आगामी 25 जुलाई तक यूरोप के बाजारों से 320 कीटनाशक उत्पादन हटा दिए जाएंगे। इस तरह यूरोप के बाजारों में बिकने वाले कीटनाशक उत्पादनों का 60 फीसदी उत्पादन और विक्रय बाजार से हटा दिया जाएगा। यह तो पहला चरण है दूसरे चरण में क्रमशः शेष कीटनाशक भी हटा दिए जाएंगे। इससे सिद्ध होता है कि अब पश्चिम के देशों को कीटनाशकों के घातक प्रभावों को लेकर चिंता हो गई है। जहां पश्चिमी देशों को अपनी ही वैज्ञानिक खोजों के बूरे परिणामों से घबड़ाहट होने लगी है वहीं हम भारत के किसान मूर्खतावश आज भी कीटनाशकों का प्रयोग अंधाधुन्ध किए जा रहे हैं। किए ही नहीं जा रहे हैं बल्कि उसकी मात्रा बढ़ाते जा रहे हैं। सारे देश के मंडियों में बिकने वाले फल और सब्जी कीटनाशकों के कूप्रभाव से इस कदर प्रभावित हो चूके हैं कि वे हमारी सेहत सुधारने की बजाए हमारी जीवन के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। ऐसे खतरे को जब पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों ने देखा तो उन्हें अपनी करनी पर पछतावा हुआ। इसलिए वे फिर वैदिक युग की कृषि प्रणाली की ओर लौटने लगे हैं। वो दिन दूर नहीं जब सारी दुनिया फिर से गाय की गोबर की खाद और प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बने कीटनाशकों पर आधारित कृषि व्यवस्था की ओर लौट आएगी।
फिलहान बात यूरोप की है। यूरोपीयन यूनियन ने अपने सदस्य देशों के पौधों और वनस्पति की रक्षा के उद्देश्य से यह कठोर कदम उठाया है। ऐसा कड़ा कदम उठाने से पहले यूरोपीय कमिश्न ने इन कीटनाशकों के उत्पादकों को यह विकल्प दिया था कि अगर वे चाहें तो वैज्ञानिक परीक्षा से गुजर कर यह सिद्ध कर दें कि उनके उत्पादनों का वनस्पति, खेती और मानव स्वास्थ्य पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़ रहा। मजे की बात ये है कि एक भी उत्पादक इस वैज्ञानिक परीक्षा से गुजरने को राजी नहीं हुआ। उन्होंने इन उत्पादनों को बाजार से हटाने के आदेश को कोई चुनौती नहीं दी। अब जरा भारत की स्थिति देखिए हर तरह का कीटनाशक भारतीय बाजारों में खुलेआम धड़ल्ले से बिक रहा है। किसान अंधे होकर इनका प्रयोग कर रहे हैं। कोई देखने-जांचने वाला नहीं है। जिस तरह यूरोपीय कमिश्न ने इन पर प्रतिबंध लगाया उस तरह भारत सरकार भी यह कड़ा कदम उठा सकती है इस तरफ कुछ प्रयास तो हुए भी हैं पर उनका असर अभी जमीन पर दिखाई नहीं दे रहा। भ्रष्टाचार से ग्रस्त सरकारी व्यवस्था के चलते ऐसे प्रतिबंधों का भारत में वैसे भी कोई खास महत्व नहीं होगा। जिन राज्यों में शराबबंदी की जाती है वहां धड़ल्ले से शराब बिकती है। बाकी देश की बात छोड़ भी दें तो अकेले राजधानी दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे से धड़ल्ले से तमाम कानून तोड़े जाते हैं। ऐसे में अगर कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने वाली सरकारी एजेंसियां कितनी प्रभावी हो पाएंगी, यह कहना कठिन है। इस बारे में तो किसानांे को ही जागना होगा। किसान हमारे अन्यदाता हैं। अगर उनके हाथों जाने-अनजाने भारतवासी कीटनाशकों के रूप में जहर खाने को मजबूर कर दिए जाएं तो इस पाप के भागी किसान ही बनेंगे। पूरी की पूरी पीड़ी रोगग्रस्त, निर्बल और क्रांतिहीन हो जाएगी। फिर वो चाहे शहरी लोगों की हो या देहाती।
पाठकों की जानकारी के लिए कुछ ऐसे कीटनाशकों की सूची यहां जारी की जा रही है जिन पर यूरोप में पूरी तरह प्रतिबंध लग चूका है जबकि भारत में इन खतरनाक कीटनाशकों का प्रयोग आज भी जारी है। ये है एथ्रीन, बूटाच्लोर, क्लोरोफेनविनफाॅस, डालापाॅन, डिक्लोरप्रोप, इथियोन, फेनोक्शाप्रोप, फेनप्रोपथ्रिन, फोरमोथियोन, इशोप्रोथिओथियोलन, मेटोचेच्लोर, फोरेट, आॅक्सीकाॅरबोसिन आदि इन कीटनाशकों के वैज्ञानिक नाम हैं। भारतीय बाजारों में इन्हें अलग-अलग व्यावसायिक नामों से बेचा जाता है। इसलिए किसानों को इनकी जांच संभाल कर करनी होगी। जैसे पीने के पानी को विसलरी या एक्वामिनरल के नाम से बेचा जाता है। जबकि है दोनों में पानी ही या कृतिम घी को डालडा या रथ जैसे नामों से बेचा जाता है। इसी तरह घातक कीटनाशकों को भी तरह-तरह के नामों से भारत के बाजार में खुलेआम बेचा जाता है और इस तरह हमारी जिंदगी में धिरे-धिरे जहर घोला जा रहा है। उधर 150 रासायनिक पदार्थ ऐसे हैं जिन्हें अगले कुछ दिनों में यूरोप से हटा दिया जाएगा। ये उन 320 प्रतिबंधित उत्पादनों के अलावा हांेगे। इस तरह कीटनाशक उद्योग को 28 सौ करोड़ रूपए का बाजार खोना पड़ेगा। दुनिया भर के विशेषज्ञों ने यूरोपीय समुदाय के इस मजबूत कदम की प्रशंसा की है और उम्मीद जताई है कि बाकी कीटनाशक जल्दी ही कब्रिस्तान में पहुंचा दिए जाएंगे। साथ ही उन्होंने कीटनाशकों के विकल्प को भी मुहैया कराने में फुर्ति दिखाने की सलाह दी है। भारत में इस मामले में काफी जानकरी हजारों साल से हमारे किसानों की चेतना में व्याप्त रही है। पर कीटनाशक उत्पादकों के विज्ञापनों और झूठे प्रचार ने पिछले 53 सालों में हमारे देश के किसानों को इस कदर मूर्ख बनाया कि वे अपना परंपरिक विवेक ही खो बैठे। ये भी सच है कि विपन्नता की मार झेलने वाले और मानसून पर निर्भर जीवन जीने वाले मेहनतकश छोटे किसान हों या बड़े किसान ज्यादा फसल उगाने और ज्यदा मुनाफा कमाने की ललक ने उन्हें कीटनाशकों की तरफ स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर लिया था। अगर ईमानदारी से अध्ययन कराए जाएं तो पता चलेगा कि देश में तेजी से फैलते हुए कंसर और दूसरे रोगों के लिए ये कीटनाशक ही जिम्मेदार हैं। ये बहुत सरल सी बात है- अगर कीटनाशक हानिकारक हैं ही जैसा यूरोप के वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है तो वे घातक असर डालेंगे ही। अपनी व्यवस्था भ्रष्ट है ही इसलिए न तो इन कीटनाशकों के घातक असर पर कोई सरकारी कार्यवाही होगी और न इनके विषय में जनता को आगाह किया जाएगा। इस तरह घातक कीटनाशकों का प्रयोग भारत में बदस्तूर चलता रहेगा।
दरअसल 1991 से ही यूरोप के देशों में इन कीटनाशकों के मूल्यांकन का काम शुरू हो गया था। कुल मिलाकर 850 उत्पादन थे जिन्हें 2008 तक जांच कर ये फैसला करना था कि इनका प्रयोग जारी रहे या बंद कर दिया जाए। अगर ऐसी ईमानदारी और तत्परता भारत में दिखाई जाए तो कीटनाशकों को भारतीय बाजारों से बाहर निकाला जा सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हम यह काम किसानों को ही करना होगा। हर कीटनाशक को संशय की दृष्टि से देखें। संभव हो तो उनके दुष्प्रभावों का वैज्ञानिक परीक्षण करवाएं। न संभव हो तो तुगलकाबाद, दिल्ली स्थिति सेंटर फार साइंस एण्ड एनवायरनमेंट से संपर्क करके कीटनाशकों की असलियत को जाने और तब फैसला करें कि उन्हें इनका प्रयोग बंद करके वास्तव में समाज का अन्यदाता बने रहना है या अपनी आने वाली पीढि़यों को धीमा जहर देकर मारना है। इस पूरे मामले में देहात के नौजवानों को सबसे ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा। सूचनाएं इकट्ठी करना और उसे गांव के लोगों में बांटना ताकि जनजागृति फैलती जाए।
जिस तरह कीटनाशकों और रसायनिक खादों को निकाला जाना जरूरी है उसी तरह वैकल्पिक समाधान भी अपनाने में फुर्ति दिखानी चाहिए। पारंपरिक विधि से कृषि करने की जो जानकारी गांव के बुजुर्गों के पास है उनका सम्मान करना चाहिए और उसे यथाशीघ्र लागू करना चाहिए। इसके अलावा भी काफी संस्थाएं और संगठन है जो किसानों को वैकल्पिक कृषि के बारे में पूरी जानकारी और सलाह दे सकते हैं। अब समय आ गया है। कि हम जानबूझ कर जहर खाना छोड़े और अपने भविष्य को स्वस्थ्य और सुंदर बनाएं। कितने दुःख की बात है कि हमारी कृषि परंपराओं को नष्ट-भ्रष्ट करने के बाद अब यूरोपीय कमिश्न पूरे यूरोप में जैविकीय खाद, गाय के गोवर, नीम जैसी वस्तुओं के प्रयोग से पूर्णतः पारंपरिक कृषि व्यवस्था लागे करने जा रहा है। यूरोप के खेतों में फिर यूरिया, फास्फोरस जैसी घातक खादे नहीं डाली जाएंगी। वे तो जाग गए हम कब जागेंगे ?