Showing posts with label Hinduism. Show all posts
Showing posts with label Hinduism. Show all posts

Monday, November 4, 2024

त्योहारों की तिथियों में विवाद क्यों?

बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्योहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफ़ी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। इस दीपावली पर मुझे कई फ़ोन आए और सभी ने इस विषय को छेड़ा और मुझे इस मुद्दे पर लिखने को कहा। मैंने शास्त्र आधारित तथ्यों पर वृंदावन में जानकारों से चर्चा की। उन विद्वानों के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं। 


कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि, इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना व बढ़ना हो जाता है। इससे त्योहार मनाने का समय बदल जाता है। कहीं पर वही त्योहार पहले मनाया लिया जाता है और कहीं पर बाद में। इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकर्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्योहारों को स्थापित करते हैं। लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्योहारों में मतेकता नहीं हो पाती है। 



सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।


इसके अलावा त्योहारों की तिथि के भेद का एक अन्य कारण संप्रदाय भेद भी है। विभिन्न संप्रदायों में मतभेद के पीछे कई कारण हैं। संप्रदायों में विभिन्नता या ज़िद्द के कारण भी त्योहारों की तिथि में अंतर आने लग गये हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आँख मूँद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फ़रमान के अनुसार ही त्योहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वो चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।      

 


इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’। ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी द्वारा बाँटे जा रहे इस ज्ञान ने भी तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं एक घर परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं। जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मन लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को माने तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं। 



तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएँगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिये । यदि दो अमावस्या परदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए। 



देखा जाए तो शास्त्रों के अनुसार दीपावली का अर्थ केवल नए कपड़े पहनना, मिठाई बाँटना, दीपोत्सव और आतिशबाजी ही नहीं है। दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वल्लित करते हैं ताकि पितरों का मार्ग प्रकाशित हो सके पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं। 


ज्वलते यस्यसेनानीरश्वमेधेन तस्य किम् । 

तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम् ॥ 

पितरश्चैव वाञ्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः। 

भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः॥ 

कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम् । 

घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः ॥ 


कार्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो। 

पापिनः पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रियाः

तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः ॥


दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेतचतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पाँच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे  बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।


कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्योहार के पीछे जो आधार हैं स्थापित हैं उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं है। इसलिए फिर वो चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद हो इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे। 

Monday, May 22, 2023

प्रश्न सनातन धर्म का ?


2024 का चुनाव सामने है। आरएसएस व भाजपा हिंदुत्व के एजेंडा पर ज़ोर-शोर से काम कर रही है। पहले ‘तशकान्त फ़ाइल्स’ फिर ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ और अब ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्में योजना बद्ध तरीक़े से जारी की जा रही हैं और प्रधान मंत्री से लेकर मुख्य मंत्रियों तक ने इन फ़िल्मों को प्रचारित करने का जिम्मा ले लिया है। इन फ़िल्मों पर मनोरंजन कर से मुक्ति व प्रायोजित शो करवाकर दर्शकों को ये फ़िल्में दिखलाई जा रही है। जिसका एकमात्र लक्ष्य वोटों का ध्रुवीकरण करना है। आम भावुक दर्शक इन फ़िल्मों की पटकथा से निश्चित रूप से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसी अभी कई फ़िल्में 2024 तक और जारी होंगी। इसके साथ ही नया संसद भवन और अयोध्या में श्री राम मंदिर बन कर तैयार होगा, जिसे बहुत आक्रामक मार्केटिंग नीति के तहत पूरी तरह भुनाया जाएगा।
 


बहुत से लोग देश-विदेश से संदेश भेज कर मुझ से मेरी राय पूछ रहे हैं। मैंने सोशल मीडिया पर उत्तर दिया कि, इसमें जो दिखाया है वो सत्य है। पर 32,000 लड़कियाँ बता कर प्रचार खूब किया। जब प्रमाण माँगे गये तो केवल 3 केस सामने आए। उसमें भी हिंदू लड़की केवल एक ही निकली। 



महिलाओं के साथ ऐसे अत्याचार सदियों से हर देश में  हर धर्म के लोग करते आये हैं। बीजेपी के मंत्री या नेताओं के भी किए व्यभिचार, बलात्कार और हत्याओं के मामले प्रायः सामने आते रहते हैं। उन पर कोई द रेप स्टोरी  क्यों नहीं बनती? उन खबरों को क्यों दबवा दिया जाता है? इसी तरह हर राजनीतिक दल के आपराधिक छवि वाले नेता, इस तरह के अपराधों में लिप्त रहते हैं। 


पर जो फ़िल्में आजकल बनवाई जा रही हैं वे एकतरफ़ा हैं, भड़काऊ हैं और अपने वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिये राजनैतिक उद्देश्य से बनवायी गयी हैं। इनमें विषय संबंधी सभी तथ्यों को नहीं दिखाया जाता। जैसे कश्मीर फ़ाइल्स में ये नहीं दिखाया गया कि कश्मीर के आतंकवादियों ने आजतक कितने मुसलमानों की भी उसी तरह हत्याएँ कीं हैं और आज भी कर रहे हैं।


मेरी उपरोक्त टिप्पणी पर अधिकतर प्रतिक्रिया समर्थन में आईं। पर कुछ मशहूर लोगों ने, जो आजकल भाजपा के साथ खड़े हैं, ने मुझे याद दिलाया कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामलों को कट्टरपंथी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों द्वारा किए जा रहे सुनियोजित अभियान से तुलना नहीं की जा सकती। उनका यह भी कहना है कि ग़ैर भाजपाई सरकारों में मुसलमानों की आक्रामकता बढ़ जाती है और हिन्दुओं पर अत्याचार भी बढ़ जाते हैं। भाजपा की आई टी सेल 13 तारीख़ से हिंदुओं को कांग्रेस सरकार से डराने में जुट गयी है। ऐसी पोस्ट आ रही हैं, कर्नाटक में कांग्रेस के जीतने पर हिंदुओं के उपर हमले भी शुरू हो गए। क्योंकि जिहादियों को पता है अब इनकी सरकार है इसलिए अब इन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी । 



फ्री के चक्कर में हिन्दुओं ने जिहादियों की सरकार को जिता दिया। अब आने वाले पूरे 5 वर्षों तक हिन्दूओं के साथ यही सब होने वाला है; पलायन, लव जिहाद, भू जिहाद, धर्मान्तरण, जैसी गंभीर समस्याओं से हिन्दुओं को सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस को जिता कर हिन्दुओं ने अपनी आज़ादी, शांति के अवसर खो दिया। अब भुगतो हिंदुओ। भाजपा की आईटी सेल का ये एजेंडा बहुत ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है। पर ऐसा नहीं है कि इन आरोपों में तथ्य नहीं हैं। चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिक या जातिगत तुष्टिकरण करने में कोई राजनैतिक दल पीछे नहीं रहता। भाजपा भी नहीं, और उसी का परिणाम है कि चुनाव जीतने के बाद सत्तारूढ़ दल को अनेक विवादास्पद मामलों में यात ओ अपने आँख और कान बंद करने पड़ते हैं या समझौते करने पड़ते हैं।  जिसका भरपूर प्रचार करके विरोधी दल फ़ायदा उठाते हैं। 



जो लोग अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने और भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए केवल भाजपा और आरएसएस को ही सक्षम विकल्प मानते हैं उनसे मेरा कोई बहुत मतभेद नहीं रहा है। पर विगत वर्षों के अनुभव ने, अनेक घटनाओं व कारणों से भाजपा व संघ की क्षमता के बारे में संदेह पैदा कर दिये हैं। ये दोनों संगठन आजतक इस बात को परिभाषित नहीं कर पाए कि हिंदू राष्ट्र से इनका आश्रय क्या है? ये कैसा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं? जिस सनातन संस्कृति का हम सब हिंदू दंभ भरते हैं उसके किसी भी सिद्धांत, शास्त्र, परंपराओं व आस्थाओं से संघ और भाजपा का दूर-दूर तक नाता नहीं है। वैदिक शास्त्रों की उपेक्षा, प्राण प्रतिष्ठित  देव विग्रहों व देवालयों पर बुलडोज़र चलाना, गौ मांस के व्यापार को प्रोत्साहित करना, सनातन धर्म के मूलाधार - चारों शंक्राचार्यों की उपेक्षा करना, वेतन दे कर संन्यासी बनाना, करोड़ों रुपये के चढ़ावे वाले मंदिरों पर अपने ट्रस्ट बना कर क़ब्ज़े करना और पारंपरिक सेवायतों को बेदख़ल करना, सनातन धर्म और तीर्थों की निष्ठा से सेवा करने वालों को अपमानित और हतोत्साहित करना क्या उचित है? इन सब धर्म-विरोधी कृत्यों को करने वाले क्या तालिबानियों से भिन्न आचरण कर रहे हैं? फिर हम जैसे आम सनातन धर्मियों से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि हम किसी दल या संगठन की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने आँख-कान बंद करके भेड़ों की तरह पीछे-पीछे चलें? 


चालीस बरस पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तब भाजपा के दो ही बड़े नेता होते थे; अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी। तब आरएसएस को एक त्यागी, समाजसेवी व तपस्वियों का संगठन माना जाता था। बाद में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से जब भाजपा कि पकड़ हिंदू मतदाताओं पर बढ़ी तो नारा दिया गया, ‘पार्टी विद् ए डिफरेंस’ यानी मेरी क़मीज़ बाक़ी दलों की क़मीज़ से ज़्यादा साफ़ है। पिछले दशक में हर वो राजनेता जिसके ख़िलाफ़ भाजपा ने भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगाए, वो सब आज उसके साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं या भाजपा में शामिल हो गये हैं। इसलिए महंगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी, शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण, अपनी कार्यप्रणालियों में पारदर्शिता का अभाव और जनता के प्रति जवाबदेही से बच कर शासन चलाने के कारण सत्तारूढ़ दल को विपक्ष की जो आलोचना झेलनी पड़ती है, उन विषयों को अगर हम न छुएँ तो भी सनातन धर्म को लेकर जो प्रश्न यहाँ उठाए हैं उनका तो उत्तर मिलना चाहिए।     

Monday, February 6, 2023

शालिग्राम शिला तराशी नहीं जाती


अगर आस्था और श्रद्धा के बिना सत्ता पाने के उद्देश्य से व वोट बटोरने के लिए धर्म में राजनीति का प्रवेश हो तो ये कितना घातक हो सकता है इसके उदाहरण पिछले कुछ वर्षों से निरंतर देखने को मिल रहे हैं। जिससे संत और भक्त समाज बहुत व्यथित हैं। पर सत्ता के अहंकार में सत्ताधीश किसी की भावना और आस्था की कोई परवाह नहीं करते। फिर वो चाहे किसी भी धर्म के झंडाबरदार होने का दावा क्यों न करें।
 


ताज़ा विवाद अयोध्या के श्री राम मंदिर के लिए प्रभु श्री राम और सीता माता की मूर्ति निर्माण के लिए नेपाल से लाई गयीं विशाल शिलाओं के कारण पैदा हुआ है। वैदिक शास्त्रों को न मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं संघ व भाजपा का नेतृत्व हिंदू भावनाओं का नक़दीकरण करने के लिये अपने मनोधर्म से नई-नई नौटंकियाँ करते रहते हैं। जिन शिलाओं को इतने ताम-झाम, ढोल-ताशे और मीडिया प्रचार के साथ नेपाल से अयोध्या लाया गया है उन शिलाओं को शालिग्राम बता कर उनका सारे रास्ते पूजन करवाया गया। पर अयोध्या पहुँचने पर अयोध्या का संत समाज इसके विरुद्ध खड़ा हो गया है। संत आहत हैं और आक्रोशित हैं। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार शालिग्राम की शिला साक्षात विष्णु जी का स्वरूप मानी गई है। देवी भागवत पुराण, शिव पुराण व ब्रह्म वैयवर्त आदि पुराणों में शालिग्राम शिला की विधिवत सेवा व पूजा का विवरण आता है। इसलिए शालिग्राम शिला पर कभी भी छैनी-हथौड़ी नहीं चलाई जा सकती। ये घोर अपराध है। इसलिए अयोध्या के संतों ने घोषणा कर दी है कि वे इन शिलाओं पर छैनी-हथौड़ी नहीं चलने देंगे। 

दूसरी ओर एक विवाद यह है कि ये शिलाएँ शालिग्राम की हैं ही नहीं। क्योंकि शालिग्राम की शिलाओं का आकार प्रायः काफ़ी छोटा होता है। जिन्हें हथेली पर धारण किया जा सकता है। वैसे बड़ी शिलाएँ भी होती हैं। इन शिलाओं पर भगवान विष्णु से संबंधित अनेक चिन्ह अंकित होते हैं। जैसे शंख, चक्र, गदा व पद्म आदि। इसके अलावा इन शिलाओं के रूप, रंग और आकार-प्रकार के अनुरूप इनके विविध नाम भी होते हैं। जैसे दशावतार के नामों पर आधारित दस तरह की शालिग्राम शिलाएँ नेपाल की काली गण्डकी नदी के तल में पाई जाती  हैं। इसके अलावा इन शिलाओं के अन्य नाम व प्रकार भी होते हैं जैसे: केशव, हैयग्रीव, हिरण्यगर्भ, चतुर्भुज, गदाधार, नारायण, लक्ष्मीनारायण, रूपनारायण, माधव, गोविंद, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, श्रीधर, पद्मनाभ, दामोदर, सुदर्शन व वासुदेव आदि। अब जिन विशाल शिलाओं को शालिग्राम बता कर नेपाल से अयोध्या लाया गया है वे शास्त्रों के अनुसार किस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं यह बताने का दायित्व भी श्रीराम मंदिर निर्माण समिति के सदस्यों का है। 

अगर ये शिलाएँ शालिग्राम की नहीं हैं केवल गण्डकी नदी के किनारे उपलब्ध पत्थर मात्र ही हैं तो इन्हें शालिग्राम बता कर हिंदुओं को क्यों मूर्ख बनाया जा रहा है? अगर ये शालिग्राम हैं तो फिर इन्हें तराश कर मूर्ति बनाना घोर पाप कर्म होगा। 

गोवर्धन की तलहटी में पौराणिक संकर्षण कुंड पर संकर्षण भगवान के 34 फुट ऊँचे काले ग्रेनाइट के विशाल विग्रह के निर्माण का निर्णय 2016 में जब द ब्रज फाउंडेशन ने लिया तो उसके वरिष्ठ अधिकारी आंध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति देवस्थान गये। वहाँ शास्त्रानुसार प्रशिक्षित 22 योग्य शिल्प-शास्त्रियों के नेतृत्व में तिरुमाला की पहाड़ियों पर विष्णुतत्व की 50 टन की एक विशाल शिला को खोज कर बड़ी-बड़ी क्रेनों की मदद से उसे पहाड़ों से नीचे लाए। वहाँ तिरूपति में उन योग्य शिल्प शास्त्रियों ने संकर्षण भगवान या बलराम जी के दिव्य विग्रह का एक वर्ष तक निर्माण किया। जिन्हें फिर ट्रेलर पर लाद कर तिरूपति से गोवर्धन (मथुरा) लाया गया। 

यहाँ ये  उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि तिरुमाला की पहाड़ियों पर लक्ष्मी तत्व और विष्णु तत्व की विशाल शिलाएँ पाई जाती हैं। उन्हीं को तराश कर लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम या राधा-कृष्ण के विग्रहों का निर्माण किया जाता है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्यों को शायद इस तथ्य की जानकारी नहीं थी। अगर होती तो नाहक ये विवाद न खड़ा होता। क्योंकि तब सही शिलाएँ तिरूपति से आ जाती। 

वृंदावन के 500 वर्ष पुराने सुप्रसिद्ध श्री राधारमण मंदिर में भगवान राधा-रमण जी का जो छोटा सा सुंदर विग्रह है वो श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अर्चित शालिग्राम शिला से स्वप्रकट विग्रह है। उसे छैनी-हथौड़ी से तराशा नहीं गया है। मंदिर के सेवायत गोस्वामीगण बताते हैं कि शालिग्राम जी की शिला पर अगर छैनी-हथौड़ी चले तो वह फ़ौरन टूट कर बिखर जाती है। अगर ये बात सही है तो फिर नेपाल से आई उन विशाल शिलाओं पर जब छैनी-हथौड़ी चलेगी तो वे टूट कर बिखर जाएँगी। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर ये दावा ग़लत सिद्ध होगा कि वे शालिग्राम की शिलाएँ हैं। 

श्री राम मंदिर निर्माण की पूरी यात्रा भाजपा की सत्तालोलुपता से गुथी रही है। पिछले तीन दशकों में भाजपा और संघ परिवार ने नये-नये शगूफ़े छोड़ कर हिंदू भावनाओं को भड़काने और वोट भुनाने का बार-बार काम किया है। चाहे वो शिला पूजन हो और चाहे मंदिर के लिए चंदा उघाने का। 

जबकि दूसरी तरफ़ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव ने मात्र चार वर्षों में, बिना किसी से चंदा उगाहे, शास्त्रानुसार, यादगिरी गुट्टा में पौराणिक लक्ष्मी-नरसिंह देव गुफा पर तिरूपति बाला जी जैसा विशाल मंदिर और उसके चारों ओर वैदिक नगर बसा दिया। मुख्य मंत्री केसीआर का हर काम चाहे निजी हो या सार्वजनिक बड़े भव्य स्तर पर शास्त्र पारंगत पुरोहितों और आचार्यों के निर्देशन में वैदिक अनुष्ठानों से प्रारंभ होता है। पर इसका वे कोई प्रचार नहीं करते। उनका कहना है कि भगवान के प्रति श्रद्धा और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास, दिखावे की, प्रचार की या राजनैतिक लाभ लेने की क्रिया नहीं होती। ये तो भगवत कृपा प्राप्त करने और अपनी आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिये आस्था होती है। पर संघ और भाजपा ने धर्म का ऐसा राजनीतीकरण किया है कि न तो उन्हें प्राण प्रतिष्ठित देव विग्रहों पर अयोध्या और काशी में बुलडोज़र चलाने में कोई संकोच होता है और न ही गोवर्धन (मथुरा) संकर्षण भगवान के प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पाँच वर्षों से मल-मूत्र से घिरे जलाशय में उपेक्षित खड़ा रखने में। फिर भी दावा यह कि ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’।     

Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, February 21, 2022

जीयर स्वामी: युगपुरुष आज भी जन्म लेते हैं


गत
2 फ़रवरी से सारे भारत के सनातनधर्मियों का ध्यान हैदराबाद हवाई अड्डे के पास स्थित रामानुज सम्प्रदाय के अति सम्मानित संत श्री श्री श्री त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी के आश्रम पर केंद्रित है। जहां उन्होंने एक इतिहास रचा है। लगभग 100 एकड़ में फैले परिसर में जीयर स्वामी जी ने श्री रामानुजाचार्या की 216 फुट ऊँची प्रतिमा की स्थापना की है। इसमें श्री रामानुजाचार्या जी बैठी हुई मुद्रा में हैं। 150 किलो सोने की पालिश पंच धातुओं से बनी बैठी मुद्रा में यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति है। इसी मुद्रा में इससे ऊँची मूर्ति थाईलैंड में भगवान बुद्ध की है।14 फ़रवरी तक चलने वाले इस महोत्सव में सारे भारत से भक्त और संतगण तो दर्शनार्थ आए ही, साथ ही भारत के राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति प्रधान मंत्री भी इस प्रभावशाली विग्रह के दर्शन करके जा चुके हैं।   



जीयर
 स्वामी ने इस मूर्ति कोस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीका नाम दिया है, यानीसमता मूर्ति इस महोत्सव में दो दिन के लिए पुण्य लाभ प्राप्त करने मैं भी हैदराबाद गया। क्योंकि जीयर स्वामी का हम पर विशेष अनुग्रह रहा है। उनके ही आशीर्वाद से मथुरा के गोवर्धन क्षेत्र में हमनेसंकर्षण कुंडका जीर्णोद्धार किया था और उन्ही के द्वारा वहाँ 34 फुट ऊँची काले ग्रेनाइट की संकर्षण भगवान की मूर्ति स्थापित की गई थी। जिसे जीयर स्वामी ने ब्रज फ़ाउंडेशनके लिए तिरुपति बालाजी में बनवाया (तराशा) था। पर 2017 में योगी आदित्यनाथ सरकार ने सत्ता में आते ही नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। जिसका ब्रजवासियों को ही नहीं बल्कि जीयर स्वामी जी को भी भारी दुःख है।


पंचधातुसे बनीस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीभक्ति काल के संत रामानुजाचार्य की 1000 वीं जयंती (1017-2017) समारोह यानी श्री रामानुज सहस्राब्दि समारोह का हिस्सा है। इसमें सोना, चांदी, तांबा, पीतल और जस्ता का एक संयोजन है, लोहा नहीं डाला गया है। यह मूर्ति 54-फुट ऊंचे आधार भवन पर स्थापित है, जिसका नामभद्र वेदीहै। इस परिसर में वैदिक डिजिटल पुस्तकालय और अनुसंधान केंद्र, प्राचीन भारतीय ग्रंथागार, एक थिएटर एक शैक्षिक दीर्घा है, जो यहाँ आने वाले दर्शनार्थियों को सदियों तक संत रामानुजाचार्य जी के जीवन शिक्षाओं के विषय में व्यापक जानकारी देगी। श्री रामानुजाचार्य जी ने लिंग, नस्ल, जाति या पंथ की परवाह किए बिना सबको आध्यात्मिक चेतना और ज्ञान प्रदान किया था और उन्होंने सबके बीच समानता का संदेश दिया था। इसीलिए इस प्रतिमा का नामस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीरखा गया है।


मुख्य प्रतिमा के चारों तरफ़ चार कोनों में 27-27 मंदिरों के चार समूह हैं। दक्षिण भारत की स्थापत्य कला से निर्मित ये 108 मंदिर पूरे भारत में स्थित 108 दिव्य देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें स्थापित भगवान के विग्रह उन्हीं दिव्य देशों में हुई भगवान या भक्तों की लीलाओं से संबंधित हैं। इन मंदिरों में 15 फ़रवरी से 250 पुजारी नियमित सेवा-पूजा कर रहे हैं। यह अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। पूरे भारत में शायद ऐसा कोई दूसरा धर्मस्थल होगा जहां 108 मंदिरों में, विधि विधान से, एक ही समय पर एक साथ पूजा की जाती हो। 


रामानुजाचार्य स्वामी के इस विग्रह को बनवाने में जीयर स्वामी को वर्षों काफ़ी परिश्रम करना पड़ा। वे चाहते थे कि यह विग्रह अगले 1000 साल तक भक्तों पर अनुग्रह करता रहे। इस स्तर की कारीगरी करने वाले विशेषज्ञ उन्हें भारत में नहीं, चीन में मिले। फिर वहीं इसका निर्माण हुआ और मूर्ति के 1500 भागों को चीन से लाकर हैदराबाद में जोड़ा गया। जिसके ऊपर फिर सोने की पालिश की गई। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने इस मूर्ति के आयात पर आयात शुल्क तक माफ़ नहीं किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस मेगा इवेंट में आरएसएस और भाजपा के बड़े-बड़े नेता अपने हिंदुत्व को चमकाने में जुटे रहे। जबकि इन दोनों ही संगठनों ने इस ऐतिहासिक परियोजना के निर्माण में लेश मात्र भी सहयोग नहीं दिया है। फिर भी दुनिया भर में प्रचार ऐसे किया जा रहा है कि मानो यह भी हिंदुत्व की सरकार की कोई बड़ी उपलब्धि हो। इस 1000 करोड़ रुपय के प्रोजेक्ट में भारी मात्रा में आर्थिक प्रशासनिक सहयोग हैदराबाद के मशहूर उद्योगपति डॉ रामेश्वर राव और तेलंगाना के मुख्य मंत्री श्री के चंद्रशेखर राव ने किया, क्योंकि दोनों ही जीयर स्वामी के दीक्षित शिष्य हैं। हास्यादपद बात यह है कि भाजपा संघ परिवार केसीआर को मुस्लिम परस्त बताते हैं। जबकि वे जीयर स्वामी के आदेशों के आगे दण्डवत रहते हैं। 


इतने महत्वाकांशी लक्ष्य का संकल्प लेना, उसकी योजना बनाना, उसके लिए संसाधन जुटाना और उसके क्रियांवन के लिए वर्षों रात-दिन जुटे रहना, बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य था। इस असंभव कार्य को श्री श्री श्री त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी ने अपने तप बल से पूरा कर दिखाया और आधुनिक भारत में एक इतिहास की रचना की। जिस समय जीयर स्वामी अनेक संत गणों, बाबा रामदेव और मुझे 108 दिव्य देशों का दर्शन करवा रहे थे, तो बाबा रामदेव और मैं यह आश्चर्य कर रहे थे कि धरती पर चटाई बिछा कर सोने वाले, स्वयं पकाई हुई खिचड़ी खाने वाले और 24 में से 22 घंटे भजन, प्रवचन और इस परियोजना के निर्माण के निर्देश देने वाले जीयर स्वामी कोई साधारण मानव नहीं, युग पुरुष हैं। जिन्हें श्री रामानुजाचार्य जी ने अपना शक्तिवेश अवतार बना कर भेजा है। 


जिनकी कृपा से आंध्र प्रदेश, तेलांगना, पुड्डुचेरि और तमिलनाडू ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के वैष्णव लाभान्वित हो रहे हैं।जीयर स्वामी के प्रशंसकों में कई जातियों धर्मों के लोग भी हैं। जिनमें हैदराबाद के मुसलमान नकसलवादी तक शामिल हैं। जीयर स्वामी जी अपने परिकरों सहित दो बार मेरे वृंदावन आवास पर ठहर कर हमें संत सेवा का सुख प्रदान कर चुके हैं। पहली बार 2012 में वे डॉ रामेशवर राव परिवार आंध्र प्रदेश के सैंकड़ों भक्तों के साथ तब आए थे, जब पौराणिक संकर्षण कुंड (गोवर्धन) दुर्गंधयुक्त, भयावह स्थिति में, दशकों से उपेक्षित पड़ा था। जिसके जीर्णोद्धार का श्रीगणेश जीयर स्वामी ने ही किया था। दूसरी बार 2017 में फिर उसी तरह बड़े लाव-लश्कर के साथ पधार कर जीयर स्वामी ने ब्रज फ़ाउंडेशन द्वारा नवनिर्मित संकर्षण कुंड का लोकार्पण किया था। कुंड की भव्यता देख कर स्वामीजी सैंकड़ों संतगणों हज़ारों भक्तों ने इसेअकल्पनीय और चमत्कृतकरने वाला बताया था। जिसे ईर्ष्यावश योगी सरकार ने तहस-नहस कर दिया। यही अंतर है सच्चे संत और संत बनने का दिखावा करने वालों के बीच। संत और भक्त प्रभु की सेवा में निष्काम भाव से जुटे रहते हैं, पर जो धर्म का ध्वज उठाते हैं वे तो ईमानदारी से धर्म की सेवा करते हैं और ही उसे अपने राजनैतिक लाभ के लिए भुनाने में संकोच करते हैं। आज हिंदू समाज को तय करना है कि वो वैदिक परम्पराओं में पले-बढ़े दीक्षित अधिकृत त्यागी संतों के मार्ग पर चल कर अपनी आध्यात्मिक चेतना का विस्तार करेगा और भारतीय संस्कृति की सच्चे अर्थों में सेवा करेगा या राजनैतिक स्वार्थों के लिए सनातनी मूल्यों का बलिदान करने वालों के भ्रम जाल में फँस कर आने वाली पीढ़ियों कोकॉक्टेल हिंदुत्वका विष सौंप कर जाएगा। हज़ारों साल से वैदिक संस्कृति सनातन धर्म इसीलिए टिका रहा है, क्योंकि हमारे संतों और आचार्यों ने शास्त्रीय ज्ञान को ज्यों का त्यों पालन किया, उसमें अपने मनोधर्म का घाल-मेल करके प्रदूषित नहीं किया।