Monday, April 28, 2025

डिजिटल युग में बच्चे गुस्सैल और आक्रामक क्यों?

आज के डिजिटल युग में, बच्चों का व्यवहार और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। माता-पिता और शिक्षक अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बच्चे पहले की तुलना में अधिक गुस्सैल, चिड़चिड़े और आक्रामक हो गए हैं। इसका एक प्रमुख कारण बच्चों का कम उम्र में मोबाइल फोन और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग है। प्रारंभिक स्क्रीन टाइम और डिजिटल दुनिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें गुस्सा और आक्रामकता बढ़ रही है। 


आज के बच्चे ‘डिजिटल नेटिव्स’ हैं, यानी वे उस दुनिया में पैदा हुए हैं जहां स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं। पहले जहां बच्चे खेल के मैदान में दोस्तों के साथ समय बिताते थे, वहीं अब वे मोबाइल स्क्रीन पर गेम खेलने, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 6-12 वर्ष की आयु के बच्चे औसतन प्रतिदिन 2-4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। ये आंकड़ा किशोरों में और भी अधिक है। 


हालांकि तकनीक ने शिक्षा और मनोरंजन के नए द्वार खोले हैं, लेकिन इसका अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग बच्चों के मस्तिष्क के विकास, भावनात्मक नियंत्रण और सामाजिक कौशलों को प्रभावित करता है।


गुस्सा और आक्रामकता के कारण बच्चों का मस्तिष्क विकास के महत्वपूर्ण चरण में होता है और इस दौरान स्क्रीन टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मस्तिष्क के ‘प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स’ को प्रभावित करता है, जो भावनाओं को नियंत्रित करने और निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया में तेजी से बदलते दृश्य और तत्काल पुरस्कार (जैसे गेम में जीत या लाइक्स का मिलना) बच्चों के मस्तिष्क में ‘डोपामाइन’ का स्तर बढ़ाते हैं। इससे वे तुरंत संतुष्टि की उम्मीद करने लगते हैं और जब वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता, तो वे निराश, चिड़चिड़े और गुस्सैल हो जाते हैं। 



इंटरनेट पर उपलब्ध कई गेम्स और वीडियो में हिंसा, आक्रामकता और अनुचित व्यवहार को दर्शाया जाता है। बच्चे, जिनका दिमाग अभी परिपक्व नहीं हुआ है, इन सामग्रियों को देखकर हिंसक व्यवहार को सामान्य मानने लगते हैं। उदाहरण के लिए कई लोकप्रिय मोबाइल गेम्स में युद्ध, लड़ाई और विनाश को बढ़ावा दिया जाता है, जो बच्चों में आक्रामक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकता है। 


मोबाइल और इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से बच्चे वास्तविक दुनिया में अपने दोस्तों और परिवार से कट जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संपर्क की कमी उन्हें अकेला और उदास बनाती है। यह अकेलापन और भावनात्मक खालीपन अक्सर गुस्से और आक्रामकता के रूप में व्यक्त होता है।



देर रात तक मोबाइल फोन का उपयोग, विशेष रूप से नीली रोशनी का संपर्क, बच्चों की नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अपर्याप्त नींद बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव और गुस्से को बढ़ाती है। एक शोध के अनुसार, जो बच्चे रात में अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हैं, उनमें भावनात्मक अस्थिरता और आक्रामक व्यवहार की संभावना अधिक होती है।



सोशल मीडिया बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाता है। वे दूसरों की ‘परफेक्ट’ जिंदगी, लुक्स या उपलब्धियों को देखकर खुद को कमतर महसूस करते हैं। यह आत्मसम्मान में कमी और असंतोष का कारण बनता है, जो गुस्से और आक्रामकता के रूप में सामने आता है।


प्रारंभिक उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग केवल गुस्सा और आक्रामकता तक सीमित नहीं है। इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी चिंताजनक हैं। बच्चों में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो रही है, उनकी रचनात्मकता प्रभावित हो रही है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इसके अलावा, लगातार स्क्रीन टाइम के कारण शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है, जैसे कि मोटापा, आंखों की समस्याएं और खराब मुद्रा।


इस समस्या से निपटने के लिए माता-पिता, शिक्षकों और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। निम्नलिखित कुछ सुझाव हैं जो बच्चों में गुस्सा और आक्रामकता को कम करने में मदद कर सकते हैं। माता-पिता को बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रतिदिन 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं देना चाहिए। बड़े बच्चों के लिए भी उम्र के अनुसार समय सीमा निर्धारित करें। बच्चों को खेल, कला, संगीत और पढ़ने जैसी गतिविधियों में शामिल करें। ये न केवल उनकी रचनात्मकता को बढ़ाते हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से स्थिर भी बनाते हैं। 


माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। साथ में भोजन करना, कहानियां सुनाना या बाहर घूमने जाना बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। बच्चों को ऐसी सामग्री देखने के लिए प्रोत्साहित करें जो शिक्षाप्रद और सकारात्मक हो। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे हिंसक गेम्स या वीडियो से दूर रहें। बच्चों को इंटरनेट के सुरक्षित और जिम्मेदार उपयोग के बारे में शिक्षित करें। उन्हें सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताएं। यदि बच्चा लगातार गुस्सा या आक्रामक व्यवहार दिखा रहा है, तो मनोवैज्ञानिक या काउंसलर की मदद लें। प्रारंभिक हस्तक्षेप से समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।


बच्चों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी ये चेतावनी है कि लगातार डिजिटल उपकरणों का उपयोग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इसके लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ करने के जरूरत होती है। जो  तनाव कम करने, नींद सुधारने और वास्तविक रिश्तों को मजबूत करने में मदद करता है। यह एकाग्रता बढ़ाता है और बच्चों को स्क्रीन से दूर प्रकृति व खेलों से जोड़ता है। समय-समय पर ‘डिजिटल डिटॉक्स’ अपनाकर हम और हमारे बच्चे संतुलित और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इसका बच्चों पर होने वाला प्रभाव गंभीर है। यह माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को डिजिटल दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाएं और उनके समग्र विकास को प्रोत्साहित करें। संतुलित जीवनशैली, सकारात्मक वातावरण और प्रेमपूर्ण देखभाल के साथ, हम बच्चों को न केवल गुस्से और आक्रामकता से मुक्त कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल भविष्य भी दे सकते हैं। 

Monday, April 21, 2025

अमेरिकी टैरिफ नीतियों का भारत और विश्व पर प्रभाव

वैश्विक व्यापार में संरक्षणवाद का दौर एक बार फिर से उभर रहा है। अप्रैल 2025 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा घोषित पारस्परिक टैरिफ (रेसीप्रोकल टैरिफ) नीति ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला दिया है। इस नीति के तहत, भारत पर 27% का टैरिफ लगाया गया है, जबकि अन्य देशों जैसे चीन (34%), वियतनाम (46%), और यूरोपीय संघ (20%) पर भी भारी टैरिफ थोपे गए हैं। यह नीति अमेरिका के व्यापार घाटे को कम करने और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू की गई है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारत और विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री  प्रो. अरुण कुमार इस इस नीति के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए बताते है कि अमेरिका ने अपनी टैरिफ नीति को पारस्परिक करार देते हुए कहा है कि यह अन्य देशों द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर लगाए गए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं (जैसे मुद्रा हेरफेर और नियामक अंतर) के जवाब में उठाया गया कड़ा कदम है। 



ट्रम्प प्रशासन का दावा है कि भारत अमेरिकी वस्तुओं पर 52% का प्रभावी टैरिफ लगाता है, जिसके जवाब में भारत से आयात पर 27% का टैरिफ लगाया गया है। हालांकि, इस गणना की सटीकता पर सवाल उठाए गए हैं। मिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने व्यापार घाटे और आयात मूल्य के आधार पर टैरिफ दरें तय कीं, जो कि विश्व व्यापार संगठन के डेटा से मेल नहीं खाती। भारत का अमेरिकी वस्तुओं पर औसत टैरिफ दर 2023 में केवल 9.6% था, जो अमेरिकी दावों से काफी कम है।


इस नीति में दो स्तर के टैरिफ शामिल हैं: 5 अप्रैल से सभी देशों पर 10% का आधारभूत टैरिफ और 9 अप्रैल से देश-विशिष्ट टैरिफ। कुछ वस्तुओं जैसे फार्मास्यूटिकल्स, अर्धचालक और ऊर्जा उत्पादों को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे भारत के कुछ क्षेत्रों को राहत मिली है। भारत, जो अमेरिका का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, 2024 में $80.7 बिलियन का माल अमेरिका को निर्यात करता था। 27% टैरिफ से भारत के कई क्षेत्र प्रभावित होंगे, लेकिन कुछ क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ भी मिल सकता है। प्रो. अरुण कुमार के अनुसार, इस नीति का प्रभाव अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों रूपों में देखा जाएगा।



उल्लेखनीय है कि भारत के 14 बिलियन डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात और 9 बिलियन डॉलर के रत्न-आभूषण निर्यात पर टैरिफ का भारी असर पड़ेगा। ये क्षेत्र अमेरिकी बाजार पर निर्भर हैं और लागत में वृद्धि से उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो सकती है। इसके साथ ही मछली, झींगा और प्रसंस्कृत समुद्री खाद्य उद्योग जो कि 2.58 बिलियन डॉलर का है इन पर 27.83% का टैरिफ अंतर भारत की प्रतिस्पर्धा को कम करेगा, खासकर जब पहले से ही अमेरिका में एंटी-डंपिंग शुल्क लागू हैं। 


उधर भारतीय वस्त्र उद्योग को मिश्रित प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। हालांकि भारत पर टैरिफ वियतनाम (46%) और बांग्लादेश (37%) की तुलना में कम है, फिर भी बाजार और मुनाफे में कमी का जोखिम बना रहेगा। वहीं भारत के 9 बिलियन डॉलर के फार्मास्यूटिकल निर्यात को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे इस क्षेत्र को राहत मिली है। भारतीय फार्मा कंपनियों के शेयरों में 5% की वृद्धि देखी गई। हालांकि सॉफ्टवेयर सेवाएं प्रत्यक्ष रूप से टैरिफ से प्रभावित नहीं हैं, लेकिन वीजा प्रतिबंध और व्यापार तनाव भारतीय आईटी कंपनियों जैसे टीसीएस और इन्फोसिस के लिए चुनौतियां पैदा कर सकते हैं। प्रो. कुमार का मानना है कि भारत को कुछ क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिल सकता है, क्योंकि चीन और वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्धी देशों पर अधिक टैरिफ लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए परिधान और जूते जैसे क्षेत्रों में भारत अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है।



टैरिफ के कारण भारत के निर्यात में 30-33 बिलियन डॉलर की कमी आ सकती है। अर्थशास्त्रियों ने भारत की 2025-26 की विकास दर को 20-40 आधार पर कम करके 6.1% कर दिया है। हालांकि, भारत सरकार का दावा है कि यदि तेल की कीमतें 70 डॉलर प्रति बैरल से नीचे रहती हैं, तो 6.3-6.8% की विकास दर हासिल की जा सकती है।


अमेरिकी टैरिफ नीति का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। प्रो. कुमार के अनुसार, यह नीति वैश्विक व्यापार प्रणाली में 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट के समान व्यवधान पैदा कर सकती है। टैरिफ से वैश्विक व्यापार की गति धीमी होगी, जिससे आर्थिक विकास प्रभावित होगा। जेपी मॉर्गन ने चेतावनी दी है कि यदि यही टैरिफ नीति लागू रहती है, तो अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी में आ सकती है। इससे आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी, जिससे अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। बोस्टन फेडरल रिजर्व बैंक का अनुमान है कि टैरिफ से कोर पीसीई मुद्रास्फीति में 0.5-2.2% की वृद्धि हो सकती है। वैश्विक शेयर बाजारों में गिरावट और मुद्रा अस्थिरता पहले ही देखी जा चुकी है।


चीन, यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने अमेरिकी वस्तुओं पर जवाबी टैरिफ की घोषणा की है, जिससे वैश्विक व्यापार युद्ध की आशंका बढ़ गई है। इससे आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित होंगी और व्यवसायों को लागत बढ़ने का सामना करना पड़ेगा। कम प्रति व्यक्ति आय वाले देश जैसे कंबोडिया (50% टैरिफ) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। इससे अमेरिका की विकासशील देशों में साख को नुकसान हो सकता है।


प्रो. कुमार का सुझाव है कि भारत को इस संकट को अवसर में बदलने के लिए रणनीतिक कदम उठाने चाहिए।भारत को अमेरिका के साथ व्यापार समझौते पर तेजी से काम करना चाहिए। 23 बिलियन डॉलर के अमेरिकी आयात पर टैरिफ कम करना एक शुरुआत हो सकती है। यूरोपीय संघ, आसियान और मध्य पूर्व जैसे वैकल्पिक बाजारों पर ध्यान देना चाहिए। भारत-ईयू मुक्त व्यापार समझौते को तेज करना महत्वपूर्ण होगा। आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया जैसी पहलों को मजबूत करके घरेलू उत्पादन और खपत को बढ़ावा देना चाहिए। छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए सब्सिडी, कर राहत और निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं को लागू करना चाहिए।


अमेरिकी टैरिफ नीति ने वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता का माहौल पैदा किया है। भारत के लिए यह एक चुनौती होने के साथ-साथ अवसर भी है। प्रो. कुमार का मानना है कि यदि भारत रणनीतिक रूप से कार्य करे, तो वह न केवल इन टैरिफों के नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकता है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी स्थिति को भी मजबूत कर सकता है। दीर्घकालिक दृष्टिकोण और सुधारों के साथ, भारत इस संकट को एक नए आर्थिक युग की शुरुआत में बदल सकता है। 

Monday, April 14, 2025

अचानक मौतें क्या 'कोविशील्ड' के कारण हो रही हैं?


बिना किसी बीमारी या चेतावनी के लगातार अचानक युवाओं की मृत्यु क्यों हो रही है? क्या ये कोविशील्ड के वैक्सीनेशन का दुष्परिणाम है? क्योंकि कोविशील्ड बनाने वाली कंपनी ने सर्वोच्च अदालत में अब यह स्वीकार कर लिया है कि उनके इस वैक्सीन से ख़ून के थक्के जमने की संभावना होती है। पिछले हफ़्ते क्रिकेट खेलते एक युवा की अचानक मौत हो गई। अपने विदाई समारोह में कॉलेज में भाषण देते-देते एक 20 वर्ष की महिला अचानक मर गई। रामलीला में मंच पर हनुमान जी का किरदार निभाने वाले कलाकार की अचानक मंच पर ही मृत्यु हो गई। अपने विवाह में पति के गले में जयमाल डालते-डालते नववधू मर कर गिर गई। 





कोविड के बाद से पूरे देश में ऐसी मौतों की बाढ़ सी आ गई है। जिन जागरूक डॉक्टर, वकील और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कोविशील्ड वैक्सीन की क्षमता पर संदेह किया था और ये आरोप लगाया था कि बिना सही परीक्षण किए, जल्दबाजी में, प्रशासनिक दबाव बना कर जिस तरह पूरे देश में कोविशील्ड का टीकाकरण किया गया इससे लोगों की जान को भारी खतरा पैदा हो गया। मुंबई उच्च न्यायालय के वकील निलेश ओझा ने कोविशील्ड कंपनी और भारत सरकार के विरुद्ध मुंबई उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित के मुकदमे करके वैक्सीन बनाने वाली कंपनी पर दबाव बनाया जिसके चलते इस कंपनी ने अपने वैक्सीन के दुष्परिणामों की संभावनाओं को अदालत में स्वीकार किया। 



इससे यह सिद्ध हो गया कि ये वैक्सीन बिना परीक्षण पूरा किए ही जल्दबाज़ी में पूरे देश पर थोप दिया गया। इन लोगों को और देश के तमाम जागरूक लोगों को इस बात से भारी नाराज़गी है कि भारत की मौजूदा सरकार, ऐसी अचानक हो रही मौतों की न तो संख्या जारी कर रही है और न ही उसके कारणों की जांच करवा रही है। यह बहुत चिंता की बात है। इसी समूह से जुड़ी डॉ सुसन राज जो मध्य प्रदेश के राजनन्दगांव ज़िले में रहती हैं, उनका दावा है कि सारी मौतें कोविशील्ड वैक्सीन के कारण ही हो रही हैं। डॉ सुसन राज हर उस व्यक्ति को, जिसने ये टीका लगवाया था, चेतावनी दे रही हैं कि वे यथा शीघ्र अपने शरीर को ‘डिटॉक्स’ (विषमुक्त) कर लें जिससे कोविशील्ड वैक्सीन के संभावित दुष्परिणामों से बचा जा सके। ‘डिटॉक्स’ करने की ट्रेनिंग वो ज़ूम कॉल पर दुनिया भर के हज़ारो लोगों को दे चुकी हैं। उनकी यह प्रक्रिया इतनी सरल है कि कोई भी व्यक्ति देश-दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न बैठा हो वो डॉ सुसन राज से ज़ूम कॉल पर ख़ुद को विषमुक्त करने का तरीका सीख सकता है। ये तकनीक बहुत सरल है और घर बैठे अपना ट्रीटमेंट किया जा सकता है। 



एक रोचक तथ्य यह है कि हमारे आपके सामाजिक दायरे में जिन लोगों ने कोविशील्ड वैक्सीन नहीं लगवाई थी वे आज भले चंगे हैं। जिन्होंने लगवाई थी उनमें से बहुत सारे लोगों को अजीबो-गरीब बीमारियां शुरू हो गई हैं। मेरे ही परिवार में मुझ समेत कई लोगों को ऐसी बीमारियां हो गई हैं जिनका कोई कारण समझ में नहीं आता। क्योंकि हम सब एक संतुलित शाकाहारी सात्विक जीवन जीते हैं। हालांकि एक पक्ष ऐसा भी है जो मानता है कि इन मौतों और बीमारियों का वैक्सीन से कोई लेना-देना नहीं है। पर ये पक्ष इन मौतों और अचानक पनप रही इन बीमारियों का कारण बताने में असमर्थ हैं। इसलिए डॉ सुसन सबको सलाह देती हैं कि वे अपने शरीर को वैक्सीन के विष से मुक्त कर लें और स्वस्थ जीवन जियें। 



डॉ सुसन के अनुसार हमारी कोशिकाएँ सात तरीकों से खुद को डिटॉक्स करती हैं। पाँच रासायनिक डिटॉक्स हैं, एक यांत्रिक डिटॉक्स है और एक विद्युत डिटॉक्स है। ऑक्सीकरण और जलयोजन पाँच रासायनिक डिटॉक्स में से दो हैं, जिनका उपयोग कोशिकाएँ करती हैं। आमतौर पर यह साँस लेने, जूस और पानी के द्वारा किया जाता है। इन दो कार्यों का समर्थन करने के लिए, हम क्या कर सकते हैं, एक घोल तैयार करें जिसमें ऑक्सीजन के 2 अणु नमक से क्लोराइड के एक अणु के साथ बंधते हैं, और इसे पानी में घोलते हैं। यह ऑक्सीजन युक्त पानी बन जाता है, जो ऑक्सीकरण द्वारा बहुत कुशल डिटॉक्स करता है।


एंटीऑक्सीडेंट भोजन, जड़ी-बूटियाँ और तेल हैं जिनमें प्रोटीन, विटामिन, खनिज, कार्ब्स और वसा होते हैं। ये वस्तुएँ कोशिका संरचना का निर्माण करके डिटॉक्स करती हैं। एंडोक्राइन स्राव को मन की शक्ति द्वारा प्रबंधित किया जाता है जो विचारों में परिवर्तित होने वाली सूचनाओं और फिर सकारात्मक भावनाओं से जुड़कर अच्छा महसूस कराने वाले न्यूरोट्रांसमीटर का उत्पादन करके बनाया जाता है, जो 90% बीमारियों को ठीक कर सकता है। ऑटोफैगी स्वयं खाने का उपयोग करके डिटॉक्स करता है। यह उपवास में होता है। यहाँ वह डिटॉक्स है जिसे एकीकृत सेलुलर डिटॉक्स थेरेपी में जोड़ा जाता है। 


गौरतलब है कि आज कल के आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हमारा मन और शरीर अक्सर तनाव, नकारात्मकता और अनावश्यक बोझ से भर जाता है। ‘सेल्फ डिटॉक्स’ एक ऐसी प्रक्रिया है, जो हमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से शुद्ध करने में मदद करती है। यह न केवल हमें तरोताजा करती है, बल्कि जीवन में स्पष्टता और संतुलन भी लाती है। सेल्फ डिटॉक्स की शुरुआत शरीर से होनी चाहिए। इसके लिए संतुलित आहार, पर्याप्त पानी का सेवन और नियमित व्यायाम जरूरी है। जंक फूड, शराब और कैफीन से दूरी बनाकर शरीर को हल्का और ऊर्जावान बनाया जा सकता है। प्राकृतिक खाद्य पदार्थ जैसे फल, सब्जियां और साबुत अनाज शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करते हैं। योग और प्राणायाम भी शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देते हैं। 


हमारा दिमाग सोशल मीडिया, नकारात्मक खबरों और अनावश्यक विचारों से भरा रहता है। मानसिक डिटॉक्स के लिए ध्यान और माइंडफुलनेस का अभ्यास प्रभावी है। रोजाना कुछ समय शांत बैठकर अपने विचारों को व्यवस्थित करें। अनावश्यक जानकारी से दूरी बनाएं और सकारात्मक किताबें पढ़ें। डिजिटल डिटॉक्स, यानी फोन और इंटरनेट से ब्रेक लेना, भी मानसिक शांति देता है। नकारात्मक भावनाएं जैसे गुस्सा, ईर्ष्या या दुख हमें कमजोर बनाती हैं। इनसे मुक्ति के लिए आत्म-चिंतन उपयोगी हैं। अपनी भावनाओं को स्वीकार करें और उन्हें व्यक्त करने का स्वस्थ तरीका ढूंढें। अपनों के साथ समय बिताएं और कृतज्ञता का अभ्यास करें। इन तमाम तरीकों से हम अपने शरीर से  कोविशील्ड वैक्सीन के कारण उत्पन्न विष को निकाल सकते हैं और इसके संभावित दुष्परिणामों से बच सकते हैं। डॉ सुसन राज हों या समाज के अन्य जागरूक लोग, हमें ऐसा करने की सलाह दे रहे हैं। हम माने या न मानें ये हम ओर निर्भर है।  

Monday, April 7, 2025

वक़्फ़ क़ानून में संशोधन किसलिए?


वक़्फ़ संशोधन बिल, जिसे हाल ही में भारतीय संसद में पेश किया गया और 2-3 अप्रैल 2025 को लोकसभा और राज्यसभा से पारित किया गया, देश में एक गहन बहस का विषय बन गया है। यह बिल 1995 के वक़्फ़ अधिनियम में संशोधन करने और वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन को अधिक पारदर्शी और समावेशी बनाने का दावा करता है। सरकार इसे एक प्रगतिशील कदम के रूप में पेश कर रही है, जबकि विपक्ष और कई मुस्लिम संगठन इसे धार्मिक स्वायत्तता पर हमला मानते हैं। इस लेख में हम इस बिल के समर्थन और विरोध के तर्कों को तटस्थ दृष्टिकोण से देखेंगे और इसके संभावित प्रभावों का आकलन करेंगे। 



वक़्फ़ एक इस्लामी परंपरा है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को धार्मिक, शैक्षिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिए समर्पित कर देता है। भारत में वक़्फ़ संपत्तियों का प्रबंधन 1995 के वक़्फ़ अधिनियम के तहत होता है, जिसके अंतर्गत राज्य वक़्फ़ बोर्ड और केंद्रीय वक़्फ़ परिषद कार्य करते हैं। वक़्फ़ संशोधन बिल 2024 में कई बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं, जैसे वक़्फ़ बोर्ड में गैर-मुस्लिम और महिला सदस्यों की अनिवार्यता, संपत्ति सर्वेक्षण के लिए कलेक्टर की भूमिका और विवादों में हाई कोर्ट की अपील का प्रावधान। सरकार का कहना है कि यह बिल वक़्फ़ प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही लाएगा, जबकि विरोधी इसे वक़्फ़ की मूल भावना के खिलाफ मानते हैं।


इस बिल का समर्थन करने वाले जो तर्क देते हैं उनका कहना है कि वक़्फ़ बोर्डों में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की शिकायतें लंबे समय से चली आ रही हैं। देश में 8.7 लाख से अधिक वक़्फ़ संपत्तियां हैं, जिनकी कीमत लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये आंकी गई है, लेकिन इनका उपयोग गरीब मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए प्रभावी ढंग से नहीं हो पा रहा। कलेक्टर द्वारा संपत्ति सर्वेक्षण और रिकॉर्ड डिजिटलीकरण जैसे प्रावधानों से इन संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन संभव होगा। बिल में वक़्फ़ बोर्ड में कम से कम दो महिलाओं और गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान भी है। समर्थकों का तर्क है कि इससे बोर्ड में लैंगिक और सामाजिक समावेशिता बढ़ेगी। विशेष रूप से पसमांदा मुस्लिम समुदाय, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है, इस बिल का समर्थन करता है, क्योंकि उनका मानना है कि मौजूदा व्यवस्था में धनी और प्रभावशाली लोग वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्जा जमाए हुए हैं। 



पहले वक़्फ़ ट्रिब्यूनल का फैसला अंतिम माना जाता था, जिसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। नए बिल में हाई कोर्ट में अपील का अधिकार दिया गया है, जिसे समर्थक संविधान के अनुरूप और न्यायसंगत मानते हैं। उनका कहना है कि इससे वक़्फ़ बोर्ड के मनमाने फैसलों पर अंकुश लगेगा। बिल में यह शर्त भी जोड़ी गई है कि बिना दान के कोई संपत्ति वक़्फ़ की नहीं मानी जाएगी। समर्थकों का कहना है कि इससे उन मामलों में कमी आएगी जहां वक़्फ़ बोर्ड बिना ठोस सबूत के संपत्तियों पर दावा करता था, जिससे आम लोगों को परेशानी होती थी।



वहीं इस बिल के विरोध में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और विपक्षी दलों का कहना है कि यह बिल वक़्फ़ की मूल भावना को कमजोर करता है। वक़्फ़ एक धार्मिक परंपरा है और इसमें गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करना इसकी पवित्रता को नुकसान पहुंचाएगा। उनका यह भी आरोप है कि सरकार वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्जा करने की योजना बना रही है। बिल में कलेक्टर को वक़्फ़ संपत्तियों का सर्वेक्षण करने और उनकी स्थिति तय करने का अधिकार दिया गया है। विरोधियों का कहना है कि यह एक सरकारी हस्तक्षेप है, जो वक़्फ़ बोर्ड की स्वायत्तता को खत्म कर देगा। उनका तर्क है कि कलेक्टर, जो ज्यादातर गैर-मुस्लिम हो सकता है, वक़्फ़ के धार्मिक महत्व को नहीं समझ पाएगा। विपक्ष का दावा है कि यह बिल संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार देता है। उनका कहना है कि वक़्फ़ एक इस्लामी परंपरा है और इसमें सरकारी दखल अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमला है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य संगठनों ने बिल के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किए हैं। ईद और जुमातुल विदा जैसे अवसरों पर काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ने की अपील इसका उदाहरण है। विरोधियों का कहना है कि यह बिल मुस्लिम समुदाय को अपने ही धर्म से दूर करने की साजिश है। 


वक़्फ़ संशोधन बिल के लागू होने से कई सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। यदि यह पारदर्शिता और समावेशिता को बढ़ाता है, तो वक़्फ़ संपत्तियों का उपयोग गरीब मुस्लिमों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए बेहतर तरीके से हो सकता है। दूसरी ओर, यदि यह धार्मिक स्वायत्तता को कमजोर करता है या सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ाता है, तो इससे मुस्लिम समुदाय में असंतोष और अविश्वास बढ़ सकता है। 


राजनीतिक दृष्टिकोण से यह बिल सत्तारूढ़ एनडीए के लिए एक जोखिम भरा कदम है। जहां बीजेपी इसे हिंदू मतदाताओं के बीच वक़्फ़ बोर्ड की कथित मनमानी के खिलाफ एक कदम के रूप में पेश कर सकती है, वहीं सहयोगी दल जैसे जेडीयू टीडीपी और आरएलडी को अपने मुस्लिम समर्थकों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। यदि मोदी सरकार संसद में बहुमत के चलते इस बिल को अपने पिछले दो कार्यकालों में बड़े आराम से ला सकती थी। लेकिन तीसरे कार्यकाल में इस बिल को लाकर भाजपा ने अपने सहयोगी दलों को पशोपेश में डाल दिया है।


वक़्फ़ संशोधन बिल एक जटिल मुद्दा है, जिसमें सुधार की आवश्यकता और धार्मिक संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। समर्थकों के लिए यह भ्रष्टाचार को खत्म करने और वक़्फ़ को आधुनिक बनाने का अवसर है, जबकि विरोधियों के लिए यह धार्मिक पहचान और स्वायत्तता पर हमला है। सच्चाई शायद इन दोनों के बीच कहीं छिपी है। इस बिल का असली प्रभाव इसके कार्यान्वयन पर निर्भर करेगा। यदि सरकार इसे संवेदनशीलता और पारदर्शिता के साथ लागू करती है, तो यह एक सकारात्मक बदलाव ला सकता है। लेकिन यदि इसे जल्दबाजी या राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया, तो यह सामाजिक तनाव को और गहरा सकता है। अंततः इस बिल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह वक़्फ़ की मूल भावना को कितना सम्मान देता है और समाज के सभी वर्गों को कितना लाभ पहुंचाता है।