Sunday, September 30, 2007

सत्यमेव जयते फिर न्यायपालिका को सच से परहेज क्यों है ?

मुंबई मिड-डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना के मामले में चार महीने की जेल की सजा सुनाई गई है। देश के कई मशहूर समाजसेवी व बुद्धिजीवी इन पत्रकारों के समर्थन में सर्वोच्च अदालत गए हैं। इन पत्रकारों की गलती यह है कि इन्होंने भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वाईके सब्बरवाल के पुत्रों को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट छापी जिससे यह संकेत मिलते हैं कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल द्वारा दिल्ली में करवाई गई सीलिंग व भारी तोड़फोड के पीछे उनके व्यावसायिक स्वार्थ थे। इस संदर्भ में ये पत्रकार किसी भी जांच एजेंसी के सामने सबूत प्रस्तुत करने को भी तैयार हैं। पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी बात अनसुनी कर उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुनाई है। सीलिंग के मामले में अदालत के रवैए से दिल्ली पहले ही भड़की हुई थी। अब ऐसी बात सामने आई है जिससे जनता का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। ऐसे संगीन आरोप सामने आने के बाद भी अगर अदालत उनकी जांच नहीं करवाती और दोषी न्यायधीश को सजा देने की बजाए सच्चाई उजागर करने वाले को ही अगर सजा देती हैं तो अदालत की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा हो जाएगा। आजाद भारत ने उपनिषद् के मंत्र सत्यमेव जयतेको अपने शासन का आधार बनाया है जिसका अर्थ है कि हर हालत में सत्यकी ही विजय होगी। फिर अदालतों का ऐसा रवैया क्यों होगा है कि वे सच को भी डिफेंस नहीं मानती।



अदालत की अवमानना कानून में साफ लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति अदालती कार्यवाही में विघ्न पैदा करता है या उसको प्रभावित करने की कोशिश करता है या अदालत की गरिमा को हानी पहुंचाता है तो उस पर अदालत की अवमानना कानून के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है और उसे सजा दी जा सकती है। पर जब कोई न्यायधीश अनैतिक या भ्रष्ट आचरण करे और उसका खुलासा प्रमाण सहित कोई वकील या पत्रकार करे तो इसे अदालत की अवमानना कैसे माना जा सकता है ? लोकतंत्र में विधायिका की जवाबदेही मतदाताओं के प्रति होती है। कार्यपालिका की जवाबदेही अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति होती है और मीडिया की जवादेही जनता के प्रति होती है। इस तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की जवाबदेही सुनिश्चित की गई है। पर चैथे स्तंभ न्यायपालिका की जवाबदेही अभी तक किसी के प्रति नहीं है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने न्यायधीशों को भगवान के समान माना था। उनसे नापाक चाल-चलन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसीलिए उन्हें अदालतों में मी लाॅर्ड’! कह कर संबोधित किया जाता है। पर सच्चाई यह है कि जो न्यायधीश बनते हैं वो किसी देव लोक से अवतरित नहीं होते। इसी लोक से हैं और उनके लिए समाज के प्रभाव से मुक्त रह पाना संभव नहीं है। इसलिए वे भी अक्सर वही गलतियां कर जाते हैं जो समाज के दूसरे वर्ग करते हैं। पर यहां यह भेद स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसी जज के अनैतिक आचरण को उजागर करने का अर्थ न्यायपालिका की अवमानना नहीं है। वह तो अधिक से अधिक संबंधित न्यायधीश की मानहानी मानी जाएगी। जिसके लिए वह न्यायधीश मौजूदा कानून के तहत मुकद्दमा चलाने को स्वतंत्र हैं। व्यक्तिगत दुराचरण को अदालत की अवमानना कानून से छिपाना न्यायपालिका की विश्वसनीयता को पूरी तरह से समाप्त कर सकता है। इसलिए अदालत की अवमानना कानून में वांछित संशोधन करके यह व्यवस्था बनानी चाहिए कि दोषी न्यायधीशों की जांच हो और उन्हें सजा भी मिले। वरना सत्य मेव जयते का क्या अर्थ रह जाएगा ? आश्चर्य की बात यह है कि आए दिन अदालत से फटकार खाने के बावजूद हमारे नेता व सांसद इस कानून में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं। कुछ बड़े नेताओं ने तो साफ कहा कि वे इतने मामलों में फंसे हैं कि न्यायपालिका से भिड़ेंगे तो उसका बुरा परिणाम भोगेंगे।



यह पहली दफा नहीं है जब सर्वोच्च न्यापालिका पर उंगली उठी है। 1997 से 2001 तक मैंने भारत के तीन  मुख्य न्यायधीशों के घोटाले व अनैतिक कार्यों के प्रमाण उनके कार्यकाल में ही अपने टेबलाॅइड कालचक्रमें प्रकाशित किए थी। जिन पर देश में काफी विवाद हुआ और तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी को इस्तीफा भी देना पड़ा। मुझ पर अदालत की अवमानना का मुकद्दमा सर्वोच्च न्यायालय में नहीं बल्कि आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर की घाटी में चलाया गया। मुझे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में इस मुकद्दमें के दौरान श्रीनगर में ही रहने के आदेश दिए गए। जब मैं वहां नहीं गया तो मुझे भगोड़ा अपराधी घोषित कर दिया गया। जम्मू पुलिस मुझे रोज गिरफ्तार करने आने लगी। डेढ वर्ष तक मैंने देश में जगह-जगह भूमिगत रह कर अदालत की अवमानना कानून में संशोधन की मांग जनसभाओं में उठाई। इससे पहले की पुलिस वहां पहुंचती मैं दूसरे शहर निकल जाता था। पर न तो कोई बड़ा वकील मेरे समर्थन में खड़ा हुआ और न कोई नामी पत्रकार और न कोई बड़ा समाजसेवी। सबको लगा कि पदासीन मुख्य न्यायधीश के मामले में बोल कर कहीं उन्हें जेल न जाना पडे़। आखिर मुझे जान बचाने के लिए देश छोड कर भागना पड़ा। लंदन और न्यूयार्क में पूरी दुनिया के पत्रकार संगठनों का मुझे भरपूर समर्थन मिला। बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े टीवी चैनलों ने मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण उन देशों से किया। इस सबके बाद मेरी नैतिक विजय हुई। भारत के नए बने मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा की उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। जिससे निपटने में मौजूदा कानून नाकाफी है। प्रश्न उठता है कि अगर उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है तो भारत की सवा सौ करोड जनता को यह कैसे पता चलेगा कि उसकी किस्मत का फैसला करने वाला न्यायधीश ईमानदार है या भ्रष्ट ? एक भ्रष्ट न्यायधीश किसी दूसरे के आचरण का मूल्यांकन कैसे कर सकता है ?



संसद दोषी न्यायधीश पर महा अभियोग प्रस्ताव लाएगी नहीं। न्यायपालिका अपने भ्रष्ट साथी को सजा नहीं देगी और सच छापने वाले पत्रकारों को जेल जाना पड़ेगा। अगर यही होना है तो भारत सकार को अपने सरकारी दस्तावेजों व संसद भवन की दीवारों से सत्यमेव जयतेहटा कर लिखना चाहिए असत्यमेव जयते।यह गंभीर मुद्दा है। न्यायपालिका को इस पर मंथन करना चाहिए। सर्वमान्य नियम बना कर न्यायधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। इससे न्यापालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी घटेगी नहीं।

Sunday, September 9, 2007

भ्रष्टाचार कैसे रूके ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग की मजबूरियां

सेवानिवृत्त होकर अब तक वही प्रशासनिक अधिकारी मजे मारते थे जो अपने सेवा काल में बड़े औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाते थे और बाद में उनके सलाहकार बन जाते थे। लेकिन अब जीवन भर ईमानदार रहे अधिकारियों की भी पूछ होगी। यह पहल करने जा रहा है केन्द्रीय सतर्कता आयोग। दरअसल भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं। पर हैरान है यह देख कर कि ये घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। लोग सोचते हैं कि सीबीआई है, केन्द्रीय सतर्कता आयोग है फिर भी इस पर अंकुश क्यों नहीं लगता ? सीबीआई केन्द्र की सरकारों के हाथ में अपने विरोधियों को परेशान करने का एक औजार मात्र बन कर रह गई थी। इसीलिए जैन हवाला कांड की सुनवाई के बाद सर्चोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के हाथ मजबूत करने का फैसला लिया और एक की बजाए तीन सदस्यों वाले आयोग का गठन कर दिया और सरकार को आदेश दिया कि इस आयोग को पूर्ण स्वायतत्ता प्रदान की जाए।



होता यह आया था कि बड़े अधिकारियों और मंत्रियों आदि के भ्रष्टाचार के मामलों में जांच शुरू करने से पहले सीबीआई को सरकार से अनुमति लेनी होती थी। सरकार वर्षों अनुमति नहीं देती थी। इस तरह भ्रष्ट अधिकारी और मंत्री सरकार के ही संरक्षण में फलते-फूलते रहते थे। विनीत नारायण बनाम भारत सरकारनाम से मशहूर इस मुकद्दमें में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए कि वह कानून में बदलाव करके इस तरह की अनुमति लेने की बाध्यता को समाप्त कर दे। उस समय इस फैसले को देश के मीडिया ने ऐतिहासिक बता कर प्रमुख खबर बनाया। लोेगों को भी लगा कि अब हालात बदलेंगे। पर जब यह मामला कानून बनाने के लिए संसदीय समिति के पास पहुंचा तो श्री शरद पवार की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का जनाजा निकाल दिया। इसके बाद जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग कानूनबना उसमें आयोग की स्वायतत्ता दिखावा मात्र थी। असली नियंत्रण सरकार ने अपने पास ही रखा। जो भी हो आयोग का नया रूप सामने आया और अब इसमें तीन सदस्यों की नियुक्ति होने लगी। इन सदस्यों ने उत्साह से काम करना शुरू किया। जनता ने भी शिकायतों के ढेर लगा दिए। पर फिर जल्दी ही समझ में आया कि आयोग के पास भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए समुचित मात्रा में अनुभवी लोग ही नहीं हैं। मौजूदा मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री प्रत्यूष सिन्हा और उनके साथी सदस्य श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार ने इस समस्या का हल खोजा और तय किया कि क्यों न सेवानिवृत्त व ईमानदार छवि वाले वरिष्ठ अधिकारियों, बैंक प्रबंधकों व काॅरपोरेट मैंनेजमेंट के अनुभवी लोगों को बुला कर उनसे जांच करवाई जाए। ऐसा प्रस्ताव श्री सिन्हा ने सरकार को भेजा। सरकार कुछ फैसला ले पाती उससे पहले ही अदालत का एक आदेश आ गया कि आयोग को ऐसा करना चाहिए।



वैसे भी इस कानून के 8वें अनुच्छेद के तहत आयोग को अधिकार है कि आवश्यकता अनुसार वह सीधे जांच करवा सकता है। सामान्यतः आयोग यह जांच संबंधित विभाग के मुख्य सतर्कता अधिकारी व सीबीआई के अधिकारियों की मदद से करवाता है। पर यह प्रक्रिया काफी लंबी होती है और अपराधी को जल्दी सजा नहीं मिल पाती। भारत सरकार के विभाग, निगम और सार्वजनिक उपक्रम हर साल लगभग 1 लाख करोड रूपए की खरीदारी करते हैं। ये खरीदारी निविदाएं आमंत्रित करके की जाती हैं। अक्सर इनमें काफी घपले होते हैं। पर आयोग चाह कर भी इनकी जांच नहीं कर पाता। कारण आयोग के पास जांच करवाने के लिए अपने तीन सदस्यों के अलावा तीन सचिव, दो अतिरिक्त सचिव, 16 उप सचिव और लगभग 11 सीडीआई हैं। इनके अलावा मात्र दो चीफ इंजीनियर हैं। बाकी लगभग 250 कर्मचारी और हैं। यह अमला पूरी ताकत लगाने के बाद भी सरकारी खरीद के कुल मामलों में 5 फीसदी मामले भी पकड़ नहीं पाता। उनकी जांच करना तो दूर की बात है। इसलिए इन उपक्रमों में लगे भ्रष्ट लोगों के मन में आयोग का कोई खौफ नहीं। वे जानते हैं कि आयोग के पास इतने साधन ही नहीं कि वह उनके खिलाफ जांच कर सके। इसलिए बेखौफ हो कर काली कमाई में लगे रहते हैं।



श्री सिन्हा का कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह यह नियम बना दे कि सौ करोड रूपए सालाना से ज्यादा की खरीदारी करने वाले हर सौदे की जांच का अधिकार आयोग को होगा। फिर आयोग किसी भी सौदे की फाइलें मंगवा सकेगा। इससे निश्चित आयोग का डर बढ़ेगा। आज आयोग के पास गंभीर किस्म के लगभग 200 मामले विचाराधीन हैं पर उनको परखने वालों की कमी है। इसलिए अदालती आदेश के बाद आयोग ने फिलहाल 6 विशेषज्ञांे का पैनल बना लिया है। जिनमें से दो लोग प्रशासकीय अनुभव वाले हैं। दो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं और दो प्रबंधकीय क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। अब कोई शिकायत आने पर आयोग इन विशेषज्ञों की मौजूदगी में फैसला करता है कि उसे मामले की जांच करनी है या नहीं। पर इससे भी समस्या हल नहीं होती। इसलिए आयोग अपने सलाहकारों का पैनल बड़ा करना चाहता है। जिसमें ईमानदार, अनुभवी व बेदाग लोगों को रखा जाए और उनसे समय-समय पर शिकायतों की जांच करवाई जाए। ऐसे लोगों की सूची आयोग तैयार करना चाहता है जो पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से हर मामले की जांच करें और इन्हंे सम्मानजनक मानदेय भी दिया जाए।



इसके साथ ही एक सुखद शुरूआत और हुई है। बर्लिन पैक्टनाम से मशहूर एक फैसले ने भ्रष्टाचार को रोकने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। अब इसे भारत में भी लागू किया जाने लगा है। इसमें माल देने वाली फर्म और माल खरीदने वाली संस्था जैसे ओएनजीसी दोनों को एक साझे करार पर दस्तखत करने होते हैं। जिसमें दोनों पक्ष घूस न लेने और न देने की घोषणा करते हैं और ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल यह ध्यान रखती है कि समझौते की शर्तों का उल्लंघन न हो। आयोग इस परंपरा को आगे बढाना चाहता है।



सरकार को चाहिए कि वह आयोग को बाहर से विशेषज्ञ बुला कर जांच करवाने की अनुमति प्रदान करें और आयोग को चाहिए कि वह ऐसे विशेषज्ञों के चयन की प्रक्रिया को इतना पारदर्शी बनाए कि देश भर से सच्चे, ईमानदार, अनुभवी व कार्यकुशल लोग आयोग की मदद के लिए सामने आ सके। उनके अनुभव का फायदा उठा कर आयोग बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की जांच इनसे करवा सकता है। यह एक अच्छी पहल होगी। फिर भी अगर सरकार आयोग को यह अनुमति नहीं देती है तो यही मानना पड़ेगा कि सरकार नहीं चाहती की भ्रष्टाचार पर अकुंश लगे। तब यह देश के लिए दुःखद स्थिति होगी।

Saturday, September 1, 2007

किसानों की किसे परवाह है ?

 Rajasthan Patrika 01-09-2007
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोंटेकसिंह अहलुवालिया और कांग्रेस के प्रखर नेता व पंचायतराज मंत्री श्री मणि शंकर अय्यर सभी एक स्वर से कहते हैं कि आजादी के बाद कृषि की और किसानों की उपेक्षा की गई है। वहीं दूसरी ओर योजना आयोग किसानों की भागीदारी को 54 प्रतिशत से घटा कर 6 प्रतिशत पर लाना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो 70 करोड़ किसान बेरोजगार हो जाएंगे। पहले से ही बेराजगारी की मार झेल रही सरकार इन करोड़ों बेरोजगार किसानों को कहाँ ले जाएगी, यह बात समझ से परे है। जब देश के लगभग एक लाख किसानांे ने आत्महत्या की तो प्रधानमंत्री ने उन्हें आर्थिक पैकेज दिया लेकिन इस पैकेज के बाद भी देश में किसानों की आत्महत्याएं कम नहीं हुई हैं। अब भी देश में प्रतिदिन औसतन 14 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

आश्चर्य है कि किसानों के वोटों के सहारे संसद में पहुंचने वाले सांसद या बड़े-बड़े राजनैतिक दल कोई भी किसानों की बर्बादी के खिलाफ जोर-शोर से आवाज नहीं उठा रहा है। सरकार के पास खेती, किसानी और किसान के साथ ही गांवों की जिंदगी को बचाने के लिए आखिर क्या दृष्टि है ? क्या सरकार ठेका खेती, निगमित खेती, जींन्स संशोधित बीजों के आधार पर ही खेती करवाना चाहती है ? ऐसी खेती से तो योजना आयोग, विश्व बैंक या डब्ल्यूटीओ सब में सामंजस्य हो जाएगा। सरकार भी खुश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी खुश। लेकिन किसान नहीं बचेगा। खेती नहीं बचेगी। कुल मिला कर भारत सरकार चाहती है कि यूरोप और अमेरिका की तरह खेती किसान नहीं मल्टीनेशनल कंपनियां करें। सरकार ये भूल जाती है कि भारत में किसानों के लिए खेती न केवल जीवकोपार्जन का साधन हैं बल्कि जीने का एक तरीका भी है। भारतीय कृषि व्यवस्था में खेती, किसान, उसका परिवार, उसके मवेशी, उसका समाज, उसका परिवेश व उसका पर्यावरण सभी आपस में गंुथे रहते हैं। सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। इतना ही नहीं देश के धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव और त्यौहार भी खेती के वार्षिक क्रम से ही जुड़े हैं।

मल्टीनेशनल कंपनियों के हित को ध्यान में रख कर बनाई गई नीतियों से इन कंपनियों को मोटा लाभ तो दिया जा सकता है, लेकिन खेती को नहीं बचाया जा सकता। दुनियां में जींस संशोधित खेती के खतरों पर जो शोध हुआ है उससे यह स्पष्ट हैं कि पर्यावरण व स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। यही वजह है कि रासायनिक उर्वरकों के निर्माता अमेरिका व यूरोप में भी जैविक उत्पाद, रसायन उत्पादों की तुलना में डेढ गुने महंगे बिक रहे हैं। लोग स्वस्थ्य रहने के लिए और आने वाली पीढियों को बचाने के लिए जैविक उत्पाद ही खरीदना पसंद करते हैं। भारत की खेती तो परंपरागत रूप से ही जैविक थी। कहा गया अधिक से अधिक रासायनिक खाद डालो, कीटनाशक डालो तो फायदा होगा। हुआ इसका उल्टा ही, अब यह स्थिति आ गई है कि अनाज और सब्जियों के माध्यम से धीरे-धीरे जो रासायनिक जहर हमारे शरीर में पहंुच रहा हैं वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को बढा रहा है। शोध ने सब कुछ साबित कर दिया है लेकिन हुक्मरान थोड़े से लाभ के लालच में आंख मूंदे बैंठे है। कहावत है कि बिल्ली को देख कर कबूतर आंख बंद कर लेता है, पर क्या आंख बंद करने से देश का किसान व खेती बच सकती है ?

यह बड़े दुःख और चिंता की बात है कि भारत सरकार अपनी नीति से देश के करोडों किसानों की जिंदगी बर्बाद करने जा रही है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इसका मुखर विरोध नहीं कर रहा है। लगता है कि शहरी मानसिकता ने राजनैतिक नेतृत्व को गांवों के प्रति संवेदनाशून्य बना दिया है। गांव उजड़ें तो उजड़ जाएं, कृषि बर्बाद हो तो हो जाए पर हित दूसरों के साधे जाएंग,े अपनों के नहीं। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि चाहे पंजाब के किसान संगठन हों, भारतीय किसान यूनियन हो, कर्नाटक का रैयतबाड़ी संघ हो या महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन कोई भी किसानों के ऊपर मंडरा रहे खतरों के बादलों को देख नहीं पा रहा है। कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं खड़ा हो रहा है। मध्य प्रदेश की किसान संगठन समिति के संस्थापक अध्यक्ष डा. सुनीलम का आरोप है कि राजनेता और बुद्धिजीवी शहर केन्द्रित हो गए हैं और गांवों की सोचना भी नहीं चाहते। आज अमेरिका से परमाणु संधि पर तो देश में इतना शोर मच रहा है। पर देश के कृषि क्षेत्र में अमेरिकी घुसपैंठ से हम सब काफी अनजान हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर कब्जा करके अमेरिका नव-साम्राज्यवाद का विस्तार करना चाहता है। ऐसा लगता है कि अमेरिका को जहां-जहां संसाधन दिखाई देते हैं वहीं-वहीं वह अपनी छुपी रणनीति के तहत काम कर रहा है।

भारत की पूरी खेती ‘इंडो यूएस नाॅलेज इनिशिएटिव’ के नाम पर शहीद की जा रही है। कृषि शोध संस्थानों, भारत के कृषि विश्वविद्यालयों और भारत की कृषि की दिशा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले छोड़े जाने की साजिश की जा रही है। इसी कार्यक्रम के तहत अमेरिका के साथ हो रहे कृषि समझौते की दिशा को तय करने के लिए बनें बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों को न रख कर कारगिल और मोनसेंटों जैसी दुर्दान्त कंपनियों के प्रतिनिधियों को रखा गया है। इस देश के कृषि वैज्ञानिकों के योगदान की यह अनोखी उपेक्षा किसी और विकासशील देश में शायद ही देखने को मिले। देश के कृषि वैज्ञानिकों ने देश को खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर बनाया था। पर जब कृषि योग्य भूमि व उससे जुड़े अनेक पहलुओं पर समझौते हो रहे हैं तो बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रखा जाना, देश के हुक्मरानों की कैसी नीति है ? जनता को भी यह सवाल करना चाहिए कि क्या भारत के कृषि वैज्ञानिकों पर भारत सरकार का भरोसा पूरी तरह से समाप्त हो गया है? सरकार यह कह सकती है कि पहली हरित क्रांति के पक्ष में तो आप थे तो अब दूसरी हरित क्रांति का विरोध क्यों कर रहे हैं ? दरअसल दोनों में अंतर है।

विरोध इसलिए कि तब कृषि वैज्ञानिकों ने भारत के किसानों को तकनीकी सांैपी थी। अब तकनीकी का पेंटेंट कंपनियों के पास हैं, जिससे वे अधिकतम मुनाफा कमाना चाहती हैं। अमेरिका के साथ हो रही परमाणु संधि की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन कृषि समझौता सुनियोजित तौर पर दबा दिया गया है। जबकि परमाणु संधि की तरह ही सरकार की यह पहल भी राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह ही खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। आखिरकार सरकार सब कुछ क्यों इन कंपनियों को सौपना चाहती हैं ? पहले पीने का पानी, फिर बीज और अब किसानों की जमीनें भी कंपनियांे को सौपी जा रही हैं। कृषि उपयोगी भूमि का कंपनियों को हस्तांतरण किसी भी हालत में रोका जाना चाहिए। किसानों की यदि 100 एकड़ जमीन कंपनी को दी जाती है तो उसमें से 25 एकड भी कंपनी वास्तविक उपयोग में नहीं लाती। यह पूरा रीयल स्टेट बिजनेस बन गया है। इसलिए किसान चिंतित और उत्तेजित हैं। सोचने वाली बात है कि देश का किसान अपनी कुर्बानी देकर भी एसईजेड का विरोध क्यों कर रहा है ? जिन देशों को हम आज विकसित राष्ट्र कहते हैं उनमें भी एसईजेड के माध्यम से तरक्की नहीं हुई। हमारी सरकार 2 लाख करोड़ रू. की सब्सिडी कंपनियों को दे रही है। पर खेती के लिए 50 हजार करोड सब्सिडी की बात आती है तो देश के वित्तमंत्री कहते हैं कि संसाधन कहां से आएगा। इच्छा शक्ति होने पर संसाधन जुटाए जाते हैं, जुटाए गए हैं लेकिन केन्द्र सरकारों की पूरी प्राथमिकता आजादी के बाद शहरों और उद्योगों के लिए रही। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का गांधी का रास्ता अगर अपनाया गया होता तो नतीजा आज किसानों की आत्म हत्या के रूप में नहीं बल्कि कुछ अलग ही होता। गांधी की विरासत का झंडा लेकर चलने वाली सरकार को तो इस पूरे मामले पर खुले दिमाग से फिर से सोचना चाहिए। कृषि सुधरे पर किसानों को बर्बाद करके नहीं, उन्हें खुशहाल बना कर, वरना गांव उजड़ेंगे, शहरों पर बोझ बढेगा, हिंसा बढेगी और देश में अराजकता फैलेगी।