जब देश में विदेश, रक्षा, उद्योग, शिक्षा, पर्यावरण आदि की नीतियाँ बनती हैं तो धर्म नीति क्यों नहीं बनती? सम्राट अशोक से बादशाह अकबर तक की धर्म नीति हुआ करती थी। प॰ नेहरू से श्री मोदी तक आज तक किसी भी प्रधान मंत्री ने सुविचारित व सुस्पष्ट धर्म नीति बनाने की नहीं सोची। जबकि भारत धार्मिक विविधता का देश है। हर राजनैतिक दल ने धर्म का उपयोग केवल वोटों के लिए किया है। समाज को बाँटा है, लड़वाया है और हर धर्म के मानने वालों को अंधविश्वासों के जाल में पड़े रहने दिया है। उनका सुधार करने की बात कभी नहीं सोची।
भारत में सगुण से लेकर निर्गुण उपासक तक रहते हैं। यहाँ की बहुसंख्यक आबादी सनातन धर्म को मानती है। किंतु सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान भी संविधान से मिली सुरक्षा के तहत अपने अपने धर्मों का अनुपालन करते हैं। मंदिर, गुरुद्वारे, अन्य पूजा स्थल, गिरजे और मस्जिद भारतीय समाज की प्रेरणा का स्रोत होते हैं। पर इनका भी निहित स्वार्थों द्वारा भारी दुरुपयोग होता है। जिससे समाज को सही दिशा नहीं मिलती और धर्म भी एक व्यापार या राजनीति का हथियार बन कर रह जाता है। जबकि धर्म नीति के तहत इनका प्रबंधन एक लिखित नियमावली के अनुसार, पूरी पारदर्शिता के साथ, उसी समाज के सम्पन्न, प्रतिष्ठित, समर्पित लोगों द्वारा होना चाहिए, किसी सरकार के द्वारा नहीं। इसके साथ ही उन धर्म स्थलों के चढ़ावे और भेंट को खर्च करने की भी नियमावली होनी चाहिए। इस आमदनी का एक हिस्सा उस धर्म स्थल के रख रखाव पर खर्च हो। दूसरा हिस्सा उसके सेवकों और कर्मचारियों के वेतन आदि पर। तीसरा हिस्सा भविष्य निधि के रूप में बैंक में आरक्षित रहे और चौथा हिस्सा समाज के निर्बल लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खर्च हो।
आजकल हर धर्म में बड़े-बड़े आर्थिक साम्राज्य खड़े करने वाले धर्म गुरुओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चे धर्म गुरु वे होते हैं जो भोग विलास का नहीं बल्कि त्याग तपस्या का जीवन जीते हों। जिनके पास बैठने से मन में सात्विक विचार उत्पन्न होते हों - नाम, पद या पैसा प्राप्त करने के नहीं। जो स्वयं को भगवान नहीं बल्कि भगवान का दास मानते हों। जैसा गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है, “मै हूं परम पुरख को दासा देखन आयो जगत तमाशा।”, जो अपने अनुयायियों को पाप कर्मों में गिरने से रोकें। जो व्यक्तियों से उनके पद प्रतिष्ठा या धन के आधार पर नहीं बल्कि उनके हृदय में व्याप्त ईश्वर प्रेम के अनुसार व्यवहार करे। जिसके हृदय में हर जीव जंतु के प्रति करुणा हो। जिसे किसे से कोई अपेक्षा न हो। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति चाहे कितना ही प्रसिद्ध या किसी भी धर्म का क्यों न हो, धर्म गुरु नहीं हो सकता। वो तो धर्म का व्यापारी होता है। जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? पर इनका स्मरण करते ही स्वतः श्रद्धा व भक्ति जागृत होने लगती है।
सभी धर्मों के तीर्थ स्थानों में तीर्थ यात्रियों का भारी शोषण होता है। इस समस्या का भी हल धर्म नीति में होना चाहिए। जिसके अंतर्गत, स्वयंसेवी संस्थाएँ और सेवनिवृत अनुभवी प्रशासक निस्स्वार्थ भाव से अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार, अलग-अलग समूह बना कर अलग-अलग समस्याओं का समाधान करें। उल्लेखनीय है कि तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की जो प्रवृत्ति सामने आ रही है वो भारत की सनातन संस्कृति को क्रमश: नष्ट कर देगी। मनोरंजन और पर्यटन के लिए हमारे देश में सैंकड़ों विकल्प हैं। जहां ये सब आधुनिक सुविधाएँ और मनोरंजन के साधन विकसित किए जा सकते हैं। तीर्थ स्थल का विकास और संरक्षण तो इस समझ और भावना के साथ हो कि वहाँ आने वाले के मन में स्वतः ही त्याग, साधना और विरक्ति का भाव उदय हो। तीर्थ स्थलों में स्विमिंग पूल, शराब खाने और गोल्फ़ कोर्स बना कर हम उनका भला नहीं करते बल्कि उनकी पवित्रता को नष्ट कर देते हैं। इन सबके बनने से जो अपसंस्कृति प्रवेश करती है वो संतों और भक्तों का दिल तोड़ देती है। इस बात का अनुमान शहरीकरण को ही विकास मानने वाले मंत्रियों और अधिकारियों को कभी नहीं होगा।
दुनिया भर के जिज्ञासु भारत के तीर्थस्थलों में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में आते हैं। पर भौंडे शहरीकरण ने, ज़ोर-ज़ोर से बजते कर्कश संगीत ने, कूड़े के ढेरों और उफनती नालों ने, ट्रैफ़िक की अव्यवस्था ने व बिजली आपूर्ति में बार-बार रुकावट के कारण चलते सैंकड़ों जनरेटरों के प्रदूषण ने इन तीर्थस्थलों का स्वरूप काफ़ी विकृत कर दिया है। मैं ये बात कब से कह रहा हूँ कि धार्मिक नगरों को सजाने और संवारने का काम नौकरशाही और ठेकेदारों पर छोड़ देने से कभी नहीं हो सकता। हो पाता तो पिछले 75 सालों में जो हज़ारों करोड़ रुपया इन पर खर्च किया गया, उससे इनका स्वरूप निखार गया होता।
करोड़ों रुपयों की घोषणा करने से कुछ नहीं बदलेगा। धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यकता है, आध्यात्मिक सोच और समझ की। जिसका कोई अंश भी किसी सरकार की नीतियों में कहीं दिखाई नहीं देता। सरकार का काम उत्प्रेरक का होना चाहिए, सहयोगी का होना चाहिए, अपने राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से अपने अपरिपक्व विचारों को थोपने का नहीं। उद्योग, कला, प्रशासन, पर्यावरण, क़ानून और मीडिया से जुड़े आध्यात्मिक रुचि वाले लोगों की औपचारिक सलाह से इन क्षेत्रों के विकास का नक़्शा तैयार होना चाहिए। धर्म के मामले में कोरी भावना दिखाने या उत्तेजना फैलाने से तीर्थस्थलों का विकास नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक सोच और निर्णय वाली नीति ही अपनानी होगी। जिसका समावेश देश की धर्म नीति में होना चाहिए।