Monday, April 30, 2018

चीन नीति पर मोदी का कमाल

विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति को विफल बता कर सवाल खड़े कर रहे हैं। उनका आरोप है कि डोकलम में झटका झेलने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को कड़क जबाव नहीं दिया। बल्कि एक के बाद एक मंत्रियों और अधिकारियों को चीन भेजकर और खुद अचानक वहां जाकर, यह संदेश दिया है कि भारत ने चीन के आगे घुटने टेक दिये हैं। विपक्षी दलों का यह भी आरोप है कि चीन ने नेपाल, भूटान, वर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव व पाकिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत बनाकर भारत को चारों तरफ से घेर लिया है और इस तरह मोदी की पड़ोसी देशों के साथ विदेश नीति को विफल कर दिया है।
जबकि हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अजीत डोभाल, सुषमा स्वराज और निर्मला सीतारमन आदि ने भारत-चीन संबंधों के मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। आज जबकि चीन के राष्ट्रपति शी शिनफिंग दुनिया के सबसे ताकतवर नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं और आजीवन वहां राष्ट्रपति रहने वाले हैं, तो उनसे लड़कर भारत को कुछ मिलने वाला नहीं था। इसलिए उनसे मिलकर चलने में ही भलाई है, इसे प्रधानमंत्री ने तुरंत समझ लिया। वैसे भी चीन की ताकत आज दुनिया में बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। ऐसे में चीन को बंदर घुड़की दिखाने से काम बनने वाला नहीं था। 
औपचारिक शिखर सम्मेलन अनेक दबावों के बीच हुआ करते हैं। उसमें नौकरशाही की बड़ी भूमिका रहती है। संधि और घोषणाऐं करने का काफी दबाव रहता है। साझे बयानों को तैयार करने में ही काफी मशक्क्त करनी पड़ती है। जबकि अगर दो देशों के नेता पारस्परिक संबंध बना लें, तो बहुत सी कूटनीतिज्ञ समस्याऐं सुगमता से हल हो जाती है और उनके लिए नाहक वार्ताओं के दौर नहीं चलाने पड़ते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले वर्षों की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि उन्होंने दुनिया के लगभग हर देश के नेता से अपने व्यक्तिगत संबंध बना लिये हैं। अब वे कभी भी किसी से फोन पर सीधे बात कर सकते हैं। यही उन्होंने चीन जाकर किया।
भारत-चीन सीमा पर आए दिन चीनी फौज डोकलम जैसे उत्पात मचाती रही है। वहां की फौज सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर काम करती है। जिसे केवल सैन्य स्तर पर निपटना भारत के लिए आसान नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चीन यात्रा में एक नया अध्याय जोड़ा है। अब चीन की सेना और भारतीय सेना के अधिकारियों के बीच नियमित संवाद होता रहेगा। जिससे गफलत की गुंजाईश न रहे।
इसके साथ ही इस यात्रा से भारत-चीन संबंध खासी गति से विकसित हुआ है। इसी पर दोनों देशों का आर्थिक उदारीकरण और सुरक्षा व्यवस्था निर्भर करती है। चीन का व्यापार अमेरिका, यूरोप और भारत के साथ बहुत ज्यादा हैं, शेष विश्व के साथ उसका व्यापार घाटे का ही है। इस लिहाज से यदि चीन का भारत के साथ व्यापार बढ़त भारत-अमेरिका व्यापार से ज्यादा हो जाती है, तो फिर दिल्ली और बिजिंग को राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग करने होंगे।
भारत और पाकिस्तान के मध्य चल रहे विवादों में चीन की भूमिका किसी न किसी तरह से हमेशा ही पाई जाती रही है। चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत भी दिया था। चीन के सरकारी मीडिया ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने एक संपादकीय में लिखा था कि यदि पश्चिमी देश भारत को एक परमाणु ताकत के रूप में स्वीकारते हैं और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के प्रति उदासीन रहते हैं, तो चीन चुप नहीं बैठेगा।
लेकिन अब ‘द्विपक्षीय मैत्री’ एव सहयोग संधि के बाद पाकिस्तान दबाव में आ जायेगा। भारत-चीन की मार्फत पाकिस्तान को आतंकवाद नियंत्रित करने के लिए मजबूर कर सकता है। साथ ही चीन को इस बात के लिए राजी कर सकता है कि वह महमूद अजहर को आतंकवादी घोषित किये जाने की अंतराष्ट्रीय मांग का विरोध न करें। साथ ही परमाणु शक्ति के मामलों में भारत और चीन के बीच में जो कई मूल मुद्दे अंतराष्ट्रीय स्तर पर उलझ रहे थे। उनका भी समाधान होने की संभावना है। जाहिर है कि अजित डोभाल ने इन परिस्थितियों से निपटने के लिए पर्दे के पीछे रहकर काफी मेहनत की है। इसके साथ ही चीन ने भारत को मुक्त व्यापार समझौते का सुझाव दिया है, ताकि दोनों एशियाई देशों के बीच संबंधों को व्यापक प्रोत्साहन दिया जा सके।
भारत और चीन संबंधों में सुधार दोनों ही देशों के हित में है। प्रश्न है कि  क्या यह सुधार भारत को अपनी सम्प्रभुता और सुरक्षा की कीमत चुकाकर करनी चाहिए? क्या चीन पर भरोसा किया जा सकता है कि भविष्य में वह धोखा नहीं देगा? उम्मीद के सहारे दुनिया टिकी है। बदलते अंतराष्ट्रीय परिदृश्य में दोनों देशों के लिए यही बेहतर है कि वे मिलकर चलें, जिससे एक बड़ी ताकत के रूप में उभरें। जिससे क्षेत्र का आर्थिक विकास भी तेजी से हो सकेगा।

Monday, April 23, 2018

छोटी पहल, बड़ी बात

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से विकास योजना का 100 रूपये जमीन तक पहुंचते-पहुंचते मात्र 14 रूपये रह जाते हैं, शेष भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। 32 साल बाद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी  यही बात दोहराई और  कोशिश की भ्रष्टाचार रूके और लोगों तक उनका हक पहुंचे। पर ये लड़ाई इतनी आसान नहीं है।

राजनीति के महान आचार्य चाणक्य पंडित ने कहा था कि व्यवस्था कोई भी हो, अगर उसके चलाने वाले ईमानदार नहीं हैं, तो वह व्यवस्था विफल हो जाती है। सभी प्रांतों के मुख्यमंत्री चाहते हैं कि उनका मतदाता उनके शासन से संतुष्ट रहे। इसके लिए वे तमाम योजनाऐं बनाते हैं और निर्देश जारी करते हैं। पर अगर जिले और तहसील स्तर की प्रशासनिक ईकाई अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से अंजाम न दें, तो जनता में हताशा फैलती है। व्यवस्था ही ऐसी हो गई है कि अधिकतर अधिकारी कुछ नया करने से बचते हैं। जो ढर्रा चल रहा है, उसे ही चलाओ, फालतू क्यों पचड़े में पड़ते हो। पर जो नदी की धारा के विरूद्ध चलने की हिम्मत दिखाते हैं, वे ही कुछ नया कर पाते हैं।

उ.प्र. के मथुरा जिले की छाता तहसील वर्षों से उपेक्षित पड़ी थी। पिछले एक वर्ष में इसका कायापलट हो गया है। आज इसे प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ तहसील का दर्जा प्राप्त हो चुका है, जहां आम नागरिकों को जाकर ऐसा नहीं लगता कि वे किसी सरकारी दफ्तर में आऐं हों, बल्कि ऐसा लगता है, मानो किसी कारर्पोरेट आफिस में आए हैं। यह संभव हुआ है, एक युवा आईएएस अधिकारी राजेन्द्र पैंसिया के प्रयास व जन सहयोग के कारण।

भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा में सारी दुनिया से तीर्थयात्री आते हैं। पर जिले की साफ सफाई सोचनीय है। वहीं राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर स्थित छाता तहसील में प्रवेश करते ही, आपको सुखद अनुभति होती है। जहां पहले ये भी नारकीय अवस्था को प्राप्त था। अब सुंदर गेट, दोनों ओर पार्किंग एवं सुंदर बगीचे का निर्माण किया गया है। पहले ये पता ही नहीं चलता था कि हम किसी दफ्तर में आऐं हैं और कहां-कौन अधिकारी बैठा है। लेकिन अब तहसील भवन में एक सक्रिय पूछताछ केंद्र स्थापित किया गया है, जिसमें सभी कर्मचारियों व अधिकारियों के नाम, पदनाम, मोबाईल नंबर इत्यादि की सूची भी चस्पा है। अब जनता को यहां भटकना नहीं पड़ता।

जहां पहले चारों तरफ कूड़े के ढेर और पान की पीक से रंगी दीवारे दिखाई देती थी, वहीं अब दीवारों पर भारतीय संस्कृति, धरोहरों, ब्रज संस्कृति आदि के फ्लैक्स एवं पेंटिंग लगाई गई हैं। पूरे परिसर में प्रतिदिन साफ-सफाई को प्राथमिकता दी जाती है। जगह-जगह कूड़ेदान रखवाये गये हैं।

पूरे तहसील में सुरक्षा की दृष्टि से 32 सीसीटीवी कैमरे लगवाये गये हैं। पेयजल के लिए आर.ओ. सिस्टम लगवाया गया है। महिला और पुरूषों के लिए अलग अलग शौचलाय बनवाये गऐ हैं। चाहरदीवारों को उंचा किया गया है। बंदरों के आतंक से बचने के लिए लोहे की ग्रिल आदि लगवाये गईं हैं। इस पूरे कायाकल्प में सरकार से कोई वित्तीय सहायता नहीं ली गई। राजेन्द्र पैंसिया ने स्थानीय व्यापारियों के आर्थिक सहयोग से ये कायाकल्प की है। इस तहसील को आई एस ओ सर्टिफिकेशन भी मिला है।

उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के अध्यक्ष प्रवीर कुमार ने पैंसिया का उत्साहवर्धन किया है और अब वे मुख्यमंत्री योगी जी से संस्तुति कर रहे हैं कि छाता का मॉडल पूरे प्रदेश में अपनाया जाय।

ग्राम पंचायत का कार्यालय हो, ब्लाक का हो, तहसील का हो या जिला स्तर का आम जनता का साबका इन्ही कार्यालयों से पड़ता है। जनता की निगाह में यही सरकार हैं । प्रदेश की राजधानी या देश की राजधानी तक तो विरले ही जा पाते हैं। इसलिए ये दफ्तर किसी भी सरकार का चेहरा होते हैं। अगर यहां आम जनता को सम्मान और समाधान मिल जाता है, तो उसकी निगाह में सरकार अच्छा काम कर रही होती है। इसके विपरीत यदि इन कार्यालयों में जनता को लाल फीता शाही वाला रवैया, नारकीय रखरखाव, भ्रष्ट नौकरशाही से पाला पड़े, तो जनता की निगाह में प्रदेश की सरकार निकम्मी मानी जाती है। इसलिए हर मुख्यमंत्री अपने प्रांत के इन कार्यालयों को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। पर हालात बदलने के लिए कुछ ठोस कर नहीं पाते। अकेला चना क्या भाड़ तोड़ेगा। ऐसे में किसी भी मुख्यमंत्री को वह अधिकारी बहुत अच्छा लगता है, जो अपना काम निष्ठा और मजबूती से करता है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि योगी सरकार, छाता तहसील को सुधारने में लगे सभी लोगों को प्रोत्साहित करेगी और इस माडल को बाकी जिलों में लागू करने के लिए अपने अफसरों को स्पष्ट और कड़े निर्देंश देगी। साथ ही राजेन्द्र पैंसिया जैसे युवा अधिकारियों और भी चुनौतीपूर्णं काम सौंपेगी। जिससे वे मुख्यमंत्री की ‘ब्रज विकास’ परियोजनाओं को निष्ठा से लागू कराने में, अपने अनुभव और योग्यता का प्रदर्शन कर सके।

Monday, April 16, 2018

उज्जैन में होगा गुरूकुल शिक्षा का महाकुंभ

प्राथमिक शिक्षा किसी भी व्यक्ति, समाज और देश की बुनियाद को मजबूत या कमजोर करती है। इसीलिए गांधी जी ने बेसिक तालीम की बात कही थी। दुनिया के तमाम विकसित देशों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। भारत के महानगरों में जो कुलीन वर्ग के माने-जाने वाले प्रतिष्ठित स्कूल हैं, उनके शिक्षकों की गुणवत्ता, सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि बाकी स्कूलों के शिक्षकों से कहीं ज्यादा बेहतर होती है। इन स्कूलों में पढाई के अलावा व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास पर ध्यान दिया जाता है। यही कारण है कि इन स्कूलों से निकलने वाले बच्चे दुनिया के पटल पर हर क्षेत्र में सरलता से आगे निकल जाते हैं, जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी जिन स्कूलों में शिक्षा पाती है, वहां शिक्षा के नाम खानापूर्ति ज्यादा होती है। बावजूद इसके अगर इन स्कूलों से कुछ विद्यार्थी आगे निकल जाते हैं, तो यह उनका पुरूषार्थ ही होता है। 

बात इतनी सी नहीं है, इससे कहीं ज्यादा गहरी है। आजादी के बाद से आज तक, कुछ अपवादों को छोड़कर व्यापक स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की दशा और दिशा बदलने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। पिछले दो वर्षों में तीन बार इसी काॅलम में मैं अहमदाबाद के उत्तम भाई के गुरूकुल शिक्षा को लेकर किये गये, अभूतपूर्व सफल प्रयोगों का उल्लेख कर चुका हूं। जिसकी विशेषता यह है कि आधुनिक मशीनों ,अग्रंेजी भाषा और सर्वव्यापी स्थापित पाठ्यक्रम का सहारा लिए बिना उत्तम भाई ने प्राचीन गुरूकुल पद्धति को पुर्नजागृत कर अभूतपूर्व मेधा के छात्र तैयार किये हैं। अब उनके इस सफल प्रयोग को ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ ने पूरी तरह गोद ले लिया है। आगामी 28, 29 व 30 अप्रैल को मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में, पौराणिक क्षिप्रा नदी के तट पर, मोहन भागवत जी की अध्यक्षता में गुरूकुल शिक्षा पद्धति पर तीनदिवसीय महाकुंभ होने जा रहा है। जिसमें दक्षिण एशिया के सभी गुरूकुलों के प्रतिनिधि और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े संघ के राष्ट्रीय स्तर के सभी चिंतक भाग लेंगे। जहां भारत में वैकल्पिक शिक्षा व्यवस्था की स्थापना की संभावनाओं पर गहरा मंथन होगा। चूंकि शिक्षा में परिवर्तन से जुड़े अनेक प्रयासों से गत 40 वर्षों से मैं एक पत्रकार नाते जुड़ा रहा हूँ, इसलिए इस विशेष महाकुंभ में भी जाकर देखूंगा कि इसमें से क्या रास्ता निकलता है।

यदि आपने चाणक्य सीरियल देखा था, तो आपको याद होगा कि महान आचार्य चाणक्य के, शिक्षा और गुरूकुल के विषय में, विचार कितने स्पष्ट और ओजस्वी थे। उनकी शिक्षा का उद्देश्य देशभक्त, सनातनधर्मी व कुशल नेतृत्व देने योग्य युवा तैयार करना था। पिछड़ी जाति के दासी पुत्र को स्वीकार कर ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ से मगध का सम्राट बनाने तक का उनका सफर इसी सोच का फल था। प्रश्न है कि क्या उज्जैन का महाकुंभ ऐसी ही शिक्षा पद्धति की स्थापना पर विचार कर रहा है?

भारत की सनातन पंरपरा में प्रश्न करने और शास्त्रार्थ करने पर विशेष बल दिया गया है। इसे शिक्षा के प्रारंभ से ही प्रोत्साहित किया जाता था। जबकि भारत में मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में इकतरफा शिक्षण की पंरपरा स्थापित हो गई है। शिक्षक कक्षा में आकर कुछ भी बोलकर चला जाए, विद्यार्थियों को समझ में आए या न आऐं, उनके प्रश्नों के उत्तर मिले या न मिले, इससे किसी को कुछ अंतर नहीं पढ़ता। केवल पाठ्यक्रम को  रटने और परीक्षा पास करने की शिक्षा दी जाती है। जबकि शिक्षा का उद्देश्य हमें तर्कपूर्णं और विवेकशील बनाना होना चाहिए। तर्क करने का उद्देश्य उद्दंडता नहीं होता, बल्कि अपनी जिज्ञासा को शांत करना होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘आत्मबोध प्राप्त गुरू की शरण में जाओ। अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न करो और फिर विनम्रता से जिज्ञासा करो। यदि वे कृपा करना चाहेंगे, तो तुम्हारे प्रश्नों का समाधान कर देंगे’। आधुनिक शिक्षा की तरह नहीं कि शिक्षक के सामने मेज पर पैर रखकर, सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुए और अभद्रतापूर्णं भाषा में प्रश्न किया जाऐ।  ऐसा भी मैंने कुछ संस्थाओं में देखा है। गनीमत है अभी ज्यादातर संस्थाओं यह प्रवृत्ति नहीं आई है। यू तो हमारे भी शास्त्र कहते हैं कि सोलह वर्ष का होते ही पुत्र मित्र के समान हो जाता है और उससे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। पर इस मित्रता का आधार भी हमारी सनातन संस्कृति के स्थापित संस्कारों पर आधारित होना चाहिए। इससे समाज में शालीनता और निरंतरता बनी रहती है। 

भारत भूमि में चर्वाक से लेकर बुद्ध तक सभी दाशर्निक धाराओं को जगह दी है। व्यापक दृष्टिकोण, मस्तिष्क की खिड़कियों का खुला होना, मिथ्या अंहकार से मुक्त रहकर विनम्रता किंतु दृढ़ता से दूसरी विचारधाओं के साथ व्यवहार करने का तरीका हमारी बौद्धिक परिपक्वता का परिचय देता है। दूसरी तरफ अपने विचारों और मान्यताओं से इतर भी अगर किसी व्यक्ति में कुछ गुण हैं, तो उनकी उपेक्षा करना या उन्हें सीखने के प्रति उत्साह प्रकट न करना, हमें कुऐं का मेंढक बना देता है। भारत के पतन का एक यह भी बड़ा कारण रहा है कि हमने विदेशी आक्रांताओं के आने के बाद अपनी शिक्षा, जीवन पद्धति और समाज की खिड़कियों को बंद कर दिया। परिणामतः शुद्ध वायु का प्रवेश अवरूद्ध हो गया। बासी हवा में सांस लेकर जैसा व्यक्ति का स्वास्थ्य हो सकता है, वैसा ही आज हमारे समाज का स्वास्थ्य हो गया है। उज्जैन का महाकुंभ क्या हमारी प्राथमिक शिक्षा को इस सड़ाँध से बाहर निकालकर शुद्ध वायु में श्वास लेने और सूर्य के प्रकाश से ओज लेने के योग्य बना पायेगा, यही देखना है।

Monday, April 9, 2018

‘नानक शाह फकीर’ फिल्म पर विवाद क्यों?


सिक्ख धर्म संस्थापक परमादरणीय गुरू नानक देव जी के जीवन व शिक्षाओं पर आधारित फिल्म ‘नानक शाह फकीर’ काफी विवादों में है। सुना है कि शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी और कुछ सिक्ख नेता इसे रिलीज नहीं होने देना चाहते। उनका कहना है कि गुरू नानक जी पर फिल्म नहीं बनाई जा सकती । क्योंकि उनका किरदार कोई मनुष्य नहीं निभा सकता। उनकी और बाकी गुरुओं की सारी शिक्षा  गुरू ग्रंथ साहिब में संग्रहीत है। गुरु गोविंद सिंह जी ने हुकुम दिया था, "गुरु मान्यो ग्रंथ" ।  इसी भाव से हर गुरूद्वारे में ग्रंथ साहब की सेवा-अर्चना की जाती है।

अकसर ही एतिहासिक फिल्मों पर विवाद होते रहते हैं। ताजा उदाहरण 'पद्मावत’ का है। इसमें राजपूतों की प्रतिष्ठा धूमिल करने का आरोप लगाकर राजपूत समाज ने काफी लम्बा विवाद खड़ा किया। राजपूत समाज के हस्तक्षेप के बाद फिल्म के निर्माता संजय लीला भंसाली ने फिल्म के कुछ दृश्यों या कुछ डायलग्स को बदला व फिल्म का नाम भी बदला। अंत में जब फिल्म सामने आई तो उसमें कहीं भी ऐसा कोई दृश्य नहीं था जिससे राजपूत समाज को ठेस लगती। बाद में कर्णीं सेना और अन्य विरोध करने वालों ने भी यही अनुभव किया। ये विवाद दूसरा है कि पद्मावती का चरित्र ऐतिहासिक था या मलिक मौहम्मद जायसी की कल्पना । जो बिना एतिहासिक प्रमाणों के सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन ये सत्य है कि इस कथा को संजय लीला भंसाली ने  बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।

इससे पहले 80 के दशक में इंग्लैंड के फिल्म निर्माता रिचर्ड एटिनबरो ने महात्मा गांधी पर जब फिल्म बनाई तो   गांधीवादियों  ने कड़ा विरोध किया था। प्रदर्शन किये, हस्ताक्षर अभियान चलाये व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को ज्ञापन दिये। उनका कहना था कि एक अंग्रेज महात्मा गांधी पर फिल्म कैसे बना सकता है? जबकि अंग्रेजों के अत्याचारों के विरूद्ध ही तो महात्मा गांधी का राजनैतिक जीवन शुरू हुआ था और अंग्रेजों को जाना पड़ा। 190 साल तक उन्होंने भारत को लूटा और अत्याचार किये। इसलिए एक अंग्रेज को ये नैतिक अधिकार कैसे मिल सकता है कि वह महात्मा गांधी पर फिल्म बनाए? इन  तमाम विवादों के बावजूद फिल्म बनी ।  रिचर्ड एचिनबरो ने एक बेहतरीन फिल्म बनाई। जो पूरे विश्व में सराही गई। सबसे बड़ी बात यह थी कि  गांधी को उस वक्त की पीढ़ी लगभग भूल चुकी थी। उनके लिए गांधी एक प्रतीक थे। 2 अक्टूबर को उनके जन्म और 30 जनवरी को  श्रद्धांजलि तक उनकी याद सीमित थी। गांधी का जीवन व  उनकी सोच क्या थी ? किस तरह उन्होंने सीमित संसाधनों में इतने बड़े साम्राज्य को चुनौती दी, इस सब के बारे में  व्यापक स्तर पर भारतीय समाज को कोई समझ नहीं थी।  विदेशी समाज को तो  बिल्कुल ही नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे आम भारतीयों को मार्टिन लूथर किंग के बारे में कितना पता है?  पर गांधी फिल्म ने गांधी जी को पूरे विश्व में पुर्नस्थापित किया। न सिर्फ गांधी जी के जीवन के प्रति बल्कि उनकी विचारधारा के प्रति पूरी दुनियां में एक अजीब आकर्षण पैदा हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि पूरी दुनिया से जिज्ञासु गांधी को समझने भारत आने लगे। गांधी और उनके विचार पुनः दुनिया के पटल पर चर्चा का विषय बन गये। एक पूरी पीढ़ी ने गांधी के जीवन को समझा। उनके लिखे प्रकाशित ग्रंथों की मांग बढ़ी। इस तरह रिचर्ड एडिनबरो ने विरोध सहकार भी गांधी जी की महान सेवा की।

मौजूदा संदर्भ में यही बात 'नानक शाह फकीर' के बारे में भी कही जा सकती है। इसको बनाने का जुनून हरिंदर सिक्का नामके उस व्यक्ति का है, जो पेशे से फिल्मकार नहीं है बल्कि पीरामल समूह का कम्युनिकेशन  डायरेक्टर है। जाहिरन इस फ़िल्म से उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि सिख पंथ की सेवा करना है। इस फिल्म को बनाने की सिक्का को बहुत दिनों से लगन थी। फिल्म को बने हुए भी काफी समय हो गया है। मैंने अभी फिल्म देखी नहीं है। जिन्होंने देखी होगी वे ही इस पर प्रकाश डाल सकते हैं। पर इतना मैं जरूर कहूंगा कि अगर कोई सिक्ख धर्म का अनुयायी, अपनी श्रद्धा के पात्र गुरूनानक देव जी के जीवन पर फिल्म बनाने का जुनून लेकर बैठा हो, तो उससे ये अपेक्षा करना कि वो उनके चरित्र को आहत कर देगा या उनके बारे में कुछ ऐसा दिखा देगा जिससे सिक्ख धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचे, ये संभव नहीं है। गल्ती हर इंसान से हो सकती है, समझ की कमी हो सकती है और फिल्म बनाने के अनुभव में भी कमी हो सकती है। पर सिक्का की भावनाओं पर संशय नहीं किया जा सकता। जब अंदर से कोई दैवीय प्रेरणा होती है, तभी व्यक्ति ऐसे कार्यों में आगे बढ़ता है। हो सकता कि 'नानक शाह फकीर' इतनी खराब बनी हो कि दर्शक फिल्म को पसंद ही न करें । तब जैसे सैकड़ों फिल्में डिब्बे में बंद हो जाती है ये फ़िल्म भी हो जाएगी । पर ये भी हो सकता है कि यह फिल्म गुरू नानक देव की शिक्षा और जीवन पर प्रकाश डालने वाली हो । वही फिल्मकार की सफलता का मापदंड माना जाएगा। वही उसके कठिन प्रयास का परितोषक होगा। अगर ऐसा हुआ  तो न सिर्फ सिक्ख युवा पीढ़ी को गुरू नानक देव का परिचय भलीभांति मिलेगा, बल्कि भारत में जो सिक्ख धर्म के अनुयायी नहीं हैं, चाहे वह हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, नास्तिक हो या फिर दूसरे देशों के रहने वाले लोग हों, उन सबको गुरू नानक जी के चरित्र और शिक्षाओं के बारे में जानने का मौका मिलेगा। मैं मानता हूं कि  अगर तो गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इस फिल्म को जारी होने का सहयोग प्रमाण पत्र दे दिया है, तो उत्सुकता से इस फिल्म  का इंतेजार किया जाना चाहिए और अगर इसमें कोई अवरोध आ रहा है, तो उसे इसी पवित्र भावना से दूर करना चाहिए। क्योंकि फिल्में 21वीं सदी में संचार का सबसे सशक्त माध्यम हैं। फिल्मों के जरिये जो बात कही जाती है, तो वह समाज में बहुत व्यापक स्तर तक पहुंचती है। सिक्ख धर्म को मानने वाले बहुत समर्पण के साथ अपने धर्म का प्रचार-प्रसार और सेवा करते हैं। लेकिन क्या हम यह दावे से  कह सकते हैं कि जो बहुत बड़ी तादाद सिक्ख धर्म के न मानने वालों की है, उनको गुरू नानक देव के बारे में पूरी जानकारी है ? ठीक वैसे ही जैसे सिक्ख धर्म के मानने वालों को ईसामसीह में कितनी रूचि है या इस्लाम मानने वालों को राम और कृष्ण के जीवन में कितनी रूचि है। तो बड़ा  समाज जो फिल्म को केवल मनोरंजन के उद्देश्य से देखता है, उसे मनोरंजन के साथ अगर शिक्षा भी मिल जाए तो वह ‘एंटरटेंनमेंट’ न होकर ‘इंफोटेंनमेंट’ हो जाता है।आदमी जाता तो है सिनेमा मनोरंजन के लिए देखने लेकिन लौटता है ज्ञानी बनकर। महाभारत, रामायण व  चाणक्य सीरियल से भारतीय संस्कृति और इन महापुराणों के  बारे में पूरी दुनियां में उत्सुकता बढ़ी । नई पीढ़ी को इनके बारे में जानकारी हुई और घर-घर पिताश्री, माताश्री, भ्राताश्री जैसे शब्दों का लोग इस्तेमाल करने लगे। जो कम पढ़े-लिखे लोग थे, उनको भी इन पुराणों की बारीकियों का पता चला। 

इससे जातीय द्वेष करने वाले गोरों को सिखों और तालिबानों के बीच भेद पता चलेगा। अभी लंदन की संसद में पहले सिख सांसद तनमनजीत को कहना पड़ा कि वहां लोग सिखों को तालिबान समझकर उनपर हमला कर रहे हैं।
मैं समझता हूं कि हरिंदर सिक्का की इस मेहनत को दर्शकों तक जाने देना चाहिए। जो सिक्ख समाज के धार्मिक नेता  है उनको फिल्म देखकर, यदि कोई कमी हो सुधार कर, इसे मान्यता दे देनी चाहिए। ताकि व्यापक विश्व समाज गुरू नानक देव जी के जीवन के बारे में जान सके।

Monday, April 2, 2018

राजनीति से असली मुद्दे नदारद

देश में हर जगह कुछ लोग आपको ये कहते जरूर मिलेंगे कि वे मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि मजदूर किसान की हालत नहीं सुधरी, बेरोजगारी कम नहीं हुई, दुकानदार या मझले उद्योगपति अपने कारोबार बैठ जाने से त्रस्त हैं, इन सबको लगता है कि 4 वर्ष के बाद भी उन्हें कुछ मिला नहीं बल्कि जो उनके पास था, वो भी छिन गया। जाहिर है इसकी खबर मोदी जी को भी होगी। खुफिया तंत्र अगर ईमानदारी से मोदी जी को सूचनाऐं पहुंचा रहा होगा, तो उसकी भी यही रिर्पोट होगी। ऐेसे में 2019 का चुनाव भाजपा को बहुत भारी पड़ना चाहिए। पर ऐसा है नहीं।

इसके दो कारण हैं। ऐसी हताशा के बाद भी शहर का मध्यम वर्गीय हिंदु ये मानता है कि और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, पर मोदी सरकार या उनके योगी जैसे मुख्यमंत्रियों ने अलपसंख्यकों को काबू कर लिया है। अगर ये दोबारा सत्ता में नही आऐ, तो अल्पसंख्यक फिर समाज पर हावी हो जायेंगे। मोदी पर निर्भरता का दूसरा कारण ये है कि विपक्ष में बहुत बिखराव है और उसका किसी एक नेता के साये तले इकट्टा होना आसान नहीं लगता।

यहां सोचने वाली बात यह है कि हिंदू समाज के मन में ये भावना क्यों पैदा हुई? कारण स्पष्ट है कि गैर भाजपाई सरकारों ने अल्पसंख्यकों के लिए कुछ ठोस किया हो या न किया हो, पर उन्हें विशेष दर्जा देकर निरंकुश तो जरूर बनाया। जबकि भाजपा ने ये संदेश स्पष्ट दिया है कि भाजपा की सरकार दिखाने को भी अल्पसंख्यकों के धर्म को अनावश्यक बढ़ावा नहीं देगी। जबकि हिंदू धर्म में त्यौहारों में खुलकर अपनी आस्था प्रकट करेगी। जाहिर है कि ये भंगिमा हिंदूओं के लिए बहुत आश्वस्त करने वाली है। इसलिए वे भाजपा के नेतृत्व में अपना भविष्य सुरक्षित देखते हैं। उनकी इसी कमजोरी को भुनाने का काम भाजपा अगले चुनावों में जमकर करेगी।

मगर यहां एक पेंच है, मध्यम वर्गीय लोगों को तो धर्म के नाम पर आकर्षित किया जा सकता है, पर बहुसंख्यक किसान मजदूरों को धर्म के नाम पर नहीं उकसाया जा सकता। सिवाय इसके कि उनकी वाजिब मांगे पूरी की जाऐ। जिससे उनकी जिंदगी में खुशहाली आती। देश का किसान रात दिन जाड़ा गर्मी बरसात सहकर मेहनत करता है। फिर भी उसकी तरक्की नही होती। जबकि बैंक लूटने वाले बिना कुछ किए रातों रात हजारो करोड़ कमा लेते हैं। इसलिए वे मन ही मन नाराज हैं और चुनावों को प्रभावित करने की सबसे ज्यादा ताकत रखते हैं।

सरकारें तो आती-जाती है, पर चिंता की बात ये है कि असली मुद्दे हमारी राजनीतिक बहस से नदारद हो गए हैं। किसानों को सिंचाई की भारी दिक्कत है। भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। जमीन की उर्वरकता घट रही है। खाद के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। फसल के वाजिब दाम बाजार में मिलते नहीं। नतीजतन किसान कर्जे में डूबते जा रहे हैं और कर्जा न चुका पाने की हालत में लगातार आत्महत्याऐं हो रही हैं। ये भयावह स्थिति है।

उधर देश का युवा, जिसने अपने मां-बाप की गाढ़ी कमाई खर्च करके बीटैक और एमबीए जैसी डिग्रियां हासिल की, उसे चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा है और ये युवा कहते हैं कि हम ‘पकौड़ी बेचकर‘ जीवन बिताना नहीं चाहते। यही हाल देश की शिक्षण और स्वास्थ सेवाओं का है, जो देश के ग्रामीण अंचलों में सिर्फ कागजों पर चल रही है। जिसमें अरबों रूपया बर्बाद हो रहा है। पर जनता को लाभ कुछ भी नहीं हो रहा। ये भी भयावह स्थिति है।

बैंकों से अरबों रूपया निकालकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों ने आम भारतीय का बैंकिंग व्यवस्था में, जो विश्वास था, उसे तोड़ दिया है। इससे समाज में हताशा फैली है।

उधर न्यायपालिका के लिए जो लिखा जाए, सो कम। जिस किसी का भी न्यायपालिका से किसी भी स्तर पर वास्ता पड़ा है, वो बता सकता है कि वहां किस हद तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। पर न्याय व्यवस्था को सुधारने के लिए किसी सरकार ने आजतक कोई ठोस प्रयास नही किया गया।

ये कहना सही नही होगा कि किसी सरकार ने कभी कुछ नही किया। पिछली सरकारों ने भी कुछ किया तभी भारत यहां तक पहुंचा और मोदी सरकार भी बहुत से ऐसे काम करने में लग रही है, जिससे हालात बदलेंगे। पर बाबूशाही की प्रशासनिक व्यवस्था इतनी जटिल और आत्म मुग्ध हो गयी है कि उसे इस बात की कोई चिंता नही है कि धरातल तक उसकी योजनाओं का सच क्या है। इसलिए अच्छी भावना और अच्छी नीति भी कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं। इस रवैये को बदलने की जरूरत है।

पर इन सब मुद्दों पर आजकल बात नहीं हो रही, न मीडिया में और न राजनीति में। जिन मुद्दों पर बात हो रही है, वो मछली बाजार की बातचीत से ज्यादा ऊचे स्तर की नही है। असली मुद्दों की बात हो और समाधान मूलक हो, तो देश का कुछ भला हो। आज जरूरत इसी बात की है कि देशवासी इन बुनियादी सवालों के हल खोजें और उन्हें लागू करने के लिए माहौल बनाये।

अब बात करें अल्पसंख्यकों की, तो ये सच है कि किसी भी सरकार ने अल्पसंख्यकों का कोई ठोस भला नहीं किया। केवल उनका प्रयोग किया और उन्हें सार्वजनिक महत्व देकर खुश करने की कोशिश की गयी। जिसके विपरीत परिणाम आज सामने आ रहे हैं। बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय समाज के मन मे ये बात बैठ गयी है कि भाजपा ही अल्पसंख्यकों को उनकी सीमा में रख सकती है, अन्य कोई दल नही। यही बात मोदी जी के खाते में कही जा रही है और इसलिए वे 2019 के आम चुनावों में इसी मुद्दे पर जोर देंगे। ताकि बहुसंख्यकों की भावनाओं को वोट में बदल सकें। काश हम सब देश में असली मुद्दों पर बात और काम कर पाते तो देश के हालात कुछ बदलते।