हाल ही में पुलिस सुधारों को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बहस में केंद्रीय गृहमंत्री व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी यह सुनकर चैक गए कि भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था जब भारत पर ब्रितानी हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितो को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रही कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए। स्पष्ट है कि इस कानून से नियंत्रित होने वाली भारतीय पुलिस की मानसिकता इस तरह विकसित की गई है कि वह हुक्मरानों के प्रति ही खुद को जवाबदेह मानती है, जनता के प्रति नहीं। इसलिए जनता की सेवा करना या उसे राहत पहुंचाना भारतीय पुलिस की जहनियत में नहीं है। जनता को रियाया मान कर उस पर रौबदारी के साथ हुक्म चलाना और अगर वह न माने तो डंडे के जोर पर उसे नियंत्रित करना।
दरअसल, 1897 के गदर के बाद जब इंग्लैंड की हुकूमत ने जब ईस्ट इंडिया कंपनी से हिन्दुस्तान की बागडोर ली तब उसे ऐसी ही पुलिस की जरूरत थी। इसलिए ऐसे कानून बनाए गए। पर आश्चर्य की बात है कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ या 1950 में जब हमने अपना संविधान लागू किया तब क्यों नहीं इस भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बुनियादी परिवर्तन किया गया ? क्यांे औपनिवेशिक मानसिकता वाले कानून को एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक जनता के ऊपर थोपा गया ? जब कानून पुराना ही रहा तो भारतीय पुलिस से ये कैसे उम्मीद की जाती है कि वह सत्ताधीशों को छोड़कर जनता की सेवा करना अपना धर्म माने ? नतीजतन, आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की है। लुटे, पीटे, शोषित लोग अपनी फरियाद लेकर थाने नहीं जाते क्योंकि उन्हें पुलिस से न्याय मिलने की उम्मद ही नहीं होती। आश्चर्य की बात है कि पिछले 55 वर्षों से हम इस दकियानुसी कानून को ढोते चले आ रहे हैं। आज भी पुलिस जनता का विश्वास नहीं जीत पाई है। ऐसा नहीं कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधरों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि 20 बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया।
1997 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने सभी मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व संघ शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिख कर पुलिस व्यवस्था में सुधार के कुछ सुझाव भेजे। जिनकी उपेक्षा कर दी गई। 1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी। पर इसकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद पदमनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर रहे वही ढाक के तीन पात।
यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ इन आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 55 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न।
आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिपारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हंे नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिककरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।
पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों कीे व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? जब श्री आडवाणी से यह पूछा गया कि पुलिस आयोग की सिफारिशें क्यों नहीं मानी जा रहीं, तो उनका उत्तर था कि उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की एक जनहित याचिका सर्वोच्च अदालत में लंबित पड़ी है। उसके परिणाम देखकर ही कोई सुधार लागू किया जा सकता है। जब उन्हें याद दिलाया गया कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के वाजिब सुझावों को भी संसद में समर्थन नहीं मिलता, मसलन, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधिकारों का मामला, आज तक लटका हुआ है। बिना दांत का सीवीसी भ्रष्टाचार कैसे रोक सकता है ? फिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्या फर्क पड़ेगा ? ऐसे माहौल में पुलिस सुधार कैसे लागू हो सकते हैं ? भारत के मौजूदा उप राष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने इस बहस में ठीक ही कहा कि पुलिस सुधार कोई अकेले लागू नहीं हो सकते जब तक ऐसे दूसरे सुधारों को एक समग्र दृष्टि के साथ लागू न किया जाए। नतीजा ये कि पुलिस सुधार लागू होंगे नहीं। पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बड़बोले ऐलान किए जाते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अभियान चलाए। क्या हम यह करेंगे ?