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Monday, March 4, 2024

संदेशखाली : नया नहीं है अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण


पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं से यौन उत्पीड़न और जमीन हड़पने के आरोपी तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख शाहजहां जिस तरह कोर्ट में पेश होता हुआ दिखाई दिया उससे उसको मिल रहे राजनैतिक संरक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता। इस कारण टीएमसी नेता और पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आरोपों के घेरे में हैं। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी होती है कि बिना अपवाद की सभी राजनैतिक पार्टियों को कुख्यात अपराधियों को संरक्षण देना पड़ता है? यह बात नई नहीं है कि भोले-भले वोटरों के बीच भय पैदा करने के उद्देश्य से सभी राजनैतिक दल स्थानीय अपराधियों और माफ़ियाओं को संरक्षण देते हैं। लोकतंत्र की दृष्टि से क्या यह सही है?
 



जैसे ही संदेशखाली के आरोपी शेख शाहजहां के मामले ने तूल पकड़ा उसे टीएमसी ने 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। पार्टी के इस फैसले का ऐलान करते हुए टीएमसी नेता डेरेक ओ' ब्रायन ने अन्य राजनैतिक दलों पर तंज कसते हुए कहा कि एक पार्टी है, जो सिर्फ बोलती रहती है। तृणमूल जो कहती है, वो करती है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ये काम पहले क्यों नहीं किया? क्या कोर्ट में पेश होते समय शेख शाहजहां की जो चाल-ढाल थी उससे इस निष्कासन का कोई मतलब रह गया है? पश्चिम बंगाल की पुलिस शेख शाहजहां के साथ अन्य अपराधियों की तरह बरताव क्यों नहीं कर रही थी? क्या शेख शाहजहां का निलंबन केवल एक औपचारिकता है और असल में उसे भी अन्य राजनैतिक अपराधियों की तरह जेल में वो पूरी ‘सेवाएँ’ दी जाएँगी जो हर रसूखदार क़ैदी को मिलती है? 



जहां तक पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सवाल है उन पर यह आरोप अक्सर लगते आए हैं कि वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक वर्ग के अपराधियों को संरक्षण देती आई हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे ऐसे अपराधियों को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बताते हुए उसे पुलिस थाने से छुड़ाने भी गईं हैं। यहाँ सवाल उठता है कि जब भी कभी आप अपने घर या कार्यालय में किसी को काम करने के लिए रखने की सोचते हैं तो उसके बारे में पूरी छान-बीन अवश्य करते हैं। ठीक उसी तरह जब कोई राजनैतिक दल अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता या नेता को कोई ज़िम्मेदारी देता है तो भी वे इसकी जाँच अवश्य करते होंगे कि वो व्यक्ति पार्टी और पार्टी के नेताओं के लिए कितना कामगार सिद्ध होगा। यदि ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता से ऐसी भूल लगातार होती आई है तो इसे भूल नहीं कहा जाएगा। 



वहीं अगर दूसरी ओर देखा जाए तो विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा भी अपराधियों को संरक्षण देने में किसी से पीछे नहीं है। मामला चाहे महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले नेता ब्रज भूषण शरण सिंह का हो या किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले गृह राज्यमंत्री के बेटे का हो या बलात्कार करने वाले कुलदीप सिंह सेंगर का हो। मणिपुर में हुई हिंसा और बलात्कार के दर्जनों घटनाएँ हों। बीजेपी शासित राज्यों में हिंसा, बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त भाजपा के नेताओं की लिस्ट भी काफ़ी लंबी है। 



चुनाव सुधार पर काम करने वाले संगठन 'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 40% मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 25% हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। बावजूद इसके उन्हें सांसद या विधायक बनाकर सदन में बिठा दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 763 मौजूदा सांसदों में से 306 सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही 194 सांसदों ने ख़ुद पर गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा अपने नामांकन प्रपत्र में घोषित की है। 


देश में अपराधियों को मिल रहे राजनैतिक संरक्षण पर आज तक अनेकों रिपोर्टें बनीं और उनमें इस समस्या से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिये गये। परंतु अपराधियों, नेताओं और नौकरशाही के इस गठजोड़ के चक्रव्यूह को अभी तक भेदा नहीं जा सका। यदि कोई भी राजनैतिक दल ठान ले कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को अपने दलों में संरक्षण नहीं देगा तो इस समस्या का समाधान अवश्य निकल सकता है। 


जो भी राजनैतिक दल यदि केंद्र या राज्य में सत्ता में हों और यदि उसके समक्ष उसी के दल के किसी सदस्य या नेता के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगते हैं तो उन्हें इस पर उस दल के बड़े नेताओं को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। देश की अदालतों के हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी ऐसा दल अपने किसी कार्यकर्ता या नेता के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगा तो मतदाताओं की नज़र में उस दल का क़द काफ़ी ऊँचा उठेगा। इसके साथ ही वो दल दूसरे दलों पर अपराधियों को संरक्षण देने के मामले में बढ़-चढ़ कर शोर भी मचा सकेगा। 


इसके साथ ही भारतीय पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए। राष्ट्रीय पुलिस आयोग व वोरा समिति द्वारा दिये गये सुझावों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। ऐसे सुधारों के प्रति हर सरकार का ढुल-मुल रवैया रहा है जो ठीक नहीं है। पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे हर तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। हालिया मसले में देखें, तो जहां तक अदालत में पेश करने का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर किसी राजनैतिक दल संरक्षण में है, तो उसके साथ पुलिस का व्यवहार एक मामूली अपराधी की तरह होगा यह कहना मुश्किल है। यदि पुलिस राजनैतिक दबाव से बाहर रहे तो वो बिना किसी डर के राजनैतिक अपराधियों के साथ क़ानून के दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाएगी।  


देश के तमाम राजनैतिक दल भारत को अपराध मुक्त करने का दावा तो अवश्य करते हैं पर क्या इसे आचरण में लाते हैं? क्या अपने-अपने दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना और जनता के सामने अपराध मुक्ति के बड़े-बड़े दावे करना विरोधाभास नहीं हैं? यदि चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत कुछ कड़े कदम उठाए और राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर पूरी तरह रोक लग जाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। परंतु ऐसा कब होगा देश के मतदाताओं को इसका इंतज़ार रहेगा। 

Monday, May 10, 2021

ममता बनर्जी : व्यक्तित्व व चुनौतियाँ


बेहद ताकतवर, भारी साधन सम्पन्न और हरफ़नमौला भाजपा के इतने तगड़े हमले के बावजूद एक महिला का बहादुरी से लड़ कर इतनी शानदार जीत हासिल करना साधारण बात नहीं है। इसीलिए आज पश्चिम बंगाल के चुनावों के परिणामों को पूरे देश में एक ख़ास नज़रिए से देखा जा रहा है। आज ममता बनर्जी की छवि अपने आप एक राष्ट्रीय नेता की बन गई है। इससे पहले कि हम ममता बनर्जी के सामने खड़ी चुनौतियों की चर्च करें, उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को जानना अच्छा रहेगा।
 

गत दस वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री होते हुए भी वे आलीशान सरकारी बंगले में नहीं बल्कि गरीब लोगों की बस्ती में छोटे से निजी मकान में रहते हैं। जब वे केंद्र में रेल मंत्री थीं तब उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। तब भी वे मंत्री के बंगले में न जा कर सांसदों के फ़्लैट में ही रहीं। जिसकी आंतरिक सज्जा एक सरकारी बाबू के घर से भी निम्न स्तर की थी। जहां कोई भी बिना रोकटोक के कभी भी जा सकता था। रेल मंत्रालय की गाड़ियों और सुरक्षा क़ाफ़िले के बजाय वे अपनी पुरानी मारुति में आती जाती थीं। 



रेल मंत्री के कार्यालय में बहुत वैभवपूर्ण आतिथ्य की व्यवस्था होती है तब भी ममता दीदी कैंटीन के काँच के ग्लास में ही चाय पिलाती थीं और उसका भुगतान अपने पैसे से करती थीं। एक बार जाड़े की कोहरे भरी अंधेरी रात को दो बजे वो जयपुर के रेलवे स्टेशन पहुँची और स्टेशन मैनेजर से कहा कि वो रेल मंत्री हैं और उनका हवाई जहाज़ कोहरे की वजह से जयपुर हवाई अड्डे पर उतर गया था। अब उन्हें किसी भी ट्रेन में किसी भी श्रेणी की बर्थ दे कर दिल्ली पहुँचवा दें। स्टेशन मैनेजर बिना गर्म कपड़े पहने, सूती धोती और हवाई चप्पल में एक साधारण महिला को इस तरह देख कर उनकी बात पर विश्वास नहीं कर सका। उसने जयपुर में तैनात रेलवे के महा प्रबंधक श्री अजित किशोर, जो मेरी पत्नी के मामा हैं, को फ़ोन किया और ममता बनर्जी से बात करवाई। अजित मामा हड़बड़ा कर स्टेशन दौड़े आए और ममता बनर्जी से बार-बार अनुरोध किया कि वे जीएम के सैलून में दिल्ली चली जायें, जो किसी भी गाड़ी में जोड़ दिया जाएगा। जिन पाठकों को जानकारी नहीं है, यह सैलून रेल का एक डब्बा होता है, जिसमें दो बेडरूम, बाथरूम, ड्राइंगरूम, डाइनिंग रूम, ऑफ़िस और सहायकों के सहित रसोई होती है। हर महाप्रबंधक का एक सैलून होता है। पर ममता बनर्जी किसी क़ीमत पर ये सुविधा लेने को राज़ी नहीं हुईं। उन्होंने ज़िद्द की कि उन्हें अगली दिल्ली जाने वाली ट्रेन के 2 एसी या 3 टियर में भी एक बर्थ दे दी जाए, पर इसके लिए किसी यात्री को परेशान न किया जाए। 


मधु दंडवते और जार्ज फ़र्नांडीज़ को छोड़ कर हर रेल मंत्री उसके लिए चलाए जाने वाली विशेष ट्रेन ‘एम आर स्पेशल’ में यात्रा करता है। जो बिना रोक टोक के प्राथमिकता से अपने गंतव्य को जाती है। ममता बनर्जी ने भी कभी इसका प्रयोग नहीं किया। यहाँ तक कि उन्होंने लोक सभा से मिलने वाली लाख रुपए महीने की सांसद पेंशन भी नहीं ली। 


जिस देश की करोड़ों जनता बदहाली में जी रही हो या जिस देश की जनता कोरोना महामारी में दवाई, अस्पताल व ऑक्सिजन के लिए बदहवास हो कर ठोकरें खा रही हो उस देश में ममता बनर्जी का जीवन हर राजनैतिक दल के नेता के लिए अनुकरणीय है। मशहूर विद्वान चाणक्य पंडित ने भी कहा है, ‘जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झोंपड़ियों में वास करती है। जिस देश का राजा झौंपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में वास करती है।’ ऐसी ममता दीदी को इस चुनाव में जिस तरह तंग किया गया और उनका मज़ाक़ उड़ाया गया उसका विपरीत प्रभाव आम बंगाली के मन पर पड़ा और वो ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया।



भाजपा का आरोप है कि ममता बनर्जी के राज में मुसलमानों को ज़्यादा संरक्षण मिलता है और उनके अपराधों को अनदेखा कर दिया जाता है। इस आरोप में भी कुछ सच्चाई है। कुछ वर्ष पहले मैं कोलकाता की ‘नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी’ में ‘अदालत की अवमानना क़ानून का दुरुपयोग’ विषय पर छात्रों और शिक्षकों को सम्बोधित करने गया था। तब मैंने अपने गेस्ट हाउस के कमरे में ही लंच पर पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक, कोलकाता के पुलिस आयुक्त और पश्चिम बंगला के सतर्कता आयुक्त को बुलाया था, ताकि बंद कमरे में खुल कर बंगाल की राजनैतिक स्थिति पर चर्चा की जा सके। तब उन लोगों ने भी दबी ज़ुबान से ममता दीदी के मुसलमानों के प्रति विशेष प्रेम की शिकायत की थी। जिसका उल्लेख बाद में मैंने अपने इसी साप्ताहिक कॉलम में भी किया था। 


इस चुनाव के बाद भाजपा अप्रत्याशित हार से हताश हो कर इस आरोप को ज़ोर शोर से उठा रही है। जिस पर ममता दीदी को ध्यान देना चाहिए और क़ानून तोड़ने वालों और हिंसा करने वालों के साथ कड़ाई से निपटना चाहिए। जिससे उनकी छवि एक निष्पक्ष नेता की बने। मुसलमान हो या हिंदू दोनों ही वर्गों की साम्प्रदायिक ताक़तों को जब बढ़ावा मिलता है तो स्वास्थ्य सेवाएँ, बेरोज़गारी, महंगाई शिक्षा और भ्रष्टाचार जैसी बड़ी समस्याएँ पीछे धकेल दी जाती हैं और आम जनता को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक दिया जाता है। इसलिए सबको ही इस वृत्ति से बचना चाहिए। 


जहां तक पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद की राजनैतिक हिंसा का आरोप है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का कोई भी राजनैतिक दल इस दुर्गुण से अछूता नहीं है। सत्ता क़ब्ज़ाने के लालच में या अपने राजनैतिक विरोधियों को दबाने के लिए सभी राजनैतिक दल समय-समय पर हिंसा का सहारा लेते आए हैं। वैसे त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास छह दशक पुराना है। त्रिपुरा के पिछले चुनावों के बाद सत्ता में आई भाजपा के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम के विरुद्ध जो हिंसा और तोड़फोड़ की थी उस पर वो मीडिया ख़ामोश रहा जो आज बंगाल की हिंसा पर शोर मचा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को हत्या बता कर महीनों शोर मचाया गया था। या फिर कोरोना फैलाने के लिए तबलीकी जमात को आरोपित करने का हास्यास्पद प्रचार उछल-उछल कर किया गया। अगर हम लोकतंत्र के चौथे खम्बे हैं तो हमें भय और लालच के बिना कबीरदास जी के शब्दों में, ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ वाले भाव से राष्ट्र और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए।