Rajasthan Patrika 31 July |
पहली अगस्त से शुरू होने वाला संसद सत्र भारी हंगामे का होगा। वामपंथी दलों सहित सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। इतने सारे मुद्दे हैं कि सरकार के लिए गाड़ी खींचना आसान न होगा। मंहगाई की मार यानि आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि, पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में बार-बार वृद्धि, डीजल के दामों में वृद्धि आदि किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं और आम मतदाता परेशान है। विपक्ष इसका पूरा फायदा उठायेगा। पाकिस्तान को सोंपी गई मोस्ट वान्टेड लिस्ट के मामले में सरकार ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इस लापरवाही को अनदेखा नहीं किया जाएगा। बाबा रामदेव के धरने में, रामलीला मैदान में, शांतिपूर्वक बैठे लोगों पर केन्द्र सरकार की बर्बर कार्यवाही को लेकर जनता में नाराजगी है। उधर नई भूमि अधिग्रहण नीति-विधेयक मसौदा भी काफी विवादास्पद है।
ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।
इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।
इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
सबसे रोचक विषय तो लोकपाल बिल रहेगा। जहाँ टीम अन्ना ने सरकारी बिल को मनलोकपाल (मनमोहन सिंह) कहकर इसका मजाक उड़ाया है और सरकार पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है, वहीं यह बात भी सही है कि सरकारी लोकपाल बिल काफी लचर है और जनता की अपेक्षाओं खरा नहीं उतरता। इसलिए टीम अन्ना इस मामले को लेकर जनता को उत्तेजित करने का प्रयास करेगी। अगर उसे पहले की तरह टी.वी. चैनलों का असामान्य समर्थन मिला तो वह सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। विपक्षी दल इस मामले में लामबंद हो चुके हैं। वे सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए संसद में इस मामले पर भी सरकार को घेरेंगे। यह बात दूसरी है कि जब टीम अन्ना विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से मिली तो उसे किसी दल ने भी उसके जन लोकपाल बिल के समर्थन में कोई आश्वासन नहीं दिया। निजी बातचीत में तो हर दल का नेता पत्रकारों से यही कहता रहा कि टीम अन्ना की मांग और तरीका दोनों ही नाजायज हैं। वे कहते हैं, ‘यह सत्याग्रह नहीं, दुराग्रह है।’ पर संसद में राजनैतिक लाभ लेने की दृष्टि से विपक्षी दल इस मुद्दे पर टीम अन्ना के साथ खड़े होने का नाटक जरूर करेंगे।
जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?
उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।
जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?
उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।