Friday, March 23, 2001

तहलका का शोर और कानूनी असलियत


तहलका के टेप क्या जारी हुए पूरे देश में तूफान मच गया।  निःसन्देह रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की प्रक्रिया को जिसतरीके से इन वीडियो टेपों में उतारा गया है उन्हें देखकर हर दर्शक हैरान  रह जाता है। रक्षा सौदों में दलाली ली और दी जाती है। यह बात वर्षों से सबको पता है। पर उसका प्रसार इतना व्यापक है यह आम जनता को पहली बार देखने को मिला । जिसके लिए तहलका की टीम बधाई की पात्र है। इसके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का प्रकरण भी आम दर्शक को झकझोर देता है। जबसे तहलका का तहलका मचा है, तब से टेलीवीजन पर जो बहस हो रही है उसमें अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को जानबूझ कर दबा दिया गया। पूरी बहस बड़े सतहीय मुद्दों को लेकर चैंचें लड़ाने की मुद्रा में हो रही है। जिसे देखकर आम दर्शक के मन में बहस के करने वाले राजनैतिक दलों के प्रति घृणा बड़ ही रही है। चाहे वो आरोप लगाने वाले विपक्षी दल हों या सत्तारूढ़ दल। इस शोर के पीछे की असलियत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसपर समझदार पाठकों का ध्यान जाना जरूरी है।

बंगारू लक्ष्मण के खिलाफ केवल एक ही सबूत बनता है वह है एक लाख रूपये खुले आम स्वीकार करना, पर यह रूपया लेते वक्त रूपया देने वाला और लेने वाला दोनों ही मान रहे हैं कि यह पैसा पार्टी फण्ड में जा रहा है। गया या नहीं वह अलग बात है, पर कानून की नजर में इससे ज्यादा सबूत उस प्रकरण में नहीं है। चूँकि पार्टी के लिए चन्दा जमा करना एक आम रिवाज है इसलिए बंगारू लक्ष्मण की पैरवी करने वाले वकील उन्हें किसी मुकदमे में फंसने नहीं देंगे। जहाँ तक बंगारू लक्ष्मण से रक्षा सौदों की चर्चा की बात है, तो उसे कोरी गप्पबाजी मानकर अदालत खारिज कर देगी। क्योंकि उसमें कोई भी तथ्य या सबूत ऐसा नहीं है जिसपर सजा दी जा सकें। यही स्थिति जया जेटली के साथ भी है, श्रीमती जेटली ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि जो पैसा उन्हें दिया जा रहा है। वह पार्टी के सम्मेलन के इंतजाम में काम आयगा। हा, रक्षामंत्री के घर में बैठकर हथियारों के सौदागरों से एक गैर-सरकारी व्यक्ति का बात करना कानून की नजर में आपŸिाजनक जरूर हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तहलका टेप में जो दिखाया गया है। उससे उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता। बात कानूनी आधार की है जिसपर तहलका की खोज बहुत सतही स्तर पर समाप्त हो जाती है। जिसके कोई दूरगामी परिणाम सामने नहीं आयेंगे। तहलका के निर्माता का यह दावा करना कि उनके पास गृहमंत्री के खिलाफ 350 करोड़ के घोटाले का सबूत है और फिर अगले ही दिन इससे मुकर जाना व श्री आडवाणी से लिखित मांफी मांगना अनेक सन्देहों को जन्म देता है। इतना ही नहीं तहलका टेप जारी करते समय यह भी कहा गया था कि कुल फुटेज 100 से भी ज्यादा घण्टे का है और उसमें संचार मंत्री रामविलास पासवान व वित्तमंत्री यशवन्त सिन्हा के विरूद्ध भी काफी सबूत हैं पर बाद में तहलका वाले इससे भी मुकर गये। पत्रकारिता से जुड़े लोग समझते हैं कि इस किस्म की घटनाओं का क्या मतलब होता है? शायद इसलिए भाजपाई तहलका के पूरे प्रकरण को लेकर तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो राजधानी के गलियारों में पूछा जा रहा है वह यह कि जब पूरी दुनिया में ज्यादातर डाटकाॅम कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं या बन्द होती जा रही है तो तहलका डाट काॅम को इस रिपोर्ट को करने के लिए लाखों रूपया खर्च करने को किसने दिया? 11 लाख रूपया तो केवल रिशवत में बांटा गया फिर आठ महीना जांच की भागादौड़ी, पांच सितारा होटलों में दावतें और कमरों की बुकिंग जैसे लाखों रूपये के खर्चे और भी किये गये। हालांकि तहलका के निर्माताआंे ने अपनी कम्पनी की वित्तीय स्थिति को प्रेस में जारी किया है। फिर भी लोग यह गले नहीं उतार पा रहे हैं कि घाटा उठाकर भी कोई इतनी बड़ी रकम बिना स्वार्थ के क्यों खर्च करेगा? इसके साथ ही जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि तहलका के टेपों में ज्यादातर बयान गपबाजी के स्तर के हैं। पत्रकार का धर्म है कि वह किसी के ऊपर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पड़ताल कर लें और जिसके विरूद्ध आरोप लगाये जा रहे हैं उसे भी सफाई का मौका दें। तहलका की टीम ने पत्रकारिता के यह दोनों ही बुनियादी सिद्धान्त भुला दिये। आर. के. जैन या गुप्ता ने रक्षा सौदों को लेकर जो लम्बी-लम्बी डींग हांकी उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने से पहले तहलका के निर्माताओं को परख लेना चाहिए था। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें यह न कहना पड़ता कि आप हमारी रिपोर्ट की विषय वस्तु पर न जाय केवल उसके सन्दर्भ पर ध्यान दें। तरूण तेजपाल का ऐसा बयान यह सिद्ध करता है कि उनकी इस रिपोर्ट के तथ्यों को लेकर जब भाजपा के नेताओं ने आक्रामक रूख अपनाया तब उन्हें बचाव की मुद्रा में यह कहना पड़ा किसी पत्रकार के लिए यह स्थिति बहुत प्रशन्सनीय नहीं होती कि वह अपने आरोपों से मुकर जाय और क्षमा मांगे। खासकर जबकि रिपोर्ट किसी दैनिक अखबार के लिए कुछ घण्टों में तैयार नहीं की गयी बल्कि बड़ी गम्भीरता से आठ महीने लगाकर तैयार की गयी बताते हैं। फिर ऐसी तथ्यात्मक भूलेें क्यों? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो वह है कि एक खोजी रिपोर्ट की कई खूबियों के बावजूद तहलका की इस रिपोर्ट पर जितना बड़ा तूफान एकदम देश में मचा क्या वह स्वाभाविक तूफान था? या उसके पीछे भी कुछ राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे थे। इस सन्दर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि 2 सितम्बर, 1993 को जब जैन हवाला काण्ड  को उजागर करने वाली कालचक्र वीडियो पत्रकारों को दिखाई गयी थी, तो महीनों तक देश के मीडिया में इस घोटाले पर सन्नाटा छाया रहा। जब कि कालचक्र की वीडियो कैसेट में जो कुछ कहा गया वह शत प्रतिशत तथ्यों पर आधारित था। उसमें भी शरद यादव और देवीलाल ने सुरेन्द्र जैन से रकम स्वीकारने की बात मानी थी। भारतीय टी.वी.पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। इतना ही नहीं जो दस्तावेज कालचक्र ने इस वीडियो में दिखाये थे उनकी वैद्यता को आजतक कोई चुनौती नहीं दे पाया। इतना ही नहीं उन्हीं दस्तावेजों के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय को हवाला काण्ड की जांच अपनी निगरानी में करवानी पड़ी। यह दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में लिप्त और राजनैतिक दबाव से जकड़ी सी.बी.आई. ने हवाला काण्ड की जांच नहीं की और राजनेताओं के छूटने के रास्ते खोल दिये। पर कालचक्र के निर्माताओं को इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी यह नहीं कहना पड़ा कि हमारे तथ्यों पर न जाय सन्दर्भों को देखें या हमने गलत दावा किया था हम आडवाणीजी से क्षमा मांगते हैं। कालचक्र में उठाये गये तथ्य आज भी सच्चाई की कसौटी पर खरे खड़े हैं। कालचक्र की उस रिपोर्ट के बाद दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री व राज्यपालों को गद्दी छोड़नी पड़ी। फिर क्या वजह है कि तहलका की रिपोर्ट जारी होते ही तो मीडिया और विपक्ष में आसमान सिर पर उठा लिया जबकि कालचक्र की हवाला काण्ड वाली वीडियो कैसेट के जारी होते ही पूरे राजनैतिक हलके में सन्नाटा छा गया था। एक दिन भी संसद का बहिष्कार नहीं किया गया। एक दिन भी सांसदों ने खड़े होकर जांच की मांग में शोर नहीं मचाया। महीनों तक टी.वी. और अखबार के मीडिया के ज्यादातर लोग हवाला को लेकर गूंगे और बहरे हो गये, क्यों? क्या इसलिए कि हवाला काण्ड में देश के 115 बड़े राजनेताओं और अफसरों के नाम शामिल थे। जो हर प्रमुख राजनैतिक दल के सदस्य थे इसलिए शोर कौन मचाए? कौन किसके विरूद्ध जांच की मांग करें? कौन किसके विरूद्ध संसद का बहिष्कार करें? कौन किससे इस्तीफे मांगे? जब सभी उस घोटाले में शामिल हैं तो भलाई इसी में थी कि सब खामोश रहें। तहलका के टेप में जो आरोप लगे हैं वे सत्ताधारी दलों के लोगों को लेकर हैं। इसलिए विपक्ष इतना उत्तेजित है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स, चारा घोटाला और बैंक घोटाले जैसे काण्डों को लेकर भाजपाई, या समता पार्टी वाले उत्तेजित रहे हैं। आज अगर इंकाई बोफोर्स का बदला चुकाने के लिए तहलका के नाम पर देश की गलियों और गांवों में प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है? जैसे को तैसा। जो कल तक भाजपा ने किया आज इंकाई करेंगे। पर इससे निकलना कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरेगी और न ही देश की जनता को राहत मिलेगी। दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोशियों को सजा मिलें। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों का इन्तजाम कर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस हवाला काण्ड में आज भी हजारों सबूत मौजूद हैं उसकी जांच की मांग के नाम पर आपका हलक क्यों सूख जाता है, आपको तहलका के शोर की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।

Friday, March 16, 2001

सांसद ध्यान दें जार्ज फर्नाडीज़ ने ऐसा क्यों किया ?


पिछले दिनों भारत और रूस के बीच हुए रक्षा समझौते को लेकर कुछ रक्षा विशेषज्ञों मे भारी नाराजगी है। इनका मानना है कि इस समझौते में जानबूझ कर एक भारी गलती की गई है। नई संधि के अनुसार अब भारत किसी खतरे या हमले की स्थिति में रूस की सलाह नहीं ले पायेगा। जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में जो  भारत रूस मैत्री संधि की थी उसमें इसका पूरा ध्यान रखा था। तब उस संधि को चीन और अमेरिका ने भारत की आणविक ढाल माना था। इन विशेषज्ञों को लगता है कि शायद बाजपेयी सरकार की याददाश्त कमजोर है। तभी तो वह हिमालय के उत्तर में चीन से बने रक्षा दबाव या दियागो गार्शिया के कब्जे और उस पर आणविक आधार तैयार करने की अमरीकी  कार्रवाई को भूल गई। यह कार्रवाई अमरीका ने भारत-पाक युद्ध के दौरान की थी। चूंकि सोवियत यूनियन का विघटन हो चुका है और रूसी संघ में विशेष उत्साह नहीं है। इसीलिए जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान नई संधी की गई तो रूस  संधी की उस पुरानी शर्त को बनाए रखने के लिए बहुत उत्साही नहीं था। उधर अमरीका इस फिराक में था ही कि किसी तरह से भारत और रूस के बीच युद्ध के दौरान पारस्परिक सलाह लेने के इस प्रावधान को खत्म कराया जा सके। ऐसा रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। इनका आरोप है कि अमरीका ने भारत के रक्षा मंत्रालय में खूब लाबिंग करवा कर नई संधी से उस महत्वपूर्ण प्रावधान को हटवा दिया। इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अमरीका ने पहले तो भारत को आणविक शक्ति बनने से रोका, फिर कारगिल युद्ध में भारत की आणविक क्षमता की कलई खुलवा दी। इस तरह भारत के आणविक कार्यक्रम को बन्द करके भारत को आणविक युग में रक्षाहीन कर दिया।दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान को जो इसी तरह का रक्षा कवच दे रखा है उसे आजतक समाप्त नहीं किया। बल्कि अपने ही आणविक बमों का पाकिस्तान मे परीक्षण करवा कर पाकिस्तान को मिली हुई सुरक्षा की यह गारन्टी बरकरार रखी है। यदि भारत के सांसद इस गम्भीर मामले को समझे होते तो उन्होंने संसद में शोर जरूर मचाया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में कुछ सवालों पर गौर करने की जरूरत है।

हम सबको यह बताया गया और प्रचारित भी किया गया कि हमने अपने सैकड़ों जवानों और अफसरों को कारगिल युद्ध में भले ही बलि कर दिया हो किन्तु हमारी विजय शानदार रही। अलबत्ता कारगिल युद्ध के बारे में के. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट बहस के लिए संसद में प्रस्तुत किए जाने का इन्तजार कर रही है। जबकि इस गंभीर मुद्दे में सांसदों की शायद कोई रुचि नहीं हैं। हालांकि यह रिपोर्ट बहुत उच्च कोटि की नहीं है, फिर भी इसका सारांश पढ़ने से कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। क्या इस समिति ने राॅ के प्रमुख श्री अरविन्द दवे को ठीक से तलब किया था। यह सर्वविदित है कि कारगिल के मामले में ख्ुाफिया ऐजेंसी राॅ अनजान थी और इस अचानक हमले से हड़बड़ा गयी थी। जबकि इस तरह की सम्भावना की उसे पूर्व जानकारी होनी चाहिए थी। बावजूद इस बड़ी विफलता के, क्या वजह है कि श्री दवे को बजाए अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के अरुणाचल प्रदेश का उप राज्यपाल बना दिया गया ?

जानकारों का यह भी कहना है कि जिस समय कारगिल युद्ध चरम पर था उस दौरान अमरीका की सरकारी रक्षा संस्था सेंटकाॅमके एक अधिकारी पाकिस्तान यात्रा पर आये थे। पर हमारी खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक न पड़ी। क्या हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों ने रक्षामंत्री श्री फर्नाडीज़ को यह बताया था या नहीं कि उक्त अमरीकी सैनिक अधिकारी को भेजने की मांग पाकिस्तान ने ही की थी। शायद श्री फर्नाडीज़ को पता हो कि पाकिस्तान ने सेंटकाॅमके साथ पारस्परिक रक्षा की संधि कर रखी है जिसके तहत पाकिस्तान की सुरक्षा को ज़रा सा भी खतरा होते ही यह ऐजेंसी दौड़कर उसकी मदद को आयेगी। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कारगिल युद्ध के दौरान अमरीका से आए सैनिक अधिकारियों ने पाकिस्तान को यह समझाया कि चूंकि उसकी वायु सेना भारत के इलाके में बहुत प्रभावशाली नहीं हो पायेगी जिससे पाकिस्तान की थल सेना को भारत से जीतना मुश्किल होगा। इन अमरीकी अधिकारियों ने पाकिस्तान को सलाह दी कि किसी भी कीमत पर भारत को हवाई हमले करने से रोका जाए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम अमरीका इतना तो करे कि जब पाकिस्तान अचानक दिल्ली और मुम्बई पर परमाणु हथियारों से हमला कर चुके तब भारत को ऐसा जवाबी हमला करने से रोका जाए। हालांकि अमरीका के इन अधिकारियों को यह बताया गया था कि भारत के पास सुरक्षित तरीके से आणविक हथियारों को ले जाने और उनके प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। पर साथ ही यह भी आशंका व्यक्त की गई कि यदि भारत हवाई हमला करता है तो पाकिस्तान के भारी आबादी वाले इलाकों को ध्वस्त कर देगा। इसलिए कुछ ऐसी चाल चली जाए कि भारत की वायु सेना को नियंत्रण रेखा को पार न करने दिया जाए। भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात पर आश्चर्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कारगिल युद्ध में हमारी थल सेना को दुर्गम पहाडि़यों पर मरते खपते हुए आगे भेजा गया । जबकि परम्परा यह है कि पहले वायु सेना आगे के इलाके में जाकर बमबारी करके दुश्मन के ठिकाने को ध्वस्त करती है तब थल सेना आगे बढ़ती है। पर कारगिल में ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन हमारी थल सेना को भारी मात्रा में नौजवान अधिकारियों और जवानों को खोना पड़ा।

इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान इस तरह एक तरफ बिठा कर रखी गई भारतीय वायु सेना इस व्यवस्था से प्रसन्न ही थी । सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसकी तैयारी कारगिल जैसे दुर्गम ऊंचे पहाड़ों वाले क्षेत्र में युद्ध करने की नहीं थी। इन विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने औसत से भी बेहद कम संख्या में उड़ाने भरींए जोकि राष्ट्र के हित में नहीं था।

इन विशेषज्ञों का सवाल है कि क्या भारतीय वायु सेना और भारत सरकार को इस प्रकार नियंत्रण रेखा को पार न करने का श्रेय लेना चाहिए ? जबकि नियंत्रण रेखा भारत की सीमा के भीतर ही पड़ती है। यह रक्षा विशेषज्ञ सवाल पूछते हैं कि भारत की सीमाओं की रक्षा में इस तरह लापरवाही कर देने के लिए क्या रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडीज़ व संघ सरकार का मंत्रीमंडल संविधान का उल्लंघन करने के दोषी नहीं हैं ? अगर ऐसा नहीं है और यह निर्णय किन्हीं अन्य कारणों से लिया गया तो क्या रक्षामंत्री देश को यह बताऐंगे कि क्या वजह है कि सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च करके जो उपग्रह भारत के भूखण्ड पर निगाह रखने के लिए तैनात किए गए हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया ? भारतीय वायु सेना, ‘राॅसर्वे आॅफ इण्डियाके हवाई जहाज 1997-98 में क्या कर रहे थे जो उन्होंने सीमापार की हलचल को अनदेखा कर दिया ? कारगिल युद्ध में थल सेना के जवानों को मौत के मुंह में भेजने से पहले वायु सेना का प्रयोग  क्यों नहीं किया गया ? क्या रक्षामंत्री बताऐंगे कि दुनिया के किस युद्ध में ऐसी गलती की गई ? ऐसी दूसरी कौन सी आणविक शक्ति दुनिया में है जिसने अपने पड़ौसी से अघोषित युद्ध में अपने 500 से ज्यादा अफसरों और जवानों को शहीद कर दिया ? ऐसी कौन सी आणविक शक्ति वाला देश है जो सीमापार से होने वाले हमलों में अपने नागरिकों और सैनिकों की लगातार हत्या करवाता रहे और कड़े कदम न उठाए ? इन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास प्रयोग में लाए जा सकने योग्य परमाणु हथियार नहीं हैं और इसीलिए भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की धमकी और अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेक दिए।

विडम्बना यह है कि इस युद्ध के बाद भी जो टास्कफोर्स बनी उसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं लिया गया। जबतक नौकरशाही और राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ऐसी गल्तियां करते रहेंगे तब तक हम अपनी गल्तियों से कोई सबक नहीं सीख पाऐंगे। इसलिए इन विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को लेकर ही टास्कफोर्स का गठन करना चाहिए। कम से कम यह लोग ऐसी परिस्थितियों में समुचित निर्णय लेने की स्थिति में तो होंगे।

चूंकि सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट फिलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी है और उस पर संसद के चालू सत्र में बहस होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही इसलिए इन मुद्दों पर विपक्ष के सांसदों का ध्यान देना देश हित में रहेगा।