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Monday, December 11, 2023

ईवीएम पर रोने से क्या होगा?


यह सही है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे चौकने वाले आए हैं। क्योंकि इन दोनों राज्यों में पिछले कुछ महीनों से हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही थी। इसलिये सारा विपक्ष हैरान है और हतोत्साहित भी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और कमल नाथ इन परिणामों के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और चुनाव आयोग को दोषी ठहरा रहे हैं। अपने सैंकड़ों आरोपों के समर्थन में इन नेताओं के कार्यकर्ता तमाम साक्ष्य जुटा चुके हैं। इसी चुनाव में मध्य प्रदेश में डाक से आये मत पत्रों में 171 विधानसभाओं में कांग्रेस जीत रही है यह सूचना चुनाव आयोग के रिकॉर्ड से पता चली है। फिर मध्य प्रदेश में कांग्रेस कैसे हार गई। जिस इलाके के सारे मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था वो भी ये देखकर हैरान हैं कि उनके इलाके से भाजपा को इतने वोट कैसे मिल गये। ऐसे तमाम प्रमाणों को लेकर मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ता अपना संघर्ष जारी रखेंगे। ये बात दूसरी है कि चुनाव आयोग उनकी बात पर गौर करेगा या नहीं। जबकि भाजपा इन नतीजों से न केवल अतिउत्साहित है बल्कि विपक्ष की हताशा को वो ‘खिसयानी बिल्ली खम्बा नौचे’ बता रही है।  


पहले बात ईवीएम की कर लें 



बीते कुछ चुनावों में, देश के अलग अलग प्रान्तों में, यह देखा गया है कि इलाक़े की जनता की भारी नाराज़गी के बावजूद वहाँ के मौजूदा विधायक या सांसद ने पिछले चुनावों के मुक़ाबले काफ़ी अधिक संख्या से जीत हासिल की। ऐसे में चुनावी मशीनरी पर सवाल खड़े होना ज़ाहिर सी बात है। जो भी नेता हारता है वो ईवीएम या चुनावी मशीनरी को दोषी ठहराता है।  



ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ही ईवीएम की गड़बड़ी या उससे छेड़-छाड़ का आरोप लगाते आए हैं। इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जहां हर प्रमुख दलों के नेताओं ने कई चुनावों के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। चुनाव आयोग की बात करें तो वो इन आरोपों का शुरू से ही खंडन कर रहा है। आयोग के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। 1998 में दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा की कुछ सीटों पर ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। परंतु 2004 के आम चुनावों में पहली बार हर संसदीय क्षेत्र में ईवीएम का पूरी तरह से इस्तेमाल हुआ। 2009 के चुनावी नतीजों के बाद इसमें गड़बड़ी का आरोप भाजपा द्वारा लगा। ग़ौरतलब है कि दुनिया के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ परंतु ख़ास बात यह है कि अधिकतर देशों ने इसमें गड़बड़ी कि शिकायत के बाद वापस बैलट पेपर के ज़रिये ही चुनाव किये जाने लगे। अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे विकसित देश जिनकी टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस है और जिन देशों में मानव संसाधन की कमी है उन देशों ने भी ईवीएम को नकार दिया है। इन सब देशों में चुनाव मत पत्रों के द्वारा ही कराये जाते हैं।


विपक्षी दल क्या करें ?



किसी भी समस्या की शिकायत करने से उसका हल नहीं होता। शिकायत के साथ समाधान का सुझाव भी दिया जाए तो उस पर चुनाव आयोग को गौर करना चाहिए। इस विवाद को हल करने के दो ही तरीके हैं एक तो यह कि बांग्लादेश की तरह सभी विपक्षी दल एक जुट होकर ईवीएम का बहिष्कार करें और चुनाव आयोग को मत पत्रों से ही चुनाव कराये जाने के लिए बाध्य करें। दूसरा विकल्प यह है कि चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था करे कि ईवीएम से निकलने वाली VVPAT की एक पर्ची को मतदाता को दे दिया जाए और दूसरी पर्ची को उसी पोलिंग बूथ में रखी मत पेटी में डलवा दिया जाये। मतगणना के समय ईवीएम और मत पत्रों की गणना साथ-साथ हो। ऐसा करने से यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा। साथ ही भविष्य में कोई दल सत्तारूढ़ दल पर चुनावों में धांधली की शिकायत नहीं कर पायेगा।


जब भी कभी कोई प्रतियोगिता होती है तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएँ इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है। आयोजक इस बात पर ख़ास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे। इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को कोई सुझाव दिये जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगें तो उसे स्वीकार लेते हैं। ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगता। ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं। उसके आयोजक यानी चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों को खुले दिमाग़ से और निष्पक्षता से लेना चाहिए।  चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करता। 


चुनाव लोकतंत्र की नींव होते हैं। किसी देश का भविष्य चुनाव में जीतने वाले दल के हाथ में होता है। चाहें उसे कुल मतदाताओं के एक तिहाई ही मत क्यों न मिले हों। पर उसकी नीतियों का असर सौ फीसदी मतदाताओं और उनके परिवारों पर पड़ता है। इसलिए चुनाव आयोग का हर काम निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए। हमारा संविधान भी चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष किये जाने के निर्देश देता है। 1990 से पहले देश के आम मतदाता को चुनाव आयोग जैसी किसी संस्था के अस्तित्व का पता नहीं था। उन वर्षों में धीरे-धीरे चुनावों के दौरान हिंसा, फर्जी मतदान और माफ़ियागिरी का प्रभाव तेजी से बढ़ गया था। उस समय मैंने अपनी कालचक्र विडियो मैगजीन में एक दमदार टीवी रिपोर्ट बनाई थी, ‘क्या भारत पर माफ़िया राज करेगा?’ पर 1990 में टी एन शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें तो उन्होंने कड़ा डंडा चलाकर चुनावों में भारी सुधार कर दिया था। तब उन्होंने सत्तापक्ष को भी कोई रियायत नहीं दी। पर चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में भारत का चुनाव आयोग लगातार विवादों में रहा है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को भी टी एन शेषन की जरुरत महसूस हुई। ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी छवि सुधारकर संदेह से परे होना चाहिए। 

Monday, October 2, 2023

आयाराम-गयाराम की बेला

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनैतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। तीस बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद दो ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़ना तय किया है उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।



उधर भाजपा का अपने सहयोगी दलों को रोक कर रखना मुश्किल होता जा रहा है। चंद्रबाबु नायडू के बाद एडीएमके का एनडीए से अलग होना बताता है कि एनडीए ख़ेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। अब देखना होगा कि बीजेपी क्या रणनीति तय करती है। जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधान सभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ़ नज़र आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि आखिर इसकी ज़रूरत क्यों आन पड़ी? 


भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जानता खड़ी है और माहौल इतना ज़बरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जानता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाये? 



लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी घटना है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता। पिछले कुछ महीनों के विधान सभाओं के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा ने जिस कदर बड़े से बड़े स्टार नेताओं और प्रचारकों की फ़ौज लगाई थी, राज्यों के चुनावों में उसके मुताबिक़ नतीजे नहीं आए। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहाँ से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे  या वो भी राजनैतिक ख़ेमा बदल सकते हैं? 


विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो ग़ैर भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के ख़िलाफ़ मुश्किल ज़रूर खड़ी कर सकते हैं। 



ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी क़ायम है। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। इसलिये ऐसा माहौल बनाये रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। 


सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एनडीए गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाएगा। कितना ? इसका अंदाज़ा आनेवाले पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से भी लग जाएगा।  भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी। इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे। यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएँ। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं।


कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुविकरण की शुरुआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ। उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है। जब तक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता। इसीलिए आने वाले समय में भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती।


वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश ये ही स्थिति है। विभिन्न विपक्षी दलों ने बीजेपी से भिड़ने को अपना हिसाब भेजने का मन बना लिया है। लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया धीमी पड़ सकती है। खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है। आने वाले हफ़्तों में चुनावी रंग और ज़ोर से जमेगा। 

Monday, July 24, 2023

बज गयी 2024 की रणभेरी


पक्ष और विपक्ष अपने-अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल तैयार करने में जुट गये हैं। दिल्ली और बैंगलुरु में दोनों पक्षों ने अपना अपना कुनबा जोड़ा है। जहां नए बने संगठन ‘इंडिया’ में 25 दल शामिल हुए हैं वहीं एनडीए 39 दलों के साथ आने का दावा कर रहा है। अगर इन दावों की गहराई में पड़ताल करें तो बड़ी रोचक तस्वीर सामने आती है। 


पिछले चुनाव में एनडीए में अब शामिल हुए इन 39 दलों को मिले वोट जोड़ें तो इस गठबंधन को देश भर में 23 से 24 करोड़ के बीच वोट मिले थे। जबकि ‘इंडिया’ के मौजूदा गठबंधन को 26 करोड़ वोट मिले थे। पर ये वोट इतने सारे दलों में आपसी मुक़ाबले के कारण बंट गये। जिससे इनकी हार हुई। अगर ये गठबंधन ईडी, सीबीआई व आईटी की धमकियों के बावजूद एकजुट बना रहता है और मुक़ाबला आमने-सामने का होता है तो जो परिणाम आयेंगे वो स्पष्ट हैं। 


दूसरा पक्ष ये है कि जहां एनडीए आज 60 करोड़ भारतीयों पर राज कर रही है वहीं ‘इंडिया’ संगठन 80 करोड़ भारतीयों पर आज राज कर रहा है और इसके शासित राज्य भी एनडीए से कहीं ज्यादा हैं। 



जहां तक परिवारवाद का आरोप है तो दोनों संगठनों में परिवारवाद प्रबल और समान है। अंतर ये है कि जहां एनडीए में शामिल 39 दलों में परिवारवादी नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर दल ऐसे हैं जिनमें एक भी विधायक तक नहीं है। जबकि ‘इंडिया’ संगठन में जो परिवारवाद है उसके सदस्य दशकों तक राज्यों का शासन चलाने के अनुभवी और बड़े जनाधार वाले नेता हैं। जहां बीजेपी के नेताओं ने शुरू में दावा किया था कि वो कांग्रेस मुक्त भारत बनायेंगे वहाँ आज एनडीए स्वयं ही कांग्रेसयुक्त संगठन बन चुका है। जिसमें कई केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री वो हैं जो कांग्रेस के स्थापित नेता थे पर ईडी, सीबीआई की धमकियों से डरकर बीजेपी में शामिल हुए हैं।


आने वाले चुनाव में जहां ‘इंडिया’ संगठन को टिकट बाँटने में कम दिक़्क़त आएगी क्योंकि उनके सब दावेदार जनाधार वाले हैं और कई चुनाव जीत चुके हैं। वे वहीं से लें टिकट। अलबत्ता उन्हें अपने अहम और महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। जबकि एनडीए में शामिल ज़्यादातर दल ऐसे हैं जो आजतक एक विधायक का चुनाव भी नहीं जीते पर अब लोकसभा के लिये ये सभी अपनी औक़ात से ज्यादा टिकट माँगेंगे। तब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। 



बीजेपी का जो इतिहास रहा है कि शिव सेना जैसे जितने भी दलों ने उसका साथ दिया उन सबको बीजेपी ने या तो अपमानित किया या उनको हड़प ही गयी। ऐसे में अबकी बार फिर से एनडीए में शामिल हुए दल हमेशा अपना अस्तित्व खोने के डर से ग्रस्त रहेंगे। उन्हें इस बात का भी सामना करना पड़ेगा कि आरएसएस उन्हें अपने रंग में रंगने का भरपूर प्रयास करेगा। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो ‘इंडिया’ संगठन के बनने से बीजेपी और एनडीए संगठन के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। जिसको देखकर अब 2024 का चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है।


जिस तरह भाजपा को विपक्ष के ‘इंडिया’ नाम के संगठन से आपत्ति हो रही है उसका असल कारण विपक्ष की एकजुटता है। वरना जब दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की एक क्षेत्रीय पार्टी ने अपना नाम बदल कर उसे ‘भारत राष्ट्र समिति’ कर दिया तो भाजपा या एनडीए के किसी भी सहयोगी दल ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। इस विपक्षी एकजुटता को भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक गंभीर चुनौती मान रही है। 


जब 2014 में मोदी जी लोकसभा चुनावी मैदान में उतरे थे तब ऐसी कोई भी चुनौती उनके सामने नहीं थी। ‘इंडिया’ संगठन बनने के बाद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विपक्षी दल ना सिर्फ़ एकजुट होते दिखाई दे रहे हैं बल्कि एनडीए के ख़िलाफ़ युद्ध करने को चुनावी बिगुल बजा रहे  हैं। 



भाजपा के कुछ नेता ‘इंडिया’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम को लेकर भी काफ़ी असहज दिखाई दिये हैं। इतना असहज कि इंडिया नाम को अंग्रेजों की देन बता कर उसका विरोध भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर से भी इंडिया को हटा कर भारत रख दिया है। विपक्ष ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यदि इंडिया नाम से इतनी आपत्ति है तो क्या सरकार द्वारा चलाई जाने वाली उन सभी योजनाओं के नाम भी बदले जाएँगे जहां ‘इंडिया’ का उपयोग किया गया है? मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया व स्टैंड अप इंडिया आदि। क्या भाजपा अपने सोशल मीडिया हैंडल का नाम BJP4India को भी बदलेगी? यदि अन्य राजनैतिक पार्टियों के नाम को खंगाला जाए तो आपको ऐसी कई पार्टियाँ मिलेंगी जिनके नाम में भारत, भारतीय, इंडिया, इण्डियन शब्द अवश्य मिलेगा। तो फिर इस बेतुके विवाद को क्यों खड़ा किया जा रहा है? 


असल में भाजपा और एनडीए को जिस बात से अधिक परेशानी है, वो विपक्षी दलों का एक ऐसा ऐलान है जिसका सामना भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि विपक्षी नेताओं ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा और एनडीए के हर एक चुनावी प्रत्याशी के ख़िलाफ़ ‘इंडिया’ संगठन अपने सभी दलों का समर्थित एक प्रत्याशी ही उतारेंगे जो उस संसदीय क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होगा। ज़ाहिर सी बात है कि इससे विपक्षी दलों में बंटने वाले वोट एकजुट हो जाएँगे और भाजपा को काफ़ी नुक़सान हो सकता है। 

      

आगामी महीनों में चार राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। उनके परिणाम देश की दिशा तय करेंगे। उसके बाद भी लोक सभा चुनाव में जहां बीजेपी के नेता हिंदू मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण करवाने की हर संभव कोशिश करेंगे वहीं ‘इंडिया’ संगठन बेरोज़गारी, महंगाई, दलितों पर अत्याचार और समाज में बँटवारा कराने के आरोप लगाकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करेगा। विपक्ष मोदी जी से 2014 में किए गए वायदों के पूरा न होने पर भी पर सवाल करेगा। जबकि बीजेपी भारत को विश्व गुरु बनाने जैसे नारों से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। अब देखना ये होगा कि मतदाता किसकी तरफ़ झुकता है।

Monday, May 20, 2019

इस चुनाव से सबक

सारी दुनिया की निगाह 23 मई पर है। भारतीय लोकसभा के चुनावों के नतीजे कैसे आते हैं, इस पर आगे का माहौल बनेगा। अगर एनडीए की सरकार बनती है या अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो भी भारत की जनता शांति और विकास चाहेगी। इस बार का चुनाव जितना गंदा हुआ, उतना भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कभी नहीं हुआ। देश के बड़े-बड़े राजनेता बहुत छिछली भाषा पर उतर आऐ। जिसे जनता ने पसंद नहीं किया। जनता अपने नेता को शालीन, परिपक्व, दूरदर्शी और सभ्य देखना चाहती है।

इस चुनाव का पहला सबक ही होगा कि सभी दलों के बड़े नेता यह चिंतन करें कि उनके चुनाव प्रचार में कहीं कोई अभद्रता या छिंछोरापन तो नही दिखाई दिया। अगर उन्हें लगता है कि ऐसा हुआ, तो उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि वे भविष्य में ऐसा न करें।

भारत के चुनाव आयोग ने भी कोई प्रशंसनीय भूमिका नहीं निभाई। उसके निर्णंयों पर बार-बार विवाद खड़े हुए। इतना ही नहीं खुद आयोग के तीन में से एक सदस्य ही अपने बाकी दो साथियों के निर्णयों से सहमत नहीं रहे और उन्होंने अपने विरोध का सार्वजनिक प्रदर्शन किया।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा विवाद ईवीएम की विश्वसनीयता पर खड़े हुए। जहां एक तरफ भारत का चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों की पूरी गांरटी लेता रहा, वहीं विपक्ष लगातार ईवीएम में धांधली के आरोप लगाता रहा। आरटीआई के माध्यम से मुबंई के जागरूक नागरिक ने यह पता लगाया कि चुनाव आयोग के स्टॉक में से 22 लाख ईवीएम मशीनें गायब हैं। जबकि इनको बनाने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों ने इस दावे की पुष्टि की कि उन्होंने ये मशीने चुनाव आयोग को सप्लाई की थी। जाहिर है कि इस घोटाले ने पूरे देश को झकझोर दिया। विपक्षी दलों को भी चिंता होने लगी कि कहीं लापता ईवीएम मशीनों का दुरूप्योग करके फिर से भाजपा या एनडीए सत्ता में न आ जाऐ।

इसी आशंका के चलते सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया। पर अदालत ने विपक्षी दलों की बात नहीं मानी। अब तो 23 मई को ही पता चलेगा कि चुनाव निष्पक्ष हुए या धांधली से।

इस हफ्ते एक और खबर ने विपक्षी दलों की नींद उड़ा दी। हुआ यूं कि दिल्ली के एक मशहूर हिंदी पत्रकार ने यह लेख छापा कि हर हालत में 23 मई की रात को नरेन्द्र मोदी प्रधानमत्री पद की शपथ ले लेंगे, चाहे उनकी सीट कितनी ही कम क्यों न आऐं। इस खबर में यह भी बताया गया कि भाजपा के अध्यक्ष ने राष्ट्रपति भवन के वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत से 23 तारीख के हिसाब से लिखित खाना पूर्ति अभी से पूरी करके रख ली है। जिससे परिणाम घोषित होते ही नरेन्द्र मोदी को पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जा सके और फिर विश्वास मत प्राप्त करने के लिए राष्ट्रपति महोदय से लंबा समय मांग लिया जाऐ।

अगर ये खबर सच है, तो विपक्षी नेताओं का चिंतित होना लाज्मी है और शायद इसीलिए सब भागदौड़ करके एक बड़ा संगठन बनाने में जुट गऐ हैं। लेकिन अलग-अलग महत्वाकांक्षाऐं इन्हें बहुत दिनों तक एकसाथ नहीं रहने देंगी और तब हो सकता है कि देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पडे़। ऐसे में आम नागरिक बहुत असुरक्षित महसूस कर रहा है। उसे डर है कि अगर यही नाटक चलता रहा, तो रोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य इन पर कब ध्यान दिया जाऐगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनीति का ये सरकस चुनावों के बाद भी चलता रहेगा और जनता बदहवास ही रह जाए। अगर ऐसा हुआ, तो देश में हताशा फैलेगी और हिंसा और आतंक की घटनाऐं भी बढ़ सकती है।

राजनेताओं के भी हित में है कि वे जनता को भयमुक्त करे। उसे आश्वासन दें कि अब अगले चुनाव तक राजनीति नहीं, विकास की बात होगी। तब जाकर देश में अमन चैन कायम होगा।

भारत की महान सांस्कृति परंपरा राजा से ऋषि होने की अपेक्षा करती है। जो बड़ी सोच रखता हो और अपने विरोधियों को भी सम्मान देना जानता हो। जो बिना बदले की भावना के शासन चलाए। इसलिए प्रधानमंत्री कोई भी बने उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि उनका या उनके सहयोगियों का कोई भी आचरण समाज में डर या वैमनस्य पैदा न करे। चुनाव की कटुता को अब भूल जाना होगा और खुले दिल से सबको साथ लेकर विकास के बारे में गंभीर चिंतन करना होगा।

आज देश के सामने बहुत चुनौतियां है। करोड़ों नौजवान बेरोजगारी के कारण भटक रहे हैं। अर्थव्यवस्था धीमी पड़ी है। कारोबारी परेशान हैं। विकास की दर काफी नीचे आ चुकी है। ऐसे में नई सरकार को राजनैतिक हिसाब-किताब भूलकर समाज की दशा और दिशा सुधारनी होगी।

Monday, May 13, 2019

चुनाव का अंतिम दौर

अंतिम चरण का चुनाव बचा है। तस्वीर अभी भी साफ नहीं है। भक्तों को लगता है कि मोदी जी पूर्णं बहुमत लाकर फिर से प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। ऐसा लगता है मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने अरबों रूपया खर्च करके और हर हथकंडा अपनाकर लोगों की ब्रेन वॉशिंगकी है, तभी हकीकत और तर्क से बचकर मोदी भक्त उनके नाम की माला जप रहे हैं। मगर कुछ संकेत ऐसे हैं, जो उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। मसलन जिस काशी में घर-घर मोदीऔर हर-हर मोदीका शोर था। जहां मोदी के नामांकनऔर रोड शोपर हवाई जहाज से गुलाब की पंखुड़ियाँ मंगवाकर काशी की सड़को को पाट दिया गया, वहां भी आम आदमी काफी मुखर होकर मोदी की कमियां और वादा खिलाफी बता रहा है। ये बात दूसरी है कि सशक्त उम्मीदवार विरोध में न होने के कारण मोदी की जीत काशी से सुनिश्चित है। पर जिस काशी पर मोदी ने पूरी भारत सरकार को जुटा दिया, उस काशी के समझदार लोगों का खुलकर मोदी विरोध उनके दिल के दर्द को बयान करता है। साफ जाहिर कि मोदी की शोमैनशिप ने लोगों को दिगभ्रमित जरूर किया है, पर उनके दिलों को नहीं छू पाए। इसलिए राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी की जो हवा समाचार मीडिया और सोशल मीडिया के सहारे बड़े-बड़े पंखे लगवाकर बहाई जा रही है, उसका असर मतदान में नहीं दिखाई देगा। क्योंकि मतदान करते समय मतदाता एक बार यह सोचेगा जरूर कि मोदी ने 5 बरस पहले कितने सपने दिखाए थे और उसमें से उसे क्या हासिल हुआ।
प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों का प्रधानमंत्री कार्यालय को छोड़कर जाना साधारण घटना नहीं है। उन्होंने भी समय रहते, अपने दूसरे विकल्प के लिए रास्ता बनाने का काम शुरू कर दिया है। भारत सरकार के एक मंत्रालय के सचिव ने अपने अधीन कार्य करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों से कहा कि वे कांगे्रस का घोषणा पत्र पढना शुरू कर दें, क्योंकि जल्द ही उस पर काम करना पड़ेगा। भारत के अर्टोनी जनरल के साथ मोदी सरकार का मतभेद भी खुलकर सामने आ गया है। जिस तरह भारत के मुख्य न्यायधीश श्री रंजन गोगोई को महिला उत्पीड़न के मामले में बिना निष्पक्ष जांच के क्लीन चिटदे दी गई। उससे श्री केके वेणु गोपाल नाखुश हैं। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों से लिखकर अनुरोध किया था कि इस जांच समिति में बाहर के सदस्य भी होने चाहिए। वरना निष्पक्ष जांच नहीं हो पाऐगी। उनकी सुनीं नहीं गई और इसलिए वे मोदी सरकार से पल्ला झाड़ने का संकेत दे चुके हैं।
2014 के चुनाव में अरूण शौरी, राजेश जैन जैसे अनेक दिग्गज मोदी के साथ हर मंच पर खड़े थे। पर इस बार ये सब मोदी के मंच से नदारद् हैं। या तो मोदी को अपने अलावा किसी और की जरूरत नहीं महसूस होती या वे अपने हर शुभ चिंतक को इस्तेमाल करके पटकने में कोई संकोच नहीं करते। इस मामले में मोदी और केजरीवाल दोनों एक जैसे हैं। जिनके कंधों पर पैर रखकर चढे, उनके कंधे ही तोड़ दो, तो फिर चुनौती कौन देगा?
सट्टा बाजार और शेयर मार्केट का रूख भी मोदी की हवा के विरूद्ध है। इतना ही नहीं मोदी द्वारा नियुक्त किये गए, तीनों चुनाव आयुक्तों में से एक ने मोदी के खिलाफ फैसला दिया है। इन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का कहना है कि अगर नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में चुनावी आचार्य संहिता का उल्लंघ्न किया है, तो उन्हें भी सजा दी जानी चाहिए।
अगर विपक्षी दलों के स्थाई रूप से समर्थक एकजुट हैं, तो फिर भाजपा उन्हें कैसे हरा पाऐगी? जबकि महागठबंधन की खासियत ही यही है कि उनके समर्पित वोट टस से मस नहीं हुआ करते, जोकि 2014 में हिल गये थे।
एक और बात सुनने में आई है कि अमित शाह ने 80 सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दी है, जिनका न तो उस क्षेत्र में कोई योगदान है और न ही कोई पहचान। ये सब वे लोग बताए जाते है, जो अमित शाह की गणेश प्रदक्षिणा करते आऐ हैं। इसलिए राजनैतिक विश्लेषकों का अंदाजा है कि इनमें से 85 फीसदी उम्मीदवार चुनाव हार जाऐंगे।
दूसरी तरफ भाजपा और संघ के खेमे में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई। भाजपा के महासचिव राम माधव का यह कहना कि भाजपा को सरकार बनाने के लिए अनेक सहयोगी दलों की जरूरत पड़ेगी, इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि खुद भाजपा का नेतृत्व अपनी जमीन हिलती हुई देख रहा है। अलबत्ता विपक्षी दलों को इस बात का अंदेशा जरूर है कि अगर ईवीएम की मशीनों में घपला किया गया, तो मोदी फिर से रिकॉर्ड जीत हासिल कर लेंगे। इसी शंका को दूर करने के लिए सभी विपक्षी दल गुहार लगाने सर्वोच्च न्यायालय गऐ थे और उससे मांग की थी कि आधी मशीनों का पर्चियों से मिलान किया जाऐ, जिससे घपले की गुंजाईश न रहे। पर सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी यह महत्वपूर्णं मांग ठुकरा दी। इसलिए विपक्षी खेमों में आशंका बनी हुई है कि कहीं ईवीएम की मशीनों से खिलवाड़ न हो जाऐ।
नाई नाई बाल कितने-जजमान अभी आगे आ जाऐंगे। अब अटकल लगाने का समय बीत गया। 23 मई पास ही है। जब इस चुनाव के नतीजे सामने आ जाऐेंगे। तब तक मतदाता और राजनेताओं के बीच इस तरह की चिंताऐं व्यक्त की जाती रहेंगी।

Monday, April 1, 2019

कैसे सुधरेगी राजनीति की दशा ?


लोकसभा के चुनावों का माहौल है। हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है। जो बड़े और धनी दल है, वे प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं, जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रूपये लेकर टिकट बेचते हैं। पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रूपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है। जबकि भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रूपये निर्धारित की गई है। प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर रहकर चुनाव लड़े, इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्र में तीन पर्यवेक्षक भी तैनात करता है। जो मूलतः भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते हैं, जो दूसरे प्रांतों से भेजे जाते हैं। चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है। बावजूद इसके नियमों की धज्जियाँ धड़ल्ले से उड़ाई जाती हैं।

इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता। क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रूपये उसके पास कभी होंगे ही नहीं। अगर वह व्र्यिक्त यह रूपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं। वे या तो बड़े उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया। क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुऐ में लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती। ये बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं हैं। किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता। जो सत्ता में होता है, उसकी विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रूकावट न आए। जाहिर है कि इन बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं होती है। तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं बल्कि विनियोग (इनवेस्ट) किया जाता है। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है कि जिसमें लाभ कमाया जाए। तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?

उत्तर सरल है। जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दाव लगाया जाता है, उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है, कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे। इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जा-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं। जिनमें से अधिकतर काम नाजायज होते हैं और दूसरों का हक मारकर करवाए जाते हैं। इस तरह चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता। चुनावों के दौरान यह आमतौर पर सुनने को मिलता है कि वोट मांगने वाले पांच साल में एक बार मुंह दिखाते हैं। इतना ही नहीं जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसे वालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है, तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो जाती है। जिससे वह अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके। इस तरह अवैध धन लगाने और कमाने का धंधा अनवरत् चलता रहता है। इस चक्की में पिसता है बेचारा आम मतदाता। जिसे आश्वासनों के अलावा शायद ही कभी कुछ मिलता हो। इसीलिए जहां दुनिया के तमाम देश पिछले दशकों में विकास की ऊचाईयों पर पहुंच गऐ, वहीं हमारा आम मतदाता आज आजादी के 72 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए बेज़ार है।

1994-96 के बीच भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों से देश के नेताओं को चुनाव आयोग की हैसियत और ताकत का अंदाजा लगवा दिया था। चूंकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में मैं भी उनका हर दिन साथी रहा, इसलिए एक-एक कदम जो उन्होंने उठाया, उसमें मेरी भी भूमिका रही। उन्होंने चुनाव सुधारों के लिए एक समानान्तर संस्था देशभक्त ट्रस्टभी पंजीकृत करवाया था, जिसके ट्रस्टी वे स्वयं, उनकी पत्नी श्रीमती जया शेषन, मैं व रोज़ा फिल्म की निर्माता वांसती जी थीं। इस ट्रस्ट का संचालन मेरे दिल्ली कार्यालय से ही होता था। उस दौरान श्री शेषन व मैं साथ-साथ चुनाव सुधारों पर विशाल जनसभाए संबोधित करने देश के हर कोने में हफ्ते में कई बार जाते थे और लोगों को राजनैतिक व्यवस्था सुधारने के इस महायज्ञ में सहयोग करने की अपील करते थे।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन सुधारों को उस समय चुनाव आयोग ने भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद को भेजा था उनको संसद की बहसों में उनको काफी कमजोर कर दिया। फिर भी इतना जरूर हुआ कि चुनाव करवाने में जो हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और गुंडागर्दी होती थी, वो लगभग समाप्त हो गई। इसलिए देश आज भी श्री शेषन के योगदान को याद रखता है। पर चुनावों में कालेधन के व्यापक प्रयोग पर रोक नहीं लग पाई। शायद हमारे माननीय सांसद इस रोक के पक्ष में नहीं हैं। यही कारण है कि हर चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है। मतदाता बेचारा निरीह होकर खुद को लुटता देखता है और थाने, कचहरी के विवादों में अपने नेता की मदद से ही संतुष्ट हो जाता है, विकास की बात तो शायद ही कहीं होती हो।

Monday, December 24, 2018

राज्यसभा की याचिका समिति करे कार्यवाही

राज्यसभा का सदस्य भारतीय राजनीति का सबसे वरिष्ठ और परिपक्व व्यक्तित्व होना चाहिए। क्योंकि भारत के लोकतंत्र में इससे बड़ी कोई विधायिका नहीं है। अगर राज्यसभा का कोई सदस्य झूठ बोले, भारत के नागरिकों को धमकाऐ और राज्यसभा द्वारा प्रदत्त सरकारी स्टेशनरी का दुरूपयोग इन सब अवैध कामों के लिए करें, तो क्या उस पर कोई कानून लागू नहीं होता है? कानून के तहत ऐसा करने वाले पर बाकायदा आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है और उसे 2 वर्ष तक की सजा भी हो सकती है। पर इससे पहले की कोई कानूनी कार्यवाही की जाऐ, राज्यसभा की अपनी ही एक ‘याचिका समिति’ होती है। जिसके 7 सदस्य हैं। इस समिति से शिकायत करके दोषी सदस्य के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है।
पिछले दिनों ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर ने इस समिति के सातों सदस्यों को और राज्यसभा के सभापति व भारत के माननीय उपराष्ट्रपति श्री एम. वैंकेया नायडू जी को एक लिखित प्रतिवेदन भेजकर राज्यसभा के सदस्य डा. सुब्रमनियन स्वामी के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की मांग की।
जून 2018 में रजनीश कपूर ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर प्रवर्तन निदेशालय के उपनिदेशक राजेश्वर सिंह की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच की मांग की थी। क्योंकि सत्ता के गलियारों में छोटे से पद पर तैनात द्वितीय श्रेणी के इस अधिकारी का संपर्क जाल और कारोबार दूर-दूर तक फैला हुआ है, ऐसी बहुत शिकायतें आ रही थी। सर्वोच्च न्यायालय ने रजनीश कपूर की याचिका को गंभीरता से लेते हुए, इस जांच के आदेश दे दिए। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के कैबिनेट सचिव की ओर से भी एक गोपनीय दस्तावेज भेजकर अदालत में रजनीश कपूर की याचिका का समर्थन किया गया था।
इस पहल से भाजपा के राज्यसभा सांसद और विवादास्पद डा. सुब्रमनियन स्वामी तिलमिला गऐ और उन्होंने रजनीश कपूर को डराने के मकसद से अपनी सरकारी स्टेशनरी का दुरूपयोग करते हुए, एक पत्र भेजा। जिसमें लिखा था कि, ‘उन्हें अदालत ने आदेश दिया है कि वे श्री कपूर सूचित करे और उनका अदालत में उपस्थित रहना सुनिश्चित करे।’ यह सरासर झूठ था। न तो सर्वोच्च अदालत ने श्री कपूर के लिए ऐसा कोई आदेश दिया था और न ही डा. स्वामी से ऐसा करने को कहा था। गाहे-बगाहे हरेक के काम में टांग अड़ाने वाले डा. स्वामी ने ये पत्र राज्यसभा की सरकारी स्टेशनरी पर भेजा था। जबकि अदालत में वे राजेश्वर सिंह के पक्ष में निजी हैसियत से खड़े हुए थे। उसका राज्यसभा से कोई लेनादेना नहीं था। इस तरह यह पत्र सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग की श्रेणी में आता है। जिसका उद्देश्य श्री कपूर को धमकाना था। इसके पहले भी डा. स्वामी मुझे और रजनीश को इस मामले से हट जाने के लिए दबाव डाल रहे थे।
यह रोचक बात है कि एक द्वितीय श्रेणी के अधिकारी, जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप हो, उसकी मदद के लिए राज्यसभा के सांसद डा. स्वामी क्यों इतने बैचेन थे? इस मामले में जो तथ्य प्रकाश में आऐ हैं, वे किसी भी कानूनप्रिय नागरिक को विचलित करने के लिए काफी है।
इन घटनाओं के बाद श्री कपूर ने उपराष्ट्रपति व राज्ससभा की याचिका समिति को उक्त प्रतिवेदन भेजा है। जिसमें उन्हें घटनाओं ब्यौरा देते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के उस दिन के आदेश की प्रति व डा. स्वामी के पत्र की प्रति संलग्न की है। जिससे कि समिति के माननीय सदस्य स्वयं देख लें कि डा. स्वामी ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को किस तरह तोड-मरोड़कर रजनीश कपूर को धमकाने के उद्देश्य से भेजा और इसके लिए राज्यसभा की स्टेशनरी का दुरूपयोग किया। जोकि सीधा-सीधा कानूनन अपराध है।
अब ये राज्यसभा समिति के सदस्यों के ऊपर है कि वे कितनी जल्दी इस याचिका पर अपना निर्णंय देते हैं। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि डा. स्वामी राजनैतिक पाले बदलने में माहिर हैं। ये सारा देश जानता है। कभी वो राजीव गांधी के साथ खड़े होते हैं। तो फिर कभी उन्हें धोखा देकर अटलबिहारी बाजपेयी के साथ आ जाते हैं। फिर उन्हीं अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार गिराने में जयललिता का साथ लेते हैं। फिर उन्हीं जयललिता के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। बाबरी मस्ज़िद गिरने पर डॉ स्वामी ने देशभर में बयान दिये थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे़ सभी संगठनों को आतंकवादी घोषित कर प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने चुनाव आयोग से लिखकर मांग की थी कि भाजपा की मान्यता रद्द कर देनी चाहिए। आज वे राम मंदिर के अगुआ बनकर भोले-भाले धर्मप्रेमियों को भ्रमित कर रहे हैं। कहाँ तो वे स्वयं को मोदी जी का शुभचिंतक बताते हैं और कहां वे रोज़ मोदी जी के नियुक्त अधिकारियों को रोजाना भृष्ट घोषित करते रहते हैं। वैसे अपने राजनैतिक दल ‘जनता पार्टी’ के उपाध्यक्ष पद पर 7 वर्ष तक उन्होंने विवादास्पद  विजय माल्या को पदासीन रखा था। विवादास्पद तांत्रिक चंद्रास्वामी और हथियारों के कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी अदनान खशोगी  के भी वे घनिष्ठ मित्र रहे हैं। राजीव गांधी हत्या कांड में चंद्रास्वामी व डा. सुब्रमनियन स्वामी की संलिप्तता की सच्चाई्र जानने वाली जांच अभी तक नहीं हुई है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध स्वयं को मसीहा घोषित करने वाले डा. स्वामी अपनी जनता पार्टी में काले धन को कैसे जमा करते आऐ हैं, इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय कड़ी टिप्पणी कर चुका है। इसलिए राज्यसभा की याचिका समिति के माननीय सदस्यों को इस बे-लगाम घोड़े की लगाम कसने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।