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Monday, May 26, 2025

राजनीति में अपशब्दों का बढ़ता प्रचलन !

भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, एक ऐसा देश है जहाँ विविधता उसकी ताकत और चुनौती दोनों है। यहाँ की राजनीति में विभिन्न दलों के राजनेता अपने विचारों, नीतियों और नेतृत्व के माध्यम से जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का बढ़ता उपयोग एक गंभीर मुद्दा बन गया है। यह न केवल सार्वजनिक विमर्श के स्तर को नीचे लाता है, बल्कि यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, जैसे स्वतंत्रता, समानता, सम्मान और संवाद के खिलाफ भी है।



भारतीय राजनीति में अपशब्दों का प्रयोग पहले कतई नहीं होता था। लेकिन हाल के दशकों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में चिंताजनक वृद्धि हुई है। विभिन्न दलों के राजनेता, चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्षी, अक्सर एक-दूसरे पर निजी हमले करने, अपमानजनक टिप्पणियाँ करने और समाज को विभाजित करने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ राजनेताओं ने अपने विरोधियों को नीच, मवाली, गद्दार, जैसे शब्दों से संबोधित किया है।



ऐसे बयानों का उद्देश्य अक्सर अपने समर्थकों को उत्तेजित करना और विपक्ष को कमज़ोर करना होता है। लेकिन यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़ता है। 2017 में, एक सांसद ने एक धार्मिक आयोजन में जनसंख्या वृद्धि के लिए एक विशेष समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, देश में समस्याएँ खड़ी हो रही हैं जनसंख्या के कारण। इसके लिए हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं। ज़िम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवियों और चालीस बच्चों की बात करते हैं। इस तरह के बयान न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि समाज में विभाजन को और गहरा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है पर उस पर प्रहार जनसंख्या नियंत्रण की नीति बना कर किया जाना चाहिए न कि केवल भड़काऊ बयान देकर। 



लोकतंत्र का गुण यह है कि ये जनता की भागीदारी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौक़ा देता है। भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 19, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जाए। जब राजनेता अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सहारा लेते हैं, तो वे लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। जब राजनेता नीतियों और विचारों के बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह विमर्श का स्तर गिराता है। सार्वजनिक जीवन में हमें एक-दूसरे की नीयत पर भरोसा करना चाहिए, हमारी आलोचना नीतियों पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तित्व पर नहीं। आज के काफ़ी राजनेताओं का व्यवहार इस सिद्धांत के विपरीत हो रहा है।



गत दस वर्षों से मुसलमानों के लेकर कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के लगातार आने वाले विरोधी बयानों ने देश में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। उदाहरण के लिए, एक महिला नेता ने 2014 में एक सभा में लोगों को रामज़ादों और हरामज़ादों में बाँटने की बात कही। दूसरी तरफ़ सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हिंदू और मुसलमानों का डीएनए एक है, या मुसलमानों के बिना हिंदुत्व नहीं हैं।’ ऐसे विरोधाभासी बयानों से समाज में वैमनस्य और भ्रम की स्थिति फैलती है। जब राजनेता गैर-जिम्मेदाराना बयान देते हैं, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद और न्यायपालिका, के प्रति जनता के विश्वास को कम करता है। उदाहरण के लिए, 2024 में एक सांसद ने भाजपा पर संविधान को हज़ार घावों से खून बहाने का आरोप लगाया, जबकि भाजपा नेताओं ने विपक्षी नेताओं पर संविधान का अपमान करने का आरोप लगाया। इस तरह के आपसी आरोप-प्रत्यारोप संसद जैसे मंच की गरिमा को कम करते हैं। अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का उपयोग अक्सर असहमति को दबाने के लिए किया जाता है। पत्रकारों और आलोचकों को प्रेस्टीट्यूट जैसे शब्दों से संबोधित करना या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि असहमति और आलोचना लोकतंत्र के आधार हैं।


राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुँचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहाँ ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है।


इसके अलावा, जब राजनेता लैंगिक, धार्मिक या जातीय आधार पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, तो यह समाज के कमज़ोर वर्गों, जैसे महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति असंवेदनशीलता को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए, 2013 में एक नेता ने अपनी ही पार्टी की सांसद को सौ टंच माल कहकर संबोधित किया, जो न केवल अपमानजनक था, बल्कि लैंगिक रूप से असंवेदनशील भी था।


इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। चुनाव आयोग को राजनेताओं के अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। 2019 में, चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं को नोटिस जारी किए थे, लेकिन ऐसी कार्रवाइयों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी गैर-जिम्मेदाराना बयानों को बढ़ावा देने के बजाय, स्वस्थ विमर्श को प्रोत्साहित करना चाहिए। सोशल मीडिया पर भी ऐसी सामग्री को नियंत्रित करने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए। जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है कि वे ऐसे नेताओं का समर्थन न करें जो अपशब्दों और विभाजनकारी बयानों का सहारा लेते हैं। शिक्षा और जागरूकता अभियान इस दिशा में मदद कर सकते हैं। राजनेताओं को अपने बयानों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। संसद और विधानसभाओं में आचार समितियों को और सक्रिय करना होगा।


जबसे संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण टीवी पर होना शुरू हुआ है, तब से देश के कोने-कोने में बैठे आम जन अपने राजनेताओं का आचरण देख कर उनके प्रति हेयदृष्टि अपनाने लगे हैं। युवा पीढ़ी पर तो इसका बहुत ही खराब असर पड़ रहा है। भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं तो समाज उनका वैसे ही अनुसरण करता है। नेताओं के उद्दंड व्यवहार से समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ रही है जो सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए।  

Monday, June 13, 2022

देश में आग किसने लगाई ?


जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐन्कर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐन्कर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।



भारत के कुछ टीवी, न्यूज चैनलों के ऐन्कर तो विषय के अनुसार परिधान भी बदल देते है। अगर चन्द्रयान चांद पर उतरने वाला था तो ये कार्टून एस्ट्रोनेट की ड्रेस पहनकर चांद की सतह के ब्लोअप फोटो के सामने ऐसी कलाकारी दिखाते हैं, मानो कुछ ही क्षणों में ये खुद चांद पर उतरने वाले है। जब चन्द्रयान उतरने में नाकाम रहता है तो ये मर्सिया गाने लगते है। जैसे मुर्दनी छा गई हो। जबकि पत्रकार को संत कबीर दास जी की ये वाणी याद रखनी चाहिये, ‘‘दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’ बिना राग-द्वेष के हर विषय को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना, पैनल पर बैठे मेहमानों को अपनी बात कहने देना, नाहक विवाद को उठने से पहले रोक देना और कार्यक्रम का समापन, यदि सम्भव हो तो, समाधान के साथ करना। पर दुख की बात है कि आज भारत के अधिकतर टीवी चैनल इस आचार संहिता का पालन नहीं कर रहे। जिसके लिए काफी हदतक मौजूदा केन्द्र सरकार भी जिम्मेदार है। जो अपनी कमियां या आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। नतीजन टीवी चैनलों के पास दो ही रास्ते बचते हैंः या तो सरकार का झूठा यशगान करें या इस तरह की उत्तेजक, बिना सिर पैर की बहस करवा कर टीआरपी बढ़ाएँ।


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी। 


रही बात धर्म चर्चा की तो इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिये कि उन्होंने हजारों साल पुराने वैदिक सनातन धर्म को देश की मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि पिछली सरकारें ऐसा करने से बचती रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  बहुसंख्यक हिन्दु समाज अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा। इसलिए आज वो अवसर मिलने पर इतना मुखर हो गया है कि धर्म के हर प्रश्न पर आक्रमकता के साथ सक्रिय हो जाता है। 


हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि नूपुर शर्मा ने जो कहा वो सही था या गलत। हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे  कि भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म को लेकर क्या गलत और क्या सही कहते है। पर ये तो साफ है कि धर्म के सवाल पर टीवी चैनलों में और आम जनता के बीच भी जिस स्तरहीनता की बहस आजकल हो रही है उससे न तो सनातन धर्म का लाभ हो रहा है और न ही भारत हिन्दु राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहा है। इन बहसों से हिन्दु समाज का ही नही हर धर्म के मानने वालों का अहित हो रहा है। जो एक डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने तो भारत में भविष्य में गृहयुद्व की सम्भावनाओं की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। यह हम जैसे सभी गम्भीर नागरिकों और सनातन धर्मियों के लिए बहुत चिन्ता का विषय है। इसलिए सभी राजनैतिक दलों व संगठनों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे टीवी चैनलों पर विषयों के जानकार और गम्भीर प्रवक्ताओं को ही भेजे। स्तरहीन डिबेट में अपने प्रतिनिधी भेजे ही नहीं, जो असंसदीय भाषा का प्रयोग करें। टीवी चैनलों को भी धर्म चर्चा में पोंगे पण्डितों, फर्जी धर्माचार्यों और कठमुल्लों को न बुलाएं।


धर्म के विषय पर अगर ये टीवी चैनल गम्भीरता से बहस करवाये तो समाज का बहुत लाभ हो सकता है। सदियों की उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती है। भारत अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत की पुनः स्थापना कर सकता है। बशर्ते इन बहसों में धर्म के धुरंधर और विद्वान शामिल हो। उन्हें अपनी बात कहने दी जाये। ऐन्कर भी पढ़े लिखे हो, मूर्ख नहीं हो, आत्ममुग्ध नहीं हो और विषय पर शोध करके आयें। इस तरह की बहसों से सरकार को भी कोई अपत्ति नहीं होगी। टीआरपी भी धीरे-धीरे बढ़ेगी और स्वास्थ्य समाज व राष्ट्र का निर्माण होगा। राष्ट्र निर्माण का दावा करने वाले संगठनों की सत्ता में भी अगर धर्म के विषयों पर ऐसी गम्भीर बहसें नहीं होंगी, तो फिर कब होंगी ? इसलिए इन संगठनों को भी सोचना होगा कि क्या वे वाकई राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है या आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके, केवल अपना राजनैतिक हित साधना चाहते है?

Monday, May 23, 2022

मंदिरों पर मस्जिदें क्यों खड़ी रहें ?


क्या भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश में एक भी मंदिर ऐसा है जो किसी मस्जिद को ध्वस्त करके बना हो? अगर है तो ये बात मुसलमान समाज सामने लाये ,हिंदू उस मंदिर को वहाँ से हटाने को सहर्ष राज़ी हो जाएँगे। जबकि देश में लगभग 5000 मस्जिदें ऐसी हैं जो हिंदू मंदिरों को तोड़कर उनके भग्नावेशों के उपर बनाई गयी हैं। 


1990 में पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर में एक व्याख्यान देने मैं गया तो वहाँ के लोग मुझे शर्की वंश के नवाबों की बनवायी इमारतें दिखाने ले गये। जिनमें से एक मशहूर इमारत का नाम था अटाला देवी की मस्जिद। नाम में ही विरोधाभास स्पष्ट था। देवी की मस्जिद कैसे हो सकती है ? 



जो धर्मनिरपेक्षतावादी ये कहते आये हैं कि इतिहास को भूल जाओ आगे की बात करो उनसे मैंने अपने इसी साप्ताहिक कॉलम में पिछले दशकों में बार-बार ये कहा है कि ये कहना आसान है पर करना मुश्किल। हम ब्रजवासी हैं और बचपन से श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर ईदगाह की इमारत खड़ी देखकर हमें वो ख़ौफ़नाक मंजर याद आ जाता है, जब किसी धर्मांध आततायी मुसलमान आक्रामक ने वहाँ खड़े विशाल केशवदेव मंदिर को ध्वस्त करके ये इमारत तामीर की थी। हर बार हमारे सीने में यही ज़ख़्म दुबारा हरा हो जाता है। 


यही बात उन 5000 मस्जिदों पर भी लागू होती है जो कभी ऐसे ही आक्रांताओं द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी थीं। इनमें से हरेक मंदिर से उस नगर के भक्तों की आस्था सदियों से जुड़ी है। फिर वो चाहे विदिशा, मध्यप्रदेश में मंदिरों को तोड़कर बनाई गयी बिजमंडल मस्जिद हो, रुद्र महालय को तोड़कर बनाई पाटन गुजरात की मस्जिद हो, भोजशाला परिसर में सरस्वती मंदिर को तोड़कर बनाई गयी मस्जिद हो, या बंगाल में आदिनाथ मंदिर को तोड़कर बनाई गयी मदीना मस्जिद हो। जिसे आज भारत की सबसे बड़ी मस्जिद माना जाता है। कहा तो ये भी जाता है कि दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे भगवान राम की विशाल मूर्ति दबी पड़ी है। जिस पर चलकर नमाज़ी जाते हैं। 


मेरे पुराने पत्रकार मित्र व भाजपा के दो बार सांसद रहे बलबीर पुंज जब प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के साथ लाहौर गये थे तो एक प्रसिद्ध होटल में खाना खाने गये। जहां जगह-जगह हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों के सिर पर गड्ढे बनाकर उनमें मेहमानों द्वारा सिगरेट की राख झाड़ने का काम लिया जा रहा था। ऐसे अपमान को देखकर कौन और कैसे अपने अतीत को भूल सकता है ? 


ज्ञानवापी मस्जिद के विवाद में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं को ‘प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप ऐक्ट 1991’ की याद दिलायी जा रही है। ये ऐक्ट अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद बनाया गया था ताकि आगे किसी और मस्जिद को लेकर ऐसा विवाद खड़ा ना हो। पर क्या इस क़ानून को बनाने से वो सब ज़ख़्म भर गए जो सदियों से हर शहर के हिंदू अपने सीने में छिपाए बैठे हैं? जिन शहरों में उनकी आस्था, संस्कृति, ज्ञान और भक्ति के केंद्रों को ध्वस्त करके उन पर ये मस्जिदें बना दी गयीं थीं? न भरे हैं न कभी भरेंगे। बल्कि हर दिन और ताज़ा होते रहे हैं। आप हमारी पिटाई करो और उसकी फ़ोटो खींच कर रख लो। फिर रोज़ वो फ़ोटो हमें दिखाओ और कहो कि भूल जाओ तुम्हारी कभी पिटाई हुई थी। तो क्या हम भूल पाएँगे? 


धर्मनिरपेक्षवादी, साम्यवादी और मुसलमान, भाजपा व आरएसएस पर ये आरोप लगाते हैं कि ये दल और संगठन हिंदुओं की भावना भड़काकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते आए हैं। उनका ये आरोप भी है कि भाजपा की मौजूदा सरकारें रोज़ बढ़ती मँहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार पर से ध्यान बटाने के लिये ऐसे मुद्दे उछलवाती रहती हैं। उनके इस आरोप में दम है। पर क्या इस आरोप को लगाकर वो पाप धुल जाता है जो इन मस्जिदों को देखकर रोज़ आम हिंदू को याद आता रहा है और वो लगातार अपमानित महसूस करता आया है? नहीं धुलता । 


इसीलिये आज हिंदू समाज योगी और मोदी के पीछे खड़ा हो गया है, इस उम्मीद में कि ये ऐसे मज़बूत नेता हैं जो सदियों पहले खोया उनका सम्मान वापिस दिला रहे हैं। पर इसमें भी एक पेच है। भाजपा के राज में भी जहां कहीं भी काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर की तरह आधुनिकीकरण के नाम पर हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया है, उससे वहाँ के स्थानीय हिंदुओं को वही पीड़ा हुई है जो सदियों पहले मुसलमानों के हमलों से होती थी। इसी तरह भाजपा शासन में मथुरा के गोवर्धन क्षेत्र में स्थित पौराणिक संकर्षण कुंड व रुद्र कुंड का अकारण विध्वंस 2018 में घोटालेबाज़ों के इशारे पर हुआ। उससे भी सभी ब्रजवासियों को भारी पीड़ा हुई है। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि योगी राज में हिंदू धर्म व संस्कृति पर ऐसा वीभत्स हमला क्यों किया गया ? 


यहाँ भाजपा व संघ के लिए एक सलाह है। अगर वे केवल मंदिर-मस्जिद और मुसलमान के मुद्दे में ही उलझे रहे और आम जनता की आर्थिक परेशानियों पर ध्यान नहीं दिया तो यहाँ भी श्रीलंका जैसे हालात कभी भी पैदा हो सकते हैं। ख़ासकर तब जन मुफ़्त का राशन मिलना बंद हो जाएगा। 


प्रेस का गला दबाकर, इन सवालों को उठाने वालों को अपनी ट्रोल आर्मी से देशद्रोही या वामपंथी कहलवाकर, उन पर एफ़आईआर दर्ज करवाकर आप कुछ समय के लिए तो आम लोगों को भ्रमित कर सकते हैं, पर लम्बे समय तक नहीं। वो तो कोई मज़बूत और विश्वसनीय विकल्प अभी खड़ा नहीं है वरना इन भीषण समस्याओं के चलते अब तक विपक्ष हावी हो जाता। जैसा कई राज्यों में हुआ भी है। इसलिये कोई मुग़ालते में न रहे। अगर भरे पेट वाले हिंदुओं के लिये मंदिर-मस्जिद का सवाल ज़रूरी है तो ख़ाली पेट वाले करोड़ों हिंदुओं के लिये मँहगायी, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार का सवाल उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है। इनका समाधान नहीं मिलने पर यही लोग आक्रोश में सड़कों पर भी उतरते हैं और पुलिस की लाठी-गोली झेलकर भी वहाँ डटे रहते हैं। इनके ही सैलाब से सरकारें क्षणों में अर्श से फ़र्श पर आ जाती हैं। इसलिए उन सवालों पर भी ईमानदारी से खुलकर बात होनी चाहिये। जिस उत्साह से मंदिर-मस्जिद की बात आज की जा रही है। 


जहां तक भाजपा व आरएसएस की मंदिर राजनीति का प्रश्न है, जिसे लेकर धर्मनिरपेक्ष दल आए दिन उनके ख़िलाफ़ बयान देते हैं, तो इसका सरल हल है। हर वो मस्जिद जो कभी भी हिंदुओं के मंदिर तोड़कर बनायी गयी थी उसे खुद-ब-खुद मुसलमान समाज आगे बढ़कर हिंदुओं को सौंप दें। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। वैसे भी खाड़ी के देशों की आर्थिक मदद से पिछले 30 वर्षों में देश भर में एक से बढ़कर एक भव्य मस्जिदें खड़ी हो चुकी हैं, जिनसे हिंदुओं को कोई गुरेज़  नहीं है। तो फिर हिंदुओं के इन प्राचीन पूजास्थलों पर बनी मस्जिदों को लेकर इतना दुराग्रह क्यों? 

Monday, May 16, 2022

हिंसा नहीं आध्यात्म के बल पर बने हिंदू राष्ट्र


पिछले दिनों हरिद्वार में जो विवादास्पद और बहुचर्चित हिंदू धर्म संसद हुई थी उसके आयोजक स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से पिछले हफ़्ते वृंदावन में लम्बी चर्चा हुई। चर्चा का विषय था भारत हिंदू राष्ट्र कैसे बने? इस चर्चा में अन्य कई संत भी उपस्थित थे। चर्चा के बिंदु वही थे जो पिछले हफ़्ते इसी कॉलम में मैंने लिखे थे और जो प्रातः स्मरणीय विरक्त संत श्री वामदेव जी महाराज के लेख पर आधारित थे। लगभग ऐसे ही विचार गत 35 वर्षों में मैं अपने लेखों में भी प्रकाशित करता रहा हूँ। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत की सनातन वैदिक संस्कृति कम से कम दस हज़ार वर्ष पुरानी है। जिसमें मानव समाज को शेष प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके जीवन जीने की कला बताई गई है। बाक़ी हर सम्प्रदाय गत ढाई हज़ार वर्षों में पनपा है। इसलिए उसके ज्ञान और चेतना का स्रोत वैदिक धर्म ही है। आज समाज में जो वैमनस्य या कुरीतियाँ पैदा हुई हैं वो इन संप्रदायों के मानने वालों की संकुचित मानसिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। आज का हिंदू धर्म भी इसका अपवाद नहीं रहा। यही कारण है जिस हिंदू धर्म की आज बात की जा रही है वह हमारी सनातन वैदिक संस्कृति के अनुरूप नहीं है।
   



पाठकों को याद होगा कि हरिद्वार की धर्म संसद में मुसलमानों के विषय में बहुत आक्रामक और हिंसक भाषा का प्रयोग किया गया था। जिसका संज्ञान न्यायालय और पुलिस ने भी लिया। इस संदर्भ में चर्चा चलने पर मैंने स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से कहा कि इस तेवर से तो हिंदू धर्म का भला नहीं होने वाला। जर्मनी और हाल ही में श्री लंका इसका प्रमाण है जहां समाज के एक बड़े वर्ग के प्रति घृणा उकसा कर पूरा देश को आग में झोंक दिया जाता है। 


यह सही है कि मुसलमानों के धर्मांध नेता उन्हें हमेशा भड़काते हैं और शेष समाज के साथ सौहार्द से नहीं रहने देते। जिसकी प्रतिक्रिया में भारत का हिंदू ही नहीं अनेक देशों के नागरिक उन देशों में रह रहे मुसलमानों के विरोध में खड़े हो रहे हैं। पर हमारा धर्म इन संप्रदायों से कहीं ज़्यादा गहरा और तार्किक है। इसका प्रमाण है कि यूक्रेन में 55 कृष्ण मंदिर हैं रूस में 50 मंदिर हैं। ईरान, इराक़ और पाकिस्तान तक के तमाम मुसलमान श्रीकृष्ण भक्त बन चुके हैं। यह कमाल किया है इस्कॉन के संस्थापक आचार्य ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने। जिन्होंने बिना तलवार या बिना सत्ता की मदद के दुनिया भर के करोड़ों विधर्मियों को भगवत गीता का ज्ञान देकर कृष्ण भक्त बना दिया।

 

ऐसा ही एक कृष्ण भक्त ईरानी मुसलमान 30 बरस पहले मेरे दिल्ली घर पर दो दिन ठहरा था। वो ईरान के एक धनी उद्योगपति मुसलमान का बेटा था। जो मुझे वृंदावन मंदिर में मिला। जिसका परिवार कट्टर मुसलमान था। तेहरान विश्वविद्यालय में उसके मुसलमान प्रोफ़ेसर ने उसे गीता का ज्ञान देकर भक्त बनाया था। जब इसने अपने प्रोफ़ेसर से इस गुप्त ज्ञान को प्राप्त करने का स्रोत पूछा तो प्रोफ़ेसर ने बताया कि अमरीका के एक विश्वविद्यालय में पीएचडी की पढ़ाई के दौरान उन्होंने स्वामी प्रभुपाद का प्रवचन सुना, उनसे कई बार मिले और फिर कंठीधारी कृष्ण भक्त बन गए। जबकि बाहरी लिबास में ये दोनों गुरु शिष्य मुसलमान ही दिखते थे। 


ये भक्त जब मेरे घर रहा तो सुबह 3 बजे हम दोनों हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने बैठे। मैंने तो डेढ़ घंटे बाद अपना जप समाप्त कर भजन करना शुरू कर दिया पर यह ईरानी भक्त 6 घंटे तक लगातार जप करता  रहा और तब चरणामृत पी कर उठा। उसकी साधना से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उसे आरएसएस की शाखा में ले गया। जहां उससे मिलकर सभी को बहुत हर्ष हुआ। 


इसी तरह पाकिस्तान का एक लम्बा चौड़ा मुसलमान आईटी इंजीनियर मुझे लंदन के इस्कॉन मंदिर में मिला। पूछने पर पता चला कि उसने अपने एक अंग्रेज मित्र के घर प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘आत्म साक्षात्कार का विज्ञान’ पढ़ी तो इतना प्रभावित हुआ कि अगले ही दिन वो इस्कॉन मंदिर पहुँच गया और फिर क्रमशः श्रीकृष्ण भक्त बन गया। अब। उसका दीक्षा नाम हरिदास है। 


ये उदाहरण पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि हमारी सनातन संस्कृति में इतना दम है कि अगर मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने और भीड़ में जय श्री राम का ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाने की बजाय देश भर के उत्साही हिंदू, विशेषकर युवा, योग्य गुरुओं से श्रीमद् भगवद गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें और उसके अनुसार आचरण करें, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे भी अर्जुन की तरह जीवन में हर महाभारत जीत सकते हैं। ये ज्ञान ऐसा है कि सबका दिल जीत लेता है-विधर्मी का भी। 


बहुत कम लोगों को पता है कि मुग़लिया सल्तनत के ज़्यादातर बादशाह, शहज़ादे और शहज़ादियाँ वृंदावन के स्वामी हरिदास परम्परा के शिष्य रहे हैं। 1897 में विलायत में जन्मे रिचर्ड निक्सन प्रथम विश्वयुद्ध में विलायती वायुसेना के पायलेट थे। जो जवानी में भारत आ गये। संस्कृत व शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में स्वामी कृष्ण प्रेम नाम से भारत में विख्यात हुए। स्वामी प्रभुपाद ही नहीं भारत के अनेक वैष्णव आचार्यों के भी सैंकड़ों मुसलमान शिष्य पिछली शताब्दियों में सारे भारत में हुए हैं और उन्होंने उच्च कोटि के भक्ति साहित्य की रचना भी की है। 


उत्तर प्रदेश में आईएएस से निवृत्त हुए मेरे मित्र श्री नूर मौहम्मद का कहना है कि पश्चिमी एशिया से तो दो फ़ीसदी मुसलमान भी भारत नहीं आए थे। बाक़ी सब तो भारतीय तो ही थे जो या तो सत्ता के लालच में या हुकूमत के डर से या सवर्णों के अत्याचार से त्रस्त हो कर मुसलमान बन गये थे। वो तब भी पिटे और आज भी पिट रहे हैं। नूर मौहम्मद कहते हैं कि धर्मांध मौलवी हो या हिंदू धर्म गुरु दोनो ही शेष समाज के लिए घातक हैं जो लगातार समाज में विष घोलते हैं।


इस सब चर्चा के बाद स्वामी प्रबोधनंद गिरी जी से यह तय हुआ कि हम निश्चय ही इस तपोभूमि भारत को सनातन मूल्यों पर आधारित हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और उसके लिए अपनी शक्ति अनुसार योगदान भी करेंगे।पर इस विषय पर देश के संत समाज में व्यापक विमर्श होना चाहिए कि हमारा हिंदू राष्ट्र स्वामी वामदेव जी के सपनों के अनुकूल होगा, जिनका सम्मान सभी धर्मों के लोग करते थे या केवल निहित राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए होगा। ऐसा हिंदू राष्ट्र बनें जिसमें मुसलमान या अन्य धर्मावलम्भी भी स्वयं को हिंदू कहने में गर्व अनुभव करें। जहां प्रकृति  से सामंजस्य रखते हुए हर भारतीय अपने जीवन को वैदिक नियमों से संचालित करे और पश्चिम की आत्मघाती उपभोक्तावादी चकाचौंध से बचे। जिसका आह्वान आज पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद महाराज जी भी कर रहे हैं । हरि हमें सदबुद्धि दें और हम सब पर कृपा करें।

Monday, May 24, 2021

जहाँ मुसलमान वहाँ हिंसा क्यों?


भारी दावों के विपरीत पश्चिम बंगाल का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद बौखलाई भाजपा और उसकी ट्रोल आर्मी हाथ धो कर ममता सरकार के पीछे पड़े हैं। किसी तरह वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए तो फिर विधायकों को तोड़ने का काम आसानी से हो पाएगा। सारा बवाल बंगाल के मुसलमानों को लेकर है। आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार में
  मुसलमान हिंदुओं के साथ मार-काट कर रहे हैं। भाजपा का प्रचार तंत्र देश-विदेश में रात दिन अपने समर्थन में विडीओ  क्लिप सोशल मीडिया पर डाल रहा है। ये बता कर कि ये आज के हालत हैं। कल एक ऐसी ही विडीओ क्लिप मेरे पास आई जिसमें दिखाया था कि घायल सैनिक को उपचार के लिए ले जाती हुई फ़ौज की गाड़ियों तक को ये लोग अपने इलाक़े से नहीं गुजरने दे रहे। जीप पर नम्बर प्लेट बंगला भाषा में थी तो मैंने वो क्लिप कलकत्ता में अपने कुछ मित्रों को भेज कर उसकी हक़ीक़त जाननी चाही।जवाब आया कि न तो ये आज की क्लिप है और न ही पश्चिम बंगाल की। बल्कि यह क्लिप बांग्लादेश की है और बहुत पुरानी है। जिस ‘भक्त’ ने यह क्लिप मुझे भेजी थी जब उसे मैंने यह बताया तो उसका जवाब था कि मुसलमान तो हर जगह हिंसा ही करते हैं। इस बात का वो कोई जवाब नहीं दे सका कि बंगलादेश की क्लिप को पश्चिम बंगाल की बता कर यह ज़हर क्यों फैलाया जा रहा है? ऐसा नहीं है कि वहाँ हिंसा की वारदातें नहीं हुई हों। पर जितनी हाइप बनाई जा रही है, वैसा नहीं है।  


कुछ अप्रवासी भारतीय भी इस मुद्दे को लेकर उतने ही उत्तेजित हैं जितने महीनों तक सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ को लेकर थे। सब एक ही रट लगा रहे हैं कि बंगाल के हिंदुओं का जीना मुहाल है। जबकि वहाँ के शहरों में अगर अपने सम्पर्कों से आप बात करें तो ऐसा कुछ भी समाचार नहीं मिलता। 



उधर दशकों से राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली की तरह काम करते आएँ हैं। राज्यपाल बनाया ही उन्हें जाता है जो अपनी संविधान प्रदत्त स्वायत्तता को दर किनार कर केंद्रीय सरकार के इशारे पर अनैतिकता और झूठ की हदें पार करने में संकोच न करे। इसमें कोई अपवाद नहीं है। कांग्रेस के राज में भी यही होता था और भाजपा के राज में भी यही हो रहा है। 


शपथग्रहण समारोह से शुरू करके आज तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल महामहिम जगदीप धनकड़ ममता सरकार पर सीधा हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे। कई बार तो उनकी भाव भंगिमा बहुत नाटकीय नज़र आती है। धनकड जी मेरे पुराने स्नेही हैं और सर्वोच्च न्यायालय के वकील रहे हैं। ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1993 में जिस ‘जैन हवाला कांड’ को मैंने उजागर किया था, उसमें दुबई और लंदन से कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला से आ रही आर्थिक मदद का एक अंश जगदीप धनकड जी को भी मिलने का आरोप था और वे हवाला कांड में चार्जशीट भी हुए थे। भाजपा और संघ के जो लोग मुसलमानों की हिंसक वृत्ति और भारत को इस्लामी देश बनाने का ख़तरा बता-बता कर हिंदू वोट बैंक को संगठित कर रहे हैं उनसे मेरा लगातार एक ही सवाल रहता है। कि जब इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ 1993 से लड़ाई लड़ी जा रही थी तो ये लोग एक ख़तरनाक खामोशी क्यों साधे बैठे थे ? 


संघ के संस्थापक डाक्टर केशव हेडगेवार जी कहा था कि परिवार के हित के लिए व्यक्ति का हित। समाज के हित के लिए संगठन का हित और राष्ट्र के हित के लिए अपने दल के हित को त्याग देना चाहिए। पर संघ और भाजपा ने तो तब उल्टा ही काम किया। अपने चंद नेताओं को बचाने में उन्होंने राष्ट्र के हित को बलिदान कर दिया। वरना ये  इस्लामिक आतंकवाद 27 बरस पहले ही नियंत्रित हो जाता। मेरे इन प्रश्नों का जवाब संघ और भाजपा के बड़े से बड़े नेता आजतक देने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाए। पर आज वे इतिहास  से अनभिज्ञ और विवेकहीन अपने युवा समर्थकों से हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहलवाते हैं जो उनके ग़लत कामों पर ऊँगली उठाता है। तो बहुत दया आती है कि युवा कैसे मानसिक ग़ुलाम बन रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि हर नागरिक मीडिया के झूठ  से बच कर हर परिस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करे।


यहाँ मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान समय में जहां-जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ वहाँ अशांति है, हिंसा है, अल्पसंख्यकों की उपेक्षा या दमन है। जिस तरह कश्मीर, असम, प.बंगाल के अलावा अन्य प्रांतों में भी अपनी बढ़ती जनसंख्या के बल पर मुसलमानों ने राजनीति में अपना दबदबा बढ़ाया है वहाँ-वहाँ हिंदू उनके आक्रामक व्यवहार से उत्तेजित हुआ है। जब सेकूलर मीडिया कश्मीर के हिंदुओं पर हुए अत्याचार को नहीं दिखाता और  उनके समर्थन में उतने ही ज़ोर शोर से आवाज़ नहीं उठाता जैसी मुसलमानों के लिए उठाता रहा है, तब मजबूरन  हिंदुओं को भाजपा की छत्र-छाया में जाना पड़ता है। फिर भी बंगाल की आधी हिंदू आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया। 


मुसलमानों की शिकायत है कि उनके प्रति पक्षपात का आरोप ग़लत है। जिसके प्रमाण में वे अपने समाज के पिछड़ेपन और सेना या प्रशासन में अपनी नगण्य उपस्थिति का हवाला देते हैं। इसके कई सामाजिक कारण भी हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है। पर यह तो स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर, यहाँ तक कि भारी ट्राफ़िक वाली सड़कों पर भी मुसलमान अपना मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ने लग जाते हैं। जिससे आम जन जीवन में व्यवधान पैदा होता है और अन्य धर्मावलम्बियों में आक्रोश। सरकार के मंत्रियों और राज्यपालों द्वारा इफ़्तार की दावतें देना, जबकि दिवाली, वैसाखि, गुरूपूरब, पोंगल आदि जैसे अन्य धर्मों के त्योहारों पर ऐसा कोई आयोजन नहीं करना या हज यात्रा पर जाने वालों को सब्सिडी देना, कुछ ऐसे काम होते रहे हैं जिनसे हर हिंदू उत्तेजित हुआ है। 


इसलिये समझदार और पढ़े लिखे मुसलमानों को समाज में पारस्परिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने की सक्रिय पहल करनी चाहिए। अन्यथा दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक ताक़तें राष्ट्र को तबाह कर देगी। 


यही बात मैं संघ और भाजपा के नेतृत्व से भी कहना चाहता हूँ। आप किस हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं? हज़ारों साल से हिंदू धर्म की ध्वजा को चारों पीठों के शंकराचार्यों ने वहन कर समाज को दिशा दी है। सनातन धर्म के स्थापित सम्प्रदायों जैसे श्री, रुद्र, ब्रह्म और कुमार सम्प्रदाय और इनकी शाखाओं में एक से बढ़ कर एक ज्ञानी, प्रतिष्ठित और सिद्ध संत हुए हैं और आज भी हैं। इनके अलावा मध्य-युग के भक्ति क़ालीन संत जैसे गुरु नानक देव, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास, रसखान, रहीम, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम और अलवर जैसे महान संतों को छोड़ कर आप लोग पैसे, प्रचार और सत्ता के पीछे भागने वाले आत्मघोषित सदगुरुओं को, जो यशोदा मईया को भगवान कृष्ण की प्रेयसी बताने की धृष्टता करते हैं, क्यों हिंदू समाज पर थोपने पर तुले हैं ? इनसे हिंदुत्व का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी जड़ों में छाछ डालने का काम हो रहा है। आप लोगों को भी अपना मूल्यांकन करना चाहिए। क्योंकि ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सत्ता के लालच में आप सनातन धर्म के स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं की बार-बार उपेक्षा कर रहे हैं और एक ‘सिन्थेटिक हिंदुत्व’ हम हिंदुओं पर थोपने की दुर्भाग्यपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। इससे किसी का भला नहीं होगा न हिंदू समाज का  न राष्ट्र का।

Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।