Showing posts with label crime. Show all posts
Showing posts with label crime. Show all posts

Monday, August 26, 2024

अजमेर कांड के फ़ैसले का क्या असर होगा?


जहां कोलकाता की डॉक्टर के बलात्कार और नृशंस हत्या को लेकर सारे देश में निर्भया कांड की तरह भारी बवाल मच रहा है। वहीं 1992 में अजमेर में हुए देश के सबसे बड़े बलात्कार कांड का फ़ैसला भी पिछले हफ़्ते ही आया। इस फ़ैसले में 6 आरोपियों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई। जबकि 5 आरोपी पहले ही सज़ा काट चुके हैं और एक आरोपी ने आत्महत्या कर ली थी। अजमेर के एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की 100 से अधिक छात्राओं को ब्लैकमेल करके उनसे बलात्कार किए गए। जिनकी अश्लील फ़ोटो शहर भर में फैल गई। इस कांड का मास्टर माइंड ज़िला यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष फ़ारूक़ चिश्ती था, जिसके साथ यूथ कांग्रेस का उपाध्यक्ष नफ़ीस चिश्ती और संयुक्त सचिव अनवर चिश्ती शामिल थे। इनके अलावा फ़ोटो लैब डेवलपर, पुरुषोत्तम, इक़बाल भाटी, कैलाश सोनी, सलीम चिश्ती, सोहेल गनी, ज़मीर हुसैन, अल्मास महाराज (फ़रार), इशरत अली, परवेज़ अंसारी, मोइज़ुल्ला, नसीम व फ़ोटो कलर लैब का मलिक महेश डोलानी भी शामिल थे। प्रदेश भर में भारी आंदोलन और देश भर में तहलका मचाने वाले इस कांड की जाँच राजस्थान के तत्कालीन मुख्य मंत्री भैरों सिंह शेखावत ने ख़ुफ़िया विभाग को सौंपी। ये पूरा मामला अजमेर से प्रकाशित ‘नवज्योति’ अख़बार के युवा पत्रकार, संतोष गुप्ता की हिम्मत से बाहर आया। चौंकाने वाली बात यह थी कि इस जघन्य कांड में शामिल ज़्यादातर अपराधी ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की मज़ार के ख़ादिम (सेवादार) थे।
 


इनकी हवस का शिकार हुई लड़कियाँ प्रतिष्ठित हिंदू परिवारों से थीं। जिनमें से 6 ने बदनामी के डर से आत्महत्या कर ली। दर्जनों अपनी पहचान छुपा कर जी रही हैं। क्योंकि जो ज़ख़्म इन्हें युवा अवस्था में मिला उसका दर्द ये आजतक भूल नहीं पाईं हैं। चूँकि इस कांड में शामिल ज़्यादातर अपराधी मुसलमान हैं और शिकार हुई लड़कियाँ हिंदू, इसलिए इसे मज़हबी अपराध का जामा पहनाया जा सकता है और वो ठीक भी है। पर हमारे देश में हर 16 मिनट में एक बलात्कार होता है। इन सब बलात्कारों में शामिल अपराधी बहुसंख्यक हिंदू समाज से होते हैं। इतना ही नहीं, साधु, पादरी और मौलवी के वेश में, धर्म की आड़ में, अपने शिष्यों या शागिर्दों की बहू-बेटियों से दुष्कर्म करने वालों की संख्या भी ख़ासी बड़ी है। इसे राजनैतिक जामा भी पहनाया जा सकता है क्योंकि इस जघन्य कांड के मास्टर माइंड यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी थे। पर क्या ये सही नहीं है कि देश भर में भाजपा व अन्य दलों के भी तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं के नाम लगातार बलात्कार जैसे कांडों में सामने आते रहते हैं। इसलिए महिलाओं के प्रति इस पाशविक मानसिकता को धर्म और राजनीति के चश्मे से हट कर देखने की ज़रूरत है। 



दुर्भाग्य से जब कभी ऐसी कोई घटना सामने आती है तो हर राजनैतिक दल उसका पूरा लाभ लेने की कोशिश करता है। ताकि जिस दल की सरकार के कार्यकाल में ऐसा हादसा हुआ हो उसे या जिस दल के नेता या उसके परिवार जन ने ऐसा कांड किया हो तो उन्हें घेरा जा सके। जब हमारे देश में हर 16 मिनट पर एक बलात्कार होता है और बच्चियों के साथ भी होता है, उनकी नृशंस हत्या भी होती है, तो क्या वजह है कि बलात्कार की एक घटना पर तो मीडिया और राजनीति में इतना बवाल मचता है और दूसरे हज़ारों इससे बड़े मामलों की बड़ी आसानी से अनदेखी कर दी जाती है, मीडिया द्वारा भी और समाज व राजनेताओं द्वारा भी। तब ये ज़रूरी होता है जब कभी बलात्कार के किसी कांड पर बवंडर मचे तो उसे इस नज़रिए से भी देखना चाहिए। ये बवंडर समस्या के हल के लिए हो रहा है या अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने के लिए। 


अब प्रश्न है कि ऐसे अपराधी को क्या सजा दे जाए? अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ ये सिद्ध कर चुके हैं कि किसी अपराधी को मृत्यु दंड जैसी सज़ा सुनाने के बाद भी उसका दूसरों पर कोई असर नहीं पड़ता और इस तरह के अपराध फिर भी लगातार होते रहते हैं। पर दूसरी तरफ़ पश्चिमी एशिया के देशों में शरीयत क़ानूनों को लागू किया जाता है जिसमें चोरी करने वाले के हाथ काट दिए जाते हैं और बलात्कार करने वाले की गर्दन काट दी जाती है। पिछले ही हफ़्ते सोशल मीडिया पर दिल दहलाने वाला एक वीडियो प्रचारित हुआ, जिसमें दिखाया है कि कैसे 6 पाकिस्तानी युवाओं को 16 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार के आरोप में उनकी सरेआम तलवार से गर्दन काट दी गई। हादसे के अगले दिन वहाँ की अदालत ने अपना फ़ैसला सुना दिया। अक्सर इस बात का उदाहरण दिया जाता है कि शरीयत क़ानून में ऐसी सज़ाओं के चलते इन देशों में चोरी और बलात्कार की घटनाएँ नहीं होती। पर ये अर्धसत्य है। क्योंकि अक्सर ऐसी सज़ा पाने वाले अपराधी तो आम लोग होते हैं जो दुनिया के ग़रीब देशों से खाड़ी के देशों में रोज़गार के लिए आते हैं। जबकि ये तथ्य अब दुनिया से छिपा नहीं है कि खाड़ी के देशों के रईसज़ादे और शेख़ विदेशों से निकाह के नाम पर फुसला कर लाई गई सैंकड़ों लड़कियों का अपने हरम में रात-दिन शारीरिक शोषण करते हैं। फिर उन्हें नौकरानी बना देते हैं। इन सब पर शरीयत का क़ानून क्यों नहीं लागू होता? 


हमारे भी वेद ग्रंथों में बलात्कारी की सजा सुझाई गयी है। बलात्कारी का लिंग काट दिया जाए। उसके माथे पर एक स्थायी चिह्न बनाकर समाज में छोड़ दिया जाए। जिसे देखते ही कोई भी समझ जाए कि इसने बलात्कार कर किसी की जिंदगी बर्बाद की है। फिर ऐसे व्यक्ति से न कोई रिश्ता रखेगा, न दोस्ती। उसका परिवार भी उसे रखना पसंद नहीं करेगा। कोई नौकरी नहीं मिलेगी। कोई धंधा नहीं कर पायेगा। भीख भी नहीं मिलेगी। कोई डॉन भी हुआ, तो उसकी गैंग उसे छोड़ देगा। क्योंकि कोई गैंग नहीं चाहेगा कि उनकी गैंग किन्नरों की गैंग कहलाये। ऐसे में बलात्कारी या तो खुद ही आत्महत्या कर लेगा या अछूत बनकर जिल्लत भरी जिंदगी जियेगा। उसका यह हाल देख समाज में किसी और की यह अपराध करने की हिम्मत ही नहीं होगी। मगर जेल भेजने या फाँसी देने से अपराध नहीं रुकेगा।


अजमेर के मामले में 32 साल बाद आए फ़ैसले पर भी हमारी यही प्रतिक्रिया है कि ऐसे फ़ैसलों से समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा। क्योंकि ‘जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाईड’ अर्थात् देर से न्याय मिलना न मिलने के समान होता है। इसलिए बात फिर वहीं अटक जाती है। महिलाओं के प्रति पुरुषों की इस पाशविक मानसिकता का क्या इलाज है? ये समस्या आज की नहीं, सदियों पुरानी है। हर समाज, हर धर्म और हर देश में महिलाएँ पुरुषों के यौन अत्याचारों का शिकार होती आयी हैं। बहुत कम को न्याय मिल पाता है, इसलिए 32 साल बाद अजमेर बलात्कार कांड का फ़ैसला कोई मायने नहीं रखता।    

Monday, April 1, 2024

मुख़्तार अंसारी की मौत से सबक़


माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख़्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफ़ियाओं का सफ़ाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफ़ियाओं को संरक्षण न मिलता हो। फ़र्क़ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफ़ियाओं को ही निशाने पर रखता है अपने दल के अपराधियों की तरफ़ से आँख मूँद लेता है। ये सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है।



आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंदियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएँ? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु बल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। 



जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएँ, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएँ उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेक़सूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हाँ ये ज़रूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक ज़रूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ़ कम नहीं हुआ। 



90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफ़सरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आजतक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रचीं नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं। 


ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के  व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है। 


जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुँह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख़्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ़्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि   को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ़ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।      

Monday, March 4, 2024

संदेशखाली : नया नहीं है अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण


पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं से यौन उत्पीड़न और जमीन हड़पने के आरोपी तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख शाहजहां जिस तरह कोर्ट में पेश होता हुआ दिखाई दिया उससे उसको मिल रहे राजनैतिक संरक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता। इस कारण टीएमसी नेता और पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आरोपों के घेरे में हैं। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी होती है कि बिना अपवाद की सभी राजनैतिक पार्टियों को कुख्यात अपराधियों को संरक्षण देना पड़ता है? यह बात नई नहीं है कि भोले-भले वोटरों के बीच भय पैदा करने के उद्देश्य से सभी राजनैतिक दल स्थानीय अपराधियों और माफ़ियाओं को संरक्षण देते हैं। लोकतंत्र की दृष्टि से क्या यह सही है?
 



जैसे ही संदेशखाली के आरोपी शेख शाहजहां के मामले ने तूल पकड़ा उसे टीएमसी ने 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। पार्टी के इस फैसले का ऐलान करते हुए टीएमसी नेता डेरेक ओ' ब्रायन ने अन्य राजनैतिक दलों पर तंज कसते हुए कहा कि एक पार्टी है, जो सिर्फ बोलती रहती है। तृणमूल जो कहती है, वो करती है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ये काम पहले क्यों नहीं किया? क्या कोर्ट में पेश होते समय शेख शाहजहां की जो चाल-ढाल थी उससे इस निष्कासन का कोई मतलब रह गया है? पश्चिम बंगाल की पुलिस शेख शाहजहां के साथ अन्य अपराधियों की तरह बरताव क्यों नहीं कर रही थी? क्या शेख शाहजहां का निलंबन केवल एक औपचारिकता है और असल में उसे भी अन्य राजनैतिक अपराधियों की तरह जेल में वो पूरी ‘सेवाएँ’ दी जाएँगी जो हर रसूखदार क़ैदी को मिलती है? 



जहां तक पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सवाल है उन पर यह आरोप अक्सर लगते आए हैं कि वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक वर्ग के अपराधियों को संरक्षण देती आई हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे ऐसे अपराधियों को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बताते हुए उसे पुलिस थाने से छुड़ाने भी गईं हैं। यहाँ सवाल उठता है कि जब भी कभी आप अपने घर या कार्यालय में किसी को काम करने के लिए रखने की सोचते हैं तो उसके बारे में पूरी छान-बीन अवश्य करते हैं। ठीक उसी तरह जब कोई राजनैतिक दल अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता या नेता को कोई ज़िम्मेदारी देता है तो भी वे इसकी जाँच अवश्य करते होंगे कि वो व्यक्ति पार्टी और पार्टी के नेताओं के लिए कितना कामगार सिद्ध होगा। यदि ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता से ऐसी भूल लगातार होती आई है तो इसे भूल नहीं कहा जाएगा। 



वहीं अगर दूसरी ओर देखा जाए तो विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा भी अपराधियों को संरक्षण देने में किसी से पीछे नहीं है। मामला चाहे महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले नेता ब्रज भूषण शरण सिंह का हो या किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले गृह राज्यमंत्री के बेटे का हो या बलात्कार करने वाले कुलदीप सिंह सेंगर का हो। मणिपुर में हुई हिंसा और बलात्कार के दर्जनों घटनाएँ हों। बीजेपी शासित राज्यों में हिंसा, बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त भाजपा के नेताओं की लिस्ट भी काफ़ी लंबी है। 



चुनाव सुधार पर काम करने वाले संगठन 'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 40% मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 25% हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। बावजूद इसके उन्हें सांसद या विधायक बनाकर सदन में बिठा दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 763 मौजूदा सांसदों में से 306 सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही 194 सांसदों ने ख़ुद पर गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा अपने नामांकन प्रपत्र में घोषित की है। 


देश में अपराधियों को मिल रहे राजनैतिक संरक्षण पर आज तक अनेकों रिपोर्टें बनीं और उनमें इस समस्या से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिये गये। परंतु अपराधियों, नेताओं और नौकरशाही के इस गठजोड़ के चक्रव्यूह को अभी तक भेदा नहीं जा सका। यदि कोई भी राजनैतिक दल ठान ले कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को अपने दलों में संरक्षण नहीं देगा तो इस समस्या का समाधान अवश्य निकल सकता है। 


जो भी राजनैतिक दल यदि केंद्र या राज्य में सत्ता में हों और यदि उसके समक्ष उसी के दल के किसी सदस्य या नेता के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगते हैं तो उन्हें इस पर उस दल के बड़े नेताओं को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। देश की अदालतों के हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी ऐसा दल अपने किसी कार्यकर्ता या नेता के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगा तो मतदाताओं की नज़र में उस दल का क़द काफ़ी ऊँचा उठेगा। इसके साथ ही वो दल दूसरे दलों पर अपराधियों को संरक्षण देने के मामले में बढ़-चढ़ कर शोर भी मचा सकेगा। 


इसके साथ ही भारतीय पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए। राष्ट्रीय पुलिस आयोग व वोरा समिति द्वारा दिये गये सुझावों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। ऐसे सुधारों के प्रति हर सरकार का ढुल-मुल रवैया रहा है जो ठीक नहीं है। पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे हर तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। हालिया मसले में देखें, तो जहां तक अदालत में पेश करने का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर किसी राजनैतिक दल संरक्षण में है, तो उसके साथ पुलिस का व्यवहार एक मामूली अपराधी की तरह होगा यह कहना मुश्किल है। यदि पुलिस राजनैतिक दबाव से बाहर रहे तो वो बिना किसी डर के राजनैतिक अपराधियों के साथ क़ानून के दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाएगी।  


देश के तमाम राजनैतिक दल भारत को अपराध मुक्त करने का दावा तो अवश्य करते हैं पर क्या इसे आचरण में लाते हैं? क्या अपने-अपने दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना और जनता के सामने अपराध मुक्ति के बड़े-बड़े दावे करना विरोधाभास नहीं हैं? यदि चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत कुछ कड़े कदम उठाए और राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर पूरी तरह रोक लग जाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। परंतु ऐसा कब होगा देश के मतदाताओं को इसका इंतज़ार रहेगा। 

Monday, August 23, 2021

जन सहयोग से ही रोक सकती है पुलिस अपराध


पुलिस-जनता के संबंधों में सुधार लाने में सामुदायिक पुलिसिंग एक अहम किरदार निभा सकती है। ऐसा माना जाता है कि जनता और पुलिस के बीच अगर अच्छे सम्बंध हों तो पूरे पुलिस फ़ोर्स को बिना वर्दी के ऐसे हज़ारों सिपाही मिल जाएँगे जो न सिर्फ़ अपराध को रोक पाएँगे बल्कि पुलिस की ख़राब छवि को भी सुधार सकेंगे। ऐसा नहीं है कि पुलिस अपनी छवि जान बूझ कर ख़राब करती है। असल में पुलिस की वर्दी के नीचे होता तो एक इंसान ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि वो हर हाल में अपने देश और समाज की रक्षा करने के कटिबद्ध होता है। फिर वो चाहे कोई त्योहार हो या किसी भी तरह का मौसम हो, अगर ड्यूटी निभानी है तो निभानी है। 


हाल ही में नियुक्त हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने दिल्ली के श्यामलाल कॉलेज में ‘उम्मीद’ कार्यक्रम में कहा कि जहां एक ओर पुलिस को हर तरह की क़ानून व्यवस्था और उनसे जुड़े मुद्दों से निपटने की ट्रेनिंग मिलती है वहीं बिना समाज के समर्थन के इसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आज हम प्रौद्योगिकी के युग में रहते हैं और आर्थिक प्रगति केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही प्राप्त की जा सकती है। पुलिस और जनता को मिल जुलकर ही रहने का प्रयास करना चाहिए। 


आज के दौर में ज़्यादातर लोगों के हाथ में एक स्मार्टफ़ोन तो होता ही है, यदि इसका उपयोग सही तरह से किया जाए तो क़ानून व्यवस्था बनाने में नागरिक पुलिस की काफ़ी सहायता कर सकते हैं। देखा जाए तो हर जगह, हर समय पुलिस की तैनाती संभव तो नहीं हो सकती है, इसलिए बेहतर क़ानून व्यवस्था और सौहार्द की दृष्टि से यदि पुलिस को समाज का सहयोग मिल जाए तो फ़ायदा समाज का ही होगा।


उदाहरण के तौर पर जून 2010 में जब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस ने जब फ़ेसबुक पर अपना पेज बनाया तो मात्र 2 महीनों में ही 17 हज़ार लोग इससे जुड़ गए और 5 हज़ार से ज़्यादा फ़ोटो और विडीओ इस पेज पर डाले गए। इन फ़ोटो और विडीओ में ट्रैफ़िक नियमों के उलंघन की तस्वीरें, उलंघन की तारीख़ व समय और जगह का विवरण होता था। नतीजतन जहां एक ओर नियम उलंघन करने वालों के घर चालान जाने लगे वहीं दूसरी ओर वहाँ चालक और ज़्यादा चौकन्ने होने लग गए। इस छोटी सी पहल से पुलिस को बिना वर्दी ऐसे लाखों सिपाही मिल गए। इस प्रयास से जहां एक ओर समाज का भला हुआ वहीं दिल्ली की सड़कें भी सुरक्षित होने लग गई। 


असल में करोड़ों की आबादी वाले इस देश में यदि पुलिस और जनता के बीच कुछ प्रतिशत के सम्बंध किसी कारण से बिगाड़ जाते हैं तो उसका असर पूरे देश पर पड़ता है। पुलिसकर्मी किस तरह की तनावपूर्ण माहौल में काम करते हैं उसका अंदाज़ा केवल पुलिसकर्मी ही लगा सकते हैं, आम जनता नहीं। स्वार्थी तत्व इस सब का नाजायज़ उठा कर पुलिस को बदनाम करने का काम करते आए हैं। 


आमतौर पर यह देखा जाता है कि यदि कोई अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ा जाए और फिर बाद में अदालत द्वारा छोड़ दिया जाए तो दोषी पुलिस ही ठहराई जाती है। जबकि असल में भारत की दंड संहिता और न्यायिक प्रणाली में ऐसे कई रास्ते होते हैं जिसका सहारा लेकर अपराधी का वकील उसे छुड़ा लेता है। यदि असल में अपराधी दोषी है और पुलिस ने सही कार्यवाही कर उसे हवालात में डाला है तो समाज का भी यह दायित्व होता है की यदि किसी नागरिक ने अपराध होते हुए देखा है तो उसे अदालत में जा कर साक्ष्य देना चाहिए। ऐसा करने से पुलिस और समाज का एक दूसरे पर विश्वास बढ़ेगा ही। 


जहां राजनीतिज्ञ लोग पुलिस प्रशासन को अपना हथियार समझ कर उन पर दबाव डालते हैं वहीं पुलिसकर्मी अपने तनाव और दबाव के बारे में किसी से भी नहीं कहते हैं और आम जनता के सामने बुरे बनते हैं। पुलिस कर्मियों पे अगर कुछ नाजायज़ करने का दबाव आता है तो पुलिस अफ़सर को मीडिया या आजकल के दौर में सोशल मीडिया की मदद से अपने पर पड़ने वाले दबाव का खुलासा कर देना चाहिए। इससे जनता के बीच एक सही संदेश जाएगा और पुलिस को अपना हथियार बनाकर राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले नेताओं का भांडाफोड़ भी होगा। 


ग़ौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन कार्य करने वाली भारतीय पुलिस में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का असर है कि हर राज्य के पास एक राज्य पुलिस एक्ट है। हर राज्य पुलिस एक्ट में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं न कहीं ज़िक्र ज़रूर है परंतु इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दिया जाता। यदि सामुदायिक पुलिसिंग का सही ढंग से उपयोग हो तो पुलिस अपना कार्य तनाव मुक्त हो कर काफ़ी कुशलता से करेगी। 20वीं शताब्दी में भारत के उत्तरी राज्यों में ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा रात्रि के समय पहरा देते थे तथा डाकू व लुटेरों को पकड़ने में पुलिस की मदद करते थे। पंजाब ने ‘सांझ’, चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

  

शुरू में इन योजनाओं के माध्यम से राज्यों की पुलिस ने जहां बड़े-बड़े अपराधी गिरोहों को पकड़ा था वहीं ऐसे पुलिस वालों की भी पहचान हुई थी जो अपराध में खुद संलिप्त थे। लेकिन समय गुज़ारते इन योजनाओं की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज के दौर में जहां देश के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरों की नज़र है वहीं अगर सामुदायिक पुलिसिंग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए तो अपराध घटेंगे और जनता और पुलिस के बीच सम्बन्धों में भी सुधार होगा। नागरिक पुलिस को अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानेंगे।   

Monday, May 31, 2021

सुशील कुमार कांड: टूटना भरोसे का


भारत के ध्वज को अपने कंधे पर गर्व से लिए फ़ोटो में दिखाई देने वाले मशहूर पहलवान सुशील कुमार का नाम पिछले दिनों एक अन्य पहलवान सागर धंकड़ के हत्याकांड से जोड़ा गया और उसकी गिरफ़्तारी भी हुई। असलियत क्या है यह तो जाँच का विषय है। लेकिन यहाँ चाणक्य पंडित की एक बात याद आती है, उनके अनुसार विश्वासघात विष के समान होता है। इस बहुचर्चित हत्याकांड में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ एक व्यक्ति का दूसरे से नहीं बल्कि गुरु शिष्य परम्परा का विश्वासघात हुआ है।
 


कुश्ती जगत से सम्बंधित किसी भी युवा या वरिष्ठ पहलवान से पूछा जाए तो सुशील कुमार कुश्ती जगत के एक आदर्श के रूप में पूजे जाते रहे हैं। लेकिन इस हत्याकांड में सुशील का नाम आते ही मानो सभी का विश्वास टूट सा गया है। 2008 में ओलम्पिक विजेता बने सुशील कुमार उभरते हुए पहलवानों के आदर्श थे। तभी की बात है कि सागर धंकड़ नाम के दिल्ली के एक युवा पहलवान ने तय कर लिया कि वो भी कुश्ती की शिक्षा लेकर देश का नाम रोशन करेगा। दिल्ली पुलिस के सिपाही के इस बेटे ने सुशील कुमार को अपना गुरु मान लिया और उनसे इस खेल की ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया। 



कुश्ती जगत के लोगों के अनुसार सुशील कुमार जब एक युवा पहलवान था तब वह कुश्ती के प्रति बहुत समर्पित था। उन दिनों वह हर समय अखाड़े में रह कर खूब ट्रेनिंग करता था। उसकी नज़र भी अर्जुन की नज़र की तरह ओलम्पिक के पदक पर ही गढ़ी हुई थी। खूब मेहनत और मशक़्क़त का ही नतीजा है कि उसे 2008 और फिर उसके बाद लगातार कई पदक मिले जिससे कुश्ती के खेल में देश का नाम रोशन हुआ।


मीडिया में सागर की हत्या के पीछे एक मकान के किराए की बात का काफ़ी ज़िक्र हो रहा है। पुलिस के अनुसार सागर दिल्ली के जिस मकान में रह रहा था वह सुशील की पत्नी के नाम था। कुछ महीनों से किराया न दे पाने के कारण इस हत्या को अंजाम दिया गया। ग़ौरतलब है कि पिछले साल से लॉकडाउन के चलते कई ऐसे मकान मालिक हैं जो अपने किराएदारों से किराया देने पर ज़ोर नहीं दे रहे। सागर धंकड़ भी ‘बेरोज़गार’ था, तो वह किराया कहाँ से दे पाता? पर केवल किराया न दे पाने के कारण ही उसकी हत्या कर देना, यह बात गले नहीं उतरती। 


किसी ने ठीक ही कहा है कि शौहरत को पचा पाना बहुत कठिन होता है। सुशील के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुश्ती जगत में भारत का नाम कई बार रौशन करने के बाद, एक साधारण परिवार से आए सुशील कुमार एक बेहद ‘सुशील’ व्यक्ति थे। एक बार बाबा रामदेव के बिजवासन फार्म हाउस पर जब वो मुझ से मिला और बाबा ने मेरा परिचय करवाया तो सुशील ने तपाक से मेरे पैर छुए। वो चाहता तो प्रणाम करके भी काम चला लेता। पर ये उसकी विनम्रता ही थी । 


पर शायद उसे अपनी शौहरत बहुत समय तक रास नहीं आई। भारत सरकार के रेल मंत्रालय की नौकरी और फिर दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम के सह निदेशक पद की नौकरी के बावजूद सुना है कि सुशील कुमार ने खुद को कई और धंधों में शामिल कर लिया था। इन धंधों में सबसे ख़तरनाक धंधा था विवादित प्रॉपर्टी में फ़ैसले करवाना। 


यहाँ इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि दिल्ली के पहलवानों का बहुत कम प्रतिशत ऐसे पहलवानों का है जो पहलवानी करने के साथ-साथ दूसरे धंधों में भी शामिल हों। फिर वो चाहे अभिनेताओं के, व्यापारियों के या महंगे होटलों में ‘बाउंसर’ बनना ही क्यों न हो। वे यही करते हैं। ऐसे दूसरे धंधे केवल वही पहलवान करते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। ज़्यादातर पहलवान तो अपनी कुश्ती के अभ्यास में ही लगे रहते हैं और मस्त रहते हैं। वे न तो किसी प्रकार के नशे का सेवन करते हैं और न ही ग़लत संगत में रहते हैं। सुशील कुमार जैसे पहलवान जिसके पास करोड़ों रुपया और शोहरत थी उससे ऐसी उम्मीद शायद ही किसी को होगी ।         


दिल्ली जैसे बड़े शहरों में यह आम बात है कि जब किसी महंगे इलाक़े में कोई मकान, दुकान या फार्म इत्यादि विवादित हो जाते हैं। तो इन विवादों का समाधान या तो राजनैतिक बल या फिर बाहुबल से ही निकलता है। सुशील कुमार के पास ये दोनों बल थे। बस फिर क्या होना था? कुछ लोगों के बहकावे में आने के बाद पिछले कुछ सालों में सुशील ने भी अपने इसी काम का सेटअप चालू कर दिया। 


जानकारों की मानें तो दिल्ली के मॉडल टाउन के जिस मकान से सागर धंकड़ को हत्या वाली रात उठाया गया था, उस विवादित मकान पर पहले सुशील कुमार का ही क़ब्ज़ा था। लेकिन किसी दूसरे गैंग ने उस मकान को अपने क़ब्ज़े में लेकर सागर को उस मकान में रहने के लिए रख दिया था। यह दोनों गैंग के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई थी। जो सागर के लिए जानलेवा बन गई। जिसके बाद गर्व से भारत का ध्वज उठाने वाले सुशील कुमार को अपना मुँह छिपा कर रहने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी गिरफ़्तारी से पहले वो कई हफ़्तों तक पुलिस को चकमा देता रहा।


सुशील की गिरफ़्तारी के बाद कई ऐसे तथ्य और सामने आए हैं जिनसे यह साबित होता है कि सुशील का कुख्यात अपराधियों के साथ भी उठना बैठना हो चुका था। वो इस ग़ैरक़ानूनी दुनिया, जिसे आम भाषा में अंडरवर्ल्ड कहा जाता है, का एक अहम हिस्सा बन चुका था। सच्चाई क्या है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन जिस तरह से सुशील-सागर के बीच गुरु-शिष्य का भरोसे टूटा, वह सभी के मन में कई सवाल खड़े करता है। ऐसी क्या मजबूरी थी कि सुशील जैसे अंतराष्ट्रीय ख्याति के पहलवान को ये जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा? कहावत है कि ‘फलदार पेड़ और गुणवान व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखा पेड़ और मूर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकता’। कद्र तो किरदार की होती है, वरना तो कद में साया भी इंसान से बड़ा होता है।