Monday, March 1, 2021

भ्रष्टाचार क्या सिर्फ भाषण का विषय है?


पश्चिम बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। राजनैतिक गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ने लग चुकी हैं। राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर जनता के बीच एक दूसरी की छवि ख़राब करने पर जुटे हुए हैं। राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। चुनाव किसी भी राज्य में हों या फिर लोक सभा के चुनाव हों हर दल अपने विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं और खूब शोर मचाते हैं। पर इससे निकलता कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरती और न ही देश की जनता को राहत मिलती है। 


दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोषियों को सजा मिलें। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों को बटोर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस जैन  हवाला काण्ड में हजारों सबूत मौजूद थे उसकी जांच की मांग के नाम पर हर दल क्यों चुप रहा ? आपको भ्रष्टाचार पर शोर मचाने की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।



कोई भी पार्टी हो या कोई भी सरकार, सभी भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा समय-समय पर करते रहते हैं। देश के कई प्रधानमंत्रियों ने भी घोषणा की हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है। भ्रष्टाचार के मामले में कुछ रोचक तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। सभी घोटाले प्रायः चुनाव के पहले ही उछाले जाते हैं। चुनाव के दौरान जनसभाओं में उत्तेजक भाषण देकर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर करारे हमले किए जाते हैं। दोषियों को गिरफ्तार करने और सजा देने की मांग की जाती है। ये सारा तूफान चुनाव समाप्त होते ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कोई उन घोटालों पर ध्यान नहीं देता। अगले चुनाव तक उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण बोफोर्स कांड है। पिछले कई सालों से हर लोकसभा चुनाव के पहले इस कांड को उछाला जाता है और फिर भूल जाया जाता है। आज तक इसमें एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। दूसरी तरफ जैन हवाला कांड था जिसे किसी भी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बनाया गया  क्योंकि इस कांड में हर बड़े दल के प्रमुख नेता फंसे धा तो शोर कौन मचाए?


अगर किसी नेता ने रिश्वत लेता है तो इसमें कोई नई बात नहीं। देश में रिश्वत लेना इतना आम हो चुका है कि ऐसी खबरों पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग तो मान ही चुके हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का पर्याय है। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए श्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा था कि वे भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हैं। उधर भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने भी स्वीकारा था कि उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। विधायिका और न्यायपालिका के शिखर पुरुष अगर ऐसी बात कहते हैं तो कार्यपालिका के बारे में तो किसी को कोई संदेह ही नही कि वहां ऊपर से नीचे तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। 


लोकतंत्र के तीन खम्भे इस बुरी तरह भ्रष्टाचार के कैंसर से ग्रस्त हैं कि किसी को कोई रास्ता नहीं सूझता। ऐसे माहौल में जब कभी कोई घोटाला उछलता है तो दो-चार दिन के लिए चर्चा में रहता है और फिर लोग उसे भूल जाते हैं।


अगर केंद्र सरकार वाकई भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है तो क्या वह यह बताएगी कि जिन आला अफसरों के खिलाफ सीबीआई ने मामले दर्ज कर रखे हैं उसके खिलाफ सीबीआई को कार्यवाही करने की अनुमति आज तक क्यों नहीं दी गई? सरकार के प्रमुख नेता क्या ये बताएंगे कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में सीबीआई के जिन अफसरों ने अपराधियों की मदद की, उन्हें सजा के बदले पदोन्नति या विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया गया? क्या वे बताएंगे कि उनके दल के सभी नेता पद संभालते समय अपनी अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा जनता को क्यों नहीं देते? क्या वे बताएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद केन्द्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया कि आयोग उच्च पदासीन अफसरों और नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने के लिए स्वतंत्र हों? क्या वे बताएंगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपित व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात क्यों किया? क्या देश में उसी अनुभव और योग्यता के ईमानदार अफसरों की कमी हो गई है? क्या सरकार बताएगी कि सीबीआई के पास भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले ठंडे बस्ते में पड़े हैं, उनकी जांच में तेजी लाने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किए? अगर नहीं तो क्यांें नहीं?

 

दरअसल कोई राजनेता देश को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करना चाहता। केवल इसे दूर करने का ढिंढोरा पीटकर जनता को मूर्ख बनाना चाहता हैं और उसके वोट बटोरना चाहता है। यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले बड़े-बड़े घोटाले उछलते हैं। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही मान चुके कि उच्च न्यायपालिका में बीस फीसदी लोग भ्रष्ट हैं, तो कैसे माना जाए कि सैकड़ों करोड़ों रुपये के घोटाले करने वाले राजनेताओं को सजा मिलेगी। दिवंगत हास्य कवि काका हाथरसी कहा करते थे -क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।


चुनाव में धन चाहिए। धन बड़े धनाढ्य ही दे सकते हैं। बड़ा धनाढ्य बैंकों के बड़े कर्जे मारकर और भारी मात्रा में कर चोरी करके ही बना जाता है। ऐसे सभी बड़े धनाढ्य चाहते हैं कि सरकार में वो लोग महत्वपूर्ण पदों पर रहें जो उनके हित साधने वाले हों। ऐसे लोग वही होंगे जो भ्रष्ट होंगे। यह एक विषमचक्र है, जिसमें हर राजनेता फँसा है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति को परमत्यागी होना पड़ेगा। आज के राजनेता भोग के मामले में राज परिवारों को पीछे छोड़ चुके हैं। न तो वे त्याग करने को तैयार हैं और न ही अपने सुख पर कोई आंच आने देना चाहते हैं इसलिए उनमें जोखिम उठाने की क्षमता भी नहीं हैं। बिना जोखिम उठाए ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए भ्रष्टाचार का प्रत्येक मामला पानी के बुलबुले की तरह उठता है और फूट जाता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

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