Monday, November 28, 2022

सर्वोच्च न्यायालय की चुनाव आयोग पर तीखी टिप्पणी


पिछले आठ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अचानक चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल माँग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया है। पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को याद किया है और कहा है, देश को टी एन शेषन जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है। ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि पिछले कुछ वर्षों में जो भी मुख्य चुनाव आयुक्त बने या चुनाव आयुक्त बने उन सबसे मेरी अच्छी मित्रता रही है। इस मित्रता का लाभ उठा कर मैंने उन्हें बार-बार सचेत किया कि उनकी छवि वैसी नहीं बन पा रही जैसे शेषन की थी। उन्होंने बुरा तो नहीं माना पर कुछ ऐसा किया भी नहीं जिससे आयोग के प्रति विपक्षी दलों का विश्वास बढ़ता। इसीलिए आज ये नौबत आ गई कि चुनाव आयोग पर सर्वोच्च न्यायालय को टिप्पणी करनी पड़ी। 



अरुण गोयल की नियुक्ति कि फाइल माँगने पर सरकार का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यहाँ मैं याद दिला दूँ कि अपने कार्यकाल में एक समय ऐसा आया था जब टी एन शेषन को भी सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सहनी पड़ी थी। उस दिन वे बहुत आहत थे। रोज़ की तरह जब मैं दिल्ली के पंडरा रोड स्थित उनके निवास पर गया तो वे मेरे कंधे पर सिर रख कर कुछ क्षणों के लिए रो पड़े थे। क्योंकि उनके अहम को चोट लगी थी। मैंने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि आप भी एक संवैधानिक पद पर हैं इसलिए आपको इसका प्रतिकार करना चाहिए। पर उनके वकीलों ने उन्हें समझाया कि लोकतंत्र के हर ख़म्बे का काम एक दूसरे पर निगाह रखना होता है। कोई भी खम्बा अगर निरंकुश होता है तो लोकतंत्र कमज़ोर हो जाता है। बात वहीं समाप्त हो गई। यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी है कि आज कार्यपालिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो टिप्पणी की है या जो फाइल मंगाई है, उसका एक ठोस आधार है और इसलिए सरकार को पूरी ज़िम्मेदारी से अदालत के साथ सहयोग करना चाहिए। 



सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की है। इन याचिकाओं में माँग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी एक कॉलोजियम की प्रक्रिया से होना चाहिये। इस बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि ये चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिससे चयनकर्ता समिति में तीन सदस्य हों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री व लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष। यह माँग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है। अगर उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले। वैसे तो
  टी एन शेषन का चुनाव भी मौजूदा प्रणाली से ही हुआ था। पर तब केंद्र में अल्पमत की चंद्रशेखर सरकार थी। शायद इसलिए भी शेषन चुनाव सुधारों के लिए वो सब कर सके जो किसी एक बड़े दल के द्वारा चुने जाने पर कर पाना शायद उनके लिए संभव नहीं होता।    

       

उल्लेखनीय है कि टी एन शेषन के पहले तो चुनाव आयोग का वजूद तक आम आदमी नहीं जानता था। शेषन ने चुनाव आयोग को काफी विस्तृत रूप दे दिया। क्योंकि उनके इस ऐतिहासिक प्रयास में कुछ भौमिक मेरी और मेरे सहयोगी पत्रकार रजनीश कपूर की भी थी। इसलिए हम उस वक्त के साक्षी हैं जब श्री शेषन ने यह अभूतपूर्व कार्य किया। उन दिनों चुनावों में हिंसा और बूथ कैप्चरिंग एक आम बात हो चुकी थी। राजनीति में अचानक गुंडे और माफ़ियाओं का दखल बहुत बढ़ने लगा था। जिससे पूरे देश में चिंता व्यक्त की जा रही थी। इस माहौल को बदलने के लिए श्री शेषन ने चुनाव सुधार करने की ठानी। 


दरअसल सरकारी तंत्र आसानी से कोई क्रांतिकारी काम नहीं होने देता इसलिए श्री शेषन ने चुनाव सुधारों को मूर्त रूप देने के लिए एक ‘थिंक टैंक’ के रूप में ‘देशभक्त ट्रस्ट’ की स्थापना की। जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बने और उनकी पत्नी श्रीमती जयालक्ष्मी शेषन और मैं ट्रस्टी बने। इस ट्रस्ट का पंजीकृत कार्यालय हमारे 'कालचक्र समाचार’ के दिल्ली में हौज़ ख़ास स्थित कार्यालय ही था। हमारे कार्यालय में श्री शेषन के साथ इन विषयों पर गंभीर चर्चा करने देश भर से बुद्धिजीवी, मीडिया समूहों के मालिक, सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति व वरिष्ठ अधिकारी गण नियमित रूप से आते थे। श्री शेषन और मैं लगातार देश के कोने-कोने में जा कर विशाल जनसभाओं को चुनाव सुधारों के बारे में जागृत करते थे। इस मैराथन प्रयास का बहुत अच्छा असर हुआ और सारे देश में चुनाव आयोग की एक नई और मज़बूत छवि बनी। पर श्री शेषन के कड़े रवैये से राजनैतिक दलों में खलबली मच गई। जब शेषन दंपत्ति एक महीने के अमरीकी प्रवास पर थे तो नरसिंह राव सरकार ने चुनाव आयोग को एक से बढ़ा कर तीन सदस्यी कर दिया। ये दो नये सदस्य, शेषन के पर कतरने के लिए लाए गये थे। श्री शेषन ने अमरीका से फ़ोन करके मुझ से कहा कि, नरसिंह राव ने मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। मैं बहुत आहत हूँ। क्या करूँ? तुम सोच कर रखो हम अगले हफ़्ते तक भारत लौट रहे हैं। 


चूँकि 1993 से जैन हवाला कांड को उजागर कर मैं भी देश में राजनीतिक शुचिता के लिए संघर्ष कर रहा था इसलिए उनके आने पर मैंने सुझाव दिया कि हम देश भर में हर क़स्बे, नगर और प्रांत में ‘जन चुनाव आयोगों’ का गठन करें जिनमें उस क्षेत्र के उन प्रथिष्ठित लोगों को सदस्य बनाया जाए जिनका कभी किसी राजनैतिक दल से कोई नाता न रहा हो। इन सैंकड़ों चुनाव आयोगों का गठन इस उद्देश्य से किया जाना था कि ये अपने इलाक़े के हर चुनाव पर निगाह रखें और उनमें नैतिकता लाने का प्रयास करें। श्री शेषन को यह सुझाव बहुत पसंद आया और हम सब ने मिलकर इसकी विस्तृत नियमावली तैयार की और उसके हज़ारों पर्चे छपवाकर देश भर में बँटवाए। इसका अच्छा असर हुआ और देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘जन चुनाव आयोगों’ का गठन भी होने लगा। मेरा सुझाव था कि सेवानिवृत हो कर शेषन ‘जन चुनाव आयोग’ के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें जिससे देश में स्थापित हो चुकी उनकी ब्रांडिंग का लाभ उठा कर चुनाव सुधारों को एक जन आंदोलन का रूप दिया जा सके। पर श्री राव के रवैये से आहत होने के बावजूद शेषन इस्तीफ़ा देने को तैयार नहीं थे। इसलिए इस दिशा में बहुत सीमित सफलता ही मिल पाई। अलबत्ता ये ज़रूर है कि उन्होंने भारत के चुनाव आयोग की छवि को बहुत ऊँचाइयों तक पहुँचाया और भावी चुनाव आयोगों के लिए मानदंड स्थापित कर दिये। इसीलिए आज 26 बरस बाद भी सर्वोच्च न्यायालय को शेषन का महत्व रेखांकित करना पड़ा है।

Monday, November 21, 2022

इतने बड़े घोटालों की जाँच में पक्षपात क्यों हो रहा है?



बैंकों का धन लूटकर विदेशों में धन शोधन करने वाले बड़े औद्योगिक घरानों की जाँच को लेकर जाँच एजेंसियाँ आए दिन विवादों में घिरी रहती हैं। मामला नीरव मोदी का हो, विजय माल्या का हो या मेहुल चोक्सी का हो, इन भगोड़े वित्तीय अपराधियों को जेल की सलाख़ों के पीछे भेजने में हमारे देश की बड़ी जाँच एजेंसियाँ लगातार विफल रही हैं। ऐसी नाकामी के कारण ही इन एजेंसियों पर चुनिन्दा आरोपियों के ख़िलाफ़ ही कारवाई करने के आरोप भी लगते रहे हैं। 


पिछले दिनों कानपुर की रोटोमैक पेन कंपनी के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 750 करोड़ रुपए से अधिक के बैंक फ्रॉड का मामला दर्ज किया है। पेन बनाने वाली इस नामी कंपनी पर आरोप है कि इन्होंने कई बैंकों से ऋण लेकर आज तक नहीं लौटाए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 7 बैंकों के समूह के लगभग 2919 करोड़ रुपये इस कंपनी पर बकाया हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक फ्रॉड का यह मामला नया नहीं है। बैंक को चूना लगाने वाली यह कंपनी जून 2016 में ही नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) घोषित कर दी गई थी। छह साल बाद 2022 में जब सीबीआई द्वारा इस कंपनी पर कार्यवाही शुरू हुई तब तक कंपनी के कर्ताधर्ता विक्रम कोठारी का निधन भी हो चुका था। जाँच और कार्यवाही में देरी के कारण बैंकों को करोड़ों का चूना लग चुका था। 


देश में कोठारी जैसे अनेक लोग हैं जो बैंक से लोन लेते हैं। यदि वो छोटे-मोटे लोन लेने वाले व्यापारी होते हैं तो उनके ख़िलाफ़ बहुत जल्द कड़ी कार्यवाही की जाती है। परंतु आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि बैंकों के धन की बड़ी चोरी करने वाले आसानी से जाँच एजेंसियों के हत्थे नहीं चढ़ते। इसका कारण, बैंक अधिकारी और व्यापारी की साँठ-गाँठ होता है। ऋण लेने वाला व्यापारी बैंक के अधिकारी को मोटी रिश्वत के भार के तले दबा कर अपना काम करा लेता है और किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। जब ऋण और उस पर ब्याज मिला कर रक़म बहुत बड़ी हो जाती है तो तेज़ी से कार्यवाही करने का नाटक किया जाता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 



रोटोमैक कांड के आरोपियों की सूची में कानपुर का एक और समूह है जिस पर जाँच एजेंसियों की कड़ी नज़र नहीं पड़ी। आरोप है कि इस समूह ने विभिन्न बैंकों के साथ सात हज़ार करोड़ से अधिक रुपये का घोटाला किया है। इस समूह ने फ़र्ज़ी कंपनियों का जाल बिछा कर बैंकों के साथ धोखा किया है। इस समूह के मुख्य आरोपीयों, उदय देसाई और सरल वर्मा की कंपनियाँ - एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड, रोटोमैक कांड के सह-अभियुक्त भी हैं। इसके चलते इनकी गिरफ़्तारी भी हुई थी। लेकिन कोविड और स्वास्थ्य कारणों के चलते इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दी गई। ग़ौरतलब है कि सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफ़आईओ) में इस समूह के ख़िलाफ़ 2019 से विभिन्न बैंकों द्वारा 8 एफ़आईआर दायर हो चुकी हैं। परंतु वर्मा और देसाई बंधुओं पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।  


उदय देसाई ने दिल्ली उच्च न्यायालय में विदेश जाने की गुहार लगा कर एक याचिका दायर की। कोर्ट ने जुलाई 2022 के अपने आदेश में याचिका रद्द करते हुए इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया कि विभिन्न जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अनेक गंभीर मामलों के बावजूद आरोपियों को केवल एक ही बार पूछताछ के लिए बुलाया गया। जाँच एजेंसियों ने सघन जाँच और पूछताछ की शुरुआत ही नहीं की। 



सोचने वाली बात है कि हज़ारों करोड़ के घोटाले के आरोपियों को केवल एक ही बार बुला जाँच एजेंसियों को इस बात का इत्मीनान हो गया कि आरोपियों को दोबारा पूछताछ के लिए नहीं बुलाना चाहिए? क्या एक ही बार में पूछताछ से जाँच एजेंसियाँ संतुष्ट हो गई? क्या आरोपी एक ही बार में एजेंसियों के ‘कड़े सवालों’ का संतोषजनक जवाब दे पाये? क्या ये प्रमुख जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों से ऐसे ही, केवल एक बार ही जाँच और पूछताछ करती हैं? इस से कहीं छोटे मामलों में विपक्षी नेताओं या नामचीन लोगों के ख़िलाफ़ भी इन एजेंसियों का क्या यही रवैया रहता है? क्या इन आरोपियों की करोड़ों संपत्ति को ज़ब्त किया गया? क्या इनकी बेनामी संपत्तियों तक ये एजेंसियाँ पहुँच पाईं? सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मृत्यु के बाद जिस तरह बॉलीवुड के सितारों को लगातार पूछताछ के लिए बुलाया गया था क्या वैसा कुछ इनके भी साथ हुआ? अगर नहीं तो क्यों नहीं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो, उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। जैसा हमने पिछली बार भी लिखा था कि मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो कुछ चुनिन्दा लोगों पर, अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अन्य मामलों को छोड़ अगर देसाई और वर्मा बंधुओं के मामले को ही लें तो यह बात सच साबित होती है। 


दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर को जब एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड के घोटालों से संबंधित सभी दस्तावेज़ मिले तो उन्होंने इन आरोपों को सही पाया। कपूर ने 6 मई 2022 को इन सभी एजेंसियों को सप्रमाण पत्र लिख कर देसाई और वर्मा द्वारा किए गए हज़ारों करोड़ रुपये के घोटालों की जाँच की माँग की थी। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती? 


घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, November 7, 2022

हर साल जहरीली धुंध से क्यों घिर जाता है एनसीआर?


हर साल दिवाली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है। हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहाँ के रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज़्यादा ख़तरा तों छोटे बच्चों के लिये हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किमकर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।


पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं।उन्होंने अब तक के अपने सोच विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? 



दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।


हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरुवार सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया।यानि भयावह स्तर का प्रदूषण था। इसी से इस समय की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।


सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।



इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ओड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी। लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के सोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकता था। लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।


बहरहाल अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और ज़हरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठ  रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।ये शेख़चिल्ली के सपने जैसा है। 


वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल,जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है । अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगे?