Monday, August 28, 2023

चंद्रयान-3 के श्रेय पर विवाद क्यों ?

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर उतारकर भारत ने पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी के झंडे गाढ़  दिए हैं। हमारी इस सफलता पर पूरी दुनिया हर्षित है। यहाँ तक कि हमेशा खफ़ा रहने वाला पाकिस्तान भी हमें इस कामयाबी के लिए बधाई दे रहा है। अब भारत दुनिया के उन चार देशों में से एक है जिन्होंने चाँद पर अपना उपग्रह उतारा है। इनमें भी चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर ये करामात दिखने वाला भारत अकेला देश है। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए वो सैकड़ों वैज्ञानिक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पिछले साठ सालों में रात-दिन मेहनत करके यह संभव कर दिखाया है। इस उपलब्धि पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व को दक्षिण अफ़्रीका से संबोधित करते हुए कहा कि, अब चंदा मामा दूर के नहीं बल्कि चंदा मामा टूर के हो गये हैं



जब से ये उपलब्धि हुई है तब से इसका श्रेय लेने वालों में होड़ लग गई है। जहाँ भाजपा और संघ परिवार इसे मोदी जी के नेतृत्व में मिली सफलता बताकर जश्न मना रहा हैं, वहीं कांग्रेस के नेता ये याद दिला रहे हैं कि इस सफलता के पीछे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की दूरदृष्टि और वैज्ञानिक सोच है। जिन्होंने डॉ विक्रम साराभाई की योग्यता को पहचाना और 1962 में ‘इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ की स्थापना की। यही समिति 15 अगस्त 1969 को ‘इसरो’ (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन) बनी। तब से होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, सतीश धवन, मेघानन्द साहा, शांति स्वरुप भटनागर, ए पी जे अब्दुल कलाम और वर्तमान में श्रीधर सोमनाथ व के सिवान जैसे वैज्ञानिकों ने भारत के अन्तरिक्ष अभियान को दिशा प्रदान की। हालाँकि भारत के सुविख्यात परमाणु वैज्ञानिक डॉ भाभा की इस अभियान में कोई सीधी भागीदारी नहीं थी पर उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने डॉ विक्रम साराभाई को प्रोत्साहित किया। 


23 अगस्त 2023 को मिली सफलता एक ही दिन के प्रयास से संभव नहीं हुई है। इसके पीछे 48 वर्षों की कठिन तपस्या का इतिहास है। भारत ने सबसे पहला उपग्रह 1975 में भेजा था जिसे ‘आर्यभट्ट’ के नाम से जाना जाता है। तब से अब तक भारत द्वारा 120 उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजे जा चुके हैं। इस तरह क्रमश हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं। हर बार भारत के वैज्ञानिकों ने कुछ नया सीखा और उसके अनुसार अगले उपग्रह को तैयार किया। 2019 में चंद्रयान-2 की विफलता से सीखकर चंद्रयान-3 भेजा गया और ये अभियान सफल रहा।



किसी भी देश की नीतियों पर उसके प्रधानमंत्री की सोच और नेतृत्व का असर पड़ता है। भारत के अन्तरिक्ष अभियान को आगे बढ़ाने में पंडित नेहरु के बाद श्रीमति इंदिरा गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह व श्री नरेन्द्र मोदी सबकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए किसी एक को इस उपलब्धि का श्रेय नहीं दिया जा सकता। पर मोदी जी की आलोचना करने वालों का यह तर्क गलत है कि वे इसका श्रेय क्यों ले रहे हैं। सामान्य सी बात है कि किसी भी मोर्चे पर देश को अगर सफलता मिलती है या असफलता तो यश और अपयश दोनों प्रधानमंत्री के खाते में जाता है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश को आजाद कराने की लड़ाई मोर्चे पर तो भारतीय फौज ने लड़ी थी और पाकिस्तान को न सिर्फ करारी शिकस्त दी थी बल्कि उसके दो टुकड़े कर दिए। पर दुनिया में यशगान तो श्रीमति इंदिरा गाँधी का हुआ, जिन्होंने सही समय पर कड़े निर्णय लिए। ऐसे ही चंद्रयान-3 की इस उपलब्धि का श्रेय ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों के साथ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिलना स्वाभाविक है। 



इसी तरह जब आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष बाद ही 1962 में चीन के हमले में भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तो पंडित नेहरु को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि उनका पंचशील का सिद्धान्त असफल रहा। जिसके लिए संघ परिवार आज तक पंडित नेहरु की आलोचना करता है कि उन्होंने भारत की भूमि का एक हिस्सा चीन के हाथ जाने दिया। ठीक वैसे ही जैसे आज का विपक्ष गलवान की शहादत और चीन के भारत पर हाल के वर्षों में किये गये हस्तक्षेप और घुसपैठ को न रोक पाने के लिए मोदी जी को जिम्मेदार ठहराता है। 


चंद्रयान-3 की सफलता के बाद से पिछले दिनों मीडिया में भारत के अन्तरिक्ष अभियान को लेकर तमाम जानकारियां दी जा रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण है ये जानना कि पृथ्वी के 14 दिन चाँद के एक दिन के बराबर होते हैं। इन 14 दिनों में विक्रम लैंडर चाँद की सतह पर से तमाम वैज्ञानिक सूचनाएँ पृथ्वी पर भेजेगा। उसके बाद ये काम करना बंद कर देगा क्योंकि वहाँ अँधेरा छा जायेगा और इसकी सौर उर्जा बैटरियां निष्क्रिय हो जाएँगी। उल्लेखनीय है कि 50 वर्ष पूर्व हुए अमरीका के ‘अपोलो मिशन’ की तरह चंद्रयान-3 चाँद पर से मिट्टी या पत्थर का नमूना लेकर नहीं लौटेगा। ऐसा हो सके इसके लिए भारत के वैज्ञानिकों को अभी और मेहनत करनी होगी। पर इस विषय में मेरे पास एक ऐसी अनूठी वस्तु है जो 2019 में चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मैंने मीडिया से साझा की थी। ये एक माइक्रो फिल्म है जो अपोलो-14 के कमांडर एलान बी शेपर्ड, 1971 में अपने साथ चाँद पर लेकर गये थे। इस फिल्म में अमरीका के दैनिक की 25 नवम्बर 1908 की वो ख़बर थी जिसमें लिखा था कि एक दिन मानव चन्द्रमा पर उतरेगा। उनके साथ ऐसी 100 माइक्रो फिल्म चाँद पर भेजी गईं थीं। पृथ्वी पर लौटने के बाद इन 100 फिल्मों को प्लास्टिक के ग्लोब में सील करके दुनिया के 100 प्रमुख लोगों को भेंट किया गया था। उन्हीं 100 लोगों में से एक की पत्रकार बेटी जूली ज्विट जब 2010 में मेरे पास वृन्दावन आईं थीं तो उन्होंने ये बहुमूल्य भेंट मुझे दी यह कहकर कि अब मैं वृद्ध हो गई हूँ। मेरे बाद इस धरोहर का मूल्य कोई नहीं समझेगा। तुम पत्रकार होने के नाते इसका महत्व समझते हो इसलिए तुम्हें दे रही हूँ। चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मीडिया के उदास मित्रों को खुश करने के लिए मैंने वो उपहार उन्हें दिखाया तो उन्होंने उसकी फोटो अख़बारों में प्रकाशित की। जब तक भारत अन्तरिक्ष अभियान चाँद की सतह को छूकर वापस लौटेगा तब तक ये उपहार अपना महत्व कायम रखेगा। आशा और यकीन है कि भारत के अन्तरिक्ष मिशन में वह पल जल्दी ही आयेगा। 

Monday, August 21, 2023

तीर्थों की भीड़ संभालें !

प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री योगी जी ने हिन्दू तीर्थों के विकास की तरफ जितना ध्यान पिछले सालों में दिया है उतना पिछली दो सदी में किसी ने नही दिया था। ये बात दूसरी है कि उनकी कार्यशैली को लेकर संतों के बीच कुछ मतभेद है। पर आज जिस विषय पर मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ उससे हर उस हिन्दू का सरोकार है जो तीर्थाटन में रुचि रखता है। जब से काशी, अयोध्या, उज्जैन व केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों पर मोदी जी ने विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया है, तब से इन सभी तीर्थों पर तीर्थयात्रियों का सागर उमड़ पड़ा है। इतनी भीड़ आ रही है कि कहीं भी तिल रखने को जगह नही मिल रही।

इस परिवर्तन का एक सकारात्मक पहलू ये है कि इससे स्थानीय नागरिकों की आय तेज़ी से बढ़ी है और बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन भी हुआ है। स्थानीय नागरिक ही नहीं बाहर से आकार भी लोगों ने इन तीर्थ नगरियों में भारी निवेश किया है। इससे यह भी पता चला है कि अगर देश के अन्य तीर्थ स्थलों का भी विकास किया जाए तो तीर्थाटन व पर्यटन उद्योग में भारी उछाल आ जायेगा। इस विषय में प्रांतीय सरकारों को भी सोचना चाहिए। जहाँ एक तरफ इस तरह के विकास के आर्थिक लाभ हैं वहीं इससे अनेक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं।



उदाहरण के तौर पर अगर मथुरा को ही लें तो बात साफ़ हो जाएगी। आज से 2 वर्ष पहले तक मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन व बरसाना आना-जाना काफ़ी सुगम था। जो आज असंभव जैसा हो गया है। कोविड के बाद से तीर्थाटन के प्रति भी एक नया ज्वार पैदा हो गया है। आज मथुरा के इन तीनों तीर्थ स्थलों पर प्रवेश से पहले वाहनों की इतनी लम्बी कतारें खड़ी रहती हैं कि कभी-कभी तो लोगों को चार-चार घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। यही हाल इन कस्बों की सड़कों व गलियों का भी हो गया है। जन सुविधाओं के अभाव में, भारी भीड़ के दबाव में वृन्दावन में बिहारी जी मंदिर के आस-पास आए दिन लोगों के कुचलकर मरने या बेहोश होने की ख़बरें आ रही हैं। भीड़ के दबाव को देखते हुए आधारभूत संरचना में सुधार न हो पाने के कारण आए दिन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। जैसे हाल ही में वृंदावन के एक पुराने मकान का छज्जा गिरने से पांच लोगों की मौत और पांच लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। अब नगर निगम ने वृन्दावन के ऐसे सभी जर्जर भवनों की पहचान करना शुरू किया है जिनसे जान-माल का खतरा हो सकता है। ऐसे सभी भवनों को प्रशासन निकट भविष्य में मकान-मालिकों से या स्वयं ही गिरवा देगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ये एक सही कदम होगा। पर इसमें एक सावधानी बरतनी होगी कि जो भवन पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं या जिनकी वास्तुकला ब्रज की संस्कृति को प्रदर्शित करती है, उन्हें गिराने की बजाय उनका जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए।



इस सन्दर्भ में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जो नए निर्माण हो रहे हैं या भविष्य में होंगे उनमें भवन निर्माण के नियमों का पालन नही हो रहा। जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इस पर कड़ाई से नियंत्रण होना चाहिए। पिछले दिनों यमुना जी की बाढ़ ने जिस तरह वृन्दावन में अपना रौद्र रूप दिखाया उससे स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने यमुना डूब क्षेत्र में हुए सभी अवैध निर्माण गिराने के आदेश दिए हैं। फिर वो चाहें घर हों, आश्रम हों या मंदिर हों। स्थानीय नागरिकों का प्रश्न है कि यमुना के इसी डूब क्षेत्र में हाल के वर्षों जो निर्माण सरकारी संस्थाओं ने बिना दूर-दृष्टि के करवा दिए क्या उनको भी ध्वस्त किया जायेगा?


जहाँ तक तीर्थ नगरियों में भीड़ और यातायात को नियंत्रित करने का प्रश्न है इस दिशा में प्रधान मंत्री मोदी जी को विशेष ध्यान देना चाहिए। हालांकि यह विषय राज्य का होता है लेकिन समस्या सब जगह एक सी है। इसलिए इस पर एक व्यापक सोच और नीति की ज़रूरत है, जिससे प्रांतीय सरकारों को हल ढूँढने में मदद मिल सके। वैसे आन्ध्र प्रदेश के तीर्थ स्थल तिरुपति बालाजी का उदाहरण सामने है जहाँ लाखों तीर्थयात्री बिना किसी असुविधा के दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं। जबकि मुख्य मंदिर का प्रांगण बहुत छोटा है और उसका विस्तार करने की बात कभी सोची नही गई। इसी तरह अगर काशी, मथुरा व उज्जैन जैसे तीर्थ नगरों की यातायात व्यवस्था पर इस विषय के जानकारों और विशेषज्ञों की मदद ली जाए तो विकराल होती इस समस्या का हल निकल सकता है।


तीर्थ स्थलों के विकास की इतनी व्यापक योजनाएँ चलाकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने आज सारी दुनिया का ध्यान सनातन हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित किया है। स्वाभाविक है कि इससे आकर्षित होकर देशी पर्यटक ही नही बल्कि विदेशों से भी भारी मात्रा में पर्यटक इन तीर्थ नगरों को देखने आ रहे हैं। अगर उन्हें इन नगरों में बुनियादी सुविधाएँ भी नही मिलीं या भारी भीड़ के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ा, तो इससे एक ग़लत संदेश जायेगा। इसलिए तीर्थों के विकास के साथ आधारभूत ढांचे के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। केंद्र और राज्य की सरकारें हमारे धर्मक्षेत्रों को सजाएं-संवारें तो सबसे ज्यादा हर्ष हम जैसे करोड़ों धर्म प्रेमियों को होगा, पर धाम सेवा के नाम पर, अगर छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे तो भगवान तो रुष्ट होंगे ही, भाजपा की भी छवि खराब होगी।


2008 से मैं, अपने साप्ताहिक लेखों में मोदी जी के कुछ अभूतपूर्व प्रयोगों की चर्चा करता रहा हूँ जो उन्होंने गुजरात का मुख्य मंत्री रहते हुए किये थे। जैसे हर समस्या के हल के लिए उसके विशेषज्ञों को बुलाना और उनकी सलाह को नौकरशाही से ज्यादा वरीयता देना। ऐसा ही प्रयोग इन तीर्थ नगरों के लिए किया जाना चाहिए क्योंकि कानून-व्यवस्था की दैनिक जिम्मेदारी में उलझा हुआ जिला-प्रशासन इस तरह की नई जिम्मेदारियों को सँभालने के लिए न तो सक्षम होता है और न उसके पास इतनी ऊर्जा और समय होता है। इसलिए समाधान गैर-पारंपरिक तरीकों से निकला जाना चाहिए। 

Monday, August 14, 2023

चुनाव आयोग: हंगामा है क्यों बरपा?


भारतीय लोकतंत्र का एक रोचक पहलू यह है कि जो विपक्ष में होता है वो सरकार के हर निर्णय की बढ़-चढ़ कर आलोचना करता है। पर जब वही दल सत्ता में आ जाते हैं तो वही करते हैं जो पूर्ववर्ती सरकारें करती आईं हैं। पत्रकार इस नूरा-कुश्ती से कभी प्रभावित नहीं होते। जबकि ये इस देश के मीडिया का दुर्भाग्य है कि उसके काफ़ी
  सदस्य राजनैतिक ख़ेमों में बटे रहते हैं और इसलिए उनकी पत्रकारिता एक पक्षीय होती है। ऐसे ही पत्रकार अपने समर्थकों के शासन में आने पर मलाई खाते हैं और उनके विपक्ष में बैठने पर प्रलाप करते हैं। 


अगर हर राजनैतिक दल देश की समस्याओं का ईमानदारी से हल निकालना चाहे तो यह कार्य बिल्कुल भी कठिन नहीं है। पर हल निकालने से ज़्यादा राजनैतिक लाभ पाने के उद्देश्य से शोर मचाया जाता है। जैसे अब चुनाव आयोग पर प्रधान मंत्री के नियंत्रण की संभावना वाले विधेयक को देख कर मचाया जा रहा है। जो आज मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहे हैं, जब वे सरकार में थे तो उन्होंने भी चुनाव आयुक्त की ताक़त को कम करने का काम किया था।    



ताज़ा विवाद इसलिए पैदा हुआ है कि भारत सरकार ने संसद के मानसून सत्र में अचानक एक नया बिल पेश करके राजनैतिक हलकों में खलबली मचा दी है। इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनने वाली चयन समिति में अब केवल प्रधान मंत्री, उनके द्वारा मनोनीत उनका कैबिनेट मंत्री और नेता प्रतिपक्ष हींगें। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, चयन समिति में बहुमत के आधार पर सीधे प्रधान मंत्री करेंगे। जबकि 2 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सदस्य पाँचों न्यायाधीशों ने एक मत से यह आदेश दिया था कि इस समिति में प्रधान मंत्री, नेता प्रतिपक्ष व भारत के मुख्य न्यायाधीश सदस्य होंगे। हालाँकि यह व्यवस्था क़ानून बनाए जाने तक की ही थी पर इसमें संविधान के रक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। इसलिए देश की अपेक्षा यही थी कि इसी आदेश को आधार मानते हुए चुनाव आयोग के आयुक्तों के चयन का क़ानून बनाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि अब तक चुनाव आयुक्तों के चयन की कोई लोकतांत्रिक व पारदर्शी व्यवस्था नहीं रही है। आजतक केंद्र सरकार के मुखिया ही अब तक चुनाव आयुक्तों का चयन करते आये हैं। 



पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं। आरोप है कि मौजूदा चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारों पर काम कर रहा है। ऐसे में बार-बार देश 90 के दशक के बहुचर्चित मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण को बार-बार याद कर रहा है। जिन्होंने पुराने ढाँचे में रहते हुए भी चुनाव आयोग के संवैधानिक महत्व को पहचाना और देश के राजनैतिक दलों को एक मज़बूत और निष्पक्ष चुनाव आयोग बना कर दिखाया। उन्होंने इसी दौर में देश की चुनाव प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और चुनावों को यथासंभव पारदर्शी बनाया। हालाँकि, शेषण का एक छत्र शासन कुछ ही समय तक चला क्योंकि उनके आक्रामक व्यवहार से घबराकर तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने शेषण के दो सहयोगी चुनाव आयुक्तों की ताक़त बढ़ा कर उनके समकक्ष कर दी। ऐसे में अब टी एन शेषण कोई भी निर्णय अकेले लेने के लिए स्वतंत्र नहीं थे। 


मौजूदा चुनाव आयोग पर पक्षपात पूर्ण होने का आरोप लगाकर कुछ जनहित याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुईं, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उक्त आदेश पारित किया, जिसे मौजूदा सरकार ने इस नये प्रस्तावित विधेयक के मार्फ़त दर किनार कर दिया। ज़ाहिर है कि सरकार के इस कदम से विपक्षी दलों को डर है कि अब मोदी सरकार, चुनाव आयोग को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर आगामी चुनावों को प्रभावित करेगी। इसलिए ये विधेयक पेश होते ही राजनैतिक हलकों और सोशल मीडिया पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। केंद्र सरकार के प्रति सोशल मीडिया पर लगातार आक्रामक रहने वाले बुद्धिजीवीयों और पत्रकारों का कहना है कि सरकार का यह कदम लोकतंत्र की समाप्ति की दिशा में आगे बढ़ने वाला है। उनका आरोप है कि अब आगामी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो पाएँगे। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण के अधिकारों कम किया गया था तब कोई भी राजनैतिक दल शेषण के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ था। 



इसी तरह दिल्ली सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण को कम करने का मामला है। इसी सत्र में दिल्ली सरकार के अधिकारों को सीमित करने वाला जो विधेयक संसद में पारित हुआ उसकी भी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को दर-किनार करने की मंशा ज़ाहिर हुई है। जबकि भाजपा ने चार दशकों तक दिल्ली को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया था। पर आज उसी उपलब्धि को भाजपा अपने ऊपर भार मान रही है। 



तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनमें ये बात साफ़ होती है कि जहां अपने अधिकारों को कम करने की या अपने वेतन और भत्तों की बढ़ाने की बात होती है तो वहाँ सत्तापक्ष और विपक्ष एक हो जाते हैं। ऐसे ही जैन हवाला केस में 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप सरकारी जाँच एजेंसियों के ऊपर नियंत्रण रखने वाले केंद्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्ता देने की बात कही गई थी। पर जब सीवीसी अधिनियम बनाने का समय आया तो संसदीय समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के तमाम निर्देशों को दर-किनार कर एक ऐसा विधेयक बनाया जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग के अधिकारों को सीमित कर दिया। इसे दंत-विहीन संस्था बना दिया। जहां तक मुझे याद है इस संसदीय समिति में कांग्रेस के सांसद संजय निरुपम, भाजपा की सांसद सुषमा स्वराज, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार जैसे विभिन्न दलों के भारी भरकम नेता थे। अगर ये चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप सीवीसी को एक ताकतवर संस्था बना सकते थे। अब जब सीबीआई या ईडी विपक्ष पर अपना शिकंजा कसती है, तो मोदी सरकार पर उसके दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता है। अगर विधेयक बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया होता तो कोई भी दल जो केंद्र में सत्ता हासिल करता वो द्वेष की भावना से विपक्षी दलों पर ऐसा हमला न कर पाता, जिससे उसके एक पक्षीय होना सिद्ध होता। वो निष्पक्षता अपना काम करता।


यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपनी विचारधारा के अनुरूप अपने कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है और सत्ता में आने के बाद उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करता है। उस दृष्टि से भाजपा को भी हक़ है कि वो अपने एजेंडा के अनुरूप योजनाओं और कार्यक्रमों में बदलाव करे। पर संविधान में बदलाव करने के दूरगामी परिणाम होते हैं। इसलिए ऐसे क़ानून यथासंभव अगर सर्वसम्मति से बनाए जाते हैं तो उससे राजनीति में कटुता या वैमनस्य उत्पन्न नहीं होगा और सरकार के लिए भी काम करना आसान होगा। उदाहरण के तौर पर किसानों से संबंधित विधेयक अगर सामूहिक बहस के बाद लाए जाते तो हो सकता है कि उन विधायकों के कई हिस्सों पर आम-सहमति बन जाती और इतना बवण्डर खड़ा नहीं होता।