लोकसभा
के चुनावों का माहौल है। हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है। जो बड़े
और धनी दल है, वे
प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं,
जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रूपये लेकर
टिकट बेचते हैं। पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रूपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है। जबकि
भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रूपये निर्धारित की गई है। प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर
रहकर चुनाव लड़े, इसे
सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्र में तीन पर्यवेक्षक
भी तैनात करता है। जो मूलतः भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते
हैं, जो दूसरे प्रांतों से
भेजे जाते हैं। चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी
राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है। बावजूद
इसके नियमों की धज्जियाँ धड़ल्ले से उड़ाई जाती हैं।
इससे
यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव
लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता। क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रूपये उसके पास कभी होंगे ही नहीं। अगर वह व्र्यिक्त
यह रूपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं। वे या तो बड़े
उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया। क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुऐ में
लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती। ये
बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं
हैं। किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता। जो सत्ता
में होता है, उसकी
विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रूकावट न आए। जाहिर है कि इन
बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं
होती है। तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं बल्कि विनियोग
(इनवेस्ट) किया जाता है। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है
कि जिसमें लाभ कमाया जाए। तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?
उत्तर
सरल है। जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दाव लगाया जाता है,
उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है,
कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे। इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने
प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जा-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं। जिनमें
से अधिकतर काम नाजायज होते हैं और दूसरों का हक मारकर करवाए जाते हैं। इस तरह
चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम
जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता। चुनावों के दौरान यह आमतौर पर
सुनने को मिलता है कि वोट मांगने वाले पांच साल में एक बार मुंह दिखाते हैं। इतना
ही नहीं जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसे वालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है,
तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो
जाती है। जिससे वह अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके। इस तरह अवैध धन लगाने और कमाने
का धंधा अनवरत् चलता रहता है। इस चक्की में पिसता है बेचारा आम मतदाता। जिसे
आश्वासनों के अलावा शायद ही कभी कुछ मिलता हो। इसीलिए जहां दुनिया के तमाम देश
पिछले दशकों में विकास की ऊचाईयों पर पहुंच गऐ, वहीं हमारा आम मतदाता आज आजादी के 72 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए बेज़ार है।
1994-96 के बीच भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन.
शेषन ने तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों से देश के नेताओं को चुनाव आयोग की हैसियत और
ताकत का अंदाजा लगवा दिया था। चूंकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में मैं भी उनका हर
दिन साथी रहा, इसलिए
एक-एक कदम जो उन्होंने उठाया, उसमें मेरी भी भूमिका रही। उन्होंने चुनाव सुधारों के लिए
एक समानान्तर संस्था ‘देशभक्त
ट्रस्ट’ भी
पंजीकृत करवाया था, जिसके
ट्रस्टी वे स्वयं, उनकी
पत्नी श्रीमती जया शेषन, मैं व रोज़ा फिल्म की निर्माता वांसती जी थीं। इस ट्रस्ट का
संचालन मेरे दिल्ली कार्यालय से ही होता था। उस दौरान श्री शेषन व मैं साथ-साथ
चुनाव सुधारों पर विशाल जनसभाए संबोधित करने देश के हर कोने में हफ्ते में कई बार
जाते थे और लोगों को राजनैतिक व्यवस्था सुधारने के इस महायज्ञ में सहयोग करने की
अपील करते थे।
दुर्भाग्य की बात यह है
कि जिन सुधारों को उस समय चुनाव आयोग ने भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद को
भेजा था उनको संसद की बहसों में उनको काफी कमजोर कर दिया। फिर भी इतना जरूर हुआ कि
चुनाव करवाने में जो हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और गुंडागर्दी होती थी, वो लगभग समाप्त हो गई।
इसलिए देश आज भी श्री शेषन के योगदान को याद रखता है। पर चुनावों में कालेधन के
व्यापक प्रयोग पर रोक नहीं लग पाई। शायद हमारे माननीय सांसद इस रोक के पक्ष में
नहीं हैं। यही कारण है कि हर चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है। मतदाता
बेचारा निरीह होकर खुद को लुटता देखता है और थाने, कचहरी के विवादों में
अपने नेता की मदद से ही संतुष्ट हो जाता है, विकास की बात तो शायद ही
कहीं होती हो।
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