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Monday, December 4, 2023

संतों को किससे भय लगता है?


पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के दर्शन करने गए। आजकल देश भर के वीआईपी और विराट कोहली जैसी सेलिब्रिटी, जो भी वृंदावन आता है वो महाराज के दर्शन करने अवश्य जाता है। इनमें से ज़्यादातर लोग इसलिए जाते हैं क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षों में महाराज श्री सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से वायरल हुए हैं। बाक़ी लोग उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं और थोड़े से जिज्ञासु लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं। माना जा सकता है कि भागवत जी भी प्रथम श्रेणी के ही दर्शनार्थी थे, जो आशीर्वाद या आध्यात्मिक ज्ञान लेने नहीं बल्कि महाराज के करोड़ों प्रशंसकों के बीच वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने गये थे।



‘संतन के ढिग रहत है सबके हित की बात’ की भावना को चरितार्थ करते हुए महाराज ने भागवत जी को एक लंबा प्रवचन दे डाला। जिसका मूल आशय यह था कि संघ और भाजपा सहित देश के सभी राजनैतिक दल रेवड़ियाँ बाँट कर भारत का ‘विकास’ करने का जो दावा कर रहे हैं उससे भारत कभी सुखी और संपन्न नहीं बन सकता। बल्कि मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से विभाजित राष्ट्र बन रहा है, जो देश के भविष्य के लिये बहुत घातक है। महाराज का ज़ोर इस बात पर था कि धर्मांधता, उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा को बढ़ाने वाले दल समाज का भला नहीं कर सकते। यह प्रवचन बड़ी तेज़ी से दुनिया भर में वायरल हो चुका है। इसे सुन कर भागवत जी निरुत्तर हो गये। क्या यह आशा की जा सकती है कि संघ में इस विषय पर आत्मविश्लेषण व चिंतन किया जाएगा? क्योंकि स्वयं महाराज प्रायः यह कहते हैं कि उनके प्रवचन को सुनने से कोई लाभ नहीं, जब तक उसे आचरण में न लाया जाए।



प्रेमानंद महाराज जी देश के एक अति शक्तिशाली राजनेता से इतने कड़े शब्दों में ऐसा इसलिए कह सके  क्योंकि उनका हृदय निर्मल है और उन्होंने जीवन में कठोर तप किया है और उन्हें किसी भी सरकार से किसी लाभ, उपाधि या सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है। अब ज़रा परिदृश्य को बदलिए और देखिए उन तथाकथित संतों की ओर जो अध्यात्म का चोला ओढ़ कर वैभव, सत्ता और ग्लैमर का सुख भोग रहे हैं। किसी एक का नाम लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे सभी आत्मघोषित सद्गुरुओं, महामंडलेश्वरों, शंक्राचार्यों और मठाधीशों की पूछ अचानक बढ़ गई है। धर्म के नाम पर अरबों रुपये की संपत्ति जमा कर लेने वाले ऐसे सभी ‘मीडियाजीवी संत’ आजकल भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा दी गई एक्स, वाई या जेड श्रेणी की पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इनकी सुरक्षा पर इस देश के मेहनतकश करदाताओं के टैक्स का अरबों रुपया हर साल खर्च हो रहा है। जबकि करदाताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उसके खून में सनी आंतड़ियों की माला पहने रौद्र रूप में सामने खड़े नरसिंह भगवान को शांत करने गये सुकुमार बालक प्रह्लाद जी ने कहा, ‘भगवन मुझे आपके इस भयानक रूप से डर नहीं लगता, पर अपनी वासनाओं से डर लगता है जो मेरी आध्यात्मिक राह में बाधक हैं।’ सुरक्षा के घेरे में चलने वाले इन संतों ने अपने प्रवचनों अनेक बार श्रीमद् भागवत के इस प्रसंग का उल्लेख किया होगा? पर क्या इससे मिले ज्ञान पर कभी मंथन भी किया? हमने तो विरक्त संतों से यही सुना है कि लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के पीछे भागने वाले कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते।    



आप पूछ सकते हैं कि जब दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की तरफ़ से इस तरह की सुरक्षा दी जाती है तो इन मशहूर संतों को सुरक्षा क्यों न दी जाए? दोनों परिस्थितियों में अंतर है। बाक़ी लोग अपने सत्कर्मों या कुकर्मों के कारण लगातार मौत के भय में जीते हैं इसलिए वे सरकार से सुरक्षा माँगते हैं। जबकि स्वयं को संत मानने वाले उस आध्यात्मिक मार्ग के पथिक हैं जिसमें, ‘चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥’ आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को मौत का क्या भय? गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गये हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।’ फिर मौत से क्या डरना? 


अगर पाठकों को ये आत्मश्लाघा न लगे तो विनम्रता से यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि 1993-98 के बीच अलग-अलग जगहों पर मुझ पर कई बार जानलेवा हमले हुए। क्योंकि ‘जैन हवाला कांड’ को उजागर करके मैंने देश के सबसे ताकतवर लोगों और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के विरुद्ध अकेले ही युद्ध छेड़ दिया था। पर प्रभु कृपा से मैं न तो डरा, न झुका और न बिका। उस दौर में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी एन शेषन और मैं देश भर में जनसभाओं को संबोधित करने जाते थे तो अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता था कि ‘आप इतना ख़तरनाक युद्ध लड़ रहे हैं, आपको डर नहीं लगता?’ मेरा श्रोताओं को उत्तर होता था, ‘मारे कृष्णा राखे के, राखे कृष्णा मारे के’, श्री चैतन्य महाप्रभु के उक्त वचन से मुझे नैतिक बल मिलता था। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े मंचों से धार्मिक प्रवचन करने वाले लोग कमांडो और पुलिस के घेरे में रह कर गर्व का अनुभव करते हैं। माया मोह त्यागने का उपदेश देने वालों की कथनी और करनी में इस भेद के कारण ही देश की आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ ऐसी ही बात प्रेमानंद जी महाराज ने डॉ मोहन भागवत जी से कही। 


पिछले चार दशकों में ये आम रिवाज हो गया है कि आपराधिक चरित्र के राजनेता, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, सरकारों द्वारा प्रदत्त पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इसका समय-समय पर समाज में विरोध भी हुआ और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भी दायर हुई हैं। पर कोई सरकार इस कुरीति को रोकना नहीं चाहती क्योंकि उसे इन आपराधिक छवि के नेताओं का इस्तेमाल अपनी सत्ता बनाने और चलाने में करना होता है। हर दल के बड़े और मशहूर राजनेताओं को सरकार द्वारा सुरक्षा दिये जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि उनके जीवन पर हर समय ख़तरा रहता है। पर गुंडे मवालियों को सुरक्षा मिले या माया-मोह त्यागने का उपदेश देने वाले संतों को यह सुरक्षा मिले, तो यह बात गले नहीं उतरती। आपका क्या विचार है? 

Monday, April 24, 2023

सोशल मीडिया के खतरों से कैसे बचें ?


जब देश में सोशल मीडिया का इतना प्रचलन नही था तब जीवन ज्यादा सुखमय था। तकनीकी की उन्नति ने हमारे जीवन को जटिल और तानवग्रस्त बना दिया है। आज हर व्यक्ति चाहे वो फुटपाथ पर सब्जी बेचता हो या मुंबई के कॉर्पोरेट मुख्यालय में बैठकर अरबों रूपये के कारोबारी निर्णय लेता हो, चौबीस घंटे मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया के मकड़जाल में उलझा रहता है। जिसका बेहद ख़राब असर हमारे शरीर, दिमाग और सामाजिक संबंधों पर पड़ रहा है।

नई तकनीकी के आगमन से समाज में उथल पुथल का होना कोई नई बात नही है। सामंती युग से जब विश्व औद्योगिक क्रांति की और बड़ा तब भी समाज में भरी उथल पुथल हुई थी। पुरानी पीढ़ी के लोग जीवन में आए इस अचानक बदलाव से बहुत विचलित हो गए थे। गाँव से शहरों की और पलायन करना पड़ा, कारखाने खुले और शहरों की गन्दी बस्तियों में मजदूर नारकीय जीवन जीने पर विवश हो गये। ये सिलसिला आज तक रुका नही है। भारत जैसे देश में तो अभी भी बहुसंख्यक समाज, अभावों में ही सही, प्रकृति की गोद में जीवन यापन कर रहा है। अगर गाँवों में रोजगार के अवसर सुलभ हो जाएँ तो बहुत बड़ी आबादी शहर की तरफ नही जाएगी। इससे सरकारों पर भी शहरों में आधारभूत ढांचे के विस्तार का भार नही पड़ेगा। पर ऐसा हो नही रहा। आज़ादी के पिझत्तर वर्षों में जनता के कर का खरबों रुपया ग्रामीण विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गया। 


पाठकों को लगेगा कि सोशल मीडिया की बात करते-करते अचानक विकास की बात क्यों ले आया। दोनों का सीधा नाता है। जापान और अमरीका जैसे अत्याधुनिक देशों से लेकर गरीब देशों तक इस नाते को देखा जा सकता है। इसलिए चुनौती इस बात की है कि भौतिकता की चकाचौंध में बहक कर क्या हम हमारे नेता और हमारे नीति निर्धारक, देश को आत्मघाती स्थिति में धकेलते रहेंगे या कुछ क्षण ठहरकर सोचेंगे कि हम किस रस्ते पर जा रहे हैं? 

इस तरह सोचने की ज़रूरत हमें अपने स्तर पर भी है और राष्ट्र के स्तर पर भी। याद कीजिये कोरोना की पहली लहर जब आई थी और पूरी दुनिया में अचानक अभूतपूर्व लॉकडाउन लगा दिया गया था। तब एक हफ्ते के भीतर ही नदियाँ, आकाश और वायु इतने निर्मल हो गये थे कि हमें अपनी आँखों पर यकीन तक नही हुआ। कोरोना के कहर से दुनिया जैसे ही बाहर आई फिर वही ढाक के तीन पात। आज देश में अभूतपूर्व गर्मी पड़ रही है, अभी तो यह शुरुआत है। अगर हम इसी तरह लापरवाह बने रहे तो क्रमश निरंतर बढ़ती गर्मी कृषि, पर्यावरण, जल और जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा बन जायेगी। अकेले भारत में आज कम से कम दस करोड़ पेड़ लगाने और उन्हें संरक्षित करने की ज़रूरत है। अगर हम सक्रिय न हों तो कोई भी सरकार अकेले यह कार्य नही कर सकती। 


चलिए वापस सोशल मीडिया की बात करते हैं जो आज हमारे जीवन में नासूर बन गया है। राजनैतिक उद्देश्य से चौबीस घंटे झूठ परोसा जा रहा है। जिससे समाज में भ्रम, वैमनस्य और हिंसा बढ़ गई है। किसी के प्रति कोई सम्मान शेष नही बचा। ट्रॉल आर्मी के मूर्ख युवा देश के वरिष्ठ नागरिकों के प्रति जिस अपमानजनक भाषा का प्रयोग सोशल मीडिया पर करते हैं उससे हमारा समाज बहुत तेज़ी से गर्त में गिरता जा रहा है। सोशल मीडिया के बढ़ते हस्तक्षेप ने हमारी दिनचर्या से पठन-पाठन, नियम-संयम, आचार-विचार और भजन-ध्यान सब छीन लिया है। हम सब इसके गुलाम बन चुके हैं। तकनीकी अगर हमारी सेवक हो तो सुख देती है और अगर मालिक बन जाये तो हमें तबाह कर देती है। कुछ जानकार अभिभावक इस बात के प्रति सचेत हैं और वे अपने बच्चों को एक सीमा से ज्यादा इन चीजों का प्रयोग नही करने देते हैं। पर उन परिवारों के बच्चे जिनमें माता-पिता को काम से फुर्सत नही है उन पर इसका बहुत ज्यादा विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आये दिन समाचार आते रहते हैं कि स्मार्ट फोन की चाहत में युवा वर्ग चोरी, हिंसा और आत्महत्या तक के कदम उठा रहा हैं। समाज ऐसा विकृत हो जाये तो डिजिटल इंडिया बनने का क्या लाभ? समाज के व्यवहार को कानून बनाकर नियंत्रित नही किया जा सकता और इस मामले में तो बिल्कुल नही किया जा सकता। इसलिये ज़रूरत इस बात की है कि हम खुद से शुरू करके अपने परिवेश में कुछ प्राथमिकताओं को फिर से वरीयता दें। 

अपनी और अपने परिवार की एक अनुशासित दिनचर्या निर्धारित करें जिसमें भोजन, भजन, पठन-पठान, व्यायाम, मनोरंजन, सामाजिक सम्बन्ध अदि के लिए अलग से समय निर्धारित हो। इसी तरह स्मार्ट फ़ोन, इन्टरनेट व टीवी के लिए भी एक समय सीमा निर्धारित की जाए जिससे हम अपने परिवार को तकनीकी के इस मकड़जाल से बाहर निकाल कर स्वस्थ जीवन चर्या दे पायें। जहाँ तक संभव हो हम अपने घर और परिवेश को हरे भरे पेड़ पौधों से सुसज्जित करने का गंभीर प्रयास करें। विश्वभर में मंडरा रहे गहरे जल संकट को ध्यान में रखकर जल की एक-एक बूँद का किफ़ायत से  प्रयोग करें और भूजल स्तर बढ़ाने के लिए हर सम्भव कार्य करें। आधुनिक फास्टफूड के नाम पर कृत्रिम, हानिकारक रसायनों से बने खाद्य पदार्थों की मात्रा तेज़ी से घटाते हुए घर के बने ताज़े पौष्टिक व पारंपरिक भोजन को प्रसन्न मन से अपनाएं। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो हम, हमारा परिवार और हमारा समाज सुखी, संपन्न और स्वस्थ बन जायेगा। अगर हम ऐसा नही करते तो बिना विषपान  किये ही हम आत्महत्या की और बढ़ते जाएँगे।

अच्छा जीवन जीने का सबसे बढ़िया उदाहरण उज्जैन के एक उद्योगपति स्वर्गीय अरुण ऋषि हैं जिनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बने रहे हैं। हमेशा खुश रहने वाले गुलाबी चेहरे के अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने आज तक न तो कोई दवा का सेवन किया है और न ही किसी सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग किया है इसीलिये वे आज तक बीमार नहीं पड़े। पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ है? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? मतलब ये कि अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके ही हम स्वस्थ और दीर्घआयु हो सकते हैं।  

Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, June 7, 2021

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सोचना चाहिए

भगवान बुद्ध ने एक चेतावनी दी थी की जब बौध संघों में भ्रष्टाचार आ जाएगा तो बुद्ध धर्म का पतन हो जाएगा और यही हुआ। कहावत है ‘संघे शक्ति कलियुगे’। कलयुग में संगठन में ही बल होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी इसी सिद्धांत को लेकर चला है। इसकी आईटी टीम लगातार यह याद दिलाती है कि यह संगठन कितना विशाल है। कितने करोड़ स्वयंसेवक हैं। कितने सर्वोच्च पदों पर संघ के स्वयंसेवक पदासीन हैं, आदि। संघ हिंदू धर्म की रक्षा करने की भी बात करता है। एक बार वृंदावन के एक प्रतिष्ठित  संत, जिन्होंने 106 वर्ष की आयु में समाधि ली, उनसे मैंने पूछा कि संघ और भाजपा के इस दावे के विषय में उनका क्या मत है? स्वामी जी बोले, कोई संगठन या व्यक्ति धर्म की क्या रक्षा करेगा? धर्म ही हमारी रक्षा करता है। 

प्रश्न उठता है कि क्या सनातन धर्म पर, जिसे संघ हिंदू धर्म कहता है संघ या भाजपा का एकाधिकार है? यह असम्भव है। क्योंकि वैदिक काल से आज तक भारत में सभी दार्शनिक मतभेदों को सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता रहा है। इसलिए चार्वाक से गौतम बुद्ध तक को इस परम्परा में समायोजित किया गया है। एक किताब, एक भगवान और एक नियम, ये मान्यता तो ईसाईयत या इस्लाम की है। जो भारतीय दार्शनिक परम्परा के बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो तैंतीस करोड़ देवी देवता और दर्जनों सम्प्रदायों में बँटा हो कर भी सनातन धर्म की मूल धारा एक ही है। 



पर जिस तरह संघ की सोच और व्यवहार सामने आता है उसे देख कर यह चिंता होती है कि संघ भी इस्लाम या ईसाईयत से प्रतिस्पर्धा में उन्हीं के ढर्रे पर चल रहा है। वैसे तो संघ इन आयातित धर्मों के विरुद्ध कट्टरता सिखाता है और देशज धर्म को ही भारत का धर्म मानता है। पर व्यवहार में वो स्वयं भारत के सनातन हिंदू धर्म के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। सनातन का अर्थ ही है जो कभी न बदला जाए।यही कारण है कि सदियों से सैंकड़ों हमले सह कर भी सनातन धर्म ज्यों का त्यों खड़ा रहा है। पर संघ के विचारक गुरु गोलवलकर जी ने अपनी पुस्तक में सनातन परम्पराओं और शास्त्रों को देश, काल और आवश्यकता के अनुरूप व्याख्या करने की वकालत की थी। जिसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए भारत के सर्वाधिक सम्मानित रहे धर्म सम्राट स्वामी करपात्रि जी महाराज अपने ग्रंथ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिंदू धर्म’ में लिखते हैं कि अगर इस तरह शास्त्रों की मनमाने ढंग से व्याख्या करने की छूट दी जाएगी तो फिर वो सनातन धर्म कहाँ रहा? फिर तो संघ के हर सरसंघचालक अपनी मान्यताओं को सनातन धर्म पर आरोपित कर उसे चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देंगे। करपात्रि जी महाराज ने तो साफ़ लिखा है कि, ‘जिस हिंदुत्व को संघ स्थापित करना चाहता है उसका भारत के सनातन वैदिक धर्म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।’ अर्थात् संघ का हिंदुत्व भारत का दार्शनिक पक्ष न होकर केवल संघ की राजनैतिक महत्वाकांक्षा का वैचारिक प्रारूप है।


संघ के बड़े-बड़े अधिकारियों से भी वार्ता में यही पक्ष उजागर होता है। 2019 में सहकार्यवाह डा॰ कृष्ण गोपाल जी से मथुरा में मेरी लम्बी वार्ता हुई। जिसके बीच उन्होंने कहा कि राधा कोई नहीं थीं। ये तो ब्रजवासियों की कोरी कल्पना है। जिसका बाहर मज़ाक़ उड़ता है। प्रत्युत्तर में यह पूछने पर, ‘तो फिर आप राम मंदिर क्यों बनवा रहे हैं?’ वे बोले, उसे छोड़िए, वो दूसरा विषय है। 


पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के पहले संघ का प्रचार तंत्र ऐसे निर्देश जारी करता है जिससे लगे कि वे लोग धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। कभी निर्देश आता है कि आज राम नाम की माला जपो, कभी निर्देश आता है कि पीपल को जल चढ़ाओ, कभी आता है कि फ़लाँ त्योहार पर घर के बाहर इतने दीपक जलाओ। और तो और सदियों से प्रचलित सम्बोधन ‘राम-राम’ या ‘जय सिया राम’ की जगह ‘जय श्री राम’ कहने पर ज़ोर देते हैं। 


जबकि कोई भी आस्थावान धार्मिक परिवार अपने त्योहार कैसे मनाए इसका निर्णय उस परिवार की पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं के या उनके सम्प्रदाय के आचार्यों के या शास्त्रों में वर्णित निर्देशों के अनुसार होता है। संघ के कार्यकर्ता कब से धर्माचार्यों की श्रेणी में आ गए, जो एक तरफ़ तो राधा जी को कोरी कल्पना बताते हैं और दूसरी तरफ़ हमें इस तरह निर्देश देकर पूजा करने की विधि सिखाते हैं? साफ़ है कि संघ के नेतृत्व को सत्ता पाने में ही रुचि है और यह सारा प्रपंच सत्ता पाने तक ही सीमित रहता है। उसके बाद न तो धार्मिकता, न नैतिकता, न सिद्धांतों की कोई बात की जाती है। बात करना तो दूर उनको नकारने या उपेक्षा करने में भी संकोच नहीं होता। तो फिर ये लोग धर्म की बात ही क्यों करते हैं? खुलकर राजनैतिक दल के रूप में सामने क्यों नहीं आते? धर्म में राजनीति का और राजनीति में धर्म का यह घालमेल राष्ट्र और धर्म दोनों के लिए घातक है। इस पर हिंदुओं को भी गम्भीरता और विवेक से विचार करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’। 


गत 35 वर्षों से टीवी और प्रिंट पत्रकारिता के माध्यम से हिंदू धर्म से जुड़े हर सवाल पर मैं दृढ़ता से समर्थन में खड़ा रहा हूँ। बिना ये सोचे कि उस समय की सरकार इससे नाखुश होगी या इसके कारण मुझे क्या व्यावसायिक हानि होगी। पर दुःख होता है कि जब संघ का शीर्ष नेतृत्व धर्म और संस्कृति को लेकर पिछले चार वर्षों में मेरे द्वारा लगातार उठाए गए गम्भीर प्रश्नों पर रहस्यमयी चुप्पी सधे बैठा है। जिसके परिणाम स्वरूप धर्म के कार्यों में भी अनैतिकता और भ्रष्टाचार को खुला संरक्षण मिल रहा है। तो फिर मुसलमानों का डर दिखा कर हिंदुओं को वोटों के लिए एकजुट करने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाकर अनैतिकता और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना ही हिंदू राष्ट्र माना जाएगा? ज़रा सोचें !   

Monday, December 31, 2018

‘हृदय’ को हृदयाघात


मोदी जी ने ‘हृदय योजना’ इसलिए शुरू की थी कि हेरिटेज सिटी में डिजाइन की एकरूपता बनी रहे। ये न हो कि उस शहर में आने वाला हर नया नेता और नया अफसर अपनी मर्जी से कोई भी डिजाइन थोपकर शहर को चूं-चूं का मुरब्बा बनाता रहे, जैसा मथुरा-वृन्दावन सहित आजतक देश के ऐतिहासिक शहरों में होता रहा है। यह एक अभूतपूर्व सोच थी, जो अगर सफल हो जाती, तो मोदी जी को ऐतिहासिक शहरों की संस्कृति बचाने का भारी यश मिलता। पर दशकों से कमीशन खाने के आदी नेता और अफसरों ने इस योजना को विफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि उन्हें डर था कि अगर ये योजना सफल हो गई, तो फर्जी नक्शे बनाकर, फर्जी प्रोजेक्ट पास कराने और माल खाने के रास्ते बंद हो जाएंगे। चूंकि मथुरा-वृंदावन में ‘हृदय’ के ‘सिटी एंकर’ के रूप में भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने ‘द ब्रज फाउंडेशन’ को चुना था, इसलिए उसी अनुभव को यहां साझा करूंगा।

दुनिया के खूबसूरत पौराणिक शहर वृन्दावन का मध्युगीन आकर्षक चेहरा एमवीडीए. के अफसरों के भ्रष्टाचार और लापरवाही से आज विद्रूप हो चुका है। आज भी भोंडे अवैध निर्माण धड़ल्ले से चालू हैं। इस विनाश के लिए जिम्मेदार रहे अफसर ही अब योगी राज  में बनाऐ गऐ ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद् के कर्ता-धर्ता बनकर ब्रज का भारी विनाश करने पर तुले हैं।

ऊपर से दुनिया भर के मीडिया में हल्ला ये है कि ब्रज का भारी विकास हो रहा है। योगी जी ने खजाना खोल दिया है। अब ब्रज अपने पुराने वैभव को फिर पा लेगा। जबकि जमीनी हकीकत ये है कि वृन्दावन, गोवर्धन और बरसाना सब विद्रूपता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। ब्रज के संत, भक्त व ब्रज संस्कृति प्रेमी सब भारी दुखी हैं। मोदी सरकार द्वारा इसी वर्ष पद्मश्री से सम्मानित ब्रज संस्कृति के चलते-फिरते ज्ञानकोश डा. मोहन स्वरूप भाटिया भी 'ब्रजतीर्थ विकास परिषद्' के इन कारनामों से भारी दुखी हैं और बार-बार इसका लिखकर विरोध कर रहे हैं, पर कोई सुनने वाला नहीं।

जयपुर व मैसूर दो सर्वाधिक सुन्दर शहरों में ‘मिर्जा इस्माईल रोड’ उस वास्तुकार के नाम पर हैं, जिसने इन शहरों का नक्शा बनाया था। पेरिस की ‘एफिल टावर’ किसी नेता के नाम पर नहीं बल्कि उसका डिजाइन बनाने वाले इंजीनियर श्री एफिल के नाम पर है। पर योगी सरकार को इतनी सी भी समझ नहीं है कि मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के लिए उन लोगों की सलाह लेती जिनका इन प्राचीन नगरों की संस्कृति से गहरा जुड़ाव है, जिनके पास इस काम का ज्ञान और अनुभव है। पर ऐसा नहीं हुआ। हमेशा की तरह नौकरशाही ने घोटालेबाज या फर्जी सलाहकारों को इन प्राचीन शहरों पर थोपकर, इनका आधुनीकरण शुरू करवा दिया। अब इनका रहा-सहा कलात्मक स्वरूप भी नष्ट हो जाऐगा। बंदर को उस्तरा मिले तो वो क्या करेगा ?

उदाहरण के तौर पर मोदी जी की प्रिय ‘हृदय योजना’ में जब व्यवाहरिक, सुंदर व भावानुकूल वृन्दावन परिक्रमा मार्ग 2.5 किमी० बन ही रहा है, तो शेष 8 किमी. परिक्रमा पर एक नया डिजाइन बनाकर लाल पत्थर का भौंडा काम कराने का क्या औचित्य है ? पर ये पूछने वाला कोई नहीं।

योगी जी के मंत्रियों और अफसरों ने अपने अहंकार और मोटे कमीशन के लालच में, ब्रज में ऐतिहासिक जीर्णोद्धार करती आ  रही ‘द ब्रज फाउंडेशन’ की महत्वपूर्ण भूमिका को नकार कर, विकास के नाम पर, पैसे की बर्बादी का तांडव चला रखा है। जबकि ब्रज फाउंडेशन के योगदान को मोदी जी से लेकर हरेक ने आजतक खूब सराहा है।

उल्लेखनीय है कि योगी सरकार के आते ही 9 पौराणिक कुंडों के जीर्णोद्धार का 27 करोड़ रुपये के काम का ठेका 77 करोड़ रुपये में दिया जा रहा था। गोवर्धन क्षेत्र के विकास का काम जयपुर के मशहूर घोटालेबाज अनूप बरतरिया को सौंपा जा रहा था। द ब्रज फाउंडेशन ने जब इसका विरोध किया, तो सब एकजुट होकर गिद्ध की तरह उस पर टूट पड़े । जिससे ये सब मिलकर ब्रज विकास के नाम पर खुली लूट कर सकें।

उधर सभी संतगण व भक्तजन गत 15 वर्षों से द ब्रज फाउंडेशन के कामों को पूरे ब्रज में देखते व सराहते आये हैं। मोदी जी के खास व भारत के  नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत का कहना है कि, ‘जैसा काम बिना सरकारी पैसे के 15 वर्षों में ब्रज में ब्रज फॉउंडेशन ने  किया है वैसा काम 80 प्रतिशत प्रान्तों के पर्यटन विभागों ने पिछले 71 वर्ष में नहीं किया’।

सारी दुनिया के श्री राधाकृष्ण भक्तों, संतगणों व ब्रजवासियों के लिए ये चिंता और शोभ की बात होनी चाहिए कि 71 वर्षों से आश्रम के नाम पर केवल अपने लिए गेस्ट हाउस बनाने वाले राजनैतिक लोग आज ब्रज की सेवा व विकास के नाम हम सबका खुलेआम उल्लू बना रहे हैं । ब्रज विकास के नाम पर इनकी बनाई हर योजना एक धोका है। इससे न तो ब्रज के कुंड, सरोवर, वन सुधरेंगे और न ही आम ब्रजवासियों को कोई लाभ होगा। ब्रज को ‘डिज्नी वर्ल्ड’ बनाकर बाहर के लोग यहां कमाई करेंगे।

गत 4 वर्षों से मैं इन सवालों पर केंद्र और राज्य सरकार का ध्यान इसी कालम के माध्यम से और पत्र लिखकर भी आकर्षित करता रहा हूं, पर किसी ने परवाह नहीं की। अब मैंने प्रधानमंत्री जी से समय मांगा है, ताकि उनको जमीनी हकीकत बताकर आगे की परिस्थितियां सुधारने का प्रयास किया जा सके। बाकी हरि इच्छा।

Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, May 16, 2016

साम्यवादी निष्पक्ष चिंतन करें

क्षिप्रा नदी के तट पर सिंहस्थ कुंभ में दुनियाभर के आस्थावान लोगों का सागर उमड़ पड़ा है। इतने विशाल जनसमूह की आवश्यकताओं को देखते हुए मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने प्रशंसनीय व्यवस्थाएं की हैं, जिसके लिए वो बधाई की पात्र है। यहां आए सभी संतों को केंद्र सरकार से दो अपेक्षाएं हैं, एक तो यथाशीघ्र राम मंदिर का निर्माण हो और दूसरा गौ-हत्या प्रतिबंधित हो। दोनों ही मांगें सर्वथा उचित और चिरअपेक्षित हैं। पर अब तक केंद्र में ऐसी कोई सरकार नहीं रही, जो संवेदनशीलता से इन मांगों पर कुछ करती। पहली बार संतों को लग रहा है कि इरादे के पक्के और आस्थावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहते अगर यह काम नहीं हुआ, तो फिर भविष्य में न जाने कितने दिन टले। 

भारत के लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि यहां बहुमत सरकार लेकर भी नरेंद्र मोदी वह सब नहीं कर सकते, जो एक राजतंत्र में करना बहुत सरल होता है। राजा प्रजा की भावना को समझकर तुरंत निर्णय ले सकता है, लेकिन लोकतंत्र का चुना हुआ प्रधानमंत्री अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दबावों के तहत काम करता है। इसलिए कई बार चाहते हुए भी वो सब नहीं कर पाता, जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। 

इन दोनों ही सवालों पर मेरा गत 30 वर्षों से पूरा समर्थन रहा है। पर मुझे लगता है कि ये मुद्दे राजनैतिक नहीं हैं। चुनावी भी नहीं हैं, क्योंकि जब इनको राजनीति से जोड़ा जाता है, तब ये और उलझ जाते हैं। ये बात सही है कि राम जन्मभूमि आंदोलन से भाजपा को भारत में बड़ा जनाधार मिला, लेकिन उसके बाद इस मुद्दे की राजनैतिक सार्थकता समाप्त हो गई। प्रमाण सामने है कि जब-जब इस मुद्दे को लेकर भाजपा ने राजनीति करनी चाही, तब-तब परिणाम अपेक्षित नहीं रहे। इसलिए चाहे उत्तर प्रदेश का भावी चुनाव हो या अन्य किसी राज्य में, इन मुद्दों को अगर चुनाव से हटकर भारत के सांस्कृतिक उत्थान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाए, तो इनके सफल होने की ज्यादा संभावना है। 

देशी गाय की सार्थकता, उसका वैज्ञानिक महत्व, उससे किसान को आर्थिक लाभ और बिना किसी धर्म के भेद के हर किसी व्यक्ति को होने वाले स्वास्थ्य लाभ, कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध तथ्य हैं, जिनके कारण देशी गाय की हत्या पर प्रतिबंध अविलंब लगना चाहिए। मुसलमान हों, कम्युनिस्ट हों या गैर-भाजपाई राजनैतिक दल हों, किसी को भी इस मुद्दे पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो ऐसी राजनीति कर रहे हैं, वे या तो देशी गाय के इन गुणों से परिचित नहीं हैं या फिर परिचित होकर भी वे अपनी राजनीति के कारण गौहत्या प्रतिबंध को समर्थन नहीं देना चाहते। अगर यह वृत्ति है, तो मेरी दृष्टि में यह समाजद्रोह ही नहीं, देशद्रोह से कम नहीं है। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने सहपाठी रहे कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी से एक प्रश्न पूछना चाहता हूं, क्या तुमने देशी गाय के मूत्र के रोगों में उपयोग पर कोई जानकारी हासिल की है ? क्या तुमने देशी गाय के गोबर की खाद की कृषि के लिए उपयोगिता पर उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों को देखा है ? क्या तुमने गोरस के फायदों को जाना है ? अगर नहीं, तो खुले दिमाग से जान लो। अगर जानते हो, तो फिर तुम किस मुंह से गौहत्या का समर्थन करते हो ? कम्युनिस्ट हों या मुसलमान, जब तक वे अपनी राजनीति और धर्मांधता के चलते इन तथ्यों से मुंह मोड़ते रहेंगे, तब तक भारत का बहुसंख्यक समाज दारिद्र में जीता रहेगा। क्योंकि भारत सोने की चिड़िया था, जब इन मूल्यों का समाज में सम्मान था। जब से हमने भारत के इस ऋषिजन्य ज्ञान को तिलांजलि देकर औपनिवेशिक शासकों का थोपा हुआ पश्चिमी ज्ञान और जीवनशैली को अपनाया है, तब से हमारा समाज गरीब, बीमार, दुखी और त्रस्त होता चला गया है। 

कार्ल माक्र्स की तरह अगर आपको सर्वहारा की चिंता है, तो सर्वहारा के हित में आप लोगों को चाहिए कि गौवंश आधारित जीवनशैली अपनाने का संदेश सर्वहारा को दें। कार्ल माक्र्स ने अपना सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए जवानी के दो दशक पुस्तकों के ढेर में बिता दिए। उन्हें भारत की इस सार्वभौमिक संस्कृति को जानने का समय ही नहीं मिला। अगर मिलता तो वे अपने ग्रंथ ‘कैपिटल’ में एक अध्याय लिखते कि, ‘दुनिया के मजदूरो  अगर सुख से जीना चाहते हो, तो भारत की देशी गाय को जीवन में अपना लो।’ 

रही बात राम मंदिर की, तो हमने पिछले 30 वर्षों में बार-बार में यह लिखा और बोला है कि काशी, मथुरा और अयोध्या में भगवान शिव, भगवान राम और भगवान कृष्ण के मंदिरों का निर्माण होने से मुसलमानों का अहित नहीं होगा, बल्कि लाभ ही होगा। क्योंकि 500 वर्ष पहले जो खाई हिंदू-मुसलमानों के बीच बन गई, वह इस एक कदम से पट जाएगी। तब मुसलमान और हिंदू एक साथ खड़े होकर अपना और देश का जीवनस्तर उठाने की तरफ आगे बढ़ेंगे। आज पूरे विश्व का मुसलमान समाज पश्चिम की दादागिरी से दुखी है और नाराज है। भारत की सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाला हिंदू समाज भी पश्चिमी संस्कृति से आहत और नाराज है। इस तरह हम हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि हम दोनों संस्कृतियों की दुश्मन पश्चिमी संस्कृति है, जिसे अपने जीवन से जितनी जल्दी हो और जितना ज्यादा निकाल दिया जाए, हमारा समाज सुखी और संपन्न हो जाएगा। यह बात दोनों धर्मों के धर्माचार्यों को भी समझनी चाहिए। सिंहस्थ कुंभ में स्नान करने के बाद बड़े पवित्र मन से मैं यह याचना दोनों धर्मों के धर्माचार्यों से कर रहा हूं, आगे हरि इच्छा। 

Monday, February 29, 2016

पूरी शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए

एक तरफ जेएनयू के वामपंथी छात्र वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर मां दुर्गा पर अश्लील टिप्पणियांे वाले पर्चे बांटकर भारत की पारंपरिक आस्थाओं पर आघात करना अपना धर्म समझते हैं। दूसरी तरफ देश की शिक्षा व्यवस्था में निरंतर आ रहे ऐसे पतन से चिंतित मौलिक विचारक और चिंतक इस पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही भारत के लिए अभिशाप मानते हैं। क्योंकि पिछले साठ वर्षों में जो शिक्षा इस देश में दी जा रही है, वो अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गई है। आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में किसी राजनैतिक दल ये नहीं कहा कि वे चरित्रवान, मूल्यवान, नैतिक युवाओं का निर्माण करेंगे। वे कहते रहे कि विकास करेंगे और नौकरी देंगे। नौकरी दे नहीं पाते और विकास का मतलब क्या है? कैसा विकास, जिसमे चरित्र का विकास ही न हो ऐसी शिक्षा किस काम की? पर इसकी कोई बात कभी नहीं करता। आज देश में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में नकल करके या रट्टा लगाकर केवल डिग्रियां बटोरी जा रही है। नाकारा युवाओं की फौज तैयार की जा रही है। जो न खेत के मतलब के हैं और न शहर के मतलब के हैं।

गत दिनों हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला में पुनरुत्थान विद्यापीठ के साझे प्रयास से देशभर के 500 से अधिक विद्वान अहमदाबाद में इकट्ठा हुए और शिक्षा व शोध की दिशा व दशा पर गहन चिंतन किया। इस सम्मेलन में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि शिक्षा में ऐसा बदलाव हो कि शिक्षा न सिर्फ लोगों को ज्ञानवान बनाये बल्कि चरित्रवान बनाये। उनकी कला उनके व्यक्तिव का विकास हो। उन्हें समाज के प्रति सम्वेदनशील बनाये और वे बिना किसी नौकरी की अपेक्षा के स्वावलम्भी हो कर भी जीवन जी सकें। समाज को दिशा दे सकें। समाज को सही रास्ते पर ले जा सकें। ऐसी शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, इस बात पर गहन चिंतन हुआ। भारत में शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व धर्म कोई अलग-अलग विषय नहीं रहा। शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मबोध के लिए सुपात्र बनाना था। जो ब्रह्म विद्या का ही अंश था। जिसके लिए ऋषियों ने तप किया। ऐसे ज्ञान से मिली शिक्षा तप, आत्मबोध व राष्ट्र कल्याण की भावना से ओतप्रोत होती थी। आज की तरह केवल व्यवसाय पाने का और भौतिक सुख प्राप्त करने का कोई लक्ष्य ही नहीं था। पर आज शिक्षा को व्यवसाय बनाकर और रोजगार के लिए परिचय पत्र बनाकर हमने देश की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया।

उधर हर वर्ग को समान शिक्षा की बात कर हमने भारत की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। एकलव्य का उदाहरण देकर भारत के इतिहास का मजाक उड़ाने वाले ये भूल जाते हैं कि जहां योग्य छात्रों को ऋषि परंपरा से शिक्षा मिलती थी, वहीं लोक जीवन में भी शिक्षा की समानांतर प्रक्रिया चलती रहती थी। रैदास, कबीर और नानक इस दूसरी परंपरा के शिक्षक थे, जो जूता गांठने, कपड़ा बुनने व खेती करने के साथ जीवन मूल्य की शिक्षा देते थे। आज दोनों ही परंपरा लुप्त हो गई।

जब तक राज्य, समाज और शिक्षा तीनों की तासीर एक जैसी नहीं होगी देश का उत्थान नहीं हो सकता। हम पूर्व और पश्चिम का समन्वय करके भारत के लिए उपयोगी शिक्षा पद्धति नहीं बना सकते। ये तो ऐसा होगा कि मानो बेर और केले के पेड़ को साथ-साथ लगाकर उनसे कहें कि आप दोनों आपसी प्रेम से रहो। ये कैसे संभव है ? बेर का पेड़ जब झूमेगा तो केले के पत्ते फाड़ेगा ही। कहां भोगवादी पश्चिमी शिक्षा और कहां आत्मबोध वाली तपनिष्ठ भारतीय शिक्षा।

वैसे भी शिक्षा के स्वरूप को लेकर भारत से ज्यादा संकट आज पश्चिम में है। पश्चिम भौतिकता की दौड़ में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर दिशाहीन हो गया है। इसलिए पश्चिम के विद्वान विज्ञान से ज्ञान की ओर व भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर रूख कर रहे हैं। जबकि हम अपनी ज्ञान की परंपरा छोड़कर विज्ञान के मोह में दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में अब तक तो हम विफल रहे हैं। न तो हमने पश्चिम जैसी भौतिक उन्नति प्राप्त की, न प्राप्त करने की संभावना हैं और न उस्से समाज से सुखी होने वाला है। इस शिक्षा से हम सामथ्र्यवान पीढ़ी का निर्माण भी नहीं कर पाए। पूरी शिक्षा हमारे समाज पर अभिशाप बनकर रह गई है। एक ही उदाहरण काफी होगा। आजतक देश में कितने अरब रूपये पीएचडी के नाम खर्च किए गए ? पर इस तथाकथित शोध से देश की कितनी समस्याओं का हल हुआ ? उत्तर होगा नगण्य। यानि शोध के नाम पर ढकोसला हो रहा है या पश्चिम के शोध को नाम बदलकर पेश किया जा रहा है।

आजकल अखबार इन खबरों से भरे पड़े हैं कि हर परीक्षा केंद्र में ठेके पर नकल कराई जा रही है। प्रांतों की छोड़ो राजधानी दिल्ली के कालेजों तक में कक्षा में पढ़ाई नहीं होती। छात्र दाखिला लेने और फिर परीक्षा देने आते हैं। ऐसी शिक्षा को देश का करदाता कब तक और क्यों ढ़ोए ? इसलिए इस पूरी शिक्षा व्यवस्था के अमूल-चूल परिवर्तन का समय आ गया है। शिक्षा के उद्देश्य, उसकी सार्थकता, उसकी समाज के प्रति उपयोगिता व उसमें वर्तमान समस्याओं के समाधान की क्षमता पर स्पष्ट दृष्टि की जरूरत है। जिसके लिए देश में आज पर्याप्त योग्य चिंतक और अनुभवी शिक्षा शास्त्री मौजूद हैं। जिन्होंने अपने स्तर पर देशभर में गत दशकों में नूतन प्रयोग करके सार्थक समाधान खोजे हैं। आवश्यकता है राजनैतिक इच्छाशक्ति की और क्रांतिकारी सोच के लिए हिम्मत की। एक तरफ तो यह कार्य मानव संसाधन मंत्रालय को करना है। बिना इस बात की परवाह किए उस पर भगवाकरण का आरोप लगेगा। दूसरी तरफ यह कार्य उन लोगों को करना है, जो शिक्षा में बदलाव की बात करते हैं, पर औपनिवेशिक्षक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते।

उधर आजकल बाबा रामदेव पूरे देश में एक हजार स्कूल आचार्य कुल के नाम से स्थापित करने की तैयारी में है। उनमें जैसी ऊर्जा व जीवटता है, वे ये करके भी दिखा देंगे। पर क्या उस शिक्षा से भारत का आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान हो पाएगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे गोरे साहब की जगह काले साहब आ गये, वैसे ही अंग्रेजी शिक्षा की जगह गुरूकुल शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति होकर रह जाए। क्योंकि भारत की शिक्षा पद्धति में मुनाफे का कोई खाना हो ही नहीं सकता। यह सोचना गलत है कि बिना मुनाफे की शिक्षा का माॅडल संभव नहीं है। संभव है अगर शिक्षा में गुणवत्ता है। केवल जोखिम उठाने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है।

Monday, December 14, 2015

गोडसे ने नहीं की महात्मा गांधी की हत्या

 दुनिया यही मानती है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि आत्मा अजर अमर है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस दृष्टि से महात्मा गांधी की आत्मा भी अजर अमर है। असली हत्या तो उनके विचारों की की गई और ये काम आजादी मिलते ही शुरू हो गया।
 
 जिस अखबार में आप यह लेख पढ़ रहे हैं, वो अखबार आपकी मात्र भाषा का है। अगर ये अंग्रेजी में होता तो क्या आप इसे पढ़ते ? भारत के कितने लोग अंग्रेजी लिख-पढ़ सकते हैं। पर विड़बना देखिए कि हमारी शिक्षा से लेकर न्याय पालिका तक, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि इस भाषा को समझने वाले देश में 2 फीसदी लोग भी नहीं हैं और यही 2 फीसदी लोग भारत के संसाधनों पर सबसे ज्यादा कब्जा जमाकर बैठे हैं, सबसे ज्यादा मौज भी इन्हीं को मिल रही है। शेष भारतवासियों का हक छीनकर ये पनप रहे हैं। पर आम भारतवासियों की आवाज इनके कानों तक नहीं पहुंचती। उनका दर्द इनके सीने में नहीं उठता। इन्हंे तो हर वक्त अपनी और अपने कुनबे की तरक्की की चिंता रहती है और हर तिगड़म लगाकर ये विकास का सारा फल हजम कर जाते हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि हमने गांधीजी के विचारों की हत्या कर दी। वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी एक दिन भी हिंदुस्तानियों पर हावी हो, क्योंकि वे इसे गुलाम बनाने की भाषा मानते थे।
 
 इस लेख में आगे कुछ और बताने से ज्यादा जरूरी होगा कि हम जानें कि मातृभाषा के लिए और अंग्रेजी के विरूद्ध गांधीजी के क्या विचार थे और फिर देखें कि क्या आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है ? अगर हां तो फिर उस गलती को दूर करने की तरफ सोचना होगा।
 
अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ गांधीजी ने कहा, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। ....अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बड़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’ वे आगे कहते हैं कि “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता।”
 
भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है ‘‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजी के जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’
 
एक अवसर पर गांधीजी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा है ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते, जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
 
उन्होंने यह भी कहा कि, “मुझे लगता है कि जब हमारी संसद बनेगी तब हमें फौजदारी कानून में एक धारा जुड़वाने का आन्दोलन करना पड़ेगा। यदि दो व्यक्ति भारत की एक भाषा जानते हों और इस पर भी उनमें से कोई दूसरे को अंग्रेजी में पत्र लिखे या एक-दुसरे से अंग्रेजी में बोले तो उसे कम से कम छः महीने की सख्त सजा दी जायेगी।’’
 
साफ जाहिर है कि गांधीजी को भारत की असलियत की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि अगर भारत में आर्थिक विकास और शिक्षा का काम गांवों की बहुसंख्यक आबादी को केंद्र में रखकर किया जाए, तभी भारत का सही विकास हो पाएगा। अन्यथा चंद लोग तो मजे करेंगे और बहुसंख्यक आबादी बर्बाद होगी। यही आज हो रहा है। असहिष्णुता हिंदू और मुसलमान के बीच में नहीं, बल्कि 2 फीसदी अंग्रेजीदां वर्ग और 98 फीसदी आम हिंदुस्तानी के बीच है। जिसे दूर करने के लिए अपनी भाषा नीति को बदलना होगा। क्या संसद इस पर विचार करेगी ?

Monday, August 18, 2014

आयुर्वेद से ही होगी स्वास्थ्य की क्रांति

आज मेडीकल साइंस ने चिकित्सा और स्वास्थ्य की दुनिया में बेशक पैर पसार लिए हों, लेकिन मेडीकल साइंस के विस्तार के बाद से लोग और अधिक बीमार पड़ने लगे हैं। इस बात को हमें नहीं भूलना चाहिए। भारत की अपनी पारंपरिक आयुर्वेद शास्त्र की पद्धति खत्म सी ही हो गई। ऐसे में मोदी सरकार ने एक बार फिर हमें आयुर्वेद पद्धति की ओर बढ़ने को प्रेरित किया है। वैसे निजीस्तर पर गांव से लेकर देश के स्तर तक अनेक वैद्यों ने बिना सरकारी संरक्षण के आयुर्वेद को आजतक जीवित रखा। इसी श्रृंखला में एक युवा वैद्य आचार्य बालकृष्ण ने तो अपनी मेधा शक्ति से आयुर्वेद का एक अंतराष्ट्रीय तंत्र खड़ा कर दिया है। भारत के तो हर गांव, कस्बे व शहर में आपको पतंजलि योग पीठ के आयुर्वेद केंद्र मिल जाएंगे। कुछ लोग इसकी निंदा भी करते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह पारंपरिक ज्ञान का व्यवसायिककरण करना ठीक नहीं है। पर यथार्थ यह है कि राजाश्रय के अभाव में हमारी वैदिक परंपराएं लुप्त न हों, इसलिए ऐसे आधुनिक प्रयोग करना बाध्यता हो जाती है। आज आचार्य बालकृष्ण न सिर्फ आयुर्वेद का औषधियों के रूप में विस्तार कर रहे हैं, बल्कि ऋषियों की इस ज्ञान परंपरा को सरल शब्दों में पुस्तकों में आबद्ध कर उन्होंने समाज की बड़ी सेवा की है।

हाल ही में उनकी एक पुस्तक ‘आयुर्वेद सिद्धांत रहस्य’ नाम से प्रकाशित हुई है। पुस्तक के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है कि ‘‘भारतीय संस्कृति में मनुष्य जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर आत्मोन्नति करना और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर प्रभु से मिलना है। इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि व उपलब्धि का वास्तविक साधन और आधार है - पूर्ण रूप से स्वस्थ शरीर,  क्योंकि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ के अनुसार धर्म का पालन करने का साधन स्वस्थ शरीर ही है। शरीर स्वस्थ और निरोग हो तभी व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत् कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है, किसी सुख-साधन का उपभोग कर सकता है, कोई उद्यम या उद्योग करके धनोपार्जन कर सकता है, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा कर सकता है, आत्मकल्याण के लिए साधना और ईश्वर की आराधना कर सकता है। इसीलिए जो सात सुख बतलाए गए हैं, उनमें पहला सुख निरोगी काया-यानी स्वस्थ शरीर होना कहा गया है।’’

अगर हम इस बात से सहमत हैं, तो  हमारे लिए यह पुस्तक एक ‘हेल्थ इनसाइक्लोपीडिया’ की तरह उपयोगी हो सकती है। इसमें आचार्यजी ने आयुर्वेद का परिचय, आयुर्वेद के सिद्धांत, मानव शरीर की संरचना और उसमें स्थित शक्तियों का वर्णन बड़े सरल शब्दों में किया है। जिसे एक आम पाठक  भी पढ़कर समझ सकता है। आयुर्वेद के अनुसार द्रव्य कौन से हैं और उनका हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? ऋतुचक्र क्या है और ऋतुओं के अनुसार हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए, इसका भी बहुत रोचक वर्णन है। आज हम 12 महीने एक सा भोजन खाकर अपने शरीर का  नाश कर रहे हैं। जबकि भारत षड ऋतुओं का देश है और यहां हर ऋतु के अनुकूल भोजन की एक वैज्ञानिक व्यवस्था पूर्व निर्धारित है।

भोजन कैसा लें, कितना लें और क्यों लें ? इसकी समझ देश के आधुनिक डॉक्टरों को भी प्रायः नहीं होती। आपको कुशल डॉक्टर रोगी मिलेंगे। ‘आयुर्वेद सिद्धांत रहस्य’ पुस्तक में भोजन संबंधी जानकारी बड़े विस्तार से दी गई है। इसके साथ ही जल, दूध, घी, मक्खन, तेल, शहद आदि का भी प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके  से कैसे किया जाए, इस पर विवेचना की  गई है। भारत के लोगों में पाए जाने वाले मुख्य सभी रोगों का वर्गीकरण कर उनके कारणों पर इस पुस्तक में बड़ा सुंदर प्रकाश डाला गया है। इस सबके बावजूद भी अगर हम बीमार पड़ते हैं, तो चिकित्सा कैसी हो, इसका वर्णन अंतिम अध्यायों में किया गया है। आयुर्वेद को लेकर  यूं तो देश में एक से एक सारगर्भित ग्रंथ प्रकाशित होते रहे हैं और आगे भी होंगे। पर बाबा रामदेव के स्नेही एक युवा वैद्य ने जड़ी-बूटियों को हिमालय और देश में खोजने और आयुर्वेद को घर-घर पहुंचाने का छोटी-सी उम्र में जो एतिहासिक प्रयास किया है, उसे भविष्य में भी सराहा जाएगा।