Friday, November 5, 1999

हम तो जीना ही भूल गये


उज्जैन के एक युवा उद्योगपति पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, पर उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनने लगे हैं। हमेशा खुश रहने वाले गुलाबी चेहरे के 46 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने आज तक न तो कोई दवा का सेवन किया है औरा न ही किसी सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग किया है इसीलिये वे आज तक बीमार नहीं पड़े। पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ है। ? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं ? पहली बार मिलने पर श्री ऋषि की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औ़द्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों को सैल्फ मैनेजमेंटपर व्याख्यान देने जाते हैं, जिसकी वह कोई फीस या खर्चा नहींे वसूलते। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट आयुष्मान भवके झंडे तले करते हैं। उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है।
उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथ ब्रश-टूथ पेस्ट, चाय, काॅफी, शेविंग, क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर लगभग साढे चार सौ करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके अलावा रोज सुबह आठ से रात तक छह सौ करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय,पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है जिनसे उन्हें कोई फायदा नहीं होता, उल्टे उनके शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जिनके इस्तेमाल से वे बीमार पड़ते हैं। फिर अंगेजी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च होता है सो अलग। इस तरह सालाना 365 हजार करोड़ रुपया फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 10 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं। अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। इतना ही नहीं, टीवी के विज्ञापनों में रोजाना चमक दमक के साथ दिखाई जाने वाली ये उपभोक्ता वस्तुयंे जनता को बहुत बड़ा धोखा देकर बेची जाती हैं। मसलन, बाजार में बिकने वाला एक सौंदर्य साबुन 15 रुपये से कम नहीं आता, जबकि इसकी लागत का विश्लेषण करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। इस साबुन की एक टिकिया पर टीवी में विज्ञापन का खर्च पड़ता है अढा़ई रुपया। इसके फुटकर विक्रेता से लेकर वितरक व कैरिंग एंड फार्वडिंग एजेंट का मुनाफा व यातायात की लागत होती है अढ़ाई रुपया। साबुन की इस टिकिया पर उत्पादन शुल्क व बिक्री कर आदि लगता है लगभग साढ़े तीन रुपया। इसकी आकर्षक पैकिंग पर डेढ़ रुपया खर्च होता है। इस साुबन को बनाने वाली बड़ी कंपनी का प्रशासनिक खर्च भी प्रति साबुन की टिकिया दो रुपये से कम नहीं होता। इन सबके बाद साबुन निर्माता कंपनी काप्रति साबुन मुनाफा होता है अढ़ाई रुपये तक। इस तरह साबुन की टिकिया बनाने के लिये कुल 50 पैसे बचते हैं यानी पचास पैसे का माल उपभोक्ता को 15 रुपये में मिलता है। 15 रुपये में 50 पैसे का माल लेकर भी तसल्ली कर ली जाती अगर यह माल कारामद होता। पर दुभाग्य यह है कि साबुन हमारी त्वचा की स्वाभाविक स्निग्धता यानी चिकनाई को खत्म कर देता है, इसलिये त्वचा रूखी सूखी हो जाती है जिसको तरोताजा बनाने के लिये फिर इसी तरह कोल्ड क्रीम बेची जाती है। वहां भी लागत और मूल्य का यही अनुपात रहता है।
यह तो एक उदाहरण है। टीवी के विज्ञापनों में दिखाये जाने वाले ऐसे तमाम सौन्दर्य प्रसाधनों तथा चाय, काॅफी, सिगरेट व शराब की भी लागत और बिक्री में लगभग यही अनुपात रहता है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अन अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीटे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे। प्राकृति वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम बैठा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में। सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यां कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।
 हम कैसे बैठकर खाना खायें ? क्या खाना खायंे ? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें ? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे ? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शस्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को इकट्ा करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये सैल्फ मैनेजमेंटकह दें या आर्ट आफ लिविंगकहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे है। और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।
ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे ? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं देशी तरीके से बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष खड़े होकर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैद के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है।
कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। दीपावली आने वाली है और ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते,पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।
जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकष्तिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं ओर लम्बे समय तक जीते हैं।
यहां उस राजा का उल्लेख करना उचित रहेगा जो अपने देश का दौरा करने निकला तो एक ऐसे गांव में जहा पहंुचा जहां सारा का सारा गांव ही भुखमरी में जी रहा था। केवल एक घर था जहां दोनों वक्त रोटी बनती थी। उस घर के मुखिया को सारा गांव शाह जी कहता था। गांव वालों के पास राजा के स्वागत के लिये कुछ भी नहीं था सो उन्होंने पानी का छिड़काव करके गांव के चबूतरे पर पत्ते बिछा दिये और उन पर दो आसन बिछा दिये। तय हुआ कि राजा के सम्मान में गांव की तरफ से एक आसन पर शाह जी बैठेंगे और दूसरे पर राजा। राजा ने जब अपनी प्रजा की गरीबी का यह हाल देखा तो वहीं खड़े अपने मंत्री ये घोषणा करवाई कि सब लोग अपने घर दौड़ कर जायें और जो भी बर्तन हो ले आयें, सबको दान मिलेगा। राजा की बगल में बैठे, गवै से उन्मुक्त, शाह जी ने सोचा अगर मैं भी दौड़ गया तो राजा मुझे इन्हीं लोगों की तरह भिखारी समझ लेगा। सो वह नहीं गया।राजा ने उस दिन हर आदमी को उसके बर्तन में भरकर अशर्फियां दान दीं। उस दिन से सारा गांव तो सम्पन्न हो गया और शाह जी रह गये फटेहाल। हम भारतीयों की भी हालत शाह जी जैसी है। जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैंे ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश उस गांव के दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होे जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं इस तरह हम जो सोने की चिडि़या कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।
यह सदी का ही नहीं सहस्त्राब्दि का अंतिम दौर है। हमें इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है ? ताकि अगली सदी और अगली सहस्त्राब्दि का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।