कमी होतीे है जिनमें बिना किसी लाभ के समर्पित होकर सेवा करने की भावना भरी हो। दूसरी तरफ प्रायः संपन्न परिवारों की महिलाओं के पास इतना ज्यादा खाली समय होता है कि वे उसे किटी पार्टियों, ताश खेलने या बेकार की गप-शप में बिता देती हैं। यदि वे अपने समय का सदुपयोग करें और अरूणा डालमिया जी की तरह हर रोज जीवन के कुछ घंटे समाज का दुख दूर करने में लगाएं तो उनका मन तो प्रसन्न होगा ही लोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।

Friday, October 4, 2002

बसपा की रैली और अडवाणी जी


बसपा की रैली में भाजपा के वरिष्ठ नेता और उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी का जाना एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा रही है। भाजपा के आलोचक जहां इसे राजनैतिक दाव-पेंच मान कर इसकी आलोचना कर रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश के हिंदू समाज में आडवाणी जी के इस कदम को एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। अयोध्या मामले में जिस कानूनी अड़चन के चलते आडवाणी जी, डा. मुरली मनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती पर मुकदमा नहीं चल सका उस अड़चन को दूर करने का अधिकार उ.प्र. की मौजूदा मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पास है। अगर वे अनुमति दे देती तो इन नेताओं के लिए बड़ा संकट खड़ा हो जाता। पर उ.प्र. में मायावती की सरकार भाजपा की बैसाखी पर टिकी है इसलिए इस तरह का अनुमति देने का मतलब होता कि अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारना।

पिछले अनुभवों से अब सुश्री मायावती ज्यादा व्यवहारिक और गंभीर हो गई हैं। भाजपा के साथ जुड़े रहने के अतिरिक्त अब उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। इसलिए इन राजनेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति उन्होंने नहीं दी और यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि सीबीआई चाहे तो मुकदमा चला सकती है। इसलिए भाजपा के आलोचक आरोप लगा रहे हैं कि आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना सार्वजनिक रूप से सुश्री मायावती के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना था। इस आरोप में कुछ सच्चाई हो सकती है। पर यह कोई ऐसा अनैतिक और बड़ा अपराध नहीं है जिसके लिए आडवाणी जी को कटघरे में खड़ा किया जाए। एक दूसरे की संकट में मदद करना राजनीति में आज आम बात होती जा रही है। ऐसे तमाम उदाहारण है जब हाल ही के वर्षों में पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं वाली राजनैतिक दलों ने भी संकट की घड़ी में अपने प्रतिद्धंदी का साथ दिया। अगर ऐसा न होता तो पिछले 55 वर्षों में सैकड़ों राजनेता विभिन्न अपराधों में सजा भुगत रहे होते। अयोध्या मामले में आडवाणी जी पर साजिश करने का आरोप लगाया जाता है। उनके आलोचक ये कहते नहीं थकते कि उन्होंने देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर नाहक अयोध्या मसले को खड़ा किया। इसलिए उन्हें बहुत बड़ा अपराधी मानते है। जबकि दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज ऐसा नहीं मानता। उसे लगता है कि अगर आडवाणी जी ने रामरथ यात्रा न की होती तो शायद हिंदू समाज इस तरह राष्ट्र के स्तर पर एक जुट न हो पाता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता का शिकार होता रहता। इसलिए आडवाणी जी की एक राष्ट्रीय नेता के रूप में हिंदू समाज में अच्छी छवि है। सच्चाई तो यह है कि हिंदू धर्म के मानने वाले जो लोग उनकी आलोचना करते हैं वे ऐसा इसलिए नहीं कि उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दों को उठा कर कोई गलत काम किया है बल्कि इसलिए कि सत्ता में आने के बाद आडवाणी जी हिंदू समाज के लिए वह सब नहीं कर रहे जिसकी उनसे अपेक्षा थी।

जहां धर्मनिरपेक्षतावादी आडवाणी जी को सामाजिक एकरसता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं वहीं बहुसंख्यक हिंदू समाज को लगता है कि इस्लामिक आतंकवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए आडवाणी जी को बहुत ही आक्रामक रूख अपनाना चाहिए। राजग की साझी सरकार होने के कारण ऐसा करना आडवाणी जी के लिए संभव नहीं है। इसलिए हिंदू समाज में कभी-कभी हताशा के स्वर भी मुखर हो जाते हैं। आज पूरी दुनिया में इस बात पर आम सहमति है कि आतंकवाद की जड़ में है मुसलमानों की जेहादी मानसिकता। भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब हिंदू समाज, उसके साहित्य और सांस्कृतिक धरोहरों को मुसलमानों के बर्बर और विध्वंसक हमलों का शिकार होना पड़ा। फिर भी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वालों में हिंदू सबसे आगे रहते हैं। ये हिंदू मानसिकता का ही परिणाम है। गुजरात में अक्षरधाम जैसी घटना अगर किसी मस्जिद में हो गई होती तो हजारों हिंदू धर्मनिरपेक्षतावादी मोमबत्ती का जुलूस लेकर सड़कों पर निकल पड़े होते। पर अक्षरधाम के वीभत्स हत्याकांड पर इनके स्वर मुखर नहीं हुए। दूसरी तरफ मुसलमान आतंकवादी सारी दुनिया में आए दिन तबाही मचा रहे हैं पर मुस्लिम समाज उनकी आलोचना में ऐसी तत्परता नहीं दिखाता जैसी हिंदू अपने समाज के विरूद्ध दिखाते हैं।

इस्लाम के मानने वालों की जहनियत ही ऐसी है कि वे तर्क करने या प्रश्न करने की जुर्रत नहीं करते। उन्हें फतवा जारी होने का डर हमेशा बना होता है। सलमान रश्दी जैसा कोई विरला अगर ऐसा कर भी दे तो उसे ताउम्र जान छिपाते भागना पड़ता ह। ऐसी कट्टरपंथी मानसिकता से त्रस्त होकर ही भारत का शांतिप्रिय हिंदू समाज अब उठ खड़ा हुआ है और संगठित हो रहा है। यह सही है कि भाजपा उनकी मंशा के अनुरूप शासन नहीं दे पाई है। भाजपा के नेता न तो व्यवहार कुशल हैं और नाही प्रशासनिक अनुभव से कांग्रेसियों से श्रेष्ठ हैं। इतना ही नहीं उनका अहंकारी स्वभाव उन्हें मीडिया से भी दूर करता जा रहा है। जबकि सुपर पावर अमरिका के राष्ट्रपति रहे रीचर्ड निक्सन तक ने  दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को यह सलाह दी थी कि वे किसी भी महत्वपूर्ण पत्रकार की उपेक्षा न करें, वरना उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता है। पर भाजपा के नेता व मंत्री केवल अपनी प्रशंसा ही सुनना चाहते हैं- आलोचना नहीं। जबकि पूरी दुनिया में मीडियाकर्मियों की वृत्ति होती है कि वे सत्ताधीशों को उपदेश देना चाहते हैं। सत्ताधीश उन उपदेशों को माने या न माने पर उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे मीडियाकर्मियों के प्रति विनम्रता का भाव रखेंगे। ऐसी तमाम कमजोरियों के बावजूद अगर भाजपा टिकी हुई है तो इसका कारण यह है कि हिंदू समाज को अभी भी यह लगता है कि भाजपा में लाख बुराई सही पर एक अच्छाई जरूर है कि वह हिंदू समाज के साथ डट कर खड़ी है। आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना भी हिंदू समाज में एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। इन लोगों को आश्चर्य है कि, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’, का नारा देने वाली मायावती ने तिलक और तराजू का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के सबसे ताकतवर व वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को ही अपनी रैली में भाषण देने क्यों आमंत्रित किया ? हिंदू समाज को लगता है कि इससे एक नई पहल होगी और सर्वणों से कट गया दलित समाज का एक बड़ा अंग पुनः नजदीक आएगा। इन लोगों को लगाता है कि आडवाणी जी की इस यात्रा के बाद मायावती व भाजपा के संबंध और प्रगाढ़ होंगे और भविष्य में होने वाले चुनावों में यह गठबंधन नए रंग दिखाएगा और इस तरह पुनः हिंदू समाज का धु्रविकरण होगा। राजनैतिक रूप से यह प्रक्रिया बड़े दूरगामी नतीजे ला सकती है। अगर ऐसा होता है तो विपक्षी दलों में काफी खलबली मच जाएगी। इस बात की काफी संभावना है कि भाजपा और बसपा के गठबंध को किसी भी तरह से तोड़ने का प्रयास किया जाए। इस मायने में आडवाणी जी का बसपा की लखलऊ रैली में जाना एक महत्वपूर्ण कदम था। अब दीवारों में लिखी इबारत साफ पढ़ी जा सकती है।

जरूरत इस बात की है भाजपा से जुड़े संस्कारवान और विचारवान लोग दलित समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करें। उन्हें धर्म की सही व्याख्या बताएं। उन्हें बताएं कि कोई जन्म से क्षूद्र नहीं होता। भागवतम् के अनुसार तो हर व्यक्ति का जन्म ही क्षूद्र के रूप में होता है। क्रमशः ज्ञान और संस्कार बढ़ते जाने पर उसके वर्ण की भी उन्नति होती जाती है। भगवान् गीता में कहते मैं कि मैंने चारो वर्णों की सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है- जन्म के नहीं। भक्ति काल के अनेक संतों और भगवत् भक्तों ने अपने भजनों के माध्यम से समाज की विषमताओं को कम करने का प्रयास किया था। उनकी शिक्षाएं आज भी सार्थक हैं। बंगाल में जन्में श्री चैतन्य महाप्रभु ने तो यवनों और हरिजनों तक को दीक्षा देकर उन्हें ब्राहम्ण के पद तक पहुंचा दिया था। आज भी देश और विदेशों में फैले गौडि़य सम्प्रदाय के मंदिरों में भगवान के विग्रहों की सेवा करने वाले पुजारी आवश्यक नहीं कि ब्राहम्ण ही हों। वे हरिजन या यवन परिवार में जन्में भी हो सकते हैं। समाज में समरूपता लाने के लिए महान् संतों और जागरुक लोगों की ऐसी दिव्य वाणी को जन-जन के बीच प्रसारित करने की आवश्यकता है। भाजपा और बसपा मिल कर यह काम बहुत अच्छी तरह कर सकती हैं। इससे समाज का दीर्घकालिक लाभ होगा।

बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के प्रति सुश्री मायावती का स्नेह सर्वविदित हैं। पर जरूरत इस बात की है कि दलित समाज अंधकार से बाहर निकले और यह देखे कि डा. अम्बेडकर से कई सौ वर्ष पहले से ही भारत के अनेक संतों और समाज सुधारकों ने इस समस्या के निदान के तमाम ठोस और सफल प्रयास किए थे। इसलिए द्वेष से ज्यादा प्रेेम की भाषा बोलने से दोनों ही समाजों को लाभ मिलेगा। इसलिए सोची-समझी रणनीति के तहत एक व्यापक अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि समाज में एकरसता आए और हिंदू समाज अपने धर्म और संस्कृति को अपने बूते पर सुरक्षित रखने की सामथ्र्य विकसित करे। इस तरह आडवाणी जी की लखनऊ यात्रा ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं। इस नई उपजी स्थिति से सकारात्मक कदम भी उठाए जा सकते हैं और इसे मात्र राजनैतिक स्टंट मान कर खारिज भी किया जा सकता है। यह तो देखने वाले की भावना और भविष्य में आने वाले परिणामों से ही पता चल पाएगा कि बसपा की रैली में जाकर आडवाणी जी ने गलत किया या सही ?

धनी महिलाएं क्या करें ?

माक्र्सवादियों की मान्यता है कि पूंजीपति लोग समाज का शोषण करते हैं। जबकि साम्यवादी व्यवस्थाओं में गरीब और अमीर के बीच की खाई पाट दी जाती है। पर सच्चाई यह है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी सत्ताधीश लोग आम जनता से कहीं बेहतर जिंदगी जीते, देश की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे तमाम मशहूर माक्र्सवादी चेहरे हैं जो श्रमिकों की रैलियों में गाढे का कुर्ता पहन कर बड़े भावावेश में पूंजीपतियों के विरूद्ध गर्जना करते हैं पर पर्दे के पीछे उन्हीं पूंजीपतियों और भ्रष्ट सत्ताधीशों की पांच सितारा पार्टियों में विदेशी शराब पीते और मुर्गे उड़ाते पाए जाते हैं। हृदय में करूणा और दुखीजनो की सेवा का भाव जरूरी नहीं है कि माक्र्सवाद का लबादा ओढ कर ही पैदा हो। यह सही है कि देश की जो व्यवस्था आज चल रही है उसमें बेइंतहा धन रातोरात कमा लेने वाले कोई सीधे रस्ते नहीं चलते। सरकारी नीतियों को प्रभावित करके, बैंकों के ऋण को हजम करके और भारी मात्रा में कर वंचना करके मोटे मुनाफे कमाए जाते हैं।

धन सीधे रास्ते कमाया जाए या टेढ़े रास्ते, धन-धन ही होता है। एक संत कहते हैं कि लक्ष्मी का रंग गोरा या काला नहीं होता, उसका प्रयोग उसे काला या सफेद बनाता है। अगर धन का प्रयोग सद-कार्यों में किया जाए तो वह राष्ट्र के निर्माण और समाज की भलाई में काम आता है और यदि धन का प्रयोग व्यसनों में किया जाए तो वह विनाश की ओर ले जाता है। आमतौर पर देखा यह गया है कि खानदारी धनी परिवारों में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जिसे अपने धन और वैभव से बिरक्ति हो जाती है और उसकी रूचि समाज के कार्यों में लग जाती है, ऐसे अनेक उदाहारण है। मशहूर बजाज खानदान के श्री गौतम बजाज को कौन नहीं जानता। वे चाहते तो उद्योग और व्यापार में लगे रह कर करोड़ो रूपया कमाते पर जवानी में ही वे आचार्य विनोवा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गए और तब से आज तक बाबा के दिखाए रास्ते पर समाज की सेवा में जुटे है। बेहद सादगी का जीवन जीते हैं, ऐसे अनेक उदाहारण देश में हैं। राजस्थान के किसान और मजदूरों के बीच पिछले दो दशक से भी ज्यादा से समर्पित भाव से काम करने वाली श्रीमती अरूणा राय भी एक मजदूरन की जिंदगी जीती हैं और ये जीवन उन्होंने जिंदगी में असफल होकर नहीं अपनाया बल्कि भरी जवानी में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तिफा देकर अपनाया। क्योंकि उन्हें लगा कि सरकार में रह कर वे आम आदमी के लिए वह सब नहीं कर पाएंगी जो उनके बीच रह कर कर सकती हैं। अपनी-अपनी रूचि और अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप सद्विचार रखने वाले लोग अपना कार्यक्षेत्र चुन लेते हैं इसमें उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है। जीवन की पूर्णता का अनुभव होता है और जिंदगी सार्थक लगने लगती है।


देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले भारत के सुप्रसिद्ध औद्योगिक डालमिया परिवार में बहु बन कर आई श्रीमती अरूणा डालमिया का बचपन भी कानपुर के सुप्रसिद्ध औद्योगिक सिंघानियां परिवार में बिता, जिसकी वे बेटी हैं। समाज के लिए कुछ करने की कसक उन्हें सामान्य माड़वाणी परिवारों से भिन्न जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने उन लोगों की सेवा का बीड़ा उठाया जिन्हें समाज अपंग कहता है। पर वे उन्हें चुनौती झेलने वाला कह कर संबोधित करती हैं। दक्षित दिल्ली में अक्षय प्रतिष्ठान के नाम से चलने वाली उनकी इस संस्था में आज सैकड़ों बच्चे आज न सिर्फ सामान्य शिक्षा पा रहे हैं बल्कि प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक अपूर्णता से भी डट कर मुकाबला कर रहे हैं। इस संस्थान में पिछले 14 वर्ष से अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा समर्पित कर देने वाली 61 वर्षीय अरूणा जी इन सभी बच्चों के लिए फ्लोरेंस लाइटीगेल की तरह ममत्व और करूणा की मूर्ति बन कर अवतरित हुई हैं। अपने संस्थान में उन्हें दिन भर बड़ी निष्ठा, धैर्य और समर्पण के साथ विभिन्न सेवा कार्यों में लीन देखा जा सकता है। देश में महात्मा गांधी की समाधि पर हर दो अक्टुबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाने वाले देश के नेता आज प्रशासनिक व्यवस्था में फिजूलखर्ची इस कदर बढ़ाते जा रहे हैं कि अब सरकारी कार्यालयों में नेता और अफसर ही नहीं क्लर्क और चपरासी तक वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं। हम ये जानते हैं कि देश में बिजली की कमी है और यह भी जानते हैं कि वातानुकूलित कमरों में बैठना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है पर आज यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। समाज सेवा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग तक विदेशी शराब और सिगरेट फूंकते हैं और काॅरपोरेट आफिस जैसी तड़क-भड़क वाले दफ्तरों में बैठना पसंद करते हैं। तुर्रा ये कि वे समाज के अति दीन-हीन लोगों की सेवा का कार्य कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर वो लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन में या इनके बाप-दादाओं ने कभी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी नहीं देखी होगी। दूसरी तरफ श्रीमती अरूणा डालमिया जिनका जन्म ही समस्थ ऐश्वर्यों के बीच हुआ और आज भी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी उनके कार्यालय में गर्मियों में एक पंखा टुकर-टुकर कर चलता रहता है। उनके कार्यालय की खिड़कियों से आने वाली जाड़े की तीखी ठंडी हवा और दिल्ली की तपती दोपहरी की लू उन पर वैसे ही थपेड़े मारती है जैसे किसी भी सामान्य जन को। इस सादगी और वैराग्य के पीछे केवल सद्विचार ही नहीं भगवत भक्ति का भी प्रभाव है। श्री राधा कृष्ण भगवान और श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्य भक्तिन अरूणा जी को इस सेवा कार्य में भक्तिरस की प्राप्ति होती है। श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी शिक्षाष्टक में कहा है, ‘स्वयं को तिनके से भी अधिक विनम्र बनाओ, एक वृक्ष से भी ज्यादा सहिसुण्य बनों और उस व्यक्ति को भी सम्मान दो जिसे कोई मान नहीं देता और सदा हरि का कीर्तन करते रहो’, महाप्रभु की इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारा है अरूणा जी ने- अक्षय प्रतिष्ठान के सभी कर्मचारी, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र उनके प्रति अगाध प्रेम रखते हैं। यूं तो उन्हें अपने परिवार के अलावा कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सेवाओं के लिए इस सेवा कार्य के लिए वित्तीय सहायता भी मिलती रही है। पर अपने दान और सेवा को उन्होंने इस दोहे में समाहित कर लिया है। दोहा है:-

देनहार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरोसा मो करें, यासौ नीचे नैन।।

यह दोहा प्रसिद्ध मुस्लिम कृष्ण भक्त अब्दुल रहिम खानखाना ने संत तुलसीदास जी को पत्र लिख कर भेजा था। अकबर के राजदरबार से मंत्री पद छोड़कर वृंदावन वास करने आए श्री रहिम सारा दिन अपना खजाना गरीबों में लुटाते रहते थे। लेकिन दान देते वक्त अपना सिर और निगाहे झुका कर पीछे कर लेते थे। तब संत तुलसीदास जी ने उनसे पत्र लिख कर पूछा कि आप दान तो इतना देते हैं पर मुंह छिपा कर क्यों देते हैं ? श्री रहिम ने तब उक्त दोहे के माध्यम से यह उत्तर दिया कि दरअसल दान देने वाला तो कोई और है (भगवान) पर लोग ये समझते हैं कि मैं दान दे रहा हूं। यही सोच-सोच कर मैं शर्म से गड़ा जाता हूं। श्रीमती डालमिया ने इस दोहे को अक्षर प्रतिष्ठान के लोगों का अंग बनाया है।
अक्षय प्रतिष्ठान में निर्बल वर्ग के अपंग छात्रों को न सिर्फ आधुनिक शिक्षा दी जाती है बल्कि उनको विशिष्ठ परिस्थिति से जुझने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज में अपनी जगह बना सकें। हर तरह की आधुनिक सुविधाओं से युक्त अक्षय प्रतिष्ठान को अनेक विशेषज्ञों की सलाह और सहयोग मिलता रहता है। यहां तक कि इन बच्चों को अक्सर अपने चहेते सितारों को भी देखने का मौका मिल जाता है। पिछले दिनो इन बच्चों की व्यवसायिक प्रक्षिशण कार्यशाला का उद्घाटन करने सचिन तेंदुलकर जब प्रतिष्ठान में आए तो ये बच्चे फुले न समाए।

श्रीमती डालमिया के इस प्रतिष्ठान में इन विशिष्ठ शारीरिक स्थिति के बच्चों के साथ ही शारीरिक रूप से मामान्य बच्चे भी पढ़ते हैं। ताकि सामान्य बच्चों में अपंग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न हो और वे उनका उपहास न बनाएं। दूसरी तरफ इस प्रयोग से विकलांग बच्चों को जीवन में सामान्य शारीरिक स्थिति वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है श्रीमती डालमिया इस अद्भुत विचार के लिए डा. उमातुली का आभार मानती हैं जो इस क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और उनके ही सुझाव पर अक्षय प्रतिष्ठान में यह प्रयोग किया जिसके नतीजे उत्साहजनक रहे। अक्षय प्रतिष्ठान की कोशिश रहती है कि इन बच्चों को इस लायक बना दिया जाए कि वे भविष्य में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। संस्थान में अनेक कर्मचारी आज ऐसे हैं जो स्वयं विकलांग हैं। अनेक किस्म की गतिविधियां संस्थान में निरंतर चलती रहती हैं। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, फिजियोथेरेपी जैसी सुविधाएं तो हैं ही कला, संगीत, और पाक शास्त्र का भी विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान की बेकरी में बनने वालीे ब्राउन बे्रड और कुकिज काउंटर पर आते ही हाथो-हाथ बिक जाते हैं।

ऐसी तमाम संस्थाएं देश में चल रही हैं जहां समाज के उपेक्षित लोगों को सम्माननीय जीवन जीने का मौका मिलता है। अक्सर इन संस्थाओं में ऐसे लोगों की कमी होती है जिनमें बिना किसी लाभ के समर्पित होकर सेवा करने की भावना भरी हो। दूसरी तरफ प्रायः संपन्न परिवारों की महिलाओं के पास इतना ज्यादा खाली समय होता है कि वे उसे किटी पार्टियों, पाश खेलने या बेकार की गप-शप में बिता देती हैं। यदि वे अपने समय का सदुपयोग करें और अरूणा डालमिया जी की तरह हर रोज जीवन के कुछ घंटे समाज का दुख दूर करने में लगाएं तो उनका मन तो पसंद होगा ही लोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।

Friday, September 27, 2002

असली मुद्दे क्यों नहीं उठाते वाघेला और मोदी


महाभारत में एक रोचक प्रसंग आता है। जब पांडव वन में प्यासे भटक रहे थे तब सरोवर के निकट यक्ष ने उनसे कुछ प्रश्न किए थे। जिसमें एक प्रश्न था, ‘संसार में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है ?’ युधिष्ठिर महाराज ने उत्तर दिया, ‘हम रोज लोगों को मृत्यु के मुंह में जाता हुआ देखते हैं फिर भी इस भुलावे में रहते हैं कि हमारी यह गति नहीं होगी।ठीक वैसे ही जैसे इस देश के मतदाता हर चुनाव के बाद राजनेताओं के झूठे वायदों से ठगे जाते हैं। फिर भी जब अगला चुनाव आता है तो पुरानी बाते भूल जाते हैं और राजनेताओं के नए जाल में फंस जाते हैं। राजनेता जनता की यह कमजोरी अच्छी तरह पहचान गए हैं इसलिए हर चुनाव में उसे मूर्ख बनाने के लिए कोई न कोई नया फार्मूला ढूंढ ही लाते हैं और उसे इस तरह पेश करते हैं मानो इससे बेहतर विकल्प उनके पास कोई दूसरा है ही नहीं। हालांकि उनके इस नए फार्मूले में नया कुछ भी नहीं होता। कहावत है कि, ‘नई बोतल में पुरानी शराब।ठीक वैसे ही जैसे डिटर्जेंट साबुन के निर्माता उसी साबुन या पाउडर के विज्ञापन में हर बार एक नया शब्द जोड़ देते हैं। जैसे नया,’ ‘ज्यादा पावर वालावगैरह वगैरह। जबकि साबुन वही पुराना होता है केवल उसका रंग और पैकिंग बदल जाती है।
गुजरात के मतदाता इतने मूर्ख नहीं कि उन्हें कोई भी बहका कर ले जाए। आखिर को गुजरात हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र रहा है। गुजरात का बहुसंख्यक समाज व्यापारिक बुद्धि और चातुर्य से भरा हुआ है। छोटी सी दुकान चलाने वाला दुकानदार भी ग्राहक के हाव-भाव, चाल-ढाल और बातचीत से अंदाजा लगा लेता है कि ये ग्राहक कुछ खरीदेगा कि नहीं या उसकी वृत्ति कैसी है? पर गुजरात के लोग सिर्फ छोटे दुकानदार नहीं हैं वे तो सिंधुघाटी की सभ्यता के काल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करते आए हैं और आज भी कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने वाले को विभिन्न भौगोलिक, सांस्कृति और आर्थिक परिवेशों के व्यापारियों से विनिमय करना पड़ता है। इससे उनकी दुनिया के बारे में समझ आम भारतीयों से कहीं ज्यादा होती है। वे उड़ती चिडि़या के पर देख कर उसका व्यक्तित्व जान सकते हैं। लोगों को पहचानने में गुजरातियों की समझ काफी तीक्ष्ण होती है। फिर भला राजनेता उनकी पारखी निगाहों से कैसे बच सकते हैं ? पर ये राजनेता शायद यह नहीं जानते या ये मानते हैं कि हम चाहे जो भी करें जनता के पास विकल्प ही क्या है ? वो हार कर हमारी ही तो शरण में आएगी। इसलिए हर चुनाव के पहले राजनेता झूठे आश्वासनों की बौछार कर देते हैं। यह जानते हुए भी कि वे उन्हें कभी पूरा नहीं कर पाएंगे। ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिनसे लोगों की भावनाएं भड़क जाएं और उनका काम बन जाए। पर गुजरात की जनता ऐसी मूर्ख नहीं है। वह सब जानती है। इसलिए उसे बहुत परिपक्वता का परिचय देना होगा। आज श्री नरेन्द्र मोदी और श्री शंकरसिह बाघेला व इनके दलों के अन्य राजनेता और कार्यकर्ता जनता के बीच जिन भावनात्मक सवालों को लेकर अपना अभियान छेेड़े हुए हैं उससे न तो गुजरातियों को कोई लाभ होने वाला है और शेष भारत को। काम वो होना चाहिए जिससे जनता भी खुश हो और देश भी आगे बढ़े। इसलिए इन दोनों राजनेताओं और इनसे जुड़े दलों के कार्यकर्ताओं को उन मुद्दों को उठाना चाहिए जिनसे जनता को वास्तविक लाभ हो। दोनों राजनेता ऐसे बुनियादी सवालों को उठाएं इसके लिए गुजरात की जनता को इन्हें मजबूर करना चाहिए।
सब जानते हैं कि भारत में धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं है। फिर भी अगर बहुसंख्यक लोगों को गरीबी और बेरोजगारी में जीना पड़ रहा है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है ? प्रशासन में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार। जिसे समाप्त किए बिना न देश का भला होगा न गुजरात का। पर राजनेता भ्रष्टाचार के सवाल पर शोर तब ही मचाते हैं जब उनका विरोधी दल इसमें फंसता है। सिर्फ शोर मचाते हैं पर उसे पकड़वाना या सजा दिलवाना नहीं चाहते। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। इसलिए शोर मचा कर राजनैतिक लाभ तो कमा लेते हैं लेकिन जब सजा देने की बात आती है तो सब एकजुट होकर एक दूसरे की मदद करते हैं। जनता ठगी जाती है। इस मामले में दो ताजा उदाहारण काफी रहेंगे। हर घोटाले पर अपने विरोधियों के विरूद्ध शोर मचाने वाले राजनेता जैन हवाला कांड की जांच में हुई बेईमानी के खिलाफ आज तक नहीं बोले। क्योंकि सभी प्रमुख दल के नेता इसमें शामिल थे।
पिछले दिनों जब सर्वोच्च न्यायलय और चुनाव आयोग ने राजनीति में अपराध और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उम्मीदवारों की सुपात्रता सुनिश्चित करने वाले कानून बनाने पर जोर दिया तो इंका और भाजपा ने अन्य दलों के साथ मिल कर इन सुधारों का विरोध किया। ऐसा कयों किया ? गुजरात की जनता को श्री वाघेला और श्री मोदी से यह भी पूछना चाहिए कि उनके दलों ने कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े जैन हवाला कांड की जांच की मांग आज तक क्यों नहीं की ? क्या उन्हें देश की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है ? क्या वे अब इस मांग को करने को तैयार हैं ? उनसे यह भी पूछना चाहिए कि ऐनराॅन जैसी महाभ्रष्ट और जनविरोधी बिजली कंपनी को जनता के तमाम विरोध और चेतावनियों के बावजूद भारत लाने में दोनों ही दलों ने इतनी रूचि क्यों ली ? जबकि सत्ता में आने से पहले भाजपा उसका विरोध कर रही थी। अब जबकि ऐनराॅन के अधिकारियों ने अमरिका की सीनेट के सामने यह खुलासा कर दिया है कि इस काम के लिए उन्होंने भारत में पचासों करोड़ रूपए की रिश्वते बांटी तो क्या श्री मोदी और श्री वाघेला जनता को इस घोटाले की असलियत बताएंगे ? गुजरात की जनता को हर शहर में आम सभाएं बुलाकर प्रस्ताव पास करने चाहिए और श्री वाघेला व श्री मोदी से दो टूक कह देना चाहिए कि यदि उनके दल गुजरात के मतदाताओं के वोट लेना चाहते हैं तो गुजरात के चुनाव से पहले इन दोनों दलों के बड़े नेताओं को संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर चुनाव सुधारों के संबंध में चुनाव आयोग की सिफारिशों वाला विधेयक बिना लाग लपेट के फौरन पारित कर देना चाहिए ताकि भविष्य में चुनावों से अपराधियों और अवैध धन का प्रभुत्व समाप्त हो सके। इन दोनों राजनेताओं की जनसभाओं और संवाददाता सम्मेलनों में बार-बार ऐसे सवाल उठाए जाने चाहिए। अर्जेंटिना जैसे दुनिया के कई देश राजनैतिक औेर प्रशासनिक भ्रष्टाचार के चलते आज दिवालिया हो चुके हैं। कल तक संपन्नता का जीवन भोग रहे इन देशों के नागरिकों ने कभी सोचा भी न था कि कोठी, बंगले, कार होने के बावजूद एक दिन ऐसा भी आएगा जब उन्हें पेट की आग बुझाने के लिए दुकानें लूटनी पड़ेंगी। अगर द्वारकाधीश भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा गांधी और सरदार पटेल की कर्मभूमि गुजरात के नागरिकों को इस देश से जरा भी प्यार है तो उनका यह फर्ज है कि वे श्री मोदी व श्री वाघेला को कहीं भी भाषण देने से पहले ऐसे बुनियादी सवालों के सार्वजनिक मंचों से उत्तर देने को मजबूर करें। उनसे पूछें कि जब गुजरात के किसानों को और शहरों की बस्तियों में रहने वाले लोगों को पानी और बिजली की इतनी भारी किल्लत रहती है तो यह कहां तक उचित है कि गुजरात के राजनेता और अधिकारी वातानुकूलित कमरों में ऐश करें, छप्पनभोग खाएं, स्वीमिंगपूलों मंे जल क्रीड़ाएं करें और गुजरात की जनता के खून-पसीने कीे कमाई को हवाई यात्राओं में उड़ाते फिरें। सरकारी खर्च में भारी कटौती किए बिना जनता की सुविधाओं के विस्तार के लिए धन आ ही नहीं सकता। फिर चाहे अपनी सड़क मरम्मत करानी हो या अस्पतालों में दवा का इंतजाम करना हो। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी व्यापार तब तक कामयाब नहीं होता जब तक कि प्रशासनिक खर्चों पर नियंत्रण न रखा जाए। एक व्यापार के साल भर के सारे खर्चों में प्रशासनिक खर्च 10-15 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। जबकि आज भारत में केंद्र और प्रातीय सरकारों का खर्चा 60 से 80 फीसदी तक है। जनता जो कर देती है उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनेओं और नौकरशाही के रख-रखाव पर ही खर्च हो जाता है और जो विकास के लिए धन बचता है उसका एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में चला जाता है। जनता के दुख-दर्द दूर करने को जो धन बचता है वह ऊंट के मुंह में जीरा बराबर भी नहीं होता। फिर तनख्वाहें बांटने और विकास के काम चलाने के लिए विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भारी ब्याज दर पर कर्जा लेना पड़ता है। शुरू में लगता है कि इस कर्जें से सब दुख दूर हो जाएंगे। शायद हो भी जाते अगर इसका सदुपयोग होता। पर अनुभव बताता है कि इस पैसे का बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। ब्याज व कर्ज चुकाने के लिए पेट्रोल व बिजली की कीमतें बढ़ा कर और कर लगा कर आम जनता से वसूली की जाती है। अर्जेंटिना डेढ सौ अरब डालर के कर्ज में फंस कर अपने को दिवालिया घोषित कर चुका है। एक महीने में चार राष्ट्रपति बदल गए। देश की राजधानी ब्यूनोस आयर्स तक में खाने-पीने की चीजें उपलब्ध नहीं हैं और धनी लोग भी लूट-पाट करने को मजबूर हो गए हैं। क्या श्री मोदी और श्री वाघेला ऐसे बुनियादी सवालों को उठाएंगे ? क्या गुजरात की जनता यात्राओं और भड़काऊं नारों में उलझ कर सच्चाई से आंख मूंद लेगी ? क्या भारत इसी तरह लुटता और बर्बाद होता रहेगा ? ऐसे तमाम सवालों का जवाब गुजरात की जनता को देना है। अगर वो समझदारी से काम लेती है और श्री मोदी और श्री वाघेला को इस बात के लिए मजबूर करती है कि भावनाएं भड़काने की बजाए असली मुद्दों पर बात करें तब तो भारत में परिवर्तन पर हवा बह सकती है। अगर जनता ऐसा नहीं करती तो न सिर्फ चुनाव के बाद गुजरात के लोग पछताएंगे बल्कि शेष भारत में भी बेहतरी के लिए बदलाव की हवा कभी कहीं से उठ नहीं पाएगी। फिर हम दोष किसे देंगे ?

Friday, September 20, 2002

परवेज मुशर्रफ बाज नहीं आयेंगे

संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में पाकिस्तान के राष्ट्रपति श्रीपरवेज मुशर्रफ ने भारत के विरुद्ध जिस भाषा का प्रयोग किया वह कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान अपने जन्म के समय से ही हर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर यही जहर उगलता आया है। पर जिस तरह श्री मुशर्रफ ने सत्तारूढ़ भाजपा पर हमला बोला और गुजरात के दंगों को लेकर टिप्पणी की वह साफ साफ भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी का नमूना था। यह दूसरी बात है कि पाकिस्तान कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई बताता रहे, पर असलियत यह है कि सारी दुनिया जानती है वहां जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसलिये श्री मुशर्रफ को इस मामले पर कोई समर्थन नहीं मिला। इतना ही नहीं उनकी अमरीका में मौजूदगी के दौरान ही बुश प्रशासन ने पाकिस्तान को फटकार लगाई। साफ-साफ शब्दों में कहा कि कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान से इस किस्म के आतंकवाद को रोकने को भी कहा गया। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने श्री मुशर्रफ का माकूल जवाब दिया पर इस सारे मामले में सिवाय कूटनीतिक दांवपेचों के और कुछ भी हासिल नहीं हुआ। स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है और इसके लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार है अमरीका।

एक तरफ तो अमरीका पाकिस्तान को फटकार लगाता है और दूसरी ओर उसे आतंकवाद के विरुद्ध अपने वैश्विक युद्ध में बराबर का हिस्सेदार मानता है। अमरीका के कूटनीतिज्ञ जब भारत आते हैं तो दूसरी भाषा बोलते हैं और जब इस्लामाबाद जाते हैं तो वहां के सुर में सुर मिलाते हैं। हम सब कुछ देख समझ रहे हैं पर फिर भी इस मुगालते में हैं कि अमरीका को हमसे हमदर्दी है। सारी दुनिया जानती है कि अमरीकी सरकार अपनी विदेश नीति आंतरिक-आर्थिक दबावों के अनुरूप बनाती है। उसका मुख्य उद्देश्य अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखना और अमरीकी सामान और तकनीकी के लिये दुनिया में नये नये बाजारों पर कब्जा करना है। अफगानिस्तान में अमरीका का दखल आर्थिक कारणों से था न कि राजनैतिक से। अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिये अमरीका को पाकिस्तान का सहयोग चाहिये।

तालिबान न तो हारे हैं और न थके हैं। वे मौके की फिराक में हैं। मौका मिलते ही वे फिर हमला बोल देगे। उन्हें साधे रखने के लिये जिस फौजी साजो सामान की जरूरत होती है उसका बड़ा जखीरा अमरीका ने पाकिस्तान की सरजमीं पर तैनात किया हुआ है। उसके लड़ाकू जहाज पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर खड़े हैं। हालांकि अमरीका अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के आवाम की हमदर्दी उसके साथ नहीं है। वह यह भी जानता है कि श्री मुशर्रफ दोहरी चाल चल रहे हैं। एक तरफ अमरीका से आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध में दोस्ती का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर तालिबानों से उनका संवाद जारी है। पर अमरीका की यह मजबूरी है कि वह पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाये रखे। दक्षिणी एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये उसे ये मदद चाहिये ही। दूसरी तरफ अमरीका के भारत में व्यापारिक हित बढ़ते जा रहे हैं। भारत उसे भारी संभावनाओं से युक्त एक बड़ा बाजार दिखाई देता है। इसलिये उसका रुख भारत की तरफ भी मित्रता का है।

लेकिन भारत के विदेश नीति निर्धारकों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि दिखावे को अमरीका चाहे कितनी भी हमदर्दी क्यों न जताये असलियत में उसे भारत में फैल रहे आतंकवाद की कोई चिंता नहीं है। यदि वह वाकई चिंतित है तो वह इसे रुकवा पाने में पूरी तरह सक्षम है। पर वह ऐसा नहीं कर रहा। रूस के पतन के बाद आज दुनिया के राजनैतिक पटल पर अमरीका सबसे ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र है और चीन जैसे कुछ देशों को छोड़कर शेष दुनिया में उसकी तूती बोलती है। वह जिस हुक्मरान से जो कराना चाहता है, करा सकता है। इसीलिये आज दुनिया के तमाम देशों के हुक्मरान भाग-भाग कर वाशिंगटन जाते हैं और व्हाइट हाउस में फर्शी सलाम बजाते हैं। यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं। इससे इन देशों की सार्वभौमिकता खतरे में पड़ती जा रही है। पर अब कोई विकल्प भी तो नहीं है। आर्थिक शक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय जाल ने धीरे-धीरे दुनिया भर के देशों को जकड़ लिया है। जिस बात को बड़े गर्व से विकास का सूचक मानकर बताया जाता है वही बात आज इन देशों स्वतंत्र अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा खतरा हो गयी है और वह है दुनिया को ‘एक आर्थिक गांव’ बताना। केन्द्रीयकृत बाजारू शक्तियों से सारी दुनिया के लोगों को नियंत्रित करने का जो दौर चला है वो धीरे-धीरे इन देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं को भी दरकिनार करता चला जाएगा। आज बहुत से देशों में ये हो भी रहा है। भारत का विपक्ष सत्तारूढ़ दल पर अमरीका के आगे घुटने टेकने का आरोप लगाता है। जबकि हकीकत यह है कि आने वाले समय में अगर विपक्षी दल भी सत्ता में आते हैं तोउनकी विदेश नीति आज से बहुत हटकर नहीं होगी। यह स्थिति अपरिहार्य हो चुकी है।

इन हालातों में भी अगर पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान वही दकियानूसी ढर्रे पर चलकर एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हैं तो यह इसलिये कि इन देशों के समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी अंतर्राष्ट्रीय बाजारू शक्तियों के जाल से काफी हद तक अछूता है। सामंती मानसिकता अभी बरकरार है। राष्ट्रवाद और धर्म के प्रति आस्था अभी अदृश्य नहीं हुई है। ऐसे में भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान मौजूदा हालात की हकीकत को जानते हुए भी जहर उगलने का यह नाटक करते रहते हैं ताकि अपने देश की जनता को अपने जुझारू होने का संकेत दे सकें। यदि वास्तव में हम भारत में फैल रहे आतंकवाद के प्रति चिंतित हैं तो हमें कुछ ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिये जिनसे इस स्थिति पर काबू पाया जा सके। इस संदर्भ में भारत की आंतरिक स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत होगी।

यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि देश में एक से एक आला दर्जे के ऐसे पुलिस अधिकारी मौजूद हैं जिन्हें न सिर्फ इस बात का आत्मविश्वास है कि वे आतंकवाद का खात्मा कर सकते हैं बल्कि उन्होंने अतीत में ऐसा करके भी दिखाया है। ऐसे अधिकारी आज देश के कई हिस्सों में तैनात हैं। प्रश्न है कि क्या भारत का गृह मंत्रालय ऐसे पुलिस अधिकारियों को उनके अनुभव और योग्यता के अनुरूप वह सम्माननीय स्थिति देने का तैयार है जिस पर खड़े होकर वे आतंकवाद को नियंत्रित कर सकें? हकीकत ये है कि ऐसे तमाम लोग देश के अलग अलग प्रांतों में निष्क्रिय बैठकर मक्खी मार रहे हैं जबकि अक्षम और संदिग्ध आचरण वाले लोग महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में बैठे हैं। यही कारण है कि कश्मीर या शेष भारत में आतंकवाद पर लगाम नहीं लग पा रही। इसके साथ ही आतंकवादियों को छिपे तौर पर मिल रहा

राजनैतिक संरक्षण भी उसकी वृद्धि में सहायक है। सरकार की गुप्तचर एजेंसियों के पास इस बात के तमाम प्रमाण और सूचनायें उपलब्ध हैं कि देश के अनेक प्रतिष्ठित राजनेता समय समय पर आतंकवादियों को संरक्षण देते आये हैं। बिना इन राजनेताओं पर शिकंजा कसे आतंकवाद से नहीं लड़ा जा सकता। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सीबीआई के कब्रगाह में तमाम ऐसे घोटाले दफन हैं जिनसे आतंकवाद के अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तंत्र का पर्दाफाश होता हैं। पर राजनैतिक दबावों के चलते इन घोटालों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। न तो उनकी जांच की गयी और न ही उन अधिकारियों को सजा ही दी गयी जो ऐसी जांच को दबाने में जुटे रहे। भारत सरकार की ऐसी नीति के चलते जाहिरन आतंकवादियों के हौसले बढ़े हैं और वे बेखौफ होकर संसद जैसी संस्था पर हमला बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। यदि भारत सरकार आतंकवाद से वाकई निपटना चाहती है तो उसे इस पूरे मामले पर श्वेत पत्र लाना चाहिये। अब तक जिस किस्म के श्वेत पत्रों को लाने की बात कही गयी उनसे तो यही संकेत मिलता रहा है कि भारत सरकार पाकिस्तान की भूमिका को प्रकाशित करना चाहती है। पर यह संकेत आज तक नहीं मिला कि सरकार के इस प्रस्तावित श्वेत पत्र में आतंकवाद से जुड़े काण्डों का भी उल्लेख किया जाएगा। यह भी बताया जाएगा कि इन काण्डों की जांच की मौजूदा स्थिति क्या है ? इनकी जांच की गति इतनी धीमी क्यों रही है ? इन मामलों में समय रहते कानूनी कार्रवाई न करने वाले सीबीआई के अधिकारियों को क्या सजा दी गयी है ? इन केसों की जांच कहां और किस मुद्दों पर अटकी है ? बिना इस किस्म की जानकारी के आतंकवाद पर श्वेत पत्र लाना कोरी बयानबाजी से अधिक और कुछ नहीं होगा। इसमें शक नहीं कि भारत आतंकवाद से त्रस्त है। इसमें भी शक नहीं कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद को लगातार खुलकर समर्थन दे रहा है। पर यह भी सच है कि भारत के लचर राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे के कारण ही आतंकवादियों के हौसले इतने बढ़ पाये हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हम चाहे जितना आक्रामक रुख अपनायें, पाकिस्तान को चाहे जितना गरियाएं पर जब तक हम अपने देश के भीतर आतंकवाद के विरुद्ध माहौल को आक्रामक और प्रभावी नहीं बनायेंगे, आतंकवाद नियंत्रित करने में कामयाब नहीं हो सकते।

आर्थिक रूप से पिछड़ा, सैन्य तानाशाही से ग्रस्त और स्थाई रूप से राजनैतिक अस्थिरता का शिकार पाकिस्तान का शासन तो भारत को लक्ष्य बनाकर अपना वार करता रही रहेगा। उसके वजूद में आने से लेकर आज तक बने रहने का आधार ही भारत के प्रति द्वेष है। इस कड़वे सच को हमें स्वीकारना होगा। पर पड़ोसी देश से ऐसे व्यवहार का मिलना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। चाणक्य पंडित ने तो साफ कहा है कि शासक को अपने पड़ोसी देशों को सदैव शत्रु मानकर चलना चाहिये। इसलिये संयुक्त राष्ट्र में वाजपेई जी जो बोले सो ठीक बोले पर देश में वो और उनके सहयोगी उप प्रधानमंत्री क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण बात है। देश केवल भाषणों से नहीं ठोस और मजबूत कदम उठाने से चला करता है जिसकी इस सरकार में काफी कमी दिखाई दे रही है। चिंता की बात यह है कि भावनायें भड़काने में माहिर राजनैतिक दल इन बुनियादी सवालों को छूना नहीं चाहते। जनता में उन्माद तो पैदा करते हैं पर उस उन्माद से रचनात्मक परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न नहीं होती। इसलिये कुछ भी नहीं बदलता। यह जिम्मेदारी तो उन जागरूक और तटस्थ लोगों की है जो इस सारे माहौल को देेख और समझ रहे हैं। पर निष्क्रिय बैठे है इस उम्मीद में कोई आकर हालत सुधार देगा। कहावत है कि ‘दैव दैव आलसी पुकारा’।

Friday, September 13, 2002

कैसे हों शमशान घाट ?

जो लोग कलकत्ता से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस में जल समाधि ले गये उनके परिजनों को इस दुखद हादसे से उबरने में अभी बहुत वक्त लगेगा। मौत कैसी भी क्यों न हो परिजनों को भारी पीड़ा देती है। घर का बुजुर्ग भी अगर चला जाए तो एक ऐसा शून्य छोड़ जाता है जो फिर कभी भरा नहीं जा सकता। उसकी उपस्थिति का कई महीनों तक परिवारजनों को आभास होता रहता है। उसकी दिनचर्या को याद कर परिजन दिन में कई बार आंसू बहा लेते हैं। घर में कोई उत्सव, मांगलिक कार्य या अनुष्ठान हो तो अपने बिछुड़े परिजन की याद बरबस आ जाती है। जब कभी परिवार किसी संकट में फंसता है तो उसे अपने परिजन की सलाह याद आती है। अच्छे लोग मर कर भी मरते नहीं। किसी न किसी रूप में उनकी स्मृति बनी रहती है। अपने परिजनों के बिछुड़ने के बाद भी उन्हें याद रखने की संस्कृति बहुत पुरानी है। चीन, मिसोपोटामिया, माया संस्कृति, सिन्धु  घाटी ऐसे अवशेषों से भरी पड़ी है जो यह प्रमाणित करते हैं कि आने वाली पीढि़यां अपने बिछुड़े परिजनों को जीवन से अलग नहीं कर पातीं। दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में तो हर घर के आंगन में एक पांच फुट के खम्भे पर बुद्ध पगोडे के स्वरूप का छोटा सा मंदिर बना होता है जिसमें परिजनों के स्मृति चिह्न रखे होते हैं। सिंगापुर जैसे आधुनिक और अति व्यस्त शहर में भी काम पर जाने से पहले घर के सदस्य पूर्वजों के इस मंदिर में माथा टेककर जाते हैं। इतना ही नहीं हर सुबह नाश्ते में बनने वाले सभी व्यंजनों का अपने पूर्वजों को भोग लगाकर ही चीनी लोग नाश्ता करते हैं। जब मृतकों की स्मृति के लिये इतना कुछ किया जाता है तो जब कोई अपना जीवन समाप्त कर अंतिम यात्रा को प्रस्थान करता है उस समय परिजनों के हृदय की व्यथा शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। घर में जैसे ही मौत होती है पहली प्रतिक्रिया तो आघात की होती है। सारा परिवार महाशोक में डूब जाता है। फिर तुरंत ही अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू कर दी जाती है। जीते जी हम अपने प्रियजन को कितना ही प्यार क्यों न करते रहे हों उसकी मौत के बाद, शव को कोई बहुत समय तक घर में नहीं रखना चाहता। अर्थी सजाने से लेकर शमशान जाने तक का कार्यक्रम बहुत व्यस्त कर देने वाला होता है। जहां घर की महिलायें रुदन और विलाप में लगी होती हैं वहीं पुरुष सब व्यवस्था में जुट जाते हैं। अपनी क्षमता और भावनानुसार लोग अपने प्रियजन की इस अंतिम यात्रा को अधिक से अधिक भव्य बनाने का प्रयास करते हैं। अगर कोई नाती-पोते वाला बहुत बुजुर्ग चल बसे तब तो गाजे-बाजे के साथ, रंग गुलाल उड़ाते हुए विदाई होती है। पर भारत के अधिकतर शहरों में इस यात्रा का अंतिम पड़ाव इतना झकझोर देने वाला होता है कि शोकाकुल परिवार का शोक और तनाव और भी बढ़ जाता है।



शमशान घाटों की दुर्दशा पर बहुत समाचार नहीं छपते। यह एक गंभीर विषय है और आश्चर्य की बात है कि मरते सब हैं पर मौत की बात करने से भी हमें डर लगता है। जब तक किसी के परिवार में ऐसा हादसा न हो वह शायद ही शमशान तक कभी जाता है। उस मौके पर शवयात्रा में आये लोग शमशान की दुर्दशा पर बहस करने के लिये बहुत उत्साहित नहीं होते। जैसा भी व्यवहार मिले, सहकर चुपचाप निकल जाते हैं। पर एक टीस तो मन में रह ही जाती है कि हमारे प्रियजन की विदाई का अंतिम क्षण ऐसी अव्यवस्था में क्यों गुजरा? क्या इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती थी? प्रायः देश के शहरों में शमशान घाट पर और उसके चारों ओर गंदगी का साम्राज्य होता है। जली लकडि़यां, बिखरे सूखे फूल, पहले आये शवों के साथ फेंके गये पुराने वस्त्र, प्लास्टिक के लिफाफे, अगरबत्तियांे के डब्बे, घी के खाली डिब्बे, टूटे नारियल, टूटे घड़ों के ठीकरे जैसे तमाम सामान गंदगी फैलाये रहते हैं जिन्हें महीनों कोई नहीं उठाता। उन पर पशु पक्षी मंडराते रहते हैं। जहां शव लाकर रखा जाता है वह चबूतरा प्रायः बहुत सम्माननीय स्थिति में नहीं होता। उसका टूटा पलस्तर और उस पर पड़ी पक्षियों की बीट जैसी गंदगी परिजनों का दिल तोड़ देती है। सबसे ज्यादा तो शमशान घाट के व्यवस्थापकों का रूखा व्यवहार चुभता है। यह ठीक है कि नित्य शवयात्राओं को संभालते-संभालते उनकी चमड़ी काफी मोटी हो जाती है और भावनायें शून्य हो जाती हैं, पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिन लोगो से उनका रोज सामना होता है उनके लिये यह कोई रोज घटने वाली सामान्य घटना नहीं होती। टूटे मन, बहते नयन और बोझिल कदमों से चलते हुए लोग जब शमशान घाट के व्यवस्थापकों से मिलते हैं तो उन्हें स्नेह, करुणा, ढांढस और  हर तरह के सहयोग की तत्परता का भाव मिलना चाहिये। दुर्भाग्य से हम हिन्दू होने का गर्व तो करते हैं पर अपने शमशान घाटों को कसाईखाने की तरह चलाते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में कब्रिस्तान तक जाने की यात्रा में चर्च और समाज की भूमिका अनुकरणीय होती है। वहां तो हर सामुदायिक केन्द्र के पुस्तकालय में एक विशेष खण्ड ऐसी पुस्तकों का होता है जिसमें मृत्यु से जूझने के नुस्खे बताये जाते हैं। पिछले दिनों लंदन के एक सामुदायिक केन्द्र में ऐसे ही पुस्तकालय में मेरी नजर इस खण्ड पर पड़ी। अंग्रेजी में छपी ये छोटी-छोटी पुस्तिकायें उत्सुकता बढ़ाने के लिये काफी थीं। एक पुस्तक का शीर्षक था पति की मृत्यु से कैसे सामना करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था घर में मौत के बाद आप क्या करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था अंतिम यात्रा की तैयारी कैसे करें ?’ एक और पुस्तक का शीर्षक था मृत्यु की स्थिति से निपटने में मदद देने वाली संस्थाओं के नाम-पते। यह तो पश्चिमी समाज की बात है जहां संयुक्त परिवार और शेष समाज अब आपके जीवन में दखल नहीं देते। पर भारतीय समाज में ऐसा शायद ही होता हो कि किसी के घर मौत हो और उसे स्थिति से अकेले निपटना पड़े। उसके नातेदार और मित्र बड़ी तत्परता से उस परिवार की सेवा में जुट जाते हैं और कई दिन तक उस परिवार को सांत्वना देने आते रहते हैं। इसलिये हमारे समाज में शमशान घाट का ऐसा विद्रूपी चेहरा तो और भी शर्म की बात है। पर ऐसा है, यह भी मृत्यु की तरह एक अटल सत्य है। इस मामले में आशा की किरण जगाई है कुछ शहरों के उन उत्साही लोगों ने जिन्होंने सामान्य से भी आगे बढ़कर शमशान घाट को एक दर्शनीय स्थल बना दिया है।

इस क्रम में सबसे पहला नाम राजकोट और जामनगर का याद आता है। गुजरात के इन नगरों में बने शमशान घाट इतने भव्य और सुन्दर हैं कि पर्यटक उन्हें देखने आते हैं। जामनगर के शमशान घाट में जब शवयात्रा प्रवेश करती है तो पूरे मार्ग पर देवी देवताओं की भव्य प्रतिमायें बड़े आकर्षक रूप में उसका स्वागत करती हैं। ऐसे ही दिल्ली नगर निगम ने भाजपा के शासनकाल में निगम बोध घाट का सौन्दर्यीकरण किया था। यहां सबसे आकर्षक चीज तो यह है कि शव के अंतिम स्नान के लिये एक अत्यंत सुन्दर सरोवर बनाया गया है जिसके एक छोर पर मां गंगा और मां यमुना के विग्रह हैं जिनके चरणों से वास्तव में गंगा और यमुना का जल आता हुआ इस सरोवर में गिरता है। ऐसे पुण्य सरोवर में अपने बिछुड़े परिजन के शव को स्नान कराते वक्त निश्चित ही परिजन संतोष का अनुभव करते हैं। बरेली, लखनऊ और जैतपुर जैसे स्थानों पर भी शमशान घाटों का स्वरूप सुधारा गया है। दिल्ली के पंजाबी बाग के नागरिकों ने हाल ही में शमशान घाट की व्यवस्था में भारी सुधार किया है। पर इस दिशा में सबसे ताजा उदाहरण मथुरा नगरी का है।

सदियों से देश भर के कृष्णभक्त मथुरा या ब्रज मण्डल में शरीर त्यागने की भावना से आते रहे हैं। उनमें अगर बंगाल की दरिद्र विधवायें थीं तो देश के अनेक प्रतिष्ठित पदों पर आसीन रहे बड़े लोग और धनी जन भी अपनी अंतिम श्वांस ब्रज प्रदेश में छोड़ने की भावना से आते रहे हैं। क्योंकि मथुरा या काशी में शरीर छोड़ने से मुक्ति होती है, यह विश्वास हर हिन्दू के मन में है। ऐसी भावना लेकर मथुरा वास करने वाले लोगों को वहां के शमशान घाट की दुर्दशा देखकर बड़ी पीड़ा होती थी। इसी पीड़ा को अनुभव करके मथुरा के कुछ सभ्रांत नागरिकों ने महावन रमणरेती के स्वामी श्रीगुरू शरणानंद जी महाराज व मथुरा के श्रीजी बाबा महाराज की प्रेरणा से और भाजपा के पूर्व मंत्री रविकांत गर्ग व अन्य स्थानीय नागरिकों के सहयोग से एक ऐसे भव्य शमशान घाट का निर्माण किया है जिसे देखने भविष्य में तीर्थयात्री यहां आया करेंगे। इसका नाम रखा गया है मोक्ष धाम। इसका द्वार मथुरा के यमुना तट पर बने प्रसिद्ध विश्राम घाट की वास्तुकला का नमूना है। जिसके शिखर पर गरुड़ासीन भगवान विष्णु विराजे हुए हैं। भाव यह है कि जब शव इस द्वार से प्रवेश करेगा तो भगवान विष्णु के श्रीचरणों की कृपा प्राप्त करेगा। मोक्षधाम में अनेक सुविधा सम्पन्न वृहद हाॅल, शव के विश्राम के लिये विष्णुजी के मंदिर के चरणों में मोक्ष शिला, यमुना स्नान के लिये एक वृहद सरोवर जिसके एक ओर चट्टान पर यमुना महारानी विराजी हैं और उनके चरणों से जल बहकर सरोवर में आ रहा है। इसके अतिरिक्त अनेक सुन्दर लाॅन, स्नान घर आदि की व्यवस्था की गयी है। कुल डेढ़ करोड़ की लागत से बना यह मोक्ष धाम मृतकों के दाह संस्कार की सभी सेवायंे बिना भेदभाव के निशुल्क प्रदान कर रहा है। श्री रविकांत गर्ग बताते हैं कि जब इन लोगों ने इस परियोजना का प्रारूप बनाया और उसे लेकर नगर के धनी लोगों के पास गये तो उन्हें आशातीत सफलता मिली। हर व्यक्ति ने माना कि यह एक अत्यंत आवश्यक कार्य है और इस पुनीत कार्य में उसने अपनी क्षमता अनुसार सहयोग दिया। यहां तक कि एक निर्धन जाटव ने भी उत्साह से पांच सौ रुपये का अनुदान दिया। आज मथुरा वासियों के इस सामूहिक प्रयास से मोक्ष धाम बनकर तैयार हुआ है जो निश्चय ही भविष्य में मृतकों के दाह संस्कार की अविस्मरणीय सेवायें देता रहेगा। थोड़े ही समय में सफल हुए मथुरा के इस प्रयोग के अनुभव के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत के सभी प्रांतों के शहरों में अगर कुछ उत्साही नागरिक इसी तरह एक स्वयंसेवी संगठन का गठन कर अपने शहर के शमशान घाट की कायाकल्प करने का बीड़ा उठा लें तो उन्हें बहुत अड़चनें नहीं आयेंगी। यह एक ऐसा कार्य है जो संतोष भी देगा और पुण्य लाभ भी। चूंकि यह लेख देश के कई प्रांतों में पढ़ा जाता है इसलिये ऐसी इच्छा हुई कि इस सद्विचार को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहंुचाया जाए ताकि देश के तमाम नगरों से लोग जाम नगर या मथुरा (उत्तर प्रदेश) जाकर इन शमशान घाटों को देखें और उनसे प्रेरणा लेकर अपने शहर में भी ऐसी पहल करें। यह सार्वजनिक हित का कार्य है अतः इसके लिये अपने क्षेत्र के सांसद और विधायकों की विकास राशि से भी मदद ली जा सकती है। पर सरकारी धन पर निर्भर रहने से बेहतर होगा कि लोग निज प्रयासों से इस काम को पूरा करें।

Friday, September 6, 2002

तीर्थ स्थलों में अव्यवस्था क्यों

ज्यों ज्यों आधुनिकता और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है त्यों त्यों समाज में असुरक्षा और कुंठा भी बढ़ रही है। इसलिये लोगों की रुचि धर्म, कथा, सत्संग व तीर्थाटन में बढ़ रही है। हर तीर्थ पर सारे साल श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। जहां श्रीनाथद्वारा, वष्न्दावन, तिरुपति, श्रवणबेलगोला जैसे तीर्थ विशेष धर्म या सम्प्रदाय के भक्तों को आकर्षित करते हैं वहीं स्वर्ण मंदिर, अमष्तसर, अजमेर शरीफ, अरविंद आश्रम पांडिचेरी जैसे तीर्थ दूसरे धर्मों के भक्तों को भी आकर्षित करते हैं। इन तीर्थ स्थानों पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या अब इतनी ज्यादा होने लगी है कि उसकी व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। अमष्तसर स्थित स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने हजारों श्रद्धालु रोज वहां पहंुचते हैं पर उनको पहला धक्का तब लगता है जब वे अमष्तसर रेलवे स्टेशन पर उतरते हैं। कूडे़ के ढेर, प्लेटफार्मों में फैला सामान, बिना वर्दी के कुली, तीर्थयात्रियों की कमीज फाड़ने को तत्पर टैम्पो और रिक्शा वाले एक ऐसा नजारा पेश करते हैं कि ‘वाहे गुरू’ की शरण में आने वाला तौबा कर बैठता है। स्टेशन से स्वर्ण मंदिर तक का सफर भी कोई आनंद देने वाला नहीं होता। सड़कों परबने बड़े बड़े गड्ढे रिक्शा में बैठकर जाने वाले तीर्थया़ित्रयों की हड्डियों की मजबूती से बार बार परीक्षा लेते हैं। स्वर्ण मंदिर के प्रबंधकों ने कई महलनुमा सराय बनवाई हैं। खासकर गुरूअर्जुन निवास, गुरू हरगोविन्द निवास व माता गंगा निवास ऐसी सराय हैं जिनमें हरेक में एक साथ तीन चार सौ परिवार तक ठहर सकते हैं। इन सरायों के चमचमाते संगमरमर के फर्श और इनकी भव्यता इनके महल होने का आभास देती है। पर यहां तैनात सेवादारों का रुखा व्यवहार तीर्थयात्रियों का दिल तोड़ देता है। गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को चाहिये कि वे इस विशाल व्यवस्था के प्रबंधन में विनम्रता, स्नेह और सेवा का भाव भी बढ़ायें। उधर पंजाब के स्कूलों से बच्चों की बड़ी बड़ी टोलियां ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थलों को देखने अमष्तसर आती हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे होते हैं जिनके लिये यह यात्रा जीवन में पहला बड़ा पर्यटन होता है। उन्हें गर्मजोशी से आतिथ्य मिलना चाहिये ताकि वे सुखद अनुभूति लेकर घर लौटें। साधन की कमी नहीं है। उपलब्ध साधनों का ही बेहतर इस्तेमाल करने की जरूरत है। गुरूद्वारे द्वारा संचालित लंगर अपनी कार्यकुशलता की मिसाल है। हजारों लोगों को अनवरत 24 घंटे लंगर प्रसाद का वितरण जिस सफाई, फुर्ती और कुशलता से होता है वह दुनिया के लिये एक उदाहरण है।

जहां तक गुरूद्वारे के अंदर दर्शन की व्यवस्था का प्रश्न है। वह काफी सुचारू रूप से चली रहती है। हर व्यक्ति को पंक्ति में चलते हुए अपनी बारी आने पर दर्शन भी मिलते हैं और प्रसाद भी।ये बात दूसरी है कि ब्रह्म मुहूर्त में जब पालकी साहब की सवारी निकलती है तब भीड़ को नियंत्रित करने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं होती। बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती महिलाओं को ऐसी भीड़ में अपनी रक्षा करना काफी कठिन होता है। इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। बहुत से दर्शनार्थी सुबह अमष्तसर आते हैं और शाम की ट्रेन सेलौट जाते हैं इन चंद घंटों के लिये वे न तो होटल का किराया बर्बाद करना चाहते हैं और न कहीं और कमरा लेना चाहते हैंऐसे लोग अपना हल्का फुल्का सामान अपने कंधों पर लिये दिन भर मंदिर के परिसर में भ्रमण करते हैं कभी कभी यह असुविधाजनक हो जाता है। मंदिर में जो लाॅकर की सुविधा है वह नाकाफी है इसे और विस्तष्त और व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि हरमंदिर साहब के दर्शनों की अभिलाषा लिये आने वाली हर जीवात्मा प्रसन्नता और संतोष का भाव लेकर लौटें व्यवस्था में सुधार हो सके इसके लिये जहां गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को ध्यान देने की जरूरत है वहीं अमष्तसर के आधारभूत ढांचे को सुधारने और संवारने की जिम्मेदारी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की है।

ठीक ऐसी ही बात अजमेर शरीफ पर भी लागू होती है। स्टेशन से लेकर दरगाह तक के सफर में प्रशासनिक इंतजाम को सुधारने की जरूरत है। दरगाह में प्रवेश करने और निकलने के वक्त जो धक्का मुक्की होती है उससे रूहानी सुकून मिले न मिले जिस्मानी दर्द जरूर मिलता है। जाएरिनों के आराम के लिये दरगाह में भीड़ को नियंत्रित करने का माकूल इंतजाम होना चाहिये। उर्स के मौके पर अजमेर पहंुचने वाले लाखों जाएरिन बसों में सफर करते हैं जिन्हें सड़क के किनारे खड़ा कर लोग अपने खाने का बंदोंबस्त रकरते हैं। तमाम चूल्हे सड़क के किनारे बनते जाते हैं, जिनसे भारी गंदगी फैलती है। फिर हाजत का काम भी सड़क के किनारे ही निपटा लिया जाता है। दरगाह के मैनेजमेंट के पास पैसे की कमी नहीं है। लोग काफी पैसा चढ़ाते हैं। जरूरत इस बात की है कि ऐसे मौकों पर बेहद सस्ती दरों पर, हो सके तो सब्सिडाइज्ड करके, दाल रोटी मुहैया कराने का लंबा चैड़ा बंदोबस्त करना चाहिये ताकि गरीब जाएरिनों को रोटी बनाने की जहमत न उठानी पड़े। सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं की मदद से ऐसे मौकों पर टाॅयलेटों का भी बढ़ी तादाद में इंतजाम करना चाहिये। ये उम्मीद की जानी चाहिये कि दरगाह का मैनेजमेंट राजस्थान सरकार के साथ मिलकर लगातार सुविधाओं में विस्तार करता जाएगा।

अभी पिछले दिनों जन्माष्टमी पर्व पर मथुरा और वष्न्दावन में दुनिया भर के श्रीकष्ष्ण भक्तों का जमघट लगा। सबसे ज्यादा भीड़ श्रीकष्ष्ण जन्मभूमि, मथुरा और बांके बिहारी मंदिर, वष्न्दावन में थी। इन दोनों ही शहरों की आधारभूत व्यवस्था मसलन, सड़क, सफाई और यातायात प्रबंधन आम दिनों में ही इतना खस्ता हाल रहता है तो पर्व पर अगर व्यवस्था चरमरा जायें तो कोई आश्चर्य नहीं।अलबत्ता इस बार मथुरा के पुलिस अधाीक्षक प्रेम प्रकाश ने बाहर से आने वाली कारों को काफी पहले ही रुकवा कर स्थिति को बिगड़ने से रोक लिया। यह एक अच्छा प्रयोग था जो सफल रहा। भविश्य के लिये भी यह नियम बन जाना चाहिये कि वष्न्दावन के स्थायी नागरिकों को छोड़़कर बाहर से आने वाली सभी कारों, बसों आदि को पर्व के दिन या शनिवार और इतवार को, शहर से पहले ही रोक कर पार्किंग में ले जाया जाए जहां से तीर्थयात्री रिक्शे में दर्शन करने जा सकें। इस मामले में अपवाद नहीं होना चाहिये। एक वीआईपी के साथ दस सरकारी गाडि़यांे का काफिला दर्शन करने आता है और तीर्थयात्रियों के लिये भारी तकलीफ पैदा करता है। बेहतर हो कि जिला प्रशासन कार पार्किंग में सरकारी गाडि़यों को रुकवा दे और विशिष्ट व्यक्तियों के आवागमन के लिये पर्व के अवसर पर दो तीन गाडि़यों को पार्किंग पर तैनात कर दे जहां से उन्हें मंदिर लाया ले जाया जा सके। बिहारी जी के मंदिर के भीतर प्रवेश करने और निकलने के मार्ग और द्वार बिल्कुल अलग होने चाहिये। जब एक ही दिशा में भीड़ घुसती और निकलती है तो भारी अराजकता फैल जाती है। अक्सर महिलाओं की चीख इस भीड़ में सुनाई देती है जो भीड़ के रेले में दब जाती हैं। कभी भारी दुर्घटना भी हो सकती है। ब्रज प्रदेश के आधारभूत ढांचे की बात करते हुए वर्षों बीत गये पर भाजपा की प्रांतीय सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। लगता है यह काम भी कष्ष्ण भक्तों को ही करना पड़ेगा।

ये तो तीन उदाहरण हैं।देश के हर प्रांत में अनेक धर्म और सम्प्रदायों से जुड़े तीर्थ स्थल हैं। जिन पर प्रतिवर्ष अलग अलग पर्वों के हिसाब से तीर्थयात्रियों के भारी मेले जुड़ते हैं। कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जहां साल के बारह महीने तीथयात्रियों का भारी तादाद में आना जारी रहता है। ऐसे में देश के तीर्थस्थलों के प्रबंधन के लिये सामान्य से हटकर विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। वह पुलिस अधीक्षक या जिलाधिकारी जो चंबल जैसे आपराधिक इलाके को कुशलता से संभालता आया हो जरूरी नहीं कि हरिद्वार की धार्मिक भीड़ को भी उसी कुशलता से संभाल सके; फिर चुनौती इस बात की नहीं कि कोई जिलाधिकारी भीड़ को कैसे नियंत्रित करता है बल्कि इस बात की है कि जिला प्रशासन भीड़ को नियंत्रित करने के साथ ही तीर्थयात्रियों के सुख व सुविधा का पूरा ध्यान रखता है कि नहीं। जब अपने घर कोई धार्मिक अनुष्ठान करवाता है और इष्ट मित्रों को उसमें सम्मिलित होने का न्यौता देता है तो वह अपने मेहमानों के भोजन, आराम और ठहरने का समुचित प्रबंध करता है। अगर उसके मेहमान उसके आतिथ्य से सुखी व प्रसन्न होते हैं तो उसे भी अपार हर्ष होता है। धर्मक्षेत्रों में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ताकि आने वाला हर तीर्थ यात्री, तीर्थ यात्रा की सभी मधुर स्मष्तियों को लेकर घर लौटें हर तीर्थयात्री को बेटी की बारात में आये बाराती की तरह सत्कार देना चाहिये। आज तीर्थाटन घरेलु पर्यटन उद्योग का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। इसलिये इस पर विशेष नीतियां बनाकर व्यापक सुधार करने की आवश्यकता है। केन्द्रीय स्तर पर भी और प्रांतीय स्तर पर भी।