Friday, February 15, 2002

अब गोपनीय नहीं रह पाएंगे स्विसबैंकों के खाते

दुनिया भर के भ्रश्ट तानाषाह, सेनाध्यक्ष, राजनेता, नषीली दवाओं के तस्कर, हथियारों के सौदागर, बड़े नौकरषाह और उद्योगपति भी लंबे अर्से से अपनी अवैध अकूत दौतल स्विसबैंकों में जमा करते आए हैं। क्योंकि इन बैंकों में जमा की गई दौलत की थाह नहीं पाई जा सकती थी। दूसरे देषों की सरकारें तो दूर स्वीट्जरलैंड की सरकार भी इन खातों का पता नहीं लगा सकती। इसलिए दुनिया के किसी भी हिस्से में धन क्यों न कमाया जाए उसे स्विसबैंकों के खातों में ही जमा किया जाता था। एक अनुमान के अनुसार दुनिया की 40 फीसदी से ज्यादा दौलत स्वीट्जरलैंड में जमा है। षेश 60 फीसदी दौलत दुनिया के बाकी देषों में है। इतनी सारी दौलत को सहेज कर रखने में स्विस नागरिकों को कतई दिक्कत नहीं आती। दरअसल, बैंकिंग व्यवसाय उनके रक्त और संस्कारों में बसा है। वे इसे राश्ट्रीय गौरव मानते हैं। अनेक परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इन बैंको में काम करते आए हैं। ये लोग अपने काम के बारे में इतने गोपनीय होते हैं और समाज में इतने सिमटे रहते हैं कि इनसे कुछ भी उगलवाना संभव नहीं होता। यही कारण है कि पिछली सदियों के राजे-महाराजे भी अपना धन इन बैंकों में जमा करते थे। कई बार ऐसा भी होता है कि धन जमा करने वाला अचानक चल बसा और उसके स्विसबैंक में चल रहे गोपनीय खाते की जानकारी उसके साथ ही चली गई। नतीजतन उसके वारिसों को भी यह धन नसीब नहीं हुआ। ऐसे तमाम लोगों का लावारिस धन स्विसबैंक के खातों और लाॅकरों में पड़ा है।

स्विसबैंक में खाता खोलने का तरीका भी बड़ा जटिल और गोपनीय है। बैंक के मैनेजर और कर्मचारियों तक को नहीं पता होता कि किस खाते में किस व्यक्ति की रकम है। इस व्यवसाय के जानकार बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी अकूत दौलत स्विसबैंक में जमा करने आता है तो वह बैंक के मैनेजर से संपर्क करता है। यदि मैनेजर को लगता है कि यह ग्राहक ठीक-ठाक है तो वह उसे बैंक के दो ऐसे अधिकारियों से मिलवा देता है जो उस व्यक्ति का खाता खुलवाने का काम करते हैं। ये दो या तीन व्यक्ति उन अधिकारियों में से होते हैं जिनकी विष्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इन्हें नए खाताधारी का बैंकिंग सचिव कहा जाता है। खाता खोलने की सब औपचारिकताएं ये ही पूरी करवाते हैं और सब कागजात पूरे हो जाने के बाद खाताधारी को स्विसबैंक का एकाउंट नंबर दे देते हैं। किंतु अपनी फाइल में असली खाता नंबर न डालकर एक कोड नाम डाल देते हैं। मसलन अगर खाता खोलने वाले का नाम राजकुमार लालवानी है तो उसके खाते का नंबर हो सकता है प्रिंस रेड 98। खाते का नंबर ग्राहक को बताने के बाद उसका कोड फिर बदल दिया जाता है और अब संबंधित बैंकिंग सचिव इस खाते से संबंधित फाइल को बंद करके एक ऐसे कक्ष में ले जाते हैं जहां काउंटर के ऊपर धुंधले कांच की दीवार बनी होती है। इस दीवार की तली में जो बारीक-सी झिरि होती है उसमें से होकर नए खातेदार की यह गोपनीय फाइल दूसरी तरफ सरका दी जाती है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति उस फाइल को लेता है उसे यह नहीं पता होता कि यह फाइल किसकी है और षीषे के बाहर से फाइल देने वाले बैंकिंग सचिवों को यह नहीं पता होता कि षीषे के दीवार के पीछे इस फाइल को किसने लेकर लाॅकर में रखा है। इस तरह नए खातेदार के खाते से संबंधित जो पांच-छह लोग होते हैं उनमें से किसी को भी पूरी जानकारी नहीं होती।

इस काम में जो कर्मचारी लगे होते हैं वे बैंक के विष्वसनीय अधिकारी होते हैं और इस बात के प्रति आष्वस्त हुआ जा सकता है कि गोपनीय जानकारी बाहर नहीं जाएगी। ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का ही हुई हैं। मजे की बात तो यह है कि स्विसबैंक में धन जमा करने वालों को ब्याज मिलना तो दूर इस धन के संरक्षण के लिए उन्हें नियमित फीस देनी होती है। इस तरह स्वीट्जरलैंड में अथाह धन जमा हो गया है। आबादी थोड़ी सी, जीवन स्तर में ज्यादा तड़क-भड़क की गुंजाइष नहीं इसलिए उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा धन उनके लिए उपलब्ध है। स्विस नागरिक अब तक यह मानते आए थे कि धन कहां से आ रहा है इसका उनसे कोई सारोकार नहीं। उनके लिए हर तरह के धन का रंग समान था और वे किसी का भी धन लेने में संकोच नहीं करते थे। वे बैंकिंग को षुद्ध आर्थिक व्यवसाय के रूप में देखते थे। पर अब स्थिति बदल रही है।

अब उन्हें भी पता है कि दुनिया भर मे गरीबी, कुपोशण व भूख बढ़ती जा रही है। दुनिया के तमाम देषों के भ्रश्ट नेता और नौकरषाह अपने भ्रश्ट आचरण के कारण जनता को दुख दे रहे हैं। नषीली दवाओं के सेवन से समाज और बचपन प्रदूशित हो रहे हैं। ऐसे माहौल में स्वीट्जरलैंड दुनिया के प्रति सारोकार से उदासीन होकर नहीं रह सकता। मानवीय संवेदनाओं से षून्य होकर भी नहीं रह सकता। जब दुनिया भर के अपराधी स्वीट्जरलैंड में चोरी का धन छुपाएंगे तो स्वीट्जरलैंड इस अनैतिकता के पाप का भागीगार बने बिना नहीं रह सकता। ऐसे विचारों ने स्वीट्जरलैंड के नागरिकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया। इसके साथ ही दुनियाभर में स्विसबैंकों के खातों के प्रति जागरूकता और उनमें अवैध रूप से जमा अपने देष का धन वापस देष में लाने की मांग कई देषों में उठने लगी। इस सबका नतीजा यह हुआ कि स्विस नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन किया। चूंकि स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है इसलिए वहां हर कानून बनने के पहले जनता का आम मतदान कराया जाता है। बहुमत मिलने पर ही कानून बन पाता है। इसलिए जब स्विस नागरिकों को नैतिक दायित्व का एहसास हुआ तो उन्होंने एक कानून बनाया जिसके अनुसार अब स्विसबैंकों में खोले गए खाते गोपनीय नहीं रहेंगे। स्वीट्जरलैंड की या अन्य किसी भी देष की सरकारें इन खातों की जानकारी प्राप्त कर सकती हंै। इसके लिए करना सिर्फ यह होगा कि संबंधित देष को उस व्यक्ति के खिलाफ, जिसके स्विस खाता होने का संदेह है, एक आपराधिक मामला दर्ज करना होगा। इसके बाद उस देष की सरकार स्वीट्जरलैंड की सरकार को आधिकारिक पत्र लिखेगी जिसमें उस व्यक्ति के विरूद्ध दर्ज आपराधिक मामले का हवाला देते हुए स्वीट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करेगी कि वह पता करके बताए कि उस व्यक्ति का कोई गोपनीय खाता स्वीट्जरलैंड के बैंकों में तो नहीं है ? इस पत्र के प्राप्त हो जाने के बाद स्वीट्जरलैंड की सरकार सभी बैंकों इस पत्र की प्रतिलिपियां भेजेगी और उन बैंकों से यह जानकारी मांगेगी। अगर किसी बैंक में संबंधित व्यक्ति का गोपनीय खाता चल रहा होगा तो बैंक को उसकी पूरी जानकारी अपनी सरकार को देनी होगी। स्वीट्जरलैंड की सरकार यह जानकारी संबंधित देष में भेज देगी। आवष्यकता पड़ने पर वह गोपनीय खाते में जमा रकम को भी उस देष को लौटा देगी। ऐसा कई मामलों में हो चुका है। इसलिए अब स्विसबैंकों में जमा अवैध धन गोपनीय नहीं रह सकता। बषर्तें कि खाताधारक के विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज हो।

स्वीट्जरलैंड में इस नए कानून के बन जाने से दुनिया के उन देषों की सरकारों को बहुत सहुलियत होगी जिन देषों का अवैध धन इन बैंकों में जमा है। अब तो बस किसी भी सरकार को इतना सा करना है कि वह ऐसे व्यक्तियों के विरूद्ध, चाहे वे कितने ही ऊंचे पद पर क्यों न बैंठे हों, केस दर्ज कराए और स्वीट्जरलैंड के बैंको में उनके खातों की जांच करवाए। जो भी सरकार अपनी साफ छवि होने का दावा करती है या जो प्रधानमंत्री भी यह दावा करते हैं कि देष को भ्रश्टाचार मुक्त प्रषासन देंगे उनका यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे लोगों के विरूद्ध कार्रवाही करें जिन पर जनता की अकूत दौलत होने के संदेह हैं। ऐसे लोगों को चिराग लेकर ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्हें सब जानते हैं। यहां तक कि उनके इलाके के आम नागरिक भी। हां अगर गरीब देषों की सरकारें ही अपने देष का धन वापिस अपने देष में न लाना चाहें तो कोई क्या कर सकता है ?

पुरानी कहावत है कि तू डाल-डाल तो मैं पात-पात। जबसे स्वीट्जरलैंड में यह कानून बना है तब से ही इससे निपटने के नए तरीके ईजाद कर लिए गए हैं। अब माॅरीषस जैसे तमाम देषों में नकली कंपनियां रजिस्टर कराई जाती हैं। जिनके षेयर पूरी दुनिया में जारी किए जाते हैं। अवैध रूप से अर्जित धन के स्वामी इन षेयरों को छद्म नामों से खरीद लेते हैं। इस तरह वे अपनी अवैध दौलत कंपनी के खाते में जमा करवा देते हैं। ये कंपनियां फिर स्वीट्जरलैंड के बैंकों में कंपनी के नाम से खाते खोल लेती हैं। इस तरह स्वीट्जरलैंड के नए कानून को भी धता बता कर अवैध धन को जमा करने का सिलसिला जारी हैं। पर जब कभी स्वीट्जरलैंड के जागरूक नागरिकों की तरह ही अन्य देषों के नागरिक भी इस गोपनीय व्यवस्था के विरूद्ध उठ खेड़े होंगे तो स्विजबैंकों में जमा अवैध रकम के अपने-अपने देष में वापस लाने के रास्ते खुल जाएंगे।

अब यह दारोमदार तो तीसरी दुनिया के देषों के नागरिकों और उनकी सरकारों पर है। यदि वे स्वीट्जरलैंड में जमा अपने देष का धन वापिस देष में लाना चाहते हैं तो उन्हें सक्रिय होना ही पड़ेगा। स्वीट्जरलैंड के नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन करके यह बता दिया कि वे षेश दुनिया के सारोकार के प्रति उदासीन नहीं हैं। अब तो गेंद बाकी देषों के नागरिकों और सरकारों के पाले में है। फैसला उन्हें ही करना है।

Friday, February 1, 2002

संत चेतावनी यात्रा कितनी सफल ?


अयोध्या में श्री राम मंदिर के निर्माण की मांग को लेकर विश्व हिंदू परिषद की चेतावनी यात्रा उत्तर प्रदेश से जब दिल्ली पहुंची तो जनता में इसे लेकर कहीं भी उत्साह दिखाई नही दिया। यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले नगरों और गांवों में आम जनता में यात्रा को कौतुहलवश देख भले ही लिया हो पर किसी के मन में यात्रा के प्रति न तो आकर्षण था और न सम्मान। हर आदमी यही कह रहा था कि ये यात्रा महज स्टंट बाजी है और उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा को मदद करने का विहिप का एक शगूफा। देहात के लोगों ने तो संत चेतावनी यात्रा को ढोंग तक बताया और साफ कहा कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। लोगों का कहना था कि भाजपा हिंदू धर्म का कार्ड खेलकर अब हिंदुओं को और मूर्ख नहीं बना सकती। हर आदमी को पता चल चुका है कि भाजपा हिंदू धर्म के सवालों को उठाकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करती आई है। पर सत्ता में आने के बाद उसके तमाम वरिष्ठ नेताओं ने हिंदू धर्म के मुद्दों से पल्ला झाड़ लिया। जय श्रीरामके गगनभेदी नारे लगाने वाले भाजपाइयों ने सत्ता में आते ही इस नारे को भुला दिया। कई वर्ष बाद जब संत चेतावनी यात्रा में ये नारे फिर से लगाए गए तो जनता ने इन्हें नहीं दोहराया। इससे पहले भी विहिप के कई कार्यक्रम असफल हो चुके हैं। श्री कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति के लिए मथुरा में विहिप द्वारा बुलाया गया सम्मेलन और यज्ञ अनुष्ठान का कार्यक्रम फ्लाप ही रहा था।
पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाकों में आयोजित जनसभाओं में संघ के प्रचारकों को धार्मिक प्रवचनकरते हुए देखा जा सकता था। ये जनसभाएं स्थानीय आबादी को धर्म के नाम पर आकर्षित करके 27 जनवरी के कार्यक्रम में भेजने को प्रेरित करने के लिए थीं। इन जनसभाओं में संघ के प्रचारकों ने जनता को अयोध्या के महत्व, मंदिर निर्माण की आवश्यकता और भक्ति में शक्ति के संकेत दिए। इस सभा में आई हुई साधारण महिलाओं को यह कह कर लुभाने की कोशिश की गई कि वे 27 जनवरी को दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में ज्यादा से ज्यादा तादाद में पहुंच कर संतों का आशीर्वाद प्राप्त करें। महिलाएं स्वभाव से ही धार्मिक और भावुक होती हैं। हर किसी को जीवन की समस्याओं ने घेर रखा है। इसीलिए लोग धर्म स्थानों और साधु संतों की शरण में जाते हैं। ताकि उन्हें आशीर्वाद मिल सके और उनके जीवन के कष्ट कुछ कम हो सके। इसलिए संघ के प्रचारकों ने विशेषकर महिलाओं को लुभाने की कोशिश की। पर यहां भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इस तरह विहिप द्वारा आयोजित संत चेतावनी यात्रा अपने उद्देश्य में असफल रही। मीडिया ने भी इस यात्रा को विशेष तरजीह नहीं दी। यात्रा के दौरान जिन नगरों में इसका स्वागत, सत्कार हुआ भी उनमें भी केवल वहीं लोग शामिल थे जो भाजपा के पदाधिकारी थे या उसके कार्यकर्ता। जिन्हें इस यात्रा से राजनैतिक लाभ कमाने की उम्मीद थी। संत चेतावनी यात्रा की इस असफलता के कारण भाजपा के खेमों में चिंता व्याप्त है। सार्वजनिक रूप से भाजपाई नेता भले ही उत्तर प्रदेश चुनाव में अपनी सफलता की घोषणाएं कर रहे हों पर वे भी जानते हैं कि मंदिर के सवाल पर अब उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को बरगलाया नहीं जा सकता। वैसे ंिहंदुओं के मन में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति राजनैतिक चेतना जागृत करने में विहिप व भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक संस्कृति के शाश्वत ज्ञान को समसामयिक संदर्भ में सार्थक उपयोग करने के लिए यह जरूरी है कि सत्ता में बैठे लोग धर्म निरपेक्षता के नाम पर वैदिक संस्कृति के बहुमूल्य खजाने की उपेक्षा न करें। भाजपा से ऐसी उम्मीद थी जो पूरी नहीं हो रही है। इसलिए विहिप और आडवाणी जी को भी इस विषय पर मंथन करना होगा ताकि बहुजनहिताय गाड़ी फिर से ढर्रे पर चल सके।
दरअसल पिछले तीन वर्षों में, जबसे केंद्र में राजग की सरकार बनी है, तब से इसके प्रमुख घटक भाजपा का हिंदुओं के प्रति रवैया बड़ा विचित्र रहा है। भाजपा के जो बड़े नेता अयोध्या आंदोलन के दौरान पूरे देश में घूम-घूम कर जनसभाओं में सिंह गर्जना करते थे कि, ‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे।या बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का’, वही नेता सत्ता में आने के बाद यह कहने लगे कि मंदिर हमारा मुद्दा नहीं है। इससे पूरे देश में बहुत गलत संदेश गया। हिंदुओं को लगा कि भाजपा ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। कहां तो राम रथ यात्रा, अयोध्या कार सेवा और शिलान्यास के लिए हर हिंदू के घर से सहयोग लिया गया था। राम राज्य लाने के सपने दिखाए गए थे। हर गांव से शिलापूजन करके अयोध्या भेजी गई थी। कहां अब ये हाल हो गया कि अयोध्या का नाम तक लेने में भाजपा के नेता बचने लगे। जिस समय अयोध्या आंदोलन की शुरूआत हुई उस समय आम जनता में भाजपा के नेताओं की अच्छी छवि थी। भाजपा को अनुशासित, राष्ट्रनिर्माण के लिए समर्पित और भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक दल माना जाता था। कई दशकों तक भाजपा ने विपक्ष में रह कर सड़कों पर लड़ाई लड़ी थी। इसलिए जनता में उसकी जुझारू छवि भी थी। इसलिए जनता को बड़ी उम्मीद थी कि भाजपा जब सत्ता में आएगी तो एक नए किस्म की शासन व्यवस्था देखने को मिलेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। इससे भी लोगों के दिल टूट गए। चूंकी एक एक करके सभी दल सत्ता में आ चुके हैं और किसी ने भी ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे वह दूसरे से बेहतर सिद्ध होता इसलिए अब जनता के मन में किसी भी दल के प्रति आकर्षण या सम्मान नहीं बचा है। बेचारी जनता मजबूरी में ताश के पत्तों की तरह दलों को फंेटती रहती है। इसके चलते जातिवाद और तेजी से बढ़ रहा है। आम लोगों के मन में ये बात बैठ रही है कि फायदा तो उन्हें किसी भी दल से नहीं मिलना तो क्यों न अपने ही जाति वाले को वोट दो ? नतीजतन उत्तर प्रदेश के चुनाव में अलग-अलग जातियों के प्रभुत्व के अनुसार दर्जनों दल सक्रिय हैं। चुनाव के बाद का परिदृश्य बहुत लुभावना नहीं होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त सब्जी मंडी की तरह होगी। जिससे प्रशासन में और भी भ्रष्टाचार और लूट-खसोट बढ़ेगी। इसलिए कुछ चुनाव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश की जनता ऐसी परिस्थिति में किसी एक दल को बहुमत देकर सबको चैंका न दे। वह दल कांग्रेस भी हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबने कांग्रेस को साफ कर दिया था और भाजपा की सरकार बनने के दावे बढ़-चढ़ कर टीवी चर्चाओं में किए जा रहे थे। दावा करने वाले भाजपाई नेता नहीं बल्कि टीवी के मशहूर चेहरे थे। पर जब मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम आए तो हर आदमी भौचक्का रह गया। वहां की जनता ने दुबारा सत्ता कांग्रेस के हाथ में सौप दी। ऐसा उत्तर प्रदेश में भी अगर होता है तो कोई अजीब बात नहीं होगी अलबत्ता यह जरूर है कि जनता कांग्रेस से आकर्षित होकर कम और दर्जनों दलों कि साझी सरकार बनने की संभावना से डर कर ज्यादा कांग्रेस को वोट दे सकती है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। प्रियंका के आने पर इसकी संभावना बढ़ जाएगी।
जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा को पांच वर्ष के शासन में चार बार मुख्यमंत्री बदले पड़े। गुजरात में केशूभाई पटेल और नरेन्द्र मोदी के बीच लगातार युद्ध होता रहा। आखिरकार केशूभाई पटेल को जाना पड़ा। वहीं केरल में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हों या मध्य प्रदेश, दिल्ली या राजस्थान में, बेखटक लगातार राज भी कर रहे हैं और कुछ नया करने की कोशिश भी कर रहे हैं। इससे देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि कांगे्रस ही देश को सुगमता से चला सकती है। जबकि दूसरे सभी दल सत्ता में आते ही सिर फुटव्वल शुरू कर देते हैं। जिससे जनता का भला होना तो दूर  राजनैतिक अनिश्चितता बनी रहती हैं। इसके साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि इंका की प्रांतीय सरकार भी चालू व्यवस्था में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पा रहीं हैं। इतना जरूर है कि उसके कई मुख्यमंत्रियों की कार्यशैली और छवि भाजपा के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कहीं बेहतर है।
जहां तक भाजपा के हिंदू वोट बैंक के भाजपा से निराश होने का सवाल है तो इस पर भाजपा नेतृत्व का स्पष्टीकरण बड़ा रोचक है। वे कहते हैं कि बहुमत के अभाव में हम संघ और भाजपा के मूल एजेंडा को लागू करने में असमर्थ हैं। फिर भी जो कर सकते हैं कर रहे हैं। इसके लिए वे जनता से पूर्ण बहुमत देने की मांग करते हैं। पर इस बात का भाजपा नेतृत्व के पास कोई उत्तर नहीं कि गोविन्दाचार्या सरीखे समर्पित स्वयं सेवकों को दरकिनार कर  व मल्टीनेशनल्स् के दलालों को अपना नेता बना कर उनका दल क्यों दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहा है? क्या भाजपा के पास इससे बेहतर लोग नहीं हैं ? या फिर भाजपा भी सत्ता के माया जाल में फंस चुकी है और उन लोगों के इशारे पर नाच रही है जो स्वार्थपूर्ति के लिए देश और समाज के हित का बलिदान देने को भी हमेशा तैयार रहते हैं। हो सकता है कि ऐसे लोगों से दल को वित्तीय मदद मिलती हो, पर क्या यह इतनी बड़ी उपलब्धि है कि इसके लिए संघ के लोगों की भावनाओं का भी तिरस्कार कर दिया जाए ? उन लोगों का जो दशकों से त्याग, तपस्या का जीवन जीकर संगठन को खड़ा करते आए हैं। अगर भाजपा का तर्क यह है कि अल्पमत में होने के बाद, सत्ता चलाने के लिए अनेक तरह के दबावों में काम करना पड़ता है तो प्रश्न उठेगा कि फिर भाजपा दूसरे दलों से बेहतर दल कहां रहा ? इस पर अगर भाजपा यह स्वीकार भी कर लेती है कि उसका दल दूसरे दलों से गुणात्मक रूप में बेहतर नहीं तो फिर उसे समर्थन ही क्यों दिया जाए ? फिर तो सभी दल एक से हैं। ऐसे तमाम सवाल आज उत्तर प्रदेश की जनता के मन में उठ रहे हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर कोई भी तस्वीर साफ नहीं है।
दलों में आंतरिक लोकतंत्र का लोप होना, एक व्यक्ति का दो पद स्वीकारना, दलों में नैतिक नेतृत्व को दरकिनार करना, बिना आम आदमी को राहत दिए दुनिया विकसित देशों से होड़ करना, कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें सत्ता में आने के बाद हर दल करता है। यही उसके पतन का कारण बनते हैं। चुनाव जीतने और सत्ता पर काबिज होने के लिए कुछ जोड़-तोड़ करना या कुछ अनैतिक काम करना अगर दलों की मजबूरी है, तो उससे बचा नहीं जा सकता। पर इसके साथ यह भी जरूरी है कि दल के समर्पित लोगों को पूरा सम्मान और महत्व दिया जाए और सत्ता का अधिक से अधिक विक्रेंद्रीकरण किया जाए। यदि ऐसा होता है तो पारस्परिक दबाव और अंकुश से कोई भी दल अपनी गरिमा बचाए रख सकता है और जनता को भी फायदा पहुंचा सकता है, चाहे भाजपा हो या इंका या सपा। कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है पर दुर्भाग्य से हमारे राजनैतिक दल प्राइवेट लि. कंपनी की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में इस देश का लोक और तंत्र दोनों राम भरोसे ही है।