Showing posts with label Sonia Gandhi. Show all posts
Showing posts with label Sonia Gandhi. Show all posts

Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, February 27, 2023

राहुल गांधी की नई भूमिका क्या हो?


पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधान मंत्री वैश्विक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। कमज़ोर विपक्ष या विपक्षहीन पक्ष लोकतंत्र के पतन का रास्ता तैयार करता है। इसके साथ ही न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार व जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें। अनुभव ये बताता है कि हमारा देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमज़ोर करने का हर संभव प्रयास करता है। पर स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड या अमरीका जैसे देशों में सत्तापक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्रायः नहीं किए जाते। इसलिए उनका लोकतंत्र आदर्श माना जाता है।
 


किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए ज़रूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौक़ा न दिया जाए। तभी आर्थिक प्रगति भी संभव होती है। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। 

भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के ज़माने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बैठाना शुरू कर दिया। इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ। पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में ये काम नागालैंड, गोवा व मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेज़ी से हुई। 


मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत अस्थिर कर दिया है। ये हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ रहा है और ना ही उमंग। हर ओर हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है। जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है। सरकार पर एक आरोप जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर अपनी रणनीति बना रही है वहीं, विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ़ से एक आरोप यह लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधान मंत्री के पद के लिए कोई एक सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधान मंत्री के चेहरे के लड़ा था। पर बाद में डॉ मनमोहन सिंह के रूप में, 10 बरस तक एक ज्ञानी, शालीन, बेदाग़ प्रधान मंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। मुख्यतः ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर व अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधान मंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। जबकि राहुल गांधी ने आजतक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। 


विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता अपने दिल में ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरुद्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतज़ार करना होगा। इस बीच में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षों से देख ही रहे हैं। फिर भी अगर वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए अब उनके पास सोचने विचारने का समय नहीं है। विपक्ष के लिये तो यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। जैसे भाजपा और संघ परिवार बारह महीने चुनावी मोड में रहता है और साम, दाम, दंड या भेद से सरकार बनाते हैं। आज भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल गांधी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल गांधी के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आजतक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल गांधी के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी वह पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो। इस ज़मीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल गांधी निर्णय कर चुके हैं उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनना बल्कि समाज के आम आदमी को हक़ दिलाने के लिए एक संवेदनशील भूमिका में रहना है। जहां वे जनता का दुख-दर्द सरकार तक पहुँचा सकें। अगर यह सच है तो ये राहुल गांधी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मज़बूत करने में उनकी नयी भूमिका बन सकती है।  

जहां कांग्रेस ये मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिये वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मज़बूत हैं और वहाँ कांग्रेस का वजूद लुप्तप्रायः है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोवेश यही स्थिति है। इस हक़ीक़त को समझ और स्वीकार करके अगर राहुल गांधी एक बड़ा दिल दिखाते हैं और देश के हर बड़े विपक्षी नेता से आमने-सामने बैठ कर देश की राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो सभी विपक्षी दलों को जोड़ने में वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा  सकते हैं। यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पायेगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन रोज़गार, महंगाई, किसानों व मज़दूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग़ नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर अगर बाक़ी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिये चुनौती तगड़ी होगी। पर इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी। 

Monday, December 5, 2022

‘पप्पू’ में बहुत गहराई है- प्रियंका गांधी



कुछ हफ़्तों पहले सोशल मीडिया पर प्रियंका गांधी का एक अंग्रेज़ी वीडियो जारी हुआ। उसमें उन्होंने अपने भाई राहुल गांधी के व्यक्तित्व के बारे में काफ़ी कुछ कहा। उनके इस वक्तव्य से राहुल गांधी के व्यक्तित्व की अनेक उन बातों का पता चला जिनकी चर्चा कभी एकतरफ़ा हो चुके मीडिया ने नहीं की। इन दिनों जब राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ काफ़ी चर्चा में हैं, तो पाठकों के साथ इस वीडियो का ज़िक्र करना उचित होगा।


प्रियंका गांधी अपने भाई को अपना सबसे करीबी मित्र बताते हुए अपने बचपन को याद करती हैं। किस तरह उनका बचपन दर्दनाक हादसों और हिंसा का साक्षी रहा। इन दोनों ने अपनी दादी, इंदिरा गांधी को दूसरी माँ के रूप में पाया। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के समय राहुल की उम्र मात्र 14 साल की थी। वे कहती हैं कि चार जनों के एक छोटे परिवार के पारस्परिक स्नेह ने ही उनको सभी कठिनाइयों का सामना करने की ताक़त दी। 


1991 में जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो राहुल विदेश में पढ़ रहे थे। इस निर्मम हत्या कांड ने बहन भाई को झकझोर कर रख दिया था। उस कठिन समय में भी राहुल ने प्रियंका से कहा कि उनके मन में किसी तरह का गुस्सा नहीं है। राहुल को अक्सर उनके मुक्त विचारों के लिये विपक्ष से निंदा का सामना करना पड़ता है। उनके साहस का मज़ाक़ उड़ाया जाता रहा। इसके बावजूद वे कभी भी क्रोधित नहीं हुए और न ही अपने अंदर किसी के प्रति घृणा को उत्पन्न होने दिया। 



विपक्ष द्वारा हर रोज़ उन्हें पप्पू कहकर अपमानित किया जाता रहा, उनकी पढ़ाई लिखाई पर सवाल उठाए गये। सवाल भी उन लोगों ने उठाए जिनके बड़े-बड़े नेता भी अपने पढ़े लिखे होने का सही प्रमाण आज तक नहीं दे पाये।


प्रियंका कहती हैं कि बावजूद इस सबके राहुल ने सूझबूझ और हिम्मत दिखा कर विपक्षी नेताओं को गले लगाने का साहस भी दिखाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि राहुल ने धार्मिक किताबें भी पढ़ी हैं। फिर वो चाहे हिंदू, इस्लाम, बौद्ध या ईसाई धर्म की किताबें हों। राहुल ने वेद, शैव और उपनिषदों को जानने का भी प्रयास किया है।


अपने निजी जीवन में वे एक साधारण व्यक्तित्व वाले आम इंसान हैं। प्रियंका याद करते हुए बताती हैं कि एक दिन जब वे उनके घर गईं तो वे अपनी अलमारी की सफ़ाई कर रहे थे। प्रियंका के पूछने पर राहुल ने बताया कि वे अपने सामान को केवल दस वस्तुओं में सिमेट रहे हैं। वे बताती हैं तब से राहुल के पास न तो उन दस वस्तुओं से अधिक कुछ है न ही उससे अधिक रखने कि इच्छा है। किसी ने कभी राहुल गांधी को महँगे कपड़े या चश्मे पहने नहीं देखा होगा। 


राहुल जापानी आत्मरक्षा ‘आइकीडो’ में ‘ब्लैक बेल्ट’ हासिल कर चुके हैं। साथ ही वे अपने पिता की ही तरह एक योग्य पायलट भी हैं।


कम लोगों को पता होगा कि राहुल गांधी प्रशिक्षक स्तर के गोताखोर होने के नाते एक साँस में 75 मीटर गहराई तक समुद्र में छलाँग लगा सकते हैं। उनकी शारीरिक क्षमता का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि वे भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा आयोजित पर्वतारोहण के कार्यक्रम में भी भाग ले चुके हैं। 



सामाजिक आंदोलनों व विभिन्न संस्कृति के लोगों को समझने की नीयत से राहुल दुनिया के कई देशों में यात्रा कर चुके हैं। प्रियंका गांधी के अनुसार राहुल को अपने सहयोगियों व समर्थकों के लिए सामाजिक न्याय, सच्चाई व समानता बहुत महत्व रखती है। वे लोकतंत्र में पूरा विश्वास रखते हैं। वे अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म, भाषा व संस्कृति की आज़ादी में भी पूरा विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि इस राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप की स्थापना जनता द्वारा और जनता के लिए ही हुई।


प्रियंका के इस वीडियो को देख कर राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ ऐसा पता चला जो शायद देश के ज़्यादातर लोगों को पता नहीं होगा। सोचा क्यों इसे व्हाट्सएप पर अपने साढ़े सात हज़ार संपर्कों को भी भेजा जाए। इस पर बहुत सारी रोचक प्रतिक्रियाएँ आईं। अधिकतर लोगों का कहना था कि राहुल गांधी अपने पिता की तरह एक साफ़ दिल इंसान हैं। उनके व्यक्तित्व में झूठ बोलने या अपने बारे में बढ़-चढ़ कर दिखावा करने की प्रवृत्ति नहीं है। पर इन टिप्पणीयों के साथ ही कई टिप्पणियाँ ऐसी भी आईं जिन में कहा गया कि राहुल गांधी एक अच्छे इंसान तो हैं पर कुशल राजनेता नहीं हैं। कुछ की राय यह थी कि राहुल गांधी को नाहक राजनीति में धकेला जा रहा है। प्रश्न है कि देश की राजनीति में सत्ताधारी भाजपा को मिलाकर कितने नेता ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व राहुल गांधी के निकट भी हो। बहुत से अपराधी, बलात्कारी, माफ़ियाओं और कम पढ़े लिखे लोगों को चुनने वाली इस देश की जनता के लिए क्या राहुल गांधी इतने बेकार हैं कि उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए? लोकतंत्र में अगर समाज विरोधियों की भूमिका है, तो राहुल गांधी जैसे व्यक्ति की क्यों नहीं हो सकती?



दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर यही मीडिया पिछले कुछ वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहा। जबकि ये तथाकथित ‘पप्पू’ हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। जो हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उनमें सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की समाप्ति के बाद राहुल गांधी राजनीति में क्या हासिल कर पाएँगे ये तो भगवान या इस देश के मतदाता ही जानते हैं। पर इस लंबी यात्रा में चल कर और आम जनता से घुलमिल कर राहुल गांधी ने वो प्राप्त किया है जो भारत के सैंकड़ों वर्षों के इतिहास में किसी ने प्राप्त नहीं किया। क्योंकि उन्होंने ऐसी हिम्मत ही नहीं दिखाई। इस देश की राजनीति में कभी भी विपक्ष का सत्ता पक्ष द्वारा इतना अपमान नहीं किया गया जितना पिछले आठ वर्षों में सार्वजनिक मंचों से किया गया है। अगर ऐसी अपमानजनक टिप्पणियाँ करने वाले नेताओं और दल के दामन बेदाग़ होते तो उनकी बात का असर पड़ता। पर असर नहीं पड़ा तभी तो ब्लैकमेलिंग के हमले सह कर भी विपक्ष सीना तान कर खड़ा है। यूँ राजनीति में दूध का धुला तो कोई नहीं होता।   

Monday, March 1, 2021

भ्रष्टाचार क्या सिर्फ भाषण का विषय है?


पश्चिम बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। राजनैतिक गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ने लग चुकी हैं। राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर जनता के बीच एक दूसरी की छवि ख़राब करने पर जुटे हुए हैं। राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। चुनाव किसी भी राज्य में हों या फिर लोक सभा के चुनाव हों हर दल अपने विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं और खूब शोर मचाते हैं। पर इससे निकलता कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरती और न ही देश की जनता को राहत मिलती है। 


दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोषियों को सजा मिलें। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों को बटोर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस जैन  हवाला काण्ड में हजारों सबूत मौजूद थे उसकी जांच की मांग के नाम पर हर दल क्यों चुप रहा ? आपको भ्रष्टाचार पर शोर मचाने की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।



कोई भी पार्टी हो या कोई भी सरकार, सभी भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा समय-समय पर करते रहते हैं। देश के कई प्रधानमंत्रियों ने भी घोषणा की हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है। भ्रष्टाचार के मामले में कुछ रोचक तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। सभी घोटाले प्रायः चुनाव के पहले ही उछाले जाते हैं। चुनाव के दौरान जनसभाओं में उत्तेजक भाषण देकर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर करारे हमले किए जाते हैं। दोषियों को गिरफ्तार करने और सजा देने की मांग की जाती है। ये सारा तूफान चुनाव समाप्त होते ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कोई उन घोटालों पर ध्यान नहीं देता। अगले चुनाव तक उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण बोफोर्स कांड है। पिछले कई सालों से हर लोकसभा चुनाव के पहले इस कांड को उछाला जाता है और फिर भूल जाया जाता है। आज तक इसमें एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। दूसरी तरफ जैन हवाला कांड था जिसे किसी भी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बनाया गया  क्योंकि इस कांड में हर बड़े दल के प्रमुख नेता फंसे धा तो शोर कौन मचाए?


अगर किसी नेता ने रिश्वत लेता है तो इसमें कोई नई बात नहीं। देश में रिश्वत लेना इतना आम हो चुका है कि ऐसी खबरों पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग तो मान ही चुके हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का पर्याय है। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए श्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा था कि वे भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हैं। उधर भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने भी स्वीकारा था कि उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। विधायिका और न्यायपालिका के शिखर पुरुष अगर ऐसी बात कहते हैं तो कार्यपालिका के बारे में तो किसी को कोई संदेह ही नही कि वहां ऊपर से नीचे तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। 


लोकतंत्र के तीन खम्भे इस बुरी तरह भ्रष्टाचार के कैंसर से ग्रस्त हैं कि किसी को कोई रास्ता नहीं सूझता। ऐसे माहौल में जब कभी कोई घोटाला उछलता है तो दो-चार दिन के लिए चर्चा में रहता है और फिर लोग उसे भूल जाते हैं।


अगर केंद्र सरकार वाकई भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है तो क्या वह यह बताएगी कि जिन आला अफसरों के खिलाफ सीबीआई ने मामले दर्ज कर रखे हैं उसके खिलाफ सीबीआई को कार्यवाही करने की अनुमति आज तक क्यों नहीं दी गई? सरकार के प्रमुख नेता क्या ये बताएंगे कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में सीबीआई के जिन अफसरों ने अपराधियों की मदद की, उन्हें सजा के बदले पदोन्नति या विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया गया? क्या वे बताएंगे कि उनके दल के सभी नेता पद संभालते समय अपनी अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा जनता को क्यों नहीं देते? क्या वे बताएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद केन्द्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया कि आयोग उच्च पदासीन अफसरों और नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने के लिए स्वतंत्र हों? क्या वे बताएंगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपित व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात क्यों किया? क्या देश में उसी अनुभव और योग्यता के ईमानदार अफसरों की कमी हो गई है? क्या सरकार बताएगी कि सीबीआई के पास भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले ठंडे बस्ते में पड़े हैं, उनकी जांच में तेजी लाने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किए? अगर नहीं तो क्यांें नहीं?

 

दरअसल कोई राजनेता देश को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करना चाहता। केवल इसे दूर करने का ढिंढोरा पीटकर जनता को मूर्ख बनाना चाहता हैं और उसके वोट बटोरना चाहता है। यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले बड़े-बड़े घोटाले उछलते हैं। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही मान चुके कि उच्च न्यायपालिका में बीस फीसदी लोग भ्रष्ट हैं, तो कैसे माना जाए कि सैकड़ों करोड़ों रुपये के घोटाले करने वाले राजनेताओं को सजा मिलेगी। दिवंगत हास्य कवि काका हाथरसी कहा करते थे -क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।


चुनाव में धन चाहिए। धन बड़े धनाढ्य ही दे सकते हैं। बड़ा धनाढ्य बैंकों के बड़े कर्जे मारकर और भारी मात्रा में कर चोरी करके ही बना जाता है। ऐसे सभी बड़े धनाढ्य चाहते हैं कि सरकार में वो लोग महत्वपूर्ण पदों पर रहें जो उनके हित साधने वाले हों। ऐसे लोग वही होंगे जो भ्रष्ट होंगे। यह एक विषमचक्र है, जिसमें हर राजनेता फँसा है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति को परमत्यागी होना पड़ेगा। आज के राजनेता भोग के मामले में राज परिवारों को पीछे छोड़ चुके हैं। न तो वे त्याग करने को तैयार हैं और न ही अपने सुख पर कोई आंच आने देना चाहते हैं इसलिए उनमें जोखिम उठाने की क्षमता भी नहीं हैं। बिना जोखिम उठाए ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए भ्रष्टाचार का प्रत्येक मामला पानी के बुलबुले की तरह उठता है और फूट जाता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, November 30, 2020

अलविदा अहमद भाई


यूँ तो हर जाने वाले के बाद उसकी अकीदत में क़सीदे गढ़े जाते हैं। राजनीति में तो दुश्मन भी आकर घड़ियाली आंसू बहाते हैं। काश मरने वाले को अपनी इन तारीफ़ों का ट्रेलर उसके जीते जी मिल जाए तो उसके दिल को कितना सुकून मिले। ब्रज में पिछली सदी में एक महान संत हुए थे, ग्वारिया बाबा। उन्होंने वृंदावन वसियों की सभा बुला कर कहा कि जो कुछ श्रद्धांजलि तुम मेरे मरने के बाद मुझे दोगे वो आज मेरे सामने ही दे दो। सब ने इसे मज़ाक़ समझा पर बाबा गम्भीर थे। फ़र्श बिछाए गए और शोक सभा प्रारम्भ हो गई। बाबा दूर कौने में बैठ कर सुनते रहे और बोलने वाले एक के बाद एक उनके गुणों का यशगान करते गये। सभा समाप्ति पर बाबा ने सबका धन्यवाद किया। इत्तफ़ाक देखिए कि कुछ दिनों बाद ही बाबा ने समाधि ले ली।
 

अहमद भाई पटेल कोई संत नहीं थे, राजनीतिज्ञ थे। राजनीति में ऊँच-नीच सबसे होती है। ग़लत और सही निर्णय भी होते हैं। दोस्त और दुश्मन भी बनते-बिगड़ते रहते हैं। क्योंकि राजनीति एक ऐसी काजल की कोठरी है कि जिसमें, ‘कैसो ही सयानो जाए - काजल को दाग भाई लागे रे लागे’। न पहले के सत्तारूढ़ दल में संत थे और न आज हैं। संतों का राजनीति से क्या काम? इसलिए अहमद भाई का मूल्यांकन एक राजनीतिज्ञ की तरह ही किया जाना चाहिए। जैसे साम, दाम, दंड, भेद अपना कर अमित भाई शाह ने भाजपा को मज़बूत बनाया है और अपने नेता नरेंद्र भाई मोदी के प्रति पूर्ण निष्ठा का प्रमाण दिया है, वैसे ही अहमद भाई पटेल ने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के प्रति अपनी निष्ठा रखते हुए कांग्रेस को मज़बूत बनाया और उसे सत्ता में बनाए रखा। लेकिन उन्होंने खुद कभी कोई मंत्रिपद नहीं लिया और अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा भी मीडिया में नहीं मचने दिया। 


अब तक बहुत सारे राजनेता, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी, मीडियाकर्मी और कांग्रेस के करोड़ों कार्यकर्ता अहमद भाई की बेमिसाल शख़्सियत का गुणगान अपने शोक संदेशों में कर चुके हैं। इसलिए मैं उन्हें यहाँ नहीं दोहरा रहा हूँ कि वो कितने सहृदय थे, अहंकार शून्य थे, विनम्र थे, सबकी मदद करने के लिए तय्यार रहते थे और सभी राजनैतिक दलों से उनके मधुर सम्बंध थे। मैं तो अहमद भाई पटेल की उस बात को रेखांकित करना चाहूँगा जो भाजपा सहित सभी राजनेताओं को उनसे सीखनी चाहिए।वो थी अपने दुश्मन की भी योग्यता का सम्मान करना। 


जैन हवाला कांड में कांग्रेस के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व सांसदों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इस दृष्टि से 1996 के बाद मैं कांग्रेस का दुश्मन ‘नम्बर एक’ माना जा सकता था। पर आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हुआ। चाहे माधव राव सिंधिया हों, राजेश पाइलट हों, कमाल नाथ हों, अर्जुन सिंह हों। ऐसे किसी भी बड़े नेता ने मेरे साथ कभी असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। बल्कि ये कहा कि तुमने अपना पत्रकारिता धर्म निभाया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं। हद्द तो तब हो गई जब हवाला कांड के कुछ वर्ष बाद ही तब की मेरी राष्ट्रीय छवि को ध्यान में रखते हुए अहमद भाई ने मुझे कांग्रेस में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश की राजनीति सम्भालने का प्रस्ताव रखा। पता चला कि सोनिया गांधी ने इसका विरोध ये कह कर किया कि, ‘विनीत नारायण ने हमारे दल की छवि का सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है। वो कैसे हमारे दल में नेता बन सकता है?’ इस पर अहमद भाई का कहना था कि, ‘विनीत नारायण ने जो कुछ भी किया वो एक पत्रकार के नाते किया। वो जब दल में शामिल हो जाएगा तो दल के हिसाब से काम करेगा।’ इस पर तय यह हुआ कि अम्बिका सोनी मुझे चाय पर बुलाएँ और मुझसे लम्बी बात करके ये तय करें कि मेरी कांग्रेस में क्या भूमिका रहेगी। अहमद भाई के सुझाव पर मैं अम्बिका जी के साथ डेढ़ घंटा बैठा पर उनसे मैंने साफ़ कहा कि मेरी रुचि रचनात्मक कार्यों में है, राजनीति में नहीं। और मैं हर दल से मधुर सम्बंध बना कर सही दूरी रखना चाहता हूँ। ये उन दिनों की बात है जब मैं ब्रज सेवा शुरू कर चुका था। इसलिए भी मेरी ब्रज के अलावा कहीं और रुचि नहीं थी। 



इसके 7 साल बाद मेरे पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में 9 तुग़लक़ रोड, नई दिल्ली पर केंद्र सरकार के अनेक मंत्री व भाजपा सहित अनेक दलों के राष्ट्रीय नेता भी बधाई देने आए। उस समय अहमद भाई पटेल की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती थी। पर वे चुपचाप आए, वर वधू को आशीर्वाद दिया और एक कोने में सोफ़े पर जा कर बैठ गए। वहाँ कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और अधिकारियों से कहने लगे कि हमने तो विनीत जी को उत्तर प्रदेश का ज़िम्मा सौंपने का प्रस्ताव दिया था। पर इन्होंने हमारी बात नहीं मानी। वरना आज ये कांग्रेस के बड़े नेता होते। ऐसे तमाम अवसर आए जब अहमद भाई मेरे पारिवारिक उत्सवों में चुपचाप आए और बिना हड़बड़ी के काफ़ी देर बैठ कर गए। इस मामले में मैं आडवाणी जी की भी दाद दूँगा कि वे मेरे सभी पारिवारिक उत्सवों में आशीर्वाद देने आए। बिना ये सोचे कि हवाला कांड में आरोपित होने से उनके राजनैतिक कैरियर को कितना बड़ा झटका लगा था। 


मैंने 35 वर्ष की पत्रकारिता में लगभग सभी दलों के बड़े राजनेताओं के साथ समय बिताया है। पर कभी किसी की अंधभक्ति नहीं की। कभी किसी की आलोचना करने में कसर नहीं छोड़ी। जो सही लगा उसे सही कहा और जो ग़लत लगा उसे ग़लत। पर मानना पड़ेगा कि उन सब राजनेताओं की पीढ़ी बहुत गम्भीर, सौम्य, सहनशील और उदार थी। अहमद भाई पटेल उसी पीढ़ी के एक चमचमाते सितारे थे। जिनकी कमीं उनके राजनैतिक दुश्मनों को भी खलेगी। आज की राजनीति में इस शालीनता और लोकतांत्रिक मूल्य की भारी कमी महसूस की जा रही है। अलविदा अहमद भाई।      

Monday, December 16, 2019

बलात्कार पर राजनीति क्यों ?

 मोदी जी ने जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो यूपीए सरकार पर हमला करते हुए दिल्ली को ‘रेप राजधानी’ बताया था। अब जब वे प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी भारत को ही ‘रेप देश’ बता रहे हैं। इस पर घमासान छिड़ा है, दोनों प्रमुख दल एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। मीडिया में शोर मच रहा है। सड़कों पर नौटंकी हो रही है।रैलियाँ, झंडे और प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इस सबसे क्या निकलेगा? क्या देश की बहु-बेटियों की इज्जत बच जायेगी? क्या उनके बलात्कार होने बंद हो जाऐंगे? क्या वे बेखौफ होकर अपने गाँव, शहर या सड़क पर निकल सकेंगी? क्या पुलिस बलात्कार के आरोपियों को फुरती से पकड़कर सजा दिलवायेगी? क्या रहीसजादे या नेताओं के अय्याश बेटे कानून और पुलिस के डर से सुधर जाऐंगे? ऐसा कुछ भी नहीं होगा। ये दोनों दल उछल-कूदकर चुप हो जाऐंगे। इससे कुछ नहीं बदलेगा। फिर ये नाटक क्यों? बलात्कार को रोकने में कोई सरकार  अकेली पुलिस सफल नहीं हो सकती। 
क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।

पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।

इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी.वी. चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।

बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तभी हालात कुछ सुधरेंगे। राजनैतिक दलों की नौटंकी से नही।

Monday, June 24, 2019

मोदी इफैक्ट के फायदे?

जब से  नरेन्द्र मोदी ब्रांड को हर मतदाता के मन में बसाकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा को अप्रत्याशित विजय दिलाई है, तब से मोदी जी के आलोचकों और विपक्षी दलों को एक भय सता रहा है कि अब मोदी यथाशीघ्र भारत को राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ ले जाऐंगे। उन्हें दूसरा डर इस बात का है कि अब मोदी जी खुल्ल्मखुल्ला अधिनायकवाद की स्थापना करेंगे। उनका ये भी कहना है कि भाजपा के जीते हुए सांसद ये मानते है कि उनकी विजय उनके अपने कृतित्व के कारण नहीं बल्कि मोदी जी के नाम के कारण हुई है। इसलिए उनका तीसरा भय इस बात का है कि ये सभी सांसद संसद में केवल हाथ उठाऐंगे या नारे लगायेंगे। इनसे संसद की बहसों को कोई, गरिमा प्रदान नहीं होगी। इस तरह संसद का स्तर लगातार गिरता जायेगा। हम इन तीनों मुद्दों का विवेचन करेंगे।

जहाँ तक देश को राष्ट्रपति प्रणाली की ओर ले जाने की बात है, तो यह कोई गलत विचार नहीं है। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति प्रणाली है और कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक-ठाक काम कर रही है। आयाराम-गयाराम की संस्कृति में सांसदों की खरीद-फरोख्त से बनी सरकारें ब्लैकमेल का शिकार होती है। छोटे-छोटे दल अल्पमत की सरकार को समर्थन देने की एवज में कमाऊ मंत्री पद हड़पना चाहते हैं। कैबिनेट की  सामूहिक जिम्मेदारी की बजाय हर सहयोगी दल अपने क्षेत्रीय दल, नेता व क्षेत्र के लिए ही सक्रिय रहता है, बाकी देश के प्रति गंभीर नहीं रहता। ‘हवाला कांड’ के बाद राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर पूरी रात संसद का अधिवेशन चला, पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जिन दलों और लोगों को आज मोदी जी की मंशा पर संदेह है, उन्होंने पिछले 23 वर्षों में राजनीति की दशा सुधारने के लिए कितने गंभीर प्रयास किये? जब वो ढर्रा देश 72 साल तक ढोता रहा, तो अब एकबार अगर मोदी जी राष्ट्रपति प्रणाली लाकर नया प्रयोग करना चाहें, तो इससे इतनी घबराहट क्यों होनी चाहिए?

राष्ट्रपति प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पूरे देश की जनता अपनी पंसद के नेता को 5 साल के लिए देश की बागडोर सौंप देती है। ऐसे चुना गया राष्ट्रपति, बिना किसी दबाव के, अपने मंत्रीमंडल का गठन कर सकता है। जाहिरन तब वह अपनी पसंद के और अनुभवी लोगों को किसी भी क्षेत्र से उठाकर मंत्री बना सकता है। जैसा- इस बार मोदी जी ने विदेश मंत्री के संदर्भ में प्रयोग किया। फिर वो व्यक्ति चाहे प्रोफेसर हो, वैज्ञानिक हो, उद्योगपति हो, पत्रकार हो, समाजसेवी हो या रणनीति विशेषज्ञ हो। अमरीका में आज ऐसा ही होता है। इससे कैबिनेट की योग्यता, कार्यक्षमता और निर्णंय लेने की स्वतंत्रता बढ़ जाती है। हां एक नुकसान हो सकता है, अगर राष्ट्रपति अहंकारी हो, अनैतिक आचरण वाला हो या लालची हो, तो वह देश को मटियामैट भी कर सकता है। पर जिसे पूरा देश अपने विवेक से चुनेगा, उससे ऐसे आचरण की उम्मीद कम ही की जा सकती है।

मोदी जी के आलोचकों को डर है कि वे हिटलर या मुसौलनी की तरह धीरे-धीरे अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं। चुनाव के दौरान व्हाट्सएप्प समूहों में हिटलर की आदतों को लेकर ऐसे कई संदेश प्रचारित किये गये, जिनमें मोदी जी की तुलना हिटलर से की गई। यहां एक बुनियादी फर्क है। हिटलर प्रजाति के अहंकार से ग्रस्त एक गैर आध्यात्मिक व्यक्ति था। जिसकी मंशा विश्व विजेता बनने की थी। जबकि मोदी जी ने योग को विश्वस्तर पर मान दिलाकर, राष्ट्राध्यक्षों को श्रीमद्भगवत्गीता भेंटकर और देश के सभी प्रमुख देवालयों में पूजा अर्चन कर अपने-अपने सनातनी होने का प्रमाण दिया है। निश्चित तौर पर उन्होंने श्रीमद्भागवत् के राजा रहुगण व जड़ भरत संवाद को पढ़ा होगा। जो कल राजा था, वो आज पालकी उठाने वाला बन गया और जो आज सड़क के पत्थर तोड़ता है, वो कल भारत का राष्ट्रपति बन सकता है। जिसने वैदिक दर्शन के इस मूल सिद्धांत को समझ लिया, वह राजा अधिनायकवादी नहीं, राजऋषि बनेगा। अब यह तो समय ही बतायेगा कि मोदी जी स्वान्तः सुखाय अधिनायकवादी बनेंगे या बहुजन हिताय?

मोदी जी की एक शिकायत आम है, जो उनके आलोचक नहीं, बल्कि चाहने वालों के बीच है। उनका नौकरशाही पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होना। जबकि इस देश के तमाम ईमानदार और चरित्रवान व उच्च पदासीन रहे नौकरशाहों ने अपने स्मरणों में बार-बार इस बात पर दुखः प्रगट किया है कि नौकरशाही के तंत्र में उलझ कर वे कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं कर पाये। एक घिसीपिटी मशीन का पुर्जा बनकर रह गऐ। यह पीड़ा मेरी भी है। गत 5 वर्षों से बार-बार स्मरण दिलाने के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय में ब्रज को लेकर मेरी अनुभवजन्य व स्वयंसिद्ध उपलब्धियों पर आधारित चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया और आज भी ब्रज का विकास नये पुराने नौकरशाहों पर छोड़ दिया है, जो 5 वर्ष में भी एक भी काम उल्लेखनीय या प्रशंसनीय नहीं कर पाये। अमरीका की प्रगति के पीछे सबसे बड़ा कारण वहां मिलने वाला वो सम्मान है, जो अमरीकी सरकार और समाज हर उस व्यक्ति को देता है, जो अपनी योग्यता सिद्ध कर देता है।

रही बात संसद की। यह सही है कि भाजपा के अधिकतर सांसद अपने काम और नाम की बजाय मोदी जी के नाम पर जीतकर आये हैं। पर इसका अर्थ ये नहीं कि वो किसी गड़रिये की भेडे़ हैं। लाखों लोगों ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है। उनकी बहुत अपेक्षाऐं हैं। जनता से जुड़ाव के बिना कोई नेता बहुत लंबी दूरी तक नहीं चल सकता। न सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर पकड़ जरूरी है, बल्कि राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करने की अपेक्षा देशवासी हर सांसद से करते हैं। ‘निंदक नियरे राखिये’ वाले सिद्धांत में आस्था रखते हुए मोदी जी को चाहिए कि वे अपने सांसदों को यह निर्देश और शिक्षा दें कि वे संसद की बहसों में सक्रिय रहकर अपना योगदान करें और जहाँ आवश्यक हो, अपनी ही सरकार की कमियों की ओर इशारा करने से न चूकें। इससे सरकार की विश्वसनीयता व लोकप्रियता दोनों बढ़ती है। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी अपने आलोचकों की शंकाओं के विरूद्ध एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाऐंगे।

Monday, April 1, 2019

कैसे सुधरेगी राजनीति की दशा ?


लोकसभा के चुनावों का माहौल है। हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है। जो बड़े और धनी दल है, वे प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं, जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रूपये लेकर टिकट बेचते हैं। पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रूपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है। जबकि भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रूपये निर्धारित की गई है। प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर रहकर चुनाव लड़े, इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्र में तीन पर्यवेक्षक भी तैनात करता है। जो मूलतः भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते हैं, जो दूसरे प्रांतों से भेजे जाते हैं। चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है। बावजूद इसके नियमों की धज्जियाँ धड़ल्ले से उड़ाई जाती हैं।

इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता। क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रूपये उसके पास कभी होंगे ही नहीं। अगर वह व्र्यिक्त यह रूपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं। वे या तो बड़े उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया। क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुऐ में लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती। ये बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं हैं। किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता। जो सत्ता में होता है, उसकी विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रूकावट न आए। जाहिर है कि इन बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं होती है। तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं बल्कि विनियोग (इनवेस्ट) किया जाता है। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है कि जिसमें लाभ कमाया जाए। तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?

उत्तर सरल है। जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दाव लगाया जाता है, उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है, कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे। इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जा-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं। जिनमें से अधिकतर काम नाजायज होते हैं और दूसरों का हक मारकर करवाए जाते हैं। इस तरह चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता। चुनावों के दौरान यह आमतौर पर सुनने को मिलता है कि वोट मांगने वाले पांच साल में एक बार मुंह दिखाते हैं। इतना ही नहीं जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसे वालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है, तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो जाती है। जिससे वह अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके। इस तरह अवैध धन लगाने और कमाने का धंधा अनवरत् चलता रहता है। इस चक्की में पिसता है बेचारा आम मतदाता। जिसे आश्वासनों के अलावा शायद ही कभी कुछ मिलता हो। इसीलिए जहां दुनिया के तमाम देश पिछले दशकों में विकास की ऊचाईयों पर पहुंच गऐ, वहीं हमारा आम मतदाता आज आजादी के 72 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए बेज़ार है।

1994-96 के बीच भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों से देश के नेताओं को चुनाव आयोग की हैसियत और ताकत का अंदाजा लगवा दिया था। चूंकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में मैं भी उनका हर दिन साथी रहा, इसलिए एक-एक कदम जो उन्होंने उठाया, उसमें मेरी भी भूमिका रही। उन्होंने चुनाव सुधारों के लिए एक समानान्तर संस्था देशभक्त ट्रस्टभी पंजीकृत करवाया था, जिसके ट्रस्टी वे स्वयं, उनकी पत्नी श्रीमती जया शेषन, मैं व रोज़ा फिल्म की निर्माता वांसती जी थीं। इस ट्रस्ट का संचालन मेरे दिल्ली कार्यालय से ही होता था। उस दौरान श्री शेषन व मैं साथ-साथ चुनाव सुधारों पर विशाल जनसभाए संबोधित करने देश के हर कोने में हफ्ते में कई बार जाते थे और लोगों को राजनैतिक व्यवस्था सुधारने के इस महायज्ञ में सहयोग करने की अपील करते थे।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन सुधारों को उस समय चुनाव आयोग ने भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद को भेजा था उनको संसद की बहसों में उनको काफी कमजोर कर दिया। फिर भी इतना जरूर हुआ कि चुनाव करवाने में जो हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और गुंडागर्दी होती थी, वो लगभग समाप्त हो गई। इसलिए देश आज भी श्री शेषन के योगदान को याद रखता है। पर चुनावों में कालेधन के व्यापक प्रयोग पर रोक नहीं लग पाई। शायद हमारे माननीय सांसद इस रोक के पक्ष में नहीं हैं। यही कारण है कि हर चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है। मतदाता बेचारा निरीह होकर खुद को लुटता देखता है और थाने, कचहरी के विवादों में अपने नेता की मदद से ही संतुष्ट हो जाता है, विकास की बात तो शायद ही कहीं होती हो।

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, September 26, 2016

केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि चुनाव जैसे होंगे विस चुनाव

विधानसभा चुनावों के लिए राज्यों में चुनावी मंच सजना शुरू हो गए हैं। खासतौर पर उप्र और पंजाब में तो चुनावी हलचल जोरों पर है। उप्र में सभी राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की कमर भी कस दी है। लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव सिर्फ विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं दिख रहे हैं। मोदी सरकार के सामने बिल्कुल वैसी चुनौती है जैसे उसके लिए ये मघ्यावधि चुनाव हों। वाकई उसके कार्यकाल का आधा समय गुजरा है। इसी बीच उसके कामकाज की समीक्षाएं हो रही होंगी। हालांकि उप्र में चुनावी तैयारियों के तौर पर अभी थोड़ी सी बढ़त कांग्रेस की दिख रही है। गौर करने लायक बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उप्र में महीने भर की किसान यात्रा की अनदेखी मीडिया भी नहीं कर पाया।

हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के सामने एक अतिरिक्त चुनौती अपने काम काज या अपनी उपलब्धियां बताने की होती है। इस लिहाज से भाजपा और उप्र की अखिलेश सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। यानी उप्र में सपा और भाजपा को अपने सभी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के उठाए सवालों का सामना करना पड़ेगा।  उप्र में भाजपा भले ही तीसरे नंबर का दल है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उससे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के नाते सवाल पूछे जाएंगे। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि उसके लिए यह चुनाव मध्यावधि जैसा होगा। रही बात समालवादी पार्टी की तो उसने तो अपनी उपलब्धियों की लंबी चौड़ी सूची तैयार करके पोस्टर और होर्डिग का अंबार लगा दिया है। ये बात अलग है सपा के भीतर ही प्रभुत्व की जोरआजमाइश ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन जिस तरह से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोश और विश्वास के साथ परिस्थियों का सामना किया उससे सपा की छवि को उतनी चोट पहुंच नहीं पाई। इधर उप्र विकास के कामों को फटाफट निपटाने जो ताबड़तोड़ मुहिम चल रही है उसे उप्र विधान सभा चुनाव की तैयारियां ही माना जाना चाहिए।

कांग्रेस ने जिस तरह से उप्र के चालीस जिलों से होकर कि सान यात्रा निकाली है उससे अचानक हलचल मच गई है। दो महीने पहले तक कांग्रेस मुक्त भारत का जो अभियान भाजपा चला रही थी वह भी ठंडा पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में जान फूंक दी। अब तो कांग्रेस के बड़े नेता भी प्रशांत किशोर के सलाह मशविरे को तवज्जो देते दिख रहे हैं। वैसे तो विधान सभा चुनाव अभी छह महीने दूर हैं  लेकिन  कांग्रेस की मेहनत देखकर लगने लगा है कि उसे हल्के में नहीं लिया जा पाएगा। उसने दूसरे बड़े दलों से गठजोड़ लायक हैसियत तो अभी ही बना ही ली है।  

रही बात इस समय दूसरे पायदान पर खड़ी बसपा की तो बसपा के बारे में सभी लोग मानते हैं कि उसके अपने जनाधार को हिलाना डुलाना आसान नहीं है। उसके इस पक्के घर में कितनी भी तोड़फोड़ हुई हो लेकिन जल्दी ही वह बेफर्क मुद्रा में आ गई। पिछले दिनों उसकी बड़ी बड़ी रैलियों से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। हां कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो फर्क पड़ता ही है। वास्तविक स्थिति के पता करने का उपाय तो हमारे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पहुंची चोट का असर उस पर जरूर होगा। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आगे चलकर बसपा गठबंधन के जरिए अपना रास्ता आसान बना ले।

कुलमिलाकर उप्र में मचने वाला चुनावी घमासान चौतरफा होगा। इस चौतरफा लड़ाई में अभी सभी प्रमुख दल अपने बूते पर खड़े रहने का दम भर रहे हैं। कोई संकेत या सुराग नहीं मिलता कि कौन सा दल किस एक के  खिलाफ मोर्चा लेगा। लेकिन केंद्र की राजनीति के दो प्रमुख दल कांग्र्रेस और भाजपा का आमने सामने होना तय है। इसी तरह प्रदेश के दो प्रमुख दल सपा और बसपा के बीच गुत्थमगुत्था होना तय है। लेकिन उप्र के एक ही रणक्षेत्र में एक ही समय में दो तरह के युद्ध तो चल नहीं सकते। सो जाहिर है कि चाहे गठबंधन की राजनीति सिरे चढ़े और चाहे सीटों के बंटवारे के नाम पर हो अंतरदलीय ध्रुवीकरण तो होगा ही। बहुत संभव है कि इसीलिए अभी कोई नहीं भाप पा रहा है कौन किसके कितने नजदीक जाएगा। 

अपने बूते पर ही खड़े रहने की ताल कोई कितना भी ठोक ले लेकिन चुनावी लोकतंत्र में दो ध्रवीय होने की मजबूरी बन ही जाती है। इस मजबूरी को मानकर चलें तो कमसे इतना तय है कि उप्र का चुनाव या तो सपा और बसपा के बीच शुद्ध रूप् से प्रदेश की सत्ता के लक्ष्य को सामने रख कर होगा या कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 को सामने रखकर होगा। पहली सूरत में राष्टीय स्तर के दो बड़े दलों यानी भाजपा और कांग्रेस को तय करना पड़ेगा कि सपा या बसपा में से किसे मदद पहुंचाएं। दूसरी सूरत है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच साधे ही तूफानी भिड़त होने लगे। देश में जैसा माहौल है उसे देखते हुए इसका योग बन सकता है लेकिन उप्र कोई औसत दर्जे का प्रदेश नहीं है। दुनिया के औसत देश के आकार का प्रदेश है। लिहाजा इस चुनाव का लक्ष्य प्रदेश की सत्ता ही होगा। जाहिर है घूमफिर कर लड़ाई का योग सपा और बसपा के बीच ही ज्यादा बनता दिख रहा है। बाकी पीछे से केंद्र के मध्यावधि चुनाव जैसा माहौल दिखता रहेगा।