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Monday, October 13, 2025

जल संकट की दस्तक: अब दिल्ली से दूर नहीं

इस वर्ष देश भर में हुई भारी बारिशों और जल प्रलय के बावजूद भारत के शहरी क्षेत्रों में जल संकट अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक कठोर सच्चाई बन चुका है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु जैसे महानगर, जो आर्थिक प्रगति और आधुनिक जीवनशैली के प्रतीक हैं, अब जल प्रबंधन की विफलता के गंभीर परिणाम झेल रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र में तीन बड़े मॉल और आसपास की कॉलोनियों में पानी की सप्लाई पूरी तरह ठप हो जाने से यह संकट फिर सुर्ख़ियों में आया। इन प्रतिष्ठानों को बंद करने की नौबत इसलिए आ गई है क्योंकि टैंकरों से इनकी जल आपूर्ति रुक गई, जबकि भूजल दोहन (ग्राउंड वॉटर बोरिंग) पर पहले से ही एनजीटी ने प्रतिबंध लगा रखा है। यह स्थिति केवल अस्थायी तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक गहरे प्रशासनिक और नैतिक संकट की ओर संकेत करती है। पिछले सात दशकों में खरबों रुपया जल प्रबंधन पर खर्च किए जाने के बावजूद ऐसा क्यों है? 


दिल्ली जैसे शहर में जहाँ जनसंख्या 2 करोड़ से अधिक है, जल आपूर्ति व्यवस्था लंबे समय से दबाव में है। दिल्ली जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, शहर में प्रतिदिन करीब 1,000 मिलियन गैलन पानी की मांग है, जबकि उपलब्धता मुश्किल से 850 मिलियन गैलन तक पहुँच पाती है। वसंत कुंज जैसे पॉश इलाकों में भी पिछले कुछ वर्षों से पानी की टंकियों और निजी टैंकरों पर निर्भरता बढ़ी है। परंतु इस बार स्थिति पहले से कहीं अधिक भयावह हो गई क्योंकि प्रशासन ने सुरक्षा और ट्रैफिक कारणों से टैंकरों की आवाजाही पर रोक लगा दी। इस निर्णय का सबसे बड़ा असर व्यापारिक केंद्रों जैसे मॉल्स, रेस्तरां और दुकानों पर पड़ा है। इन मॉल्स में हज़ारों कर्मचारी काम करते हैं और प्रतिदिन लाखों ग्राहक आते हैं; बिना पानी के ऐसी व्यवस्था एक दिन भी नहीं चल सकती। शौचालय, सफाई, भोजनालय, अग्निशमन प्रणाली, सब कुछ जल आपूर्ति पर निर्भर हैं। जब टैंकरों की आपूर्ति रुकी, तो केवल व्यापार ही नहीं, आसपास के आवासीय समाज भी संकट में पड़ गए।



दिल्ली सरकार ने कुछ वर्ष पहले भूजल दोहन पर सख्त प्रतिबंध लगाया था। उद्देश्य यह था कि गिरते जलस्तर को रोका जाए। यह पहल पर्यावरणीय दृष्टि से आवश्यक थी, क्योंकि लगातार बढ़ते दोहन ने दिल्ली के अधिकांश क्षेत्रों में भूजल को 300 फीट से भी अधिक नीचे पहुँचा दिया था। लेकिन सवाल यह है कि क्या वैकल्पिक व्यवस्था पर्याप्त रूप से विकसित की गई?


जब सरकार ने ग्राउंड वॉटर बोरिंग को गैरकानूनी घोषित किया, तब उसे समानांतर रूप से मजबूत टैंकर नेटवर्क, पुनर्चक्रण संयंत्र और रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम विकसित करने चाहिए थे। दुर्भाग्यवश, नीतियाँ बनीं पर उनका कार्यान्वयन अधूरा रह गया। परिणामस्वरूप, लोग न तो कानूनी तरीके से पानी निकाल सकते हैं, न सरकारी वितरण पर भरोसा कर सकते हैं। सोचने वाली बात ये है कि यदि जाड़ों में यह हाल है तो गर्मियों में क्या होगा?



दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में पानी की आपूर्ति से जुड़ा टैंकर कारोबार वर्षों से विवादों में रहा है। कई जगह यह सार्वजनिक सेवा से अधिक निजी व्यवसाय बन चुका है। अधिकारियों और टैंकर ठेकेदारों के बीच मिलीभगत के आरोप नए नहीं हैं। दिल्ली में जल आपूर्ति में आई यह हालिया बाधा भी ऐसे ही भ्रष्टाचार की परतें उजागर करती प्रतीत होती है।


त्योहारों के मौसम में जब पानी की मांग बढ़ जाती है, घरों में सजावट, साफ-सफाई और उत्सव आयोजन अधिक होते हैं।ऐसे समय पर टैंकरों की आवाजाही पर प्रतिबंध या ‘तकनीकी समस्या’ का बहाना बना देना संदेह उत्पन्न करता है। कई स्थानीय निवासियों का कहना है कि कुछ जल एजेंसियों ने टैंकरों की उपलब्धता को कृत्रिम रूप से सीमित कर कीमतें बढ़ाने की कोशिश की है। इससे न केवल आम नागरिकों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ा, बल्कि मॉल्स और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बंद करने की स्थिति आ गई। अगर ये आरोप सही साबित होते हैं, तो यह सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि नैतिक दिवालियापन का उदाहरण होगा। जल जैसी बुनियादी संपदा के साथ ऐसा बर्ताव किसी नागरिक समाज में अक्षम्य अपराध है।


भारत में जल नीति के कई स्तर हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और नगरपालिका निकाय सब अपने ढंग से काम करते हैं। लेकिन इन सबमें तालमेल का अभाव है। राष्ट्रीय जल नीति (2012) यह कहती है कि हर नागरिक को पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण जल मिलेगा, पर छोटे शहरों को तो छोड़ें, दिल्ली जैसे शहरों में भी वास्तविकता इसके उलट है। नगर पालिकाएँ रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की अनिवार्यता घोषित तो करती हैं, पर अधिकांश इमारतों में यह प्रणाली केवल कागज़ों पर मौजूद है। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की क्षमता भी इस संकट का सामना करने के लिए अपर्याप्त है। यमुना का प्रदूषण भी दिल्ली की जल आपूर्ति पर सीधा असर डालता है। यदि यमुना से शुद्ध जल नहीं मिलेगा, तो शहर को बाहरी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जिससे राजनीतिक टकराव भी बढ़ते हैं।


हालाँकि नीति-निर्माण और कार्यान्वयन की बड़ी जिम्मेदारी सरकार पर है, नागरिक भी पूरी तरह निर्दोष नहीं हैं। शहरी समाज में जल का अनावश्यक उपयोग आम बात है। बागवानी में अत्यधिक पानी, कार धोने में व्यर्थ बहाव, और रिसाव की अनदेखी। स्वच्छ भारत मिशन या हर घर जल जैसे अभियानों की सफलता तभी संभव है जब लोग खुद बदलाव का हिस्सा बनें। रेन वॉटर हार्वेस्टिंग और ग्रे-वॉटर रीसाइक्लिंग जैसे उपाय व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर अपनाए जा सकते हैं। मॉल्स और हाउसिंग सोसाइटीज़ में यह व्यवस्था अनिवार्य की जानी चाहिए, ताकि टैंकरों पर निर्भरता घटे।


दिल्ली का वर्तमान संकट केवल एक चेतावनी है। आने वाले वर्षों में ऐसी घटनाएँ और बढ़ सकती हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक़, यदि ठोस कदम नहीं उठाए गए तो 2030 तक देश के आधे बड़े शहर ‘जल-विहीन’ क्षेत्रों की श्रेणी में आ सकते हैं। इसलिए अब समय है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर दीर्घकालिक रणनीति अपनाएँ। गौरतलब है कि अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी पानी के अभाव के कारण मात्र 15 सालों में ही उजड़ गई थी। महानगरों में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली को सख्ती से लागू करना। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की संख्या और क्षमता बढ़ाना। टैंकर संचालन को पारदर्शी और जीपीएस-नियंत्रित बनाना ताकि रिश्वतखोरी पर रोक लगे। यमुना जैसी नदियों की सफाई और पुनर्जीवन को प्राथमिकता देना। पानी की बर्बादी रोकने के लिए सख्त कानून और जनजागरूकता अभियान चलाना। इन कदमों के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जल प्रबंधन केवल संकट आने पर चर्चा का विषय न बने, बल्कि शहरी नियोजन की मूल नीति का हिस्सा हो। 


दिल्ली पर आई जल संकट की दस्तक यह याद दिलाता है कि पानी केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। जब-जब हम इसे समझने में चूक करते हैं, तो सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। यदि सरकार और नागरिक समाज अब भी इस संकट को गंभीरता से नहीं लेते, तो ‘जल युद्ध’ भविष्य का नहीं, वर्तमान का शब्द बन जाएगा। जलसंकट का समाधान केवल योजनाओं से नहीं, ईमानदार नीयत और सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। 

 Corruption

Monday, August 11, 2025

उत्तरकाशी की त्रासदी: एक चेतावनी

भारत के पहाड़ी क्षेत्र, विशेष रूप से हिमालयी राज्यों जैसे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश, प्राकृतिक सौंदर्य और जैव-विविधता के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। ये क्षेत्र न केवल पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं, बल्कि गंगा, यमुना और अन्य प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल भी हैं, जो देश की जीवनरेखा हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में इन क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता ने गंभीर चिंता पैदा की है। उत्तरकाशी में हाल ही में भीषण बाढ़ और मलबे के प्रवाह ने एक बार फिर से यह सवाल उठाया है कि क्या हम अपने पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं ? यह आपदा, जो भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (बीईएसजेड) में हुई, न केवल प्राकृतिक कारणों से बल्कि अवसंरचना परियोजनाओं के कुप्रबंधन और पर्यावरणीय असंतुलन के कारण और भी विनाशकारी बन गई। यह समय है कि हम इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें और तत्काल कार्रवाई करें।



5 अगस्त 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में एक बादल फटने की घटना ने भारी तबाही मचाई। खीर गंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में हुई इस घटना ने गांव के घरों, होटलों, दुकानों और सड़कों को तहस-नहस कर दिया।चार लोगों की मौत हो गई और 50 से 100 लोग लापता हो गए। यह आपदा भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र में हुई, जो 2012 में गंगा नदी की पारिस्थितिकी और जलस्रोतों की सुरक्षा के लिए अधिसूचित किया गया था। विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्षेत्र में अनियंत्रित निर्माण कार्य, जैसे कि नदी के बाढ़ क्षेत्रों पर होटल और हेलीपैड का निर्माण, ने इस आपदा को और अधिक गंभीर बना दिया।



उत्तरकाशी की यह घटना कोई अपवाद नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बार-बार बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं सामने आई हैं। 2013 की केदारनाथ बाढ़, जिसमें 5,700 से अधिक लोग मारे गए थे और 2021 की चमोली बाढ़, जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए या लापता हो गए, ऐसी त्रासदियों के उदाहरण हैं। इन आपदाओं का एक प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है, जो हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने और बादल फटने की घटनाओं को बढ़ा रहा है। लेकिन इसके साथ-साथ मानवीय गतिविधियां, विशेष रूप से अवसंरचना परियोजनाओं का गलत प्रबंधन, इन आपदाओं की तीव्रता को और बढ़ा रहा है।


हिमालयी क्षेत्र की भूवैज्ञानिक संरचना अत्यंत नाजुक है। यह क्षेत्र टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण भूकंपीय रूप से सक्रिय और भूस्खलन के लिए अतिसंवेदनशील है। फिर भी, चारधाम परियोजना जैसे बड़े पैमाने की सड़क निर्माण परियोजनाएं, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स और अनियंत्रित पर्यटन ने इस क्षेत्र की स्थिरता को और कमजोर किया है। उत्तरकाशी में चारधाम परियोजना के तहत धरासू-गंगोत्री खंड का चौड़ीकरण और हिना-टेखला के बीच प्रस्तावित बायपास, जिसमें 6,000 देवदार के पेड़ों को काटने की योजना है, पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय रहा है।


चारधाम परियोजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई कानूनी चुनौतियां सामने आई हैं, क्योंकि यह परियोजना पर्यावरणीय खतरों को बढ़ा रही है। विशेषज्ञों ने बार-बार चेतावनी दी है कि सड़क चौड़ीकरण के लिए पहाड़ों की कटाई, वनों की अंधाधुंध कटाई और नदी के किनारों पर निर्माण कार्य इस क्षेत्र को और अधिक अस्थिर बना रहे हैं। 2023 में सिल्क्यारा सुरंग प्रकरण ने भी यही दिखाया कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) के बिना परियोजनाओं को मंजूरी देना कितना खतरनाक हो सकता है।


इसी तरह, हिमाचल प्रदेश में शिमला के शोघी-धल्ली राजमार्ग परियोजना के लिए पहाड़ों की कटाई ने भूस्खलन के खतरे को बढ़ा दिया है। शिमला, जो कभी 30,000 लोगों के लिए बनाया गया था, अब 300,000 लोगों और लाखों पर्यटकों का बोझ सह रहा है। कुल्लू और मनाली जैसे पर्यटन स्थल भी अनियंत्रित निर्माण और पर्यटकों की भीड़ के कारण पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं।


जलवायु परिवर्तन ने हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता को बढ़ा दिया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अनुसार, 1988 से 2023 तक उत्तराखंड में 12,319 भूस्खलन हुए, जिनमें से 1,100 अकेले 2023 में दर्ज किए गए। ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और ग्लेशियल झीलों का विस्तार ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) का खतरा बढ़ा रहा है। उत्तरकाशी की हालिया बाढ़ में भी विशेषज्ञों ने जीएलओएफ की संभावना जताई है।


इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण वायुमंडल में नमी की मात्रा बढ़ रही है, जिससे बादल फटने और भारी बारिश की घटनाएं अधिक आम हो रही हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार, उत्तरकाशी में 43 मिमी बारिश दर्ज की गई, जो बादल फटने की परिभाषा (100 मिमी/घंटा) से कम थी, लेकिन लगातार तीन दिनों की बारिश ने मिट्टी को संतृप्त कर दिया, जिससे मलबे का प्रवाह और बाढ़ बढ़ गई।


पर्यटन उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख हिस्सा है। 2023 में चारधाम यात्रा में 56 लाख से अधिक पर्यटक आए, जिसके कारण होटल, लॉज और सड़कों का निर्माण तेजी से हुआ। हालांकि, यह अनियंत्रित निर्माण नदी किनारों और अस्थिर ढलानों पर किया गया, जिसने प्राकृतिक प्रतिरोधों को नष्ट कर दिया। जोशीमठ में 2023 में 700 से अधिक घरों में दरारें आ गईं, क्योंकि यह शहर प्राचीन भूस्खलन मलबे पर बना है और वहां टपकेश्वर विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना और चारधाम सड़क परियोजना ने इसके ढलानों को अस्थिर कर दिया।


उत्तरकाशी की त्रासदी और हिमाचल-उत्तराखंड में बार-बार होने वाली आपदाएं यह स्पष्ट करती हैं कि अब केवल चर्चा पर्याप्त नहीं है। हमें तत्काल और ठोस कदम उठाने होंगे। बीईएसजेड जैसे नियमों को सख्ती से लागू करना होगा। अवैध निर्माण पर तत्काल रोक और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई जरूरी है। सड़क और अन्य परियोजनाओं के लिए आधुनिक तकनीकों, जैसे हाफ-टनेल और ढलान स्थिरीकरण संरचनाओं का उपयोग करना होगा। हिमालयी क्षेत्र में स्वचालित मौसम स्टेशनों (एडब्ल्यूएस) की संख्या बढ़ानी होगी और समुदाय-आधारित चेतावनी प्रणालियों को लागू करना होगा। वनों की कटाई को रोकने और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के माध्यम से प्राकृतिक बाधाओं को बहाल करना होगा। पर्यटकों की संख्या को नियंत्रित करने और पर्यावरण-अनुकूल पर्यटन को बढ़ावा देने की जरूरत है।

उत्तरकाशी की हालिया बाढ़ और हिमाचल-उत्तराखंड में बार-बार होने वाली आपदाएं हमें एक स्पष्ट संदेश दे रही हैं, यदि हमने अभी नहीं चेता, तो हमारी लापरवाही हमें और हमारे पर्यावरण को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। यह समय है कि हम विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाएं। हिमालय केवल एक पर्यटन स्थल नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर का हिस्सा है। इसे बचाने के लिए सरकार, स्थानीय समुदायों और नागरिकों को एकजुट होकर काम करना होगा। अब समय है कार्रवाई का, क्योंकि देरी का मतलब और अधिक त्रासदियां होंगी। 

Sunday, June 1, 2025

रक्षा परियोजनाओं में देरी क्यों?

भारतीय वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने 29 मई 2025 को नई दिल्ली में आयोजित एक सभा में रक्षा परियोजनाओं में देरी को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया। उन्होंने कहा, टाइमलाइन एक बड़ा मुद्दा है। मेरे विचार में एक भी परियोजना ऐसी नहीं है जो समय पर पूरी हुई हो। कई बार हम कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय जानते हैं कि यह सिस्टम समय पर नहीं आएगा। फिर भी हम कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लेते हैं। यह बयान न केवल रक्षा क्षेत्र में मौजूदा चुनौतियों को उजागर करता है, बल्कि भारत की रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में चल रही प्रक्रिया पर भी सवाल उठाता है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने अपने बयान में विशेष रूप से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा तेजस Mk1A फाइटर जेट की डिलीवरी में देरी का उल्लेख किया। यह देरी 2021 में हस्ताक्षरित 48,000 करोड़ रुपये के कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है, जिसमें 83 तेजस Mk1A जेट्स की डिलीवरी मार्च 2024 से शुरू होनी थी, लेकिन अभी तक एक भी विमान डिलीवर नहीं हुआ है। इसके अलावा, उन्होंने तेजस Mk2 और उन्नत मध्यम लड़ाकू विमान (AMCA) जैसे अन्य महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स में भी प्रोटोटाइप की कमी और देरी का जिक्र किया। यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ रहा है, विशेष रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद, जिसे उन्होंने राष्ट्रीय जीत करार दिया।



उनके बयान का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह रक्षा क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह पहली बार नहीं है जब HAL की आलोचना हुई है। फरवरी 2025 में, एयरो इंडिया 2025 के दौरान, एयर चीफ मार्शल सिंह ने HAL के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था, मुझे HAL पर भरोसा नहीं है, जो बहुत गलत बात है। यह बयान एक अनौपचारिक बातचीत में रिकॉर्ड हुआ था, लेकिन इसने रक्षा उद्योग में गहरे मुद्दों को उजागर किया।


रक्षा परियोजनाओं में देरी के कई कारण हैं, जिनमें से कुछ संरचनात्मक और कुछ प्रबंधन से संबंधित हैं। तेजस Mk1A की डिलीवरी में देरी का एक प्रमुख कारण जनरल इलेक्ट्रिक से इंजनों की धीमी आपूर्ति है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में समस्याएं, विशेष रूप से 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारत पर लगे प्रतिबंधों ने HAL की उत्पादन क्षमता को प्रभावित किया है । सिंह ने HAL को मिशन मोड में न होने के लिए आलोचना की। उन्होंने कहा कि HAL के भीतर लोग अपने-अपने साइलो में काम करते हैं, जिससे समग्र तस्वीर पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह संगठनात्मक अक्षमता और समन्वय की कमी का संकेत है। सिंह ने इस बात पर भी जोर दिया कि कई बार कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय ही यह स्पष्ट होता है कि समय सीमा अवास्तविक है। फिर भी, कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लिए जाते हैं, जिससे प्रक्रिया शुरू से ही खराब हो जाती है। यह एक गहरी सांस्कृतिक समस्या को दर्शाता है, जहां जवाबदेही की कमी है। हालांकि सरकार ने AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स में निजी क्षेत्र की भागीदारी को मंजूरी दी है, लेकिन अभी तक रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित रही है। इससे HAL और DRDO जैसे सार्वजनिक उपक्रमों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ती है, जो अक्सर समय सीमा पूरी करने में विफल रहते हैं। भारत की रक्षा खरीद प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है। इसके अलावा, डिजाइन और विकास में देरी, जैसे कि तेजस Mk2 और AMCA के प्रोटोटाइप की कमी, परियोजनाओं को और पीछे धकेलती है।



रक्षा परियोजनाओं में देरी का भारतीय वायुसेना की परिचालन तत्परता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में, भारतीय वायु सेना के पास 42.5 स्क्वाड्रनों की स्वीकृत ताकत के मुकाबले केवल 30 फाइटर स्क्वाड्रन हैं। तेजस Mk1A जैसे स्वदेशी विमानों की देरी और पुराने मिग-21 स्क्वाड्रनों का डीकमीशनिंग इस कमी को और गंभीर बनाता है।



इसके अलावा, देरी से रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में भारत की प्रगति भी प्रभावित होती है। सिंह ने कहा, हमें केवल भारत में उत्पादन की बात नहीं करनी चाहिए, बल्कि डिजाइन और विकास भी भारत में करना चाहिए। देरी न केवल IAF की युद्ध क्षमता को कमजोर करती है, बल्कि रक्षा उद्योग में विश्वास को भी प्रभावित करती है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे हालिया सैन्य अभियानों ने यह स्पष्ट किया है कि आधुनिक युद्ध में हवाई शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है, और इसके लिए समय पर डिलीवरी और तकनीकी उन्नति अनिवार्य है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह के बयान ने रक्षा क्षेत्र में सुधार की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है। रक्षा कॉन्ट्रैक्ट्स में यथार्थवादी समयसीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए। सिंह ने सुझाव दिया कि हमें वही वादा करना चाहिए जो हम हासिल कर सकते हैं। इसके लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन करने से पहले गहन तकनीकी और लॉजिस्टिकल मूल्यांकन की आवश्यकता है। AMCA प्रोजेक्ट में निजी क्षेत्र की भागीदारी एक सकारात्मक कदम है। निजी कंपनियों को रक्षा उत्पादन में और अधिक शामिल करने से HAL और DRDO पर निर्भरता कम होगी और प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। 


HAL और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को ‘मिशन मोड’ में काम करने के लिए संगठनात्मक सुधार करने चाहिए। इसके लिए समन्वय, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और कर्मचारी प्रशिक्षण में सुधार की आवश्यकता है। इंजन और अन्य महत्वपूर्ण घटकों के लिए विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता को कम करने के लिए स्वदेशी विकास पर ध्यान देना होगा। रक्षा खरीद प्रक्रिया को सरल और तेज करने की आवश्यकता है ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा सके।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह का बयान रक्षा क्षेत्र में गहरी जड़ें जमाए बैठी समस्याओं को उजागर करता है। उनकी स्पष्टवादिता न केवल जवाबदेही की मांग करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि भारत को आत्मनिर्भर और युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए तत्काल सुधारों की आवश्यकता है। तेजस Mk1A, Mk2 और AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स भारत की रक्षा क्षमता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनमें देरी न केवल हमारी फौज की तत्परता को प्रभावित करती है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरे में डालती है। सरकार, रक्षा उद्योग और निजी क्षेत्र को मिलकर इन चुनौतियों का समाधान करना होगा ताकि भारत न केवल उत्पादन में, बल्कि डिजाइन और विकास में भी आत्मनिर्भर बन सके। सिंह का यह बयान एक चेतावनी तो है ही, लेकिन साथ ही यह रक्षा क्षेत्र को ‘सर्वश्रेष्ठ’ करने  की दिशा में एक अवसर भी है।

Monday, April 7, 2025

वक़्फ़ क़ानून में संशोधन किसलिए?


वक़्फ़ संशोधन बिल, जिसे हाल ही में भारतीय संसद में पेश किया गया और 2-3 अप्रैल 2025 को लोकसभा और राज्यसभा से पारित किया गया, देश में एक गहन बहस का विषय बन गया है। यह बिल 1995 के वक़्फ़ अधिनियम में संशोधन करने और वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन को अधिक पारदर्शी और समावेशी बनाने का दावा करता है। सरकार इसे एक प्रगतिशील कदम के रूप में पेश कर रही है, जबकि विपक्ष और कई मुस्लिम संगठन इसे धार्मिक स्वायत्तता पर हमला मानते हैं। इस लेख में हम इस बिल के समर्थन और विरोध के तर्कों को तटस्थ दृष्टिकोण से देखेंगे और इसके संभावित प्रभावों का आकलन करेंगे। 



वक़्फ़ एक इस्लामी परंपरा है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को धार्मिक, शैक्षिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिए समर्पित कर देता है। भारत में वक़्फ़ संपत्तियों का प्रबंधन 1995 के वक़्फ़ अधिनियम के तहत होता है, जिसके अंतर्गत राज्य वक़्फ़ बोर्ड और केंद्रीय वक़्फ़ परिषद कार्य करते हैं। वक़्फ़ संशोधन बिल 2024 में कई बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं, जैसे वक़्फ़ बोर्ड में गैर-मुस्लिम और महिला सदस्यों की अनिवार्यता, संपत्ति सर्वेक्षण के लिए कलेक्टर की भूमिका और विवादों में हाई कोर्ट की अपील का प्रावधान। सरकार का कहना है कि यह बिल वक़्फ़ प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही लाएगा, जबकि विरोधी इसे वक़्फ़ की मूल भावना के खिलाफ मानते हैं।


इस बिल का समर्थन करने वाले जो तर्क देते हैं उनका कहना है कि वक़्फ़ बोर्डों में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की शिकायतें लंबे समय से चली आ रही हैं। देश में 8.7 लाख से अधिक वक़्फ़ संपत्तियां हैं, जिनकी कीमत लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये आंकी गई है, लेकिन इनका उपयोग गरीब मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए प्रभावी ढंग से नहीं हो पा रहा। कलेक्टर द्वारा संपत्ति सर्वेक्षण और रिकॉर्ड डिजिटलीकरण जैसे प्रावधानों से इन संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन संभव होगा। बिल में वक़्फ़ बोर्ड में कम से कम दो महिलाओं और गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान भी है। समर्थकों का तर्क है कि इससे बोर्ड में लैंगिक और सामाजिक समावेशिता बढ़ेगी। विशेष रूप से पसमांदा मुस्लिम समुदाय, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है, इस बिल का समर्थन करता है, क्योंकि उनका मानना है कि मौजूदा व्यवस्था में धनी और प्रभावशाली लोग वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्जा जमाए हुए हैं। 



पहले वक़्फ़ ट्रिब्यूनल का फैसला अंतिम माना जाता था, जिसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। नए बिल में हाई कोर्ट में अपील का अधिकार दिया गया है, जिसे समर्थक संविधान के अनुरूप और न्यायसंगत मानते हैं। उनका कहना है कि इससे वक़्फ़ बोर्ड के मनमाने फैसलों पर अंकुश लगेगा। बिल में यह शर्त भी जोड़ी गई है कि बिना दान के कोई संपत्ति वक़्फ़ की नहीं मानी जाएगी। समर्थकों का कहना है कि इससे उन मामलों में कमी आएगी जहां वक़्फ़ बोर्ड बिना ठोस सबूत के संपत्तियों पर दावा करता था, जिससे आम लोगों को परेशानी होती थी।



वहीं इस बिल के विरोध में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और विपक्षी दलों का कहना है कि यह बिल वक़्फ़ की मूल भावना को कमजोर करता है। वक़्फ़ एक धार्मिक परंपरा है और इसमें गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करना इसकी पवित्रता को नुकसान पहुंचाएगा। उनका यह भी आरोप है कि सरकार वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्जा करने की योजना बना रही है। बिल में कलेक्टर को वक़्फ़ संपत्तियों का सर्वेक्षण करने और उनकी स्थिति तय करने का अधिकार दिया गया है। विरोधियों का कहना है कि यह एक सरकारी हस्तक्षेप है, जो वक़्फ़ बोर्ड की स्वायत्तता को खत्म कर देगा। उनका तर्क है कि कलेक्टर, जो ज्यादातर गैर-मुस्लिम हो सकता है, वक़्फ़ के धार्मिक महत्व को नहीं समझ पाएगा। विपक्ष का दावा है कि यह बिल संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार देता है। उनका कहना है कि वक़्फ़ एक इस्लामी परंपरा है और इसमें सरकारी दखल अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमला है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य संगठनों ने बिल के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किए हैं। ईद और जुमातुल विदा जैसे अवसरों पर काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ने की अपील इसका उदाहरण है। विरोधियों का कहना है कि यह बिल मुस्लिम समुदाय को अपने ही धर्म से दूर करने की साजिश है। 


वक़्फ़ संशोधन बिल के लागू होने से कई सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। यदि यह पारदर्शिता और समावेशिता को बढ़ाता है, तो वक़्फ़ संपत्तियों का उपयोग गरीब मुस्लिमों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए बेहतर तरीके से हो सकता है। दूसरी ओर, यदि यह धार्मिक स्वायत्तता को कमजोर करता है या सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ाता है, तो इससे मुस्लिम समुदाय में असंतोष और अविश्वास बढ़ सकता है। 


राजनीतिक दृष्टिकोण से यह बिल सत्तारूढ़ एनडीए के लिए एक जोखिम भरा कदम है। जहां बीजेपी इसे हिंदू मतदाताओं के बीच वक़्फ़ बोर्ड की कथित मनमानी के खिलाफ एक कदम के रूप में पेश कर सकती है, वहीं सहयोगी दल जैसे जेडीयू टीडीपी और आरएलडी को अपने मुस्लिम समर्थकों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। यदि मोदी सरकार संसद में बहुमत के चलते इस बिल को अपने पिछले दो कार्यकालों में बड़े आराम से ला सकती थी। लेकिन तीसरे कार्यकाल में इस बिल को लाकर भाजपा ने अपने सहयोगी दलों को पशोपेश में डाल दिया है।


वक़्फ़ संशोधन बिल एक जटिल मुद्दा है, जिसमें सुधार की आवश्यकता और धार्मिक संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। समर्थकों के लिए यह भ्रष्टाचार को खत्म करने और वक़्फ़ को आधुनिक बनाने का अवसर है, जबकि विरोधियों के लिए यह धार्मिक पहचान और स्वायत्तता पर हमला है। सच्चाई शायद इन दोनों के बीच कहीं छिपी है। इस बिल का असली प्रभाव इसके कार्यान्वयन पर निर्भर करेगा। यदि सरकार इसे संवेदनशीलता और पारदर्शिता के साथ लागू करती है, तो यह एक सकारात्मक बदलाव ला सकता है। लेकिन यदि इसे जल्दबाजी या राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया, तो यह सामाजिक तनाव को और गहरा सकता है। अंततः इस बिल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह वक़्फ़ की मूल भावना को कितना सम्मान देता है और समाज के सभी वर्गों को कितना लाभ पहुंचाता है। 

Monday, March 31, 2025

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं


भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक आचरण के चलते 1993 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। पर कांग्रेस पार्टी ने मतदान के पहले लोकसभा से बहिर्गमन करके उन्हें बचा लिया। 1997 में मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा के अनैतिक आचरण को उजागर किया तो सर्वोच्च अदालत, संसद व मीडिया तूफ़ान खड़ा हो गया था। पर अंततः उन्हें भी सज़ा के बदले तत्कालीन सत्ता व विपक्ष दोनों का संरक्षण मिला। 2000 में एक बार फिर मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉ ए एस आनंद के छह ज़मीन घोटाले उजागर किए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये मामला चर्चा में रहा व तत्कालीन क़ानून मंत्री राम जेठमलानी की कुर्सी चली गई। पर तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विपक्ष के सहयोग से उन्हें सज़ा देने के बदले भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया। इसलिए मौजूदा विवाद जिसमें जस्टिस यशवंत वर्मा के घर जले नोटों के बोरे मिले, कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है।



न्यायपालिका को देश के लोकतांत्रिक ढांचे का आधार माना जाता है, जो संविधान की रक्षा और कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों की एकीकृत प्रणाली के साथ यह संस्था स्वतंत्रता और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर खड़ी है। दुर्भाग्य से हाल के दशकों में न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों ने इसकी साख पर सवाल उठाए हैं। किसी न्यायाधीश के घर पर बड़ी मात्रा में नगदी मिलना एक गंभीर मुद्दा है। ऐसी घटनाओं से न सिर्फ़ न्यायपालिका पर कई सवाल उठते हैं बल्कि न्याय की आशा रखने वाली आम जनता का न्यायपालिका से विश्वास भी उठने लगता है।  


भारत की न्यायपालिका का आधार संविधान में निहित है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय को शक्तियाँ प्रदान करते हैं, जबकि अनुच्छेद 214 से 231 उच्च न्यायालयों को परिभाषित करते हैं। यह प्रणाली औपनिवेशिक काल से विकसित हुई है, जब ब्रिटिश शासन ने आम कानून प्रणाली की नींव रखी थी। स्वतंत्रता के बाद, न्यायपालिका ने संवैधानिक व्याख्या, मूल अधिकारों की रक्षा और जनहित याचिकाओं के माध्यम से अपनी प्रगतिशील भूमिका निभाई है। 1973 के केशवानंद भारती मामले में मूल संरचना सिद्धांत और 2018 के समलैंगिकता की अपराधमुक्ति जैसे फैसले इसकी उपलब्धियों के उदाहरण हैं।



हालांकि न्यायपालिका की छवि आमतौर पर सम्मानजनक रही है, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप इसकी विश्वसनीयता को चुनौती दे रहे हैं। 2010 में कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे, जिसके बाद उन पर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई। यह स्वतंत्र भारत में पहला ऐसा मामला था। हाल के वर्षों में कुछ निचली अदालतों के न्यायाधीशों के घरों से असामान्य मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरें सामने आई हैं। 2022 में एक जिला जज के यहाँ छापेमारी में लाखों रुपये मिले, जिसने भ्रष्टाचार के संदेह को बढ़ाया। 2017 में  सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को एक याचिका में शामिल किया गया, जिसमें मेडिकल कॉलेजों को अनुमति देने में कथित रिश्वतखोरी का आरोप था। हालाँकि ये आरोप सिद्ध नहीं हुए, लेकिन इसने संस्थान की छवि को काफ़ी हद तक प्रभावित किया। कई मामलों में वकील और कोर्ट स्टाफ पर पक्षपातपूर्ण फैसलों के लिए पैसे लेने के आरोप भी लगे हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि क्या न्यायाधीश भी इसमें शामिल हो सकते हैं। ये घटनाएँ अपवाद हो सकती हैं, लेकिन इनका प्रभाव व्यापक है। भ्रष्टाचार के ये आरोप न केवल जनता के भरोसे को कम करते हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर भी सवाल उठाते हैं।



न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ कई अन्य चुनौतियाँ भी हैं जो भारत की न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति को परिभाषित करती हैं। आँकड़ों की मानें तो मार्च 2025 तक, देश भर में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले विचाराधीन हैं। यह देरी भ्रष्टाचार के लिए अवसर पैदा करती है, क्योंकि लोग त्वरित न्याय के लिए अनुचित साधनों का सहारा ले सकते हैं। देश भर में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,771 पदों में से लगभग 20% रिक्त हैं। इससे मौजूदा जजों पर दबाव बढ़ता है और पारदर्शिता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी विवाद हुए हैं। कोलेजियम प्रणाली, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है, पर अपारदर्शिता और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को असंवैधानिक ठहराने के बाद भी इस मुद्दे पर बहस जारी है। इतना ही नहीं न्यायिक जवाबदेही की कमी बाई एक गंभीर मुद्दा है। क्योंकि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया जटिल है और महाभियोग दुर्लभ है। इसके अलावा, आंतरिक अनुशासन तंत्र कमजोर है, जिससे भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता। देखा जाए तो बड़ी संख्या में ग्रामीण और गरीब आबादी को कानूनी सहायता और जागरूकता की कमी का सामना करना पड़ता है। यह असमानता भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।


न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों का समाज पर प्रभाव बहुआयामी है। समय समय पर होने वाले सर्वेक्षण और सोशल मीडिया पर चर्चाएँ यह दर्शाते हैं कि लोग न्यायपालिका को पक्षपाती और भ्रष्ट मानने लगे हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि न्यायपालिका पर भरोसा कम होने से कानून का सम्मान घटता है। जब किसी फैसले पर पैसे या प्रभाव से प्रभावित होने की आशंका उठती है, तो यह निष्पक्षता के सिद्धांत को कमजोर करता है। भ्रष्टाचार के आरोप सरकार और अन्य संस्थानों के लिए हस्तक्षेप का बहाना बन सकते हैं, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। कई लोग मानते हैं कि ‘न्याय बिकता है’ और गरीबों के लिए यह पहुँच से बाहर है।


ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। 1 जुलाई 2024 से लागू भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में पारदर्शिता और तकनीक पर जोर दिया गया है। डिजिटल साक्ष्य और समयबद्ध सुनवाई से भ्रष्टाचार के अवसर कम हो सकते हैं। वर्चुअल सुनवाई और ऑनलाइन केस प्रबंधन से प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा रहा है, जिससे बिचौलियों की भूमिका कम हो सकती है।सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता को सख्त करने की बात कही जा रही है, हालाँकि इसे लागू करने में चुनौतियाँ हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतों की जाँच के लिए स्वतंत्र तंत्र की माँग बढ़ रही है, लेकिन यह अभी प्रस्ताव के स्तर पर है।


भारत की न्यायपालिका एक शक्तिशाली संस्था है, जो देश के लोकतंत्र को सँभाले हुए है। लेकिन न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप और संरचनात्मक कमियाँ इसकी विश्वसनीयता को कमजोर कर रही हैं। सुधारों की दिशा सकारात्मक अवश्य है, लेकिन इनका प्रभाव तभी दिखेगा जब इन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। समय की माँग है कि न्यायपालिका अपनी आंतरिक कमियों को दूर करे और जनता का भरोसा फिर से हासिल करे, ताकि यह संविधान के ‘न्याय, समानता और स्वतंत्रता’ वाले वादे को साकार कर सके।