Showing posts with label Amit Shah. Show all posts
Showing posts with label Amit Shah. Show all posts

Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, July 4, 2022

महाराष्ट्र: भाजपा की पाँचों ऊँगली घी में



एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बना कर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे। जिसका उसे बहुत लाभ मिलने वाला है। एकनाथ शिंदे के गले में देवेंद्र फडणवीस की घंटी टांग दी गई है। शिंदे तो हाथी के दांत की तरह सजावटी मुख्य मंत्री रहेंगे। असली सत्ता तो उप-मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस की मार्फ़त भाजपा के हाथ में रहेगी। महाराष्ट्र देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र है और आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए महाराष्ट्र की सरकार पर क़ाबिज़ हो कर पिछले आठ वर्षों में दुनिया की सबसे धनी पार्टी बन चुकी भाजपा अपनी आर्थिक स्थित को और भी मज़बूत कर लेगी। 


पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए उप-मुख्य मंत्री का पद स्वीकारना आसान नहीं था। महाराष्ट्र के सर्वमान्य भाजपा नेता के लिए यह परिस्थिति बहुत विचित्र बन गई। उन्हें आलाकमान के आदेश से अपमान का घूँट पीना पड़ा। हालांकि उन्हें समझाया यही गया होगा कि इस व्यवस्था में भी सत्ता के केंद्र वही रहेंगे। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिसे मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया जाता है उसके पर निकालने में देर नहीं लगती। अनेक प्रांतों के उदाहरण हैं जहां कठपुतली मान कर मुख्य मंत्री की कुर्सी पर जिसे बिठाया गया, वही कुछ दिनों में अपने कड़े तेवर दिखाना शुरू कर देता  हैं। कभी-कभी तो वो नेता गद्दी पर बिठाने वाले पार्टी के बड़े नेताओं को ही आँख दिखाने लगते हैं। 



भाजपा के हाथ में एक ही चाबुक है जिससे वो एकनाथ शिंदे और उनके साथी विधायकों को अपनी मुट्ठी में रख सकती है। वो है भाजपा के तरकश में ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियाँ। चूँकि पाला पलटने वाले शिव सेना के बाग़ी विधायकों में ज़्यादातर विधायक पहले से ही ईडी के शिकंजे में हैं। इसलिए ज़रा सी चूँ-चपड़ करने पर उनकी कलाई मरोड़ी जा सकती है। महाराष्ट्र की राजनीति को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि इन विधायकों की छवि पहले से ही विवादास्पद है। इसलिए इन्हें नियंत्रित करना भाजपा आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा। 


इस पूरी डील में भाजपा का लक्ष्य शिव सेना का आधार ख़त्म करना है। इसीलिए उसने एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बनाया है। अब भाजपा शिव सेना की पकड़ वाले मतदाताओं के बीच अपनी पैंठ बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास करेगी। ये बात दूसरी है कि बाला साहेब ठाकरे की विरासत के प्रति समर्पित मराठी जनमानस अब भी उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा हो और अगले चुनावों में उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को सहानुभूति लहर का लाभ मिल जाए और भाजपा व शिव सेना के बाग़ी विधायकों को मराठी जनता के कोप का भाजन बनना पड़े। 


ये तभी सम्भव होगा जब उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे आराम त्याग कर जनता के बीच अभी से निकल पड़ें और आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी या तेलंगाना के केसी राव की तरह गाँव-गाँव नगर-नगर जा कर महाराष्ट्र की जनता को अपने समर्थन में खड़ा कर दें। इस प्रक्रिया में अगर उद्धव ठाकरे को शरद पवार की सलाह और सहयोग मिलता है तो उनकी स्थित और भी मज़बूत हो सकती है। हालाँकि भाजपा अपने धन बल, बाहु बल व सत्ता के बल का उपयोग करके उद्धव को आसानी से सफल नहीं होने देगी। पर ये भी सच है कि पश्चिम बंगाल की जनता की तरह महाराष्ट्र की जनता भी अपनी संस्कृति, जाति और भाषा के प्रति भरपूर आग्रह रखती है। इसलिए उद्धव ठाकरे को हाशिए पर धकेलना आसान नहीं होगा। 


जो भी हो कुल मिलाकर ये सारा प्रकरण लोकतंत्र में आई भारी गिरावट का प्रमाण है। ये गिरावट भाजपा के कारण ही नहीं आई जैसा विपक्ष आरोप लगा रहा है। आयाराम-गयाराम की राजनीति और विपक्षी दलों की प्रांतीय सत्ताओं को पलटने की साज़िश कांग्रेस के ज़माने में ही शुरू हो गई थी। जो भाजपा के मौजूदा दौर में परवान चढ़ गयी है। अंतर यह है कि कांग्रेस ने ना तो कभी अपने दल को नैतिक और दूसरों से बेहतर बताने का दावा किया और न ही विपक्ष के प्रति इतना द्वेष, घृणा और विषवमन किया जैसा भाजपा का मौजूदा नेतृत्व हर समय करता आ रहा है। इससे लोकतंत्र में राजनैतिक कटुता व असहजता बढ़ी है। 


चूँकि भाजपा का हर नेता पिछली सरकारों और वर्तमान विपक्षी दलों को डंके की चोट पर भ्रष्ट और खुद को ईमानदार बताता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि एक सामान्य व्यक्ति भाजपा से नैतिक आचरण की अपेक्षा करे। पर अनुभव में ऐसा नहीं आ रहा। सत्ता में बैठे लोग बदल ज़रूर गए हैं पर ठेकों और तबादलों में भ्रष्टाचार की मात्रा एक अंश भी घटी नहीं है, बल्कि कई जगह तो पहले के मुक़ाबले बढ़ गई है। ऐसे में इस तरह के सत्ता परिवर्तनों को आम मतदाता बहुत अरुचि और शक से देखता है। दल के कार्यकर्ताओं की बात दूसरी है। उनका दल जब जा-बेज़ा हथकंडे अपना कर सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर दौड़ जाती है। पर महाराष्ट्र की ताज़ा घटनाओं ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को भी निराश किया है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि मुख्य मंत्री के पद पर उनके नेता देवेंद्र फडणवीस को ही बिठाया जाएगा, नितिन गड़करी तक को नहीं, जो लम्बे समय से इस पद के दावेदार हैं और जिन्हें नागपुर का वरदहस्त प्राप्त है। कार्यकर्ताओं को भी अब यही सोच कर संतोष करना पड़ेगा कि इस प्रयोग से शायद भविष्य में उनके दल की स्थिति महाराष्ट्र में वर्तमान स्थिति से बेहतर हो जाए।


इस पूरे प्रकरण में जो सबसे रोचक पक्ष है वो ये की देश के सबसे बड़े क़द्दावर नेता और महाराष्ट्र की राजनीति के कुशल खिलाड़ी शरद पवार भी फ़िलहाल भाजपा के चाणक्य अमित शाह से मात खा गए। जो कि शरद पवार की फ़ितरत और मराठा खून के विपरीत है। ऐसे में ये मान लेना कि आज अपनी हारी हुई बाज़ी से हताश हो कर शरद पवार चुप बैठ जाएँगे, नसमझी होगी। अपने कार्यकर्ताओं और सांसद बेटी सुप्रिया सुले के राजनैतिक भविष्य पर लगे इस ग्रहण से निजात पाने की पवार साहब भरसक कोशिश ज़रूर करेंगे। उधर कांग्रेस भी इस विषम परिस्थिति उद्धव ठाकरे का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए महाराष्ट्र विकास आघाडी और भाजपा के बीच रस्साकशी जारी रहेगी जिससे महाराष्ट्र की जनता को कोई लाभ नहीं होगा।      

Monday, March 21, 2022

मुसलमानों का क्या करें?

सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलाम, भारत माता इतनी उदार हैं कि हर भारतवासी सुखी, स्वस्थ व सम्पन्न हो सकता है। पर स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी अधिकतर आबादी पेट पालने के लिए भी दान के अनाज पर निर्भर है। कई दशकों तक ‘ग़रीबी हटाओ’ के नाम पर उसे झुनझुना थमाया गया। पर उसकी ग़रीबी दूर नहीं हुई। आज ग़रीबी के साथ युवा बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है । जिसका निदान अगर जल्दी नहीं हुआ तो करोड़ों युवाओं की ये फ़ौज देश भर में हिंसा, अपराध और लूट में शामिल हो जाएगी। हर राजनैतिक दल अपने वोटों का ध्रुवीकरण के लिए जनता को किसी न किसी नारे में उलझाए रखता है और चुनाव जीतने  के लिए उसे बड़े-बड़े लुभावने सपने भी दिखाता है।



पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक मुसलमानों का डर बहुसंख्यक हिंदुओं को दिखाया जा रहा है। आधुनिक सूचना तकनीकी की मदद से ‘इस्लमोफोबिया’ को घर-घर तक पहुँचा दिया गया है। लगभग 30 फ़ीसदी हिंदू आबादी ये मान चुकी है कि भारत की हर समस्या का कारण मुसलमान है, जो सही नहीं है। आर्थिक समस्याओं के कारण दूसरे हैं और सामाजिक समस्याओं के कारण दूसरे।


जहां तक भारत में मुस्लिम आबादी का प्रश्न है वे आज 17 करोड़ हैं और हम हिंदू 96 करोड़ हैं। अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से को अगर हम अपनी हर समस्या का कारण मानते हैं तो इसका निदान क्या है? क्या उन्हें मार डाला जाए? क्या उन्हें एक और पाकिस्तान बना कर भारत से अलग कर दिया जाए? या उनके और हमारे बीच चले आ रहे विवाद के विषयों का समाधान खोजा जाए? 


उल्लेखनीय है कि सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत जी मुसलमानों के विषय में कई बार कह चुके हैं कि उनके और हमारे पुरखे एक ही थे, कि उनका और हमारा डीएनए एक है, कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। 80 बनाम 20 फ़ीसदी का नारा देकर चुनाव लड़ने वाले योगी आदित्यनाथ जी ने अपनी एक सभा में  कहा, वह मुझसे प्यार करते हैं, मैं उनसे प्यार करता हूँ। 


संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए इस सब से बड़े असमंजस की स्थितियाँ पैदा होती रहती हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें ? अगर भागवत जी की यही बात सही है तो फिर मॉबलिंचिंग, लव जिहाद, टोपी-दाढ़ी का विरोध, रेह्ड़ी वालों को पीट कर उनसे जय श्री राम कहलवाना या मुसलमानों के साथ हर तरह का व्यावसायिक व सामाजिक व्यवहार ख़त्म करने जैसे अभियानों का रात दिन सोशल मीडिया पर इतना प्रचार क्यों किया जाता है ? 


अगर भागवत जी या योगी जी या फिर मोदी जी भी यही मानते हैं कि मुसलमान ही हर समस्या की जड़ हैं तो इस अभियान को लम्बा खींचने के बजाय एक बार में इसका समाधान ढूँढ कर उसे कड़ाई से लागू क्यों नहीं करते? अगर वे ऐसा कर देते हैं तो समाज में नित्य नए उठने वाले विप्लव शांत हो जाएँगे। जो समाज और राष्ट्र के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक हैं। क्योंकि अशांत समाज में आर्थिक गतिविधियाँ ठहर जाती हैं। अगर इन राष्ट्रीय नेताओं को ये लगता है कि ऐसा करना सम्भव नहीं है तो जो अभियान अभी चल रहे हैं उनको रोकने और उनकी दिशा मोड़ने का कार्य उन्हें करना चाहिये। जो उनके लिए असम्भव नहीं है। हां इससे अपेक्षित राजनैतिक लाभ नहीं प्राप्त होगा किंतु समाज में शांति ज़रूर स्थापित हो जाएगी। 


इस सबसे अलग एक प्रश्न हम सब सनातन धर्मियों के मन में सैंकड़ों वर्षों से घुट रहा है। भारत की सनातन संस्कृति को गत हज़ार वर्षों में राजाश्रय नहीं मिला। कई सदियों में तो उसका दमन किया गया। जिसका विरोध सिख गुरुओं व शिवाजी महाराज जैसे अनेक महापुरुषों ने किया। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका विरोध उस राज सत्ता से था जो हिंदुओं का दमन करती थीं। सामाजिक स्तर पर इन्हें मुसलमानों से कोई बैर नहीं था। क्योंकि इनकी सेना और साम्राज्य में मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया था। 


बँटवारे से पहले जो लोग भारत और पाकिस्तान के भोगौलिक क्षेत्रों में सदियों से रहते आए थे, उनके बीच भी पारस्परिक सौहार्द और प्रेम अनुकरणीय था। बँटवारे के बाद इधर से उधर या उधर से इधर गए ऐसे तमाम लोगों के इंटरव्यू यूट्यूब पर भरे पड़े हैं। ये बुजुर्ग बताते हैं कि बँटवारे की आग फैलने से पहले तक इनके इलाक़ों में साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी कोई बात ही नहीं थी। 


एक तरफ़ सनातन धर्म के मानने वाले वे संत और हम जैसे साधारण लोग हैं जिनका यह विश्वास है कि सनातन धर्म ही मानव और प्रकृति के कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसीलिए हम इसका पालन राष्ट्रीय स्तर पर होते देखना चाहते हैं। वैसे भी दुनिया के सभी सम्प्रदाय वैदिक संस्कृति के बाद पनपे हैं। पर ऐसा होता दीख नहीं रहा। चिंता का विषय यह है कि हिंदुत्व का नारा देने वाले भी वैदिक सनातन संस्कृति की मूल भावना व शास्त्रोचित सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए अति उत्साह में अपने मनोधर्म को वृहद् हिंदू समाज पर जबरन थोपने का प्रयास करते हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की विशेषता ही यह है कि इसका प्रचार-प्रसार मनुष्यों की भावना से होता है तलवार के ज़ोर से नहीं। 


रही बात मुसलमानों की तो इसमें संदेह नहीं कि मुसलमानों के एक भाग ने भारतीय संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में काफ़ी हद तक आत्मसात किया है। ऐसे मुसलमान भारत के हर हिस्से में हिंदुओं के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते हैं। किंतु उनके धर्मांध नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए उन्हें गुमराह करके ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे बहुसंख्यक हिंदू समाज न सिर्फ़ असहज हो जाता है बल्कि उनकी ओर से आशंकित भी हो जाता है। हिंदू समाज की ये आशंका निर्मूल नहीं है। मध्य युग से आजतक इसके सैंकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानों का है जिन्होंने सदियों से वहाँ रह रहे हिंदुओं और  सिक्खों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे में अब समय आ गया है कि शिक्षा, क़ानून और प्रशासन के मामले में देश के हर नागरिक पर एक सा नियम लागू हो। धार्मिक मामलों को समाज के निर्णयों पर छोड़ दिया जाए। उनमें दख़ल न दिया जाए। ऐसे में मुसलमानों के पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को भी हिम्मत जुटा कर अपने समाज में सुधार लाने का काम करना चाहिए। जिससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता बन सके । वैसे ही जैसे हिंदुत्व का झंडा उठाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को गम्भीरता से सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, न कि उसमें घालमेल। तभी भारत अपनी 135 करोड़ जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खड़ा हो सकेगा। 

Monday, February 28, 2022

उत्तर प्रदेश में चुनावी भाषणों का गिरता स्तर


ज्यों-ज्यों उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव अपने अंतिम चरणों की ओर पहुँच रहा है, त्यों-त्यों राजनैतिक भाषणों का स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है। लोकतंत्र के लिए ये बहुत बड़ी ख़तरे की घंटी है। आज़ादी के बाद से दर्जनों चुनाव हो गए पर ऐसी भाषा पहले कभी नहीं सुनी गई जैसी आज सुनी जा रही है। प्रदेश के मुख्य मंत्री और गौरक्ष पीठ के महंत से अपेक्षा होती है कि वे अपनी उपलब्धियों का बखान करेंगे और धर्म शस्त्रों से उदाहरण लेकर सारगर्भित ऐसे भाषण देंगे जिसमें उनके केसरिया स्वरूप के अपरूप कुछ आध्यात्मिकता का पुट हो। इसके विपरीत योगी आदित्यनाथ का चुनावी जनसभाओं में खुलेआम यह कहना कि,
चर्बी निकाल दूँगा, जून महीने में शिमला बना दूँगा, सब बुलडोज़रों की मरम्मत के आदेश दे दिए हैं, 10 मार्च के बाद सब हरकत में आ जाएँगे, चुनाव आचार संहिता का तो खुला उलंघन है ही। उनके स्तर के व्यक्ति की गरिमा और पद के भी बिलकुल विपरीत है। 


योगी जी कैराना से लेकर आजतक बार-बार चुनावी लड़ाई को 80 फ़ीसद बनाम 20 फ़ीसद या अब्बाज़ान के भाईजान बता कर अखिलेश यादव का मज़ाक़ उड़ते हैं। यही भाषा भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बाल रहे हैं। उन सब से मेरा प्रश्न है कि जब 1993 में देश में पहली बार हिज़बुल मुजाहिद्दीन को दुबई व लंदन से हवाला के ज़रिये आ रहे पैसे का मैंने भांडा फोड़ किया था तब आपकी भाजपा व आरएसएस ने क्यों नहीं उस लड़ाई में साथ दिया? अगर दिया होता तो देश में आतंकवाद कब का नियंत्रित हो जाता। पर तब तो आप लोग भाजपा के बड़े नेताओं को बचाने में जुट गये थे, जिन्होंने आतंकवादियों के इसी  स्रोत से खूब पैसे लिए थे। यानी राष्ट्र की सुरक्षा की आप लोगों को कोई चिंता नहीं है। अपने नेताओं को देशद्रोह के अपराध में फ़सने से बचाना ही क्या आपका राष्ट्रवाद है? फिर आप किस मुह से अपने विपक्षियों पर आतंकवादियों का साथ देने का आरोप लगाते हैं?


उधर तेलंगाना के भाजपा विधायक का खुलेआम धमकी देना कि, जो योगी को वोट नहीं देंगे, उन्हें उत्तर प्रदेश में रहने नहीं दिया जाएगा और यह भी कहना कि सारे देश से बुलडोज़र उत्तर प्रदेश की ओर चल दिए हैं, जो 10 मार्च के बाद विरोधियों को तबाह करेंगे। जो भाजपा सपा पर गुंडागर्दी का आरोप लगाते नहीं थकती उसके बड़े नेताओं की ऐसी बयानबाज़ी क्या हद दर्जे की गुंडागर्दी का प्रमाण नहीं है? हद तो तब हो गई जब देश के प्रधान मंत्री ने अहमदाबाद के बम धमाकों में साइकिल को घसीट कर सपा पर हमला बोला। मोदी जी ने कहा कि उस हमले में साइकिल का प्रयोग हुआ था और साइकिल समाजवादियों का चुनाव चिन्ह है। इसलिए समाजवादी आतंकवाद के समर्थक हैं। जबकि उस बम कांड की जाँच कर रहे डीसीपी अभय चूडास्मा ने स्पष्ट किया था, "लाल और सफ़ेद कारों में विस्फोटक फिट किया गया था। जाँच रिपोर्ट में कहीं साईकिल का ज़िक्र नहीं है। तब मोदी जी और मनमोहन सिंह घटनास्थल पर मुआयना करने गए थे। अभय चूडास्मा, हिमांशु शुक्ल, जीएल सिंघल तीनों आईपीएस अधिकारियों की यह रिपोर्टें अदालत में दाखिल हैं। 


साइकिल को इस तरह आतंकवाद से जोड़ कर मोदी जी क्या संदेश देना चाहते हैं? हर बच्चा जब चलना सीखता है तो सबसे पहले उसे साइकिल दिलवाई जाती है। यूरोप में अनेक देशों के प्रधानमन्त्री साईकिल चलाते हैं। ओलम्पिक खेलों में 1896 से साईकिल रेस होती है। प्रदूषण मुक्ति के लिए साइकिल का बड़ा  महत्व है। जब तक मोदी जी हवाई चप्पल पहनने वालों को (अपने चुनावी वायदे के अनुसार) हवाई जहाज़ में यात्रा ना करवा पाएँ, तब तक साईकिल करोड़ों आम भारतीयों की सवारी बनी रहेगी। वैसे भी भारत साइकिल का बड़ा निर्यातक है। अगर आडानी या अम्बानी साईकिल बनाते होते तब भी क्या साईकिल पर ये हमला होता, पूछता है भारत? 


उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव लड़ रहे भाजपा के सभी उम्मीदवार और नेता गरीब जनता को उलाहना दे रहे हैं कि हमने तुम्हें, नमक, तेल, आटा और चावल दिया तो तुम हमें वोट क्यों नहीं दोगे? इसकी जगह अगर ये नेता कहते कि हमने तुम्हें रोज़गार दिलवाया, तुम्हारी आमदनी बढ़वाई, तुम्हारे लिए बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्थाएँ दीं, तुम्हें फसल के वाजिब दाम दिलवाए, तब कुछ लगता कि इन्होंने जनता के लिए कुछ किया है। किंतु जनता के कर के पैसे से गरीब जनता को ख़ैरात बाँटना और उनके स्वाभिमान पर इस तरह चोट करना बहुत निंदनीय है। 


दूसरी तरफ़ भाजपा के विपक्ष में खड़े नेताओं जैसे, प्रियंका गांधी, बहन मायावती और जयंत चौधरी की भाषा में कहीं भी न तो हल्कापन है, न अभद्रता, न धमकी और न ही मवालीपन। ये सब नेता शिष्टाचार के दायरे के भीतर रहकर अपनी बात जनता के सामने रख रहे हैं। सबसे ज़्यादा क़ाबिले तारीफ़ आचरण तो सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का रहा है। इस चुनावी दौर में वे अकेले भाजपा के महारथियों के हमलों को झेल रहे हैं। उन्हें अपमानित और उत्तेजित करने के भाजपा नेताओं के हर वार ख़ाली जा रहे हैं। क्योंकि अखिलेश यादव बड़ी शालीनता से मुस्कुरा कर हर बात का उत्तर शिष्टाचार के दायरे के भीतर रह कर दे रहे हैं। आजतक उन्होंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया, जो उनके परिपक्व नेतृत्व का परिचायक है। 


वैसे भी आज के अखिलेश पिछले दौर के अखिलेश से बहुत आगे निकल आए हैं। उन्होंने बड़ी सावधानी से भाजपा के दुष्प्रचार को ग़लत सिद्ध कर दिया है। वे न तो सांप्रदायिक ताक़तों से घिरे हैं, न अराजक तत्वों को अपने पास भटकने दिया और न ही परिवार को खुद पर हावी होने दिया। एक शिक्षित और अनुभवी राजनेता होने के नाते वे केवल विकास के मुद्दों पर बात कर रहे हैं। जिसका भाजपा नेतृत्व जवाब नहीं दे पा रहा है। बरसाना के विरक्त संत श्रद्धेय विनोद बाबा किसी राजनैतिक या सामाजिक प्रपंच में नहीं फँसते। पिछले वर्ष जब अखिलेश यादव विनम्रता के साथ बाबा का दर्शन करने गये तो बाबा बहुत प्रसन्न हुए और बाद में अपने शिष्यों से कहा कि अखिलेश के विरुद्ध जो दुष्प्रचार किया जाता है उसके विपरीत अखिलेश का हृदय साफ़ है और वे एक आस्थावान युवा हैं जो सनातन धर्म की बड़ी सेवा करेंगे। अब प्रदेश की जनता किसे चुनती है ये तो 10 मार्च को ही पता चलेगा। 

Monday, December 6, 2021

क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कम हुआ अपराध?


देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम, 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों की पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में टाइगर सरकार ने लखनऊ और नॉएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी। दावा यह किया गया था कि इससे अपराध को रोकने और क़ानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा। पर असल में
हुआ क्या ? 

कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है।वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करता थी। जिसे धीरे-धीरे और राज्यों में भी लाया गया।  

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के भाग (4) के तहत हर जिला अधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिकार होते हैं। साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियाँ भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नही हैं, वे आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश तहत ही कार्य करते हैं। परन्तु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिला अधिकारी और एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के ये अधिकार पुलिस आयुक्त को ही मिल जाते हैं। जिससे वे किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है । 

बड़े शहरों में अक्सर अपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग इसलिए उग्र हो जाते हैं क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। पुलिसवालों की मानें तो प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का अधिकार पुलिस को मिलेगा तो आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर जल्दी कार्रवाई हो सकेगी। इस सिस्टम से पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वे कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है। हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है, इसके बाद यह रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।

पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाये रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रैफिक सुरक्षा आदि के लिये करता है। इसका नेतृत्व डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता, सार्वजनिक शिकायतों के निवारण में उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय यह देखा गया था कि कई ज़िलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसलिए भीड़ पर क़ाबू पाने में वहाँ की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लम्बित पड़े इस प्रस्ताव को गम्भीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। 

सवाल यह आता है की इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ? जानकारों की माने तो कुछ हद तक अपराध रोकने में यह व्यवस्था ठीक है जैसे दंगे के समय लाठी चार्ज करना हो तो मौक़े पे मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं। प्रायः देखा जाता है की यदि किसी मुजरिम को गिरफ़्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटो के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनो पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं यह तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही यह तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं। 

चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार जिन-जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहाँ प्रति लाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर, जयपुर में 2011 में जब यह व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आँकड़ा 30 प्रतिशत है। फ़रीदाबाद में 2010 के बाद से यह आँकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गोहाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहाँ भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई। इन आँकड़ों से एक गम्भीर सवाल ज़रूर उठता है कि इस व्यवस्था को लागू करने से पहले क्या इस विषय में गहन चिंतन हुआ था या नहीं? 

ब्यूरो के आँकड़ों के एक अन्य टेबल से यह भी पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए लोगों में से दोषसिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97, मुंबई में 16.36, दिल्ली में 17.20, बेंगलुरु में 17.32, वहीं इंदौर जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहाँ इसका दर 40.13 प्रतिशत है। यानी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ़्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफ़ी अधिक है।

जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने बिना गम्भीर विचार किए कृषि क़ानूनों को लागू करने के बाद वापिस लिया। उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले सरकार को इस विषय में जानकारों के सहयोग से इस मुद्दे पर गम्भीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए, रातों-रात बदलाव नहीं करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आँकड़ों के अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।

Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, July 19, 2021

कांग्रेस मुक्त भारत क्यों?

2014 के बाद से भाजपा के नेतृत्व ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त यानी विपक्ष मुक्त। पर ऐसा हो क्यों नहीं पाया? भाजपा ने इस लक्ष्य को पाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका खूब सहारा लिया। हर चुनाव पूरी ताक़त और आक्रामक मुद्रा में लड़े। प्रचार तंत्र बनाम मीडिया उसके पक्ष में ही रहा है। हर चुनाव में पैसा भी पानी की तरह बहाया गया है। जिसका एक लाभ तो हुआ कि ‘मोदी ब्रांड’ स्थापित हो गया। पर भारत कांग्रेस या फिर विपक्ष मुक्त नहीं हुआ। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे ज़्यादातर राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। गोवा, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा ने तोड़-फोड़ कर कैसे सरकार बनाई, वो भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में से जब नेतृत्व नहीं मिल पाया तो विपक्षी दलों के स्थापित नेताओं को धन और पद के लालच देकर भाजपा में लिया गया। तो उसकी ये नीति भी कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत के दावे को कमजोर करती है। क्योंकि इस तरह जो लोग भाजपा में आकर विधायक, सांसद या मंत्री बने, वे संघी मानसिकता के तो न थे, न बन पाएँगे। इस बात का गहरा अफ़सोस संघ परिवार को भी है।


यहाँ हमारा उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि लोकतंत्र में ऐसी अधिनायकवादी मानसिकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। लोकतंत्र का उद्देश्य ही है, वैचारिक विविधताओं का पारस्परिक सामंजस्य के साथ शासन चलाना। जब एक परिवार में दो सदस्य ही एक मत नहीं हो सकते, तो पूरे राष्ट्र को एक मत, एक रंग, एक धर्म में कैसे रंगा जा सकता है? जिन देशों ने ऐसा करने का प्रयास किया, उन देशों में तानाशाही की स्थापना हुई और आम जनता का जम कर शोषण हुआ और विरोध करने वालों पर निर्लज्जता से अत्याचार किए गए। जबकि भारत तो भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से नागालैंड तक, अपनी इस विविधता के कारण भारत की दुनिया में अनूठी पहचान है। 



समाज के विभिन्न आर्थिक व सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कोई एक विचारधारा नहीं कर सकती। क्योंकि हर वर्ग की समस्याएँ, परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। जिनका प्रतिनिधित्व उनका स्थानीय नेतृत्व करता है। भारत की संसद ऐसे विभिन्न क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से समाज के हर वर्ग के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है। इसलिए कांग्रेस या विपक्ष मुक्त नारा अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे रहा था। जिसे भारत की आम जनता ने बार-बार नकार कर ये सिद्ध कर दिया है कि उसे अनपढ़ या गंवार समझ कर हल्के में नहीं लिया जा सकता। सत्तारूढ़ दल पर मज़बूत विपक्ष का दबाव ही यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता के प्रति सरकार अपने कर्तव्य के निर्वाह करे। लोकतंत्र में जब भी विपक्ष कमजोर होगा सरकार निरंकुश हो जाएगी। 


लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए न्यायपालिका और मीडिया की भी स्वतंत्रता होना अतिआवश्यक होता है। इनके कमजोर पड़ते ही आम आदमी की प्रताड़ना बढ़ जाती है। उसका शोषण बढ़ जाता है। उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। जिसका पूरे देश की मानसिकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ सालों से भारत की न्यायपालिका का आचरण चिंताजनक रहा है। राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों को भी न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ न्यायधीशों ने स्वार्थवश जिस तरह दबा दिया, उससे जनता का विश्वास न्यायपालिका पर  घटने लगा था। ग़नीमत है कि इस प्रवृत्ति में पिछले कुछ दिनों से सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रवृत्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों तक होगा, जिससे लोकतंत्र का ये एक पाया टूटने से बच जाए। 


इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले कुछ हफ़्तों में मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह के आदेश पारित किए हैं या निर्देश दिए हैं उनका देश में अच्छा संदेश गया है। राष्ट्रद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून का जितना दुरुपयोग गत सात वर्षों में, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ। इससे देश में भय और आतंक का वातावरण बनाया गया और विरोध या आलोचना के हर स्वर को पुलिस के डंडे से दबाने का बहुत ही घृणित कार्य किया गया। ऐसा नहीं है की पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा नहीं किया, पर उसका प्रतिशत बहुत काम था। सोचने वाली बात यह है कि जब योगी आदित्यनाथ बहैसियत लोकसभा सांसद अपने ऊपर लगाए गए आपराधिक मामलों से इतने विचलित हो गए थे कि सबके सामने फूट-फूट कर रोए थे। तब लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने योगी जी को ढाढ़स बँधाया था। यह दृश्य टीवी के पर्दे पर पूरी दुनिया ने देखा था। प्रश्न है कि जब ठाकुर कुल में जन्म लेकर, कम उम्र में सन्यास लेकर, एक बड़े मठ के मठाधीश हो कर और एक चुने हुए सांसद हो कर योगी जी इतने भावुक हो सकते हैं, तो क्या उन्हें इसका अनुमान है कि जिन लोगों पर वे रोज़ ऐसे फ़र्ज़ी मुक़दमे थोप रहे हैं, उनकी या उनके परिवार की क्या मनोदशा होती होगी? क्योंकि उनकी आर्थिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि तो योगी जी की तुलना में नगण्य भी नहीं होती। 


कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोकतंत्र में बोलने की और अपना प्रतिनिधि चुनने की आज़ादी सबको होती है। ऐसे में विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने या विरोध के हर स्वर को दबाने से लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। जबकि इक्कीसवीं सदी में शासन चलाने की यही व्यवस्था सर्वमान्य है। इस में अनेक कमियाँ हो सकती हैं, पर इससे हट कर जो भी व्यवस्था बनेगी वो तानाशाही के समकक्ष होगी या उसकी ओर ले जाने वाली होगी। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को यह समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना, हमेशा ही राष्ट्र और समाज के हित के विपरीत होता है। वैसे इतिहास गवाह है कि कोई भी अधिनायक कितना ही ताकतवर क्यों न रहा हो, जब उसके अर्जित पुण्यों की समाप्ति होती है, तो उसका अंत बहुत हिंसक और वीभत्स होता है। इसलिए हर नेता, दल व नागरिक को पूरी ईमानदारी से भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए, कमजोर करने का नहीं। 

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ। 

Monday, April 5, 2021

पुलिसवालों में इंसानियत अभी ज़िंदा है


आम तौर पर माना जाता है कि पुलिसवालों में इंसानियत नहीं होती। पुलिसवालों का जनता के प्रति कड़ा रुख़ प्रायः निंदा के घेरे में आता रहता है। पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद बॉलीवुड के मशहूर सितारों का नशीले पदार्थों के साथ नारकोटिक विभाग द्वारा पकड़े जाना राजनैतिक घटना बताया जा रहा था। आरोप था कि ये सब बिहार के चुनाव के मद्देनज़र किया जा रहा है जबकि ये सब नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक राकेश अस्थाना की मुस्तैदी के कारण हो रहा था। अस्थाना के बारे में यह मशहूर है जब कभी उन्हें कोई संगीन मामला सौंपा जाता है तो वे अपनी पूरी क़ाबलियत और शिद्दत से उसे सुलझाने में जुट जाते हैं। सीबीआई में रहते हुए अस्थाना ने कुख्यात भगोड़े विजय माल्या के प्रत्यर्पण में जो भूमिका निभाई है उसकी जानकारी सीबीआई में उन सभी अफ़सरों को है जो इनकी टीम में रहे थे।
 


लेकिन आज हम एक अनोखे केस की बात करेंगे। पुलिस हो या कोई अन्य जाँच एजेंसी, वो हमेशा बेगुनाहों को झूठे केस में फँसा कर प्रताड़ित करने जैसे आरोपों से घिरी रहती है। लेकिन इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है जब विदेश में एक बेगुनाह जोड़े को बेगुनाह साबित कर भारत वापिस लाने में नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो कामयाब रहा है। इससे दोनो देशों के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों को और मज़बूती मिली है। मामला 2019 का है जब उसी साल 6 जुलाई को कतर के हवाई अड्डे पर मुंबई के एक जोड़े को 4 किलो चरस के साथ पकड़ा गया था। मामला कतर की अदालत में पहुँचा और मुंबई के ओनिबा और शरीक को वहाँ की अदालत में 10 साल की सज़ा सुना दी गई। ओनिबा और शरीक ने अपनी सज़ा के दौरान अपनी बेटी को जेल में ही जन्म दिया। इन दोनों ने आनेवाले 10 सालों के लिए ख़ुद को जेल में ही बंद मान लिया था। लेकिन कतर से दूर मुम्बई में इन दोनों के रिश्तेदारों को इन दोनों की बेगुनाही का पूरा यक़ीन था। लिहाज़ा उन्होंने मुम्बई पुलिस और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का दरवाज़ा खटखटाया। वे यहीं तक नहीं रुके उन्होंने प्रधान मंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय की मदद भी माँगी। हालाँकि ओनिबा और शरीक को रंगे हाथों पकड़ा गया था लेकिन उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि इतनी बड़ी मात्रा में नशीले प्रदार्थ इनके बैग में कैसे आए। 


किसी ने ख़ूब ही कहा है सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं हो सकता। एक ओर जहां ओनिबा और शरीक हिम्मत हार चुके थे वहीं शरीक की फ़ोन रिकॉर्डिंग में से एक ऐसा सुबूत निकला जिसने इस मामले का सच उजागर कर दिया। दरअसल शरीक की फूफी तबस्सुम ने शरीक के मना करने पर भी शरीक और ओनिबा को एक हनीमून पैकेज तोहफ़े में दिया। इस तोहफ़े में कतर की टिकट और वहाँ रहने और घूमने का पूरा पैकेज था। इस पैकेज के साथ ही तबस्सुम ने शरीक को एक पैकेट भी दिया जिसमें तबस्सुम ने अपने रिश्तेदारों के लिए ‘पान मसाला’ भेजा था। असल में वो पान मसाला नहीं बल्कि चरस थी। 


इतने गम्भीर मामले के बावजूद नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक राकेश अस्थाना को लगा कि यह मामला इतना सपाट नहीं है जितना दिखाई दे रहा है। उन्हें इसमें कुछ पेच नज़र आए इसलिए अस्थाना ने एक विशेष टीम गठित करी। इस टीम का नेतृत्व नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डिप्टी डायरेक्टर के पी एस मल्होत्रा ने किया। जाँच हुई और पता चला कि शरीक की फूफी तबस्सुम एक कुख्यात गैंग का हिस्सा हैं जो नशीले पदार्थों की तस्करी करता है। इस गैंग का सरग़ना मुंबई का निज़ाम कारा है जिसे मुम्बई में गिरफ़्तार किया गया। मुम्बई के नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की जाँच में ही यह सामने आया कि ओनिबा और शरीक दोनों बेगुनाह हैं। 


चूँकि मामला विदेश का था जहां ये बेगुनाह जोड़ा जेल में बंद था और असली गुनहगार भारत में नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की हिरासत में। तभी नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक ने ये तय किया कि ओनिबा और शरीक को बाइज़्ज़त वापिस भारत लाया जाए। अस्थाना ने प्रधान मंत्री कार्यालय, विदेश मंत्रालय की मदद से कतर में भारतीय दूतावास के ज़रिए कतर के अधिकारियों को इस मामले सभी सुबूत भिजवाए। कतर की कोर्ट में इन सभी सुबूतों पर फिर सुनवाई हुई और इस साल जनवरी में इस मामले में पुनः विचार किया गया। 29 मार्च 2021 को आख़िरकार कतर की अदालत ने ओनिबा और शरीक को बेगुनाह मान लिया और बाइज़्ज़त रिहा कर दिया। अब बस उस दिन का इंतेज़ार है जब सभी क़ानूनी औपचारिकताओं के बाद ओनिबा और शरीक को वापिस भारत भेजा जाएगा। इस खबर को सुन कर ओनिबा और शरीक के रिश्तेदारों में एक ख़ुशी की लहर दौड़ गई। उनका यह कहना है कि इस मामले में प्रधान मंत्री कार्यालय, विदेश मंत्रालय और ख़ासतौर पर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उनकी इस बात पर विश्वास किया कि ओनिबा और शरीक बेगुनाह हैं और इसलिए इस केस में आगे बढ़ कर हमारी मदद की। वरना ये जोड़ा दस बरस तक कतर की जेल में सड़ता रहता।  


इस पूरे हादसे से यह साबित होता है कि अगर कोई उच्च अधिकारी निशपक्षता, पारदर्शिता और मानवीय संवेदना से काम करे तो वह जनता के लिए किसी मसीहा से कम नहीं होता। इस मामले में सक्रियता दिखा कर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की टीम ने अपनी छवि को काफ़ी सुधार है। यह उदाहरण केंद्र और राज्यों की अन्य जाँच एजेंसीयों के लिए अनुकरणीय है। उन्हें इस बात से सतर्क रहना चाहिए की कोई भी उनका दुरुपयोग निज हित में या अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को परेशान करने के लिए न करे बल्कि सभी जाँच एजेंसियाँ अपने नियमों के अनुसार क़ानूनन कार्यवाही करें और राग द्वेष से मुक्त रहें। इससे उनकी छवि जनता के दिमाग़ में बेहतर बनेगी और ये जाँच एजेंसियाँ गुनहगारों को सज़ा दिलवाने में और बेगुनाहों को बचाने में नए मानदंड स्थापित करेंगी। इसके लिए आवश्यक है कि इन जाँच एजेंसियों की टीम में तैनात अधिकारी अपने वेतन और भत्तों से संतुष्ट रह कर, बिना किसी प्रलोभन में फँसे, अपने कर्तव्य को पूरा करें तो उससे हमारे समाज और देश को लाभ होगा और इन कर्मचारियों को भी आत्मिक संतोष प्राप्त होगा।