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Monday, May 1, 2023

खिलाड़ी ही हों खेल महासंघों के अध्यक्ष

 


जब भी कभी किसी खेल महासंघ में कोई विवाद उठता है तो उसके पीछे ज़्यादातर मामलों में दोषी ग़ैर खिलाड़ी वर्ग से आए हुए व्यक्ति ही होते हैं। खेल और खिलाड़ियों के प्रति असंवेदनशील व्यक्ति अक्सर ऐसी गलती कर बैठते हैं जिसका ख़ामियाज़ा उस खेल और उस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को उठाना पड़ता है। यदि ऐसे खेल महासंघों के महत्वपूर्ण पदों पर राजनेताओं या ग़ैर खिलाड़ी वर्ग के व्यक्तियों को बिठाया जाएगा तो उनकी संवेदनाएँ खेल और खिलाड़ियों के प्रति नहीं बल्कि उस पद से होने वाली कमाई व शोहरत के प्रति ही होगी। ऐसा दोहरा चरित्र निभाने वाले व्यक्ति जब बेनक़ाब होते हैं तो न सिर्फ़ खेल की बदनामी होती है बल्कि देश का नाम भी ख़राब होता है।

पिछले कई दिनों से देश का नाम रोशन करने वाली देश कि बेटियाँ दिल्ली के जंतर-मन्तर पर धरना दे रही हैं। इन्हें आंशिक सफलता तब मिली जब देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए एफ़आइआर दर्ज करने के निर्देश दिए। देश के लिए मेडल जीतने वाली इन महिला पहलवानों को हर किसी का समर्थन मिल रहा है सिवाय देश के सत्तारूढ़ दल के। कारण साफ़ है, इन महिला पहलवानों ने जिसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है वो भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश से भाजपा के बाहुबली नेता ब्रजभूषण शरण सिंह हैं। इन पर कुछ महिला पहलवानों के साथ यौन शोषण का आरोप है। महिला पहलवानों की माँग है कि केवल एफ़आइआर ही नहीं ब्रजभूषण शरण सिंह की गिरफ़्तारी भी हो। इसके साथ ही यह भी कहा है कि जब तक इस मामले की जाँच पूरी नहीं हो जाती तब तक उनको कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया जाए और नैतिकता के आधार पर वे संसद से भी इस्तीफ़ा दें। 


कैसी विडंबना है, जब भी देश का नाम रोशन करने वाले ये खिलाड़ी कोई पदक जीत कर देश लौटते हैं तो देश का शीर्ष नेतृत्व इन्हें पलकों पर बिठा कर इनका ज़ोरदार स्वागत करता है। इन्हें सरकारी पदों पर नौकरी भी दी जाती है। इनके सम्मान में होने वाले स्वागत समारोह की तस्वीरों को मीडिया में खूब फैलाया जाता है। परंतु जैसे ही इनके आत्मसम्मान की बात उठती है तो सरकार, चाहे किसी भी दल की क्यों न हो, इनसे मुँह फेर लेती है और इन्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। ऐसा ही कुछ देश की इन बहादुर बेटियों के साथ भी हो रहा है। 

जब जनवरी में इन महिला पहलवानों ने ब्रजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था तो सरकार ने इन्हें आश्वासन दिया था कि मामले की जाँच होगी और दोषी को उचित सज़ा दी जाएगी। परंतु जब कई महीनों बाद भी कुछ नहीं हुआ तब इन पहलवानों ने दोबारा मोर्चा खोला। इस बार देश के किसान और अन्य सामाजिक व राजनैतिक दल भी इनके समर्थन में उतर आए। मामले में नया मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस को लताड़ा और एफ़आइआर न लिखने का कारण पूछा। सुप्रीम कोर्ट के दबाव में आकर दिल्ली पुलिस ने एफ़आइआर लिखने का आश्वासन तो दिया पर धरना देने वाले पहलवानों ने आशंका जताई कि पुलिस हल्की धाराओं में एफ़आइआर दर्ज करेगी और सारी कोशिश मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की होगी। 

बात-बात में हम अपनी तुलना चीन से करते हैं। जबकि अंतर्राष्ट्रीय खेलों में मेडल जीतने के मामले में चीन हमसे कहीं आगे है। उधर अमरीका जिसकी आबादी भारत के मुक़ाबले पाँचवाँ हिस्सा है, मेडल जीतने में भारत से बहुत ज़्यादा आगे है। कारण स्पष्ट है कि जहां दूसरे देशों में खिलाड़ियों के ख़ान-पान और प्रशिक्षण पर दिल खोल कर खर्च किया जाता है वहीं भारत में इसका उल्टा होता है। अरबों रुपया जो खेलों के नाम पर आवंटित होता है उसका बहुत थोड़ा हिस्सा ही खिलाड़ियों के हिस्से आता है। ये पैसा या तो भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है और या खेल संघों के नियंत्रक बने हुए राजनेताओं और दूसरे सदस्यों के पाँच सितारा ऐशो-आराम पर उड़ाया जाता है। पाठकों को याद होगा कि कुछ दिनों पहले समाचार आया था कि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को दिल्ली नगर निगम के शौचालय में खाना परोसा जा रहा था। 


अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने वाले खिलाड़ी बहुत छोटी उम्र से ही अपनी तैयारी शुरू कर देते हैं। इनमें से ज़्यादातर देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे परिवारों से आते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं होती। फिर भी वे परिवार अपना पेट काट कर इन बच्चों को अच्छी खुराक, जैसे घी, दूध, बादाम आदि खिलाकर और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रशिक्षण दिलवाकर प्रोत्साहित करते हैं। फिर भी इन खिलाड़ियों को अक्सर चयनकर्ताओं के पक्षपातपूर्ण रवैये और अनैतिक आचरण का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो इनसे रिश्वत भी माँगी जाती है। ऐसी तमाम बाधाओं को झेलते हुए भी भारत के ये बेटे-बेटी हिम्मत नहीं हारते। पूरी लगन से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। इनकी परेशानियों का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने के बाद भी इन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए सड़कों पर संघर्ष करना पड़ रहा है। जब अंतरराष्ट्रीय पदक विजेताओं के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हो रहा है तो बाक़ी के हज़ारों खिलाड़ियों के साथ क्या होता होगा ये सोच कर भी रूह काँप जाती है। 

जब कभी ऐसे विवाद सामने आते हैं तो सारे देश की सहानुभूति खिलाड़ियों के साथ होती है। हो भी क्यों न ये खिलाड़ी ही तो अंतर्राष्ट्रीय खेलों में भारत का परचम लहराते हैं और हर भारतीय का मस्तक ऊँचा करते हैं। भारत जैसे आर्थिक रूप से प्रगतिशील देश ही नहीं, पश्चिम के विकसित देशों में भी, उनके खेल प्रेमी नागरिकों की संख्या लाखों करोड़ों में होती है। स्पेन में फुटबॉल हो, इंग्लैंड में क्रिकेट हो या अमरीका में बेसबॉल हो या अन्य खेल हों, स्टेडियम दर्शकों से खचाखच भरे होते हैं और वहाँ का माहौल लगातार उत्तेजक बना रहता है। खेल में हार-जीत के बाद प्रशंसकों के बीच प्रायः हिंसा भी भड़क उठती है। कभी-कभी तो ये हिंसा बेक़ाबू भी हो जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि हर खिलाड़ी के पीछे उसके लाखों करोड़ों चाहने वाले होते हैं। आम मान्यता है कि लोकतंत्र में राजनेता हर उस मौक़े का फ़ायदा उठाते हैं जहां भीड़ जमा होती हो। खिलाड़ियों की जीत पर तो फ़ोटो खिंचवाने और स्वागत समारोह करवाने में हर स्तर के राजनेता बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं फिर ये कैसी विडंबना है कि उन्हीं खिलाड़ियों को आज अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए धरने प्रदर्शन करने पड़ रहे हैं।  

Monday, May 31, 2021

सुशील कुमार कांड: टूटना भरोसे का


भारत के ध्वज को अपने कंधे पर गर्व से लिए फ़ोटो में दिखाई देने वाले मशहूर पहलवान सुशील कुमार का नाम पिछले दिनों एक अन्य पहलवान सागर धंकड़ के हत्याकांड से जोड़ा गया और उसकी गिरफ़्तारी भी हुई। असलियत क्या है यह तो जाँच का विषय है। लेकिन यहाँ चाणक्य पंडित की एक बात याद आती है, उनके अनुसार विश्वासघात विष के समान होता है। इस बहुचर्चित हत्याकांड में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ एक व्यक्ति का दूसरे से नहीं बल्कि गुरु शिष्य परम्परा का विश्वासघात हुआ है।
 


कुश्ती जगत से सम्बंधित किसी भी युवा या वरिष्ठ पहलवान से पूछा जाए तो सुशील कुमार कुश्ती जगत के एक आदर्श के रूप में पूजे जाते रहे हैं। लेकिन इस हत्याकांड में सुशील का नाम आते ही मानो सभी का विश्वास टूट सा गया है। 2008 में ओलम्पिक विजेता बने सुशील कुमार उभरते हुए पहलवानों के आदर्श थे। तभी की बात है कि सागर धंकड़ नाम के दिल्ली के एक युवा पहलवान ने तय कर लिया कि वो भी कुश्ती की शिक्षा लेकर देश का नाम रोशन करेगा। दिल्ली पुलिस के सिपाही के इस बेटे ने सुशील कुमार को अपना गुरु मान लिया और उनसे इस खेल की ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया। 



कुश्ती जगत के लोगों के अनुसार सुशील कुमार जब एक युवा पहलवान था तब वह कुश्ती के प्रति बहुत समर्पित था। उन दिनों वह हर समय अखाड़े में रह कर खूब ट्रेनिंग करता था। उसकी नज़र भी अर्जुन की नज़र की तरह ओलम्पिक के पदक पर ही गढ़ी हुई थी। खूब मेहनत और मशक़्क़त का ही नतीजा है कि उसे 2008 और फिर उसके बाद लगातार कई पदक मिले जिससे कुश्ती के खेल में देश का नाम रोशन हुआ।


मीडिया में सागर की हत्या के पीछे एक मकान के किराए की बात का काफ़ी ज़िक्र हो रहा है। पुलिस के अनुसार सागर दिल्ली के जिस मकान में रह रहा था वह सुशील की पत्नी के नाम था। कुछ महीनों से किराया न दे पाने के कारण इस हत्या को अंजाम दिया गया। ग़ौरतलब है कि पिछले साल से लॉकडाउन के चलते कई ऐसे मकान मालिक हैं जो अपने किराएदारों से किराया देने पर ज़ोर नहीं दे रहे। सागर धंकड़ भी ‘बेरोज़गार’ था, तो वह किराया कहाँ से दे पाता? पर केवल किराया न दे पाने के कारण ही उसकी हत्या कर देना, यह बात गले नहीं उतरती। 


किसी ने ठीक ही कहा है कि शौहरत को पचा पाना बहुत कठिन होता है। सुशील के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुश्ती जगत में भारत का नाम कई बार रौशन करने के बाद, एक साधारण परिवार से आए सुशील कुमार एक बेहद ‘सुशील’ व्यक्ति थे। एक बार बाबा रामदेव के बिजवासन फार्म हाउस पर जब वो मुझ से मिला और बाबा ने मेरा परिचय करवाया तो सुशील ने तपाक से मेरे पैर छुए। वो चाहता तो प्रणाम करके भी काम चला लेता। पर ये उसकी विनम्रता ही थी । 


पर शायद उसे अपनी शौहरत बहुत समय तक रास नहीं आई। भारत सरकार के रेल मंत्रालय की नौकरी और फिर दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम के सह निदेशक पद की नौकरी के बावजूद सुना है कि सुशील कुमार ने खुद को कई और धंधों में शामिल कर लिया था। इन धंधों में सबसे ख़तरनाक धंधा था विवादित प्रॉपर्टी में फ़ैसले करवाना। 


यहाँ इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि दिल्ली के पहलवानों का बहुत कम प्रतिशत ऐसे पहलवानों का है जो पहलवानी करने के साथ-साथ दूसरे धंधों में भी शामिल हों। फिर वो चाहे अभिनेताओं के, व्यापारियों के या महंगे होटलों में ‘बाउंसर’ बनना ही क्यों न हो। वे यही करते हैं। ऐसे दूसरे धंधे केवल वही पहलवान करते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। ज़्यादातर पहलवान तो अपनी कुश्ती के अभ्यास में ही लगे रहते हैं और मस्त रहते हैं। वे न तो किसी प्रकार के नशे का सेवन करते हैं और न ही ग़लत संगत में रहते हैं। सुशील कुमार जैसे पहलवान जिसके पास करोड़ों रुपया और शोहरत थी उससे ऐसी उम्मीद शायद ही किसी को होगी ।         


दिल्ली जैसे बड़े शहरों में यह आम बात है कि जब किसी महंगे इलाक़े में कोई मकान, दुकान या फार्म इत्यादि विवादित हो जाते हैं। तो इन विवादों का समाधान या तो राजनैतिक बल या फिर बाहुबल से ही निकलता है। सुशील कुमार के पास ये दोनों बल थे। बस फिर क्या होना था? कुछ लोगों के बहकावे में आने के बाद पिछले कुछ सालों में सुशील ने भी अपने इसी काम का सेटअप चालू कर दिया। 


जानकारों की मानें तो दिल्ली के मॉडल टाउन के जिस मकान से सागर धंकड़ को हत्या वाली रात उठाया गया था, उस विवादित मकान पर पहले सुशील कुमार का ही क़ब्ज़ा था। लेकिन किसी दूसरे गैंग ने उस मकान को अपने क़ब्ज़े में लेकर सागर को उस मकान में रहने के लिए रख दिया था। यह दोनों गैंग के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई थी। जो सागर के लिए जानलेवा बन गई। जिसके बाद गर्व से भारत का ध्वज उठाने वाले सुशील कुमार को अपना मुँह छिपा कर रहने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी गिरफ़्तारी से पहले वो कई हफ़्तों तक पुलिस को चकमा देता रहा।


सुशील की गिरफ़्तारी के बाद कई ऐसे तथ्य और सामने आए हैं जिनसे यह साबित होता है कि सुशील का कुख्यात अपराधियों के साथ भी उठना बैठना हो चुका था। वो इस ग़ैरक़ानूनी दुनिया, जिसे आम भाषा में अंडरवर्ल्ड कहा जाता है, का एक अहम हिस्सा बन चुका था। सच्चाई क्या है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन जिस तरह से सुशील-सागर के बीच गुरु-शिष्य का भरोसे टूटा, वह सभी के मन में कई सवाल खड़े करता है। ऐसी क्या मजबूरी थी कि सुशील जैसे अंतराष्ट्रीय ख्याति के पहलवान को ये जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा? कहावत है कि ‘फलदार पेड़ और गुणवान व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखा पेड़ और मूर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकता’। कद्र तो किरदार की होती है, वरना तो कद में साया भी इंसान से बड़ा होता है।