कांग्रेस की हैरतअंगेज हार से उसके दुश्मन ही हैरान है। चुनाव के नतीजों के बाद पता लगा कि कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा लगाने तक में विश्लेषक बुरी तरह से नाकाम रहे।
इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।
इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।