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Monday, March 11, 2024

अखिलेश यादव क्यों हैं सबसे अलग ?


कुछ वर्ष पहले जब मैंने अपने इसी कॉलम में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए ममता दीदी के सादगी भरे जीवन पर लेख लिखा था तो एक ख़ास क़िस्म की मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने मुझे ट्विटर (अब एक्स) पर गरियाने का प्रयास किया। पिछले हफ़्ते जब मैंने संदेशख़ाली की घटनाओं के संदर्भ में ममता बनर्जी की कड़ी आलोचना की तो उन लोगों में ये नैतिक साहस नहीं हुआ कि एक्स पर लिखें मान गये कि आप निष्पक्ष पत्रकार हैं। 


इसी तरह 2003 में जब मैंने सोनिया गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए एक लेख लिखा था जिसमें दोनों के गुण दोषों का ज़िक्र था तो कुछ मित्रों ने पूछा तुम किस तरफ़ हो ये समझ में नहीं आता। मैंने पलटकर पूछा कि क्या कोई पत्रकार बिना तरफ़दारी के अपनी समझ से सीधा खड़ा नहीं रह सकता? क्या उसका एक तरफ़ झुकना अनिवार्य है? 



आज के हालात ऐसे ही हो गए हैं जिनमें विरला ही होगा जो बिना झुके खड़ा रहे। प्रायः सब अपने-अपने आकाओं के आँचल की छाँव में फल-फूल रहे हैं। जनता का दुख-दर्द, लिखे जा रहे तर्कों की प्रामाणिकता, पत्रकारिता में निष्पक्षता, सब गयी भाड़ में। अब तो पत्रकारिता का धर्म है कि अपना मुनाफ़ा क्या लिखने या बोलने में है, उसे बिना झिझके एलानिया करो। 


दरअसल हर लेख की विषय वस्तु के अनुसार उसके समर्थन में संदर्भ खोजे जाते हैं। किसी एक लेख में हर व्यक्ति की हर बात का इतिहास लिखना मूर्खता है। ये सब भूमिका इसलिए कि आज मैं राजनैतिक लोगों के बिगड़ते बोलों पर चर्चा करूँगा। तो कुछ सिरफिरे कहेंगे कि मैं फ़लाँ के भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं लिख रहा। तो क्या ऐसे लोग बता सकते हैं कि आज देश का कौनसा बड़ा नेता या राजनैतिक दल है जो आकंठ भ्रष्टाचार में नहीं डूबा? या देश में कौनसा नेता है जो अपने दल की आय-व्यय का ब्यौरा देश के सामने खुलकर रखने में हिचकिचाता नहीं है? 


आज का लेख इन नेताओं और इनके कार्यकर्ताओं की भाषा पर केंद्रित है जो दिनोंदिन रसातल में जा रही है। अब तो कुछ सांसद संसद के सत्र तक में हर मर्यादा का खुलकर उल्लंघन करने लगे हैं। उनकी भाषा गली मौहल्ले से भी गयी बीती हो गयी है। सोचिए देश के करोड़ों बच्चों, युवाओं और बाक़ी देशवासियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? 



ग़नीमत है ऐसे कुछ सांसदों के टिकट इस बार कट रहे हैं। पर इतना काफ़ी नहीं है। हर दल के नेताओं को इस गिरते स्तर को उठाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। अपने कार्यकर्ताओं और ‘ट्रोल आर्मीज़’ को राजनैतिक विमर्श में संयत भाषा का प्रयोग करने के कड़े आदेश देने होंगे। ऐसा नैतिक साहस वही नेता दिखा सकता है जिसकी  ख़ुद की भाषा में संयम हो।  


इस संदर्भ में मैं अखिलेश यादव के आचरण का उल्लेख करना चाहूँगा। मेरी नज़र में अपनी कम आयु के बावजूद जिस तरह का परिपक्व आचरण व विरोधियों के प्रति भी संयत और सम्माजनक भाषा का प्रयोग अखिलेश यादव करते हैं ऐसे उदाहरण देश की राजनीति में कम ही मिलेंगे। 



मेरा अखिलेश यादव से परिचय 2012 में हुआ था जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने। मैं मथुरा के विकास के संदर्भ में उनसे मिलने गया था। ब्रज सजाने के लिए उनका उत्साह और तुरंत सक्रियता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मथुरा की हमारी सांसद हेमा मालिनी तक अखिलेश के इस व्यवहार की मुरीद हैं। 2012 से आज तक मैंने अखिलेश यादव के मुँह से कभी भी किसी के भी प्रति न तो अपमानजनक भाषा सुनीं न उन्हें किसी की निंदा करते हुए सुना। विरोधियों को भी सम्मान देना और उनके सही कामों को तत्परता से करना अखिलेश यादव की एक ऐसी विशेषता है जो उनके क़द को बहुत बड़ा बना देती है। 


कई बार कुंठित या चारण क़िस्म की पत्रकारिता करने वाले टीवी एंकर अखिलेश यादव को उकसाने की बहुत कोशिश करते हैं। पर वो बड़ी शालीनता से उस स्थिति को सम्भाल लेते हैं। क्या आज हर दल और नेता को इससे कुछ सीखना नहीं चाहिए? सोचिए अगर ऐसा हो तो उससे देश का राजनैतिक माहौल कितना ख़ुशगवार बन जाएगा। टीवी शो हों या सोशल मीडिया आज हर जगह गाली-गलौज की भाषा सुन-सुनकर देशवासी पक गये हैं।


अखिलेश यादव जैसे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को जो लोग बात-बात पर टोंटी चोर कहकर अपमानित करते हैं उन्हें अपने दल के नेताओं के भी आचरण और कारनामों को भूलना नहीं चाहिए। कोई दूध का धुला नहीं है। टोंटी चोर, फेंकू, जुमलेबाज़, चारा चोर, पप्पू - ऐसी सब भाषा अब इस चुनाव की राजनीति में बंद होनी चाहिए। इस भाषा से ऐसा बोलनेवालों का केवल छिछोरापन दिखाए देता है और देश के सामने मौजूद गंभीर विषयों से ध्यान हट जाता है। कौन सा नेता या दल कितने पानी में ये जनता सब जानती है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें वो वोट देती हैं उन्हें वो पाक साफ़ मानती है। उन्हें वोट देने के उसके कई दूसरे कारण भी होते हैं। इसलिए ज़्यादा वोट पाकर चुनाव जीतने वाले को अपने महान होने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। क्योंकि किसी और को पता हो न हो अपनी असलियत उससे तो कभी छिपी नहीं होती। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि सारी सृष्टि प्रकृति के तीन गुणों: सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से नियंत्रित है। जिसका कोई भी अपवाद नहीं। हाँ कौन सा गुण किसमें अधिक या क़िसमें कम है, ये अंतर ज़रूर रहता है। पर तमोगुण से रहित तो केवल विरक्त संत या भगवान ही हो सकते हैं, हम और आप नहीं। राजनेता तो कभी हो ही नहीं सकते। क्योंकि राजनीति तो है ही काजल की कोठरी उसमें से उजला कौन निकल पाया है?इसलिए कहता हूँ भाषा सुधारो-देश सुधरेगा। क्यों ठीक है न? 

Monday, October 10, 2022

मुलायम सिंह यादव के लिए उमड़ा जन सैलाब



पिछले कुछ दिनों से उत्तर भारत के समाजवादियों का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में हुजूम उमड़ रहा है। ये सब समाजवादी पार्टी के नेता और राम मनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव की गिरती सेहत से परेशान हैं। चूँकि अस्पताल में इस तरह की भीड़ को प्रवेश नहीं दिया जाता इसलिए ये सब चाहने वाले नई दिल्ली के पंडारा पार्क में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के घर के बाहर भीड़ लगाए हुए हैं। इस नाज़ुक मौक़े पर अखिलेश थके होने के बावजूद हर आनेवाले से मिल रहे हैं और उन्हें सांत्वना दे रहे हैं। सबसे ज़्यादा व्याकुल तो उत्तर प्रदेश के हज़ारों गावों के वो लोग हैं जो गुरुग्राम तक आ नहीं सकते इसलिए स्थानीय नेताओं के घर जमा हो कर उनसे बार-बार ‘नेताजी’ का हाल पूछ रहे हैं। ‘नेताजी’ की सेहत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इससे उनके प्रेमियों में हताशा फैली है। जैसा आमतौर पर किसी मशहूर हस्ती के चाहने वाले ऐसे समय में करते हैं वैसे ही ‘नेताजी’ के प्रेमी भी अपने-अपने धर्म और आस्था के अनुसार स्वास्थ्य की कामना लेकर धार्मिक अनुष्ठान या प्रार्थना कर रहे हैं। 


जो कुछ मैंने अभी तक लिखा उसमें नया कुछ भी नहीं है। ये सब समाचारों के माध्यम से सबको पता है। जब भी देश का कोई बड़ा और लोकप्रिय नेता गम्भीर रूप से बीमार होता है या उसका देहावसान होता है तब-तब उसके चाहने वालों की ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है। फिर इस लेख को लिखने का उद्देश्य क्या है? दरअसल, आज राजनीति जिस दौर में पहुँच गई है उसमें ऐसी लोकप्रियता अब कुछ गिनें चुने नेताओं की ही बची है। वरना तो तमाम नेता ऐसे हैं कि जब वे दुनिया से जाते हैं तो लोगों की हमदर्दी का नहीं बल्कि टीका-टिप्पणी और आलोचना के शिकार बन जाते हैं। 



सब जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव ज़मीन से उठे नेता हैं। इसलिए अपने हर कार्यकर्ता से उनका सीधा जुड़ाव रहा है। उनके समर्थक, उनके उदार व्यवहार की प्रशंसा करते नहीं थकते। लाखों लोगों को ‘नेताजी’ ने अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद की। जबकि आम तौर पर सत्ता मिलते ही नेताओं के तेवर बदल जाते हैं और वे अपने कार्यकर्ताओं से मुह मोड़ लेते हैं। चालीस बरस की पत्रकारिता में मैंने राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों बड़े नेताओं को बनते और बिगड़ते देखा है। ज़्यादातर की ऐसी दुर्गति होती है कि सत्ता से हटते ही मक्खी भी उनके घर नहीं फटकती। 


अलग-अलग अवसरों पर ‘नेताजी’ के साथ इन चार दशकों में बिताए अनेक लम्हे मुझे याद हैं जो उनके व्यक्तित्व का परिचय देते हैं। 1990 की बात है मैं कालचक्र विडीयो मैगज़ीन के लिए एक टीवी रिपोर्ट तैयार कर रहा था। जिसका शीर्षक था ‘अंग्रेज़ी बिना भी क्या जीना’। इस रिपोर्ट में हमारी कैमरा टीम, समाज के विभिन्न वर्गों से अंग्रेज़ी के पक्ष और विपक्ष में विचार रिकोर्ड कर रही थी। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री ‘नेताजी’ हिंदी भाषा अपनाने पर बहुत ज़ोर दे रहे थे। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ी हमें ग़ुलाम बनाती है। इसलिए सभी सरकारी कामकाज आम आदमी की भाषा में होने चाहिए। इसलिए अपनी टीवी रिपोर्ट को और दमदार बनाने के लिए मैं मुलायम सिंह का साक्षात्कार लेने  लखनऊ गया। उन्होंने अपने कार्यालय में कैमरे के सामने बड़ी बेबाक़ी से अपनी बात रखी। ये मुलाक़ात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी। पर उन्होंने मुझ से अपने घर ले चलकर भोजन करने का आग्रह किया। घर पहुँच कर किसी मेज़-कुर्सी पर नहीं बल्कि दो पलंगों पर ‘नेताजी’ और मैं आमने-सामने बैठ गए। तभी परिवार के किशोर बाल्टी, लोटा और तौलिया लेकर हाथ धुलने आए। ‘नेताजी’ ने उनसे कहा कि चाचा जी को प्रणाम करो और सब लड़कों ने अनुशासित बच्चों की तरह बेहिचक मेरे पैर छुए। दिल्ली के आधुनिक पत्रकारिता जगत में ये संस्कार कोई महत्व नहीं रखता। पर छोटे शहरों से आनेवाले हम सब लोग अपने बच्चों को ऐसे संस्कार देते हैं। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में कहा गया है, ‘अतिथि देवो भव’। फिर पीतल की थालियों में कटोरी सज़ा कर पलंग पर ही सात्विक भोजन परोसा गया और फिर उसी तरह हाथ धुलवाए गए। ये सब कुछ इतना सहज भाव से हो रहा था फिर भी इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि यही संस्कार ‘नेताजी’ के सुपुत्र अखिलेश यादव ने उत्तराधिकार में पाए हैं। मेरा समाजवादी दल हो या कोई और राजनैतिक दल, किसी से भी सदस्यता का सम्बंध नहीं रहा। फिर भी अखिलेश यादव मेरा ही नहीं हर आनेवाले का ऐसा ही सम्मान करते हैं जैसा ‘नेताजी’ करते आए हैं। 2012-17 में जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मथुरा की भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने मुझ से कहा कि, अखिलेश बहुत अच्छे युवा हैं। मैं जो भी काम उनसे कहती हूँ वो फ़ौरन करवा देते हैं। जबकि आज तमाम नेता ऐसे हैं जो अपने विरोधी दलों के नेताओं को दुश्मन मानते हैं। 


‘नेताजी’ के साथ एक दूसरा संस्मरण और भी प्रेरक है। मेरे पिता 1988-91 में पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति थे। जौनपुर में ‘नेताजी’ की एक विशाल जनसभा थी। ऊँचे मंच पर माइक के सामने ‘नेताजी’ के लिए केवल एक कुर्सी लगी थी। मेरे पिता नीचे बने वीआईपी घेरे में प्रथम पंक्ति में बैठे थे। ‘नेताजी’ हेलीकाप्टर से उतर कर सीधे मंच पर चढ़ गए। मालाएँ पहनते वक्त उन्होंने आयोजकों से पूछा कि कुलपति महोदय कहाँ हैं? ये आवाज़ माइक पर सुनाई दी। जब उन्हें पता चला कि मेरे पिता नीचे वीआईपी घेरे में बैठे हैं, तो उन्होंने आयोजकों को फटकारा कि, आपको शर्म नहीं आती। जनपद के सबसे बड़े शिक्षाविद को नीचे बिठा दिया। उन्हें ससम्मान ऊपर लाइए। पिताजी के मंच पर पहुँचने पर ‘नेताजी’ उन्हें माला पहनाई और अपने लिए लगी कुर्सी पर बिठा कर भाषण शुरू किया। यह देख कर सब गद-गद हो गए। 



तीसरा अनुभव तब हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश के ज़मीन घोटाले उजागर करने के बाद मैं भूमिगत था क्योंकि मुझ पर अदालत की अवमानना क़ानून का मुक़दमा चल रहा था। मैं देश के कई नेताओं से इस दौरान मिलकर न्यायिक सुधारों के लिए कुछ करने की माँग करता था। जब मैं ‘नेताजी’ से मिला तो वे बहुत विचलित हो गए और बोले, तुमने हवाला कांड से लेकर आजतक किसी को नहीं छोड़ा। सबको दुश्मन बना लिया है। अब ये सब छोड़ दो। मैं तुम्हें राजनैतिक रूप से स्थापित कर दूँगा। मैंने कहा, ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? निर्भीक पत्रकारिता में तो ये होता ही है।’ 


एक अनुभव तो पाठकों को बहुत चौकाने वाला लगेगा। 1994 में लखनऊ के रविंद्रालय में पूरे उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं के संघ को सम्बोधित करने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायधीश, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल वोरा, मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव और मुझे आमंत्रित किया गया था। उस दिन अपने भाषण में मैंने ‘नेताजी’ के शासन पर कुछ तीखी टिप्पणियाँ की। जिस पर पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट हो गई। पर ‘नेताजी’ ने बिलकुल बुरा नहीं माना। आज जैसे नेता होते तो मुझ से ज़िंदगी में दोबारा बात नहीं करते या मुझे कोई हानि ज़रूर पहुँचाते। पर ‘नेताजी’ के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही आज सभी उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना कर रहे हैं।   

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, January 23, 2017

आरक्षण मसला ठेठ राजनीतिक हो जाना

उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है। शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।


बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।


भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है। यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है। इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।


नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है|


आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप् में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।


आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या ऐसा मानकर चलने में भी है।


आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।


 अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति  नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा करना पडे़गा।

Monday, March 28, 2016

अखिलेश यादव की छवि सुधरी

 साइकिल पर उत्तर प्रदेश की यात्रा करके 2012 में समाजवादी पार्टी को भारी विजय दिलाने वाले युवा नेता अखिलेश यादव सत्ता संभालने के बाद लगभग 2 वर्ष तक ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे वे अपने मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरते। जबकि उनमें उत्साह, ऊर्जा और सद्इच्छा की कमी नहीं थी। उनकी पार्टी के और परिवार के हालात कुछ ऐसे थे कि वे इन दोनों ही संदर्भों में बचपन वाले ‘टीपू’ ही समझे गए। बड़े-बुजुर्गों ने उन्हें स्वतंत्र फैसले नहीं लेने दिए, जिससे उन्हें कुछ करके दिखाने का मौका नहीं मिला। उधर संगठन के सम्मेलनों में और सार्वजनिक मंचों पर उनके पिता व सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को लगातार नसीहतें देते रहे और उनके नकारा मंत्रियों को फटकारते रहे। इससे भी ऐसा संदेश गया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें इसका एहसास हो गया कि अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी है, तो अपनी शख्सियत को एक योग्य प्रशासक और नेता के रूप में स्थापित करना होगा।


नतीजतन वे बहुत सावधानी से और धीरे-धीरे टीपू के सांचे से निकलकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सांचे में ढलने लगे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में सभी दलों के जो युवा चुनाव जीते थे, उन युवा नेताओं में अखिलेश यादव का नाम आज सबसे ऊपर है। चाहे वे कांग्रेस के राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि हों, भाजपा के अनुराग ठाकुर, लोजपा के चिराग पासवान या हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में जीतकर नेता बने लालू यादव के दोनों सुपुत्र। ऐसा किस्मत से नहीं हो गया। अखिलेश ने इसके लिए बड़ी सूझबूझ और दूरदृष्टि से शासन की बागडोर संभाली।

 पिछले दिनों मथुरा की सांसद और भाजपा के नेता हेमामालिनी मुझसे अखिलेश की सहृदयता और पाॅजीटिव सोच की तारीफ कर रही थीं। किसी विपक्ष के नेता से ऐसा प्रमाण पत्र मिलना वास्तव में अखिलेश की योग्यता का परिचय देता है। अखिलेश की जिस बात ने सबका मनमोहा है, वह है उनकी शालीनता और विनम्रता। आप युवा पीढ़ी के किसी भी नेता में यह गुण नहीं पाएंगे। वे चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, उन्हें अपनी विरासत और अपनी हैसियत का अहंकार होता ही है। जबकि अखिलेश के पास इन सब युवा नेताओं से बड़ी ताकत है, देश के सबसे बड़े सूबे की बागडोर और एक मजबूत जनाधार। इसलिए भी उनकी विनम्रता मिलने वाले को प्रभावित करती है।

 पर्यावरण इंजीनियर होने के नाते और देश-विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा हासिल करने के कारण अखिलेश की दृष्टि संतुलित विकास की है। इसलिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम और नीतियां अपनाकर उत्तर प्रदेश को पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भारत के अग्रणी राज्यों के साथ खड़ा कर दिया है। पहले लोग उत्तर प्रदेश को ‘उल्टा प्रदेश’ कहते थे। पर आज प्रदेश का व्यापारी समुदाय हो या आम जनता, वह मानती है कि प्रदेश का शासन काफी कुछ ढर्रे पर चल रहा है। जातिगत पक्षपात के आरोप क्षेत्रीय दलों पर प्रायः लगा करते हैं। सपा इससे अछूती नहीं है, पर बावजूद इसके जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश की जनता से भेदभाव हो, इसके उदाहरण थाना, प्रशासन स्तर पर कम ही देखने को मिलते हैं। जिससे ग्रामीण जनता को बहुत राहत मिली है।

 उत्तराखंड के अलग होने के बाद उत्तर प्रदेश में पर्यटन उद्योग को भारी झटका लगा था। पर अखिलेश यादव ने बुद्धा सर्किट, ताज सर्किट, ब्रज सर्किट जैसे अनेक नए पर्यटक सर्किट शुरू कर और उसमें स्वयं रूचि ले उत्तर प्रदेश के पर्यटन को सुधारने का काफी प्रशंसनीय कार्य किया है। यह बात दूसरी है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में संस्थागत कमियों के कारण गुणवत्ता का अभाव अभी भी दिखाई देता है, जिसे सुधारने की जरूरत है। वह तभी संभव है, जब कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और योजनाओं के मानक लागू करने पर प्रशासनिक दबाव हो।

 दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। एक वर्ग है, जो मानता है कि कुछ भी कर लो पहले नंबर पर बसपा ही रहेगी। दूसरा वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि अमित शाह की रणनीति उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को धु्रवीकरण में समेटकर भाजपा को सत्ता में ले आएगी। लेकिन जैसा हमने पिछले सप्ताह लिखा था कि आमजनता के स्तर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को लेकर आज की तारीख में कोई उत्साह नहीं है। आज की जमीनी हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में मुकाबला सपा और बसपा में ही होता नजर आ रहा है। दोनों का ही नेतृत्व सशक्त है। अखिलेश यादव और मायावती दोनों में से जो जनता की कल्पनाशीलता में आश्वस्त करता नजर आएगा, उसे जनता उत्तर प्रदेश का शासन सौंप देगी। अब वो जमाने लद गए, जब सत्तारूढ़ दल को हराकर ही जनता संतुष्ट होती थी। अनेकों राज्यों के उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ दल 2 या 3 बार लगातार जीतकर सत्ता में रहा है। इधर यह स्पष्ट है कि अखिलेश यादव का आत्मविश्वास बढ़ा है और वे हर वो काम कर रहे हैं, जिससे उनको अगले चुनाव में फिर से जनता का विश्वास हासिल हो। इसके लिए जरूरी है कि वे जमीनीस्तर पर नौकरशाही को जवाबदेह और प्रभावी बनाएं और फैसले तीव्र गति से लें, जिनका परिणाम जमीन पर नजर आए।
 

Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।