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Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, October 23, 2023

मोदी जी की राह आसान करेगा ‘इंडिया’ गठबंधन


जबसे पटना, बेंगलुरु और मुंबई में प्रमुख विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठकें हुईं और ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई तब से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई थी। क्योंकि पिछले नौ वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विपक्षी दलों पर हावी रही है। पर पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कुछ दलों के प्रवक्ताओं ने एक दूसरे दल पर ऐसी तीखी टिप्पणियाँ की हैं जिससे गठबंधन में दरार पड़ सकती है। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश की कुछ सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी दल की जो बयानबाज़ी हुई है वो भी ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालाँकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ ने जो कड़ी मेहनत की है उससे हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही है। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कांग्रेस को समाजवादी पार्टी की कोई अहमियत नज़र नहीं आई। पर अगर यही रवैया रहा तो लोक सभा के चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन कैसे मज़बूती से लड़ पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी दल तीसरी बार भी मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने की राह आसान कर देंगे?
 



पिछले नौ वर्षों में विपक्ष ने तमाम हमले सत्तारूढ़ दल पर किए। पर फिर भी कामयाबी नहीं मिली। ज़्यादातर हमले मोदी जी की सार्वजनिक घोषणाओं, उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर हुए। जैसे मोदी जी की 2014 की घोषणाओं को याद दिलाना कि 2 करोड़ नौकरी हर साल मिलने का और 2022 तक सबको पक्के घर मिलने का वायदा क्या हुआ? 15 लाख सबके खातों में कब आएँगे? 100 स्मार्ट सिटी क्यों नहीं बन पाए? माँ गंगा मैली की मैली क्यों रह गई? विदेशों से काला धन वापस क्यों नहीं आया? इसके अलावा मोदी जी के अडानी समूह से संबंधों को लेकर भी संसद में और बाहर बार-बार सवाल पूछे गये। 


आम आदमी पार्टी ने मोदी जी की डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े किए। आरबीआई की जानकारी के अनुसार पिछले नौ वर्षों में बैंकों का 25 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में चला गया। आम जनता के खून पसीने की कमाई की ऐसी बर्बादी और लाखों करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों के बारे में भी सवाल पूछे गये। मोदी सरकार पर सीबीआई, ईडी व आयकर एजेंसियों के बार-बार दुरूपयोग के आरोप लगातार लगते रहे। इन एजेंसियों की विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा कारवाई और चुनावों के पहले उन पर छापे और गिरफ़्तारियों को लेकर भी पूरा विपक्ष उत्तेजित रहा। किसान आंदोलन की उपेक्षा और सैंकड़ों किसानों की शहादत व गृह राज्य मंत्री के बेटे का लखीमपुर में आंदोलनकारी किसानों पर क़ातिलाना हमला भी मोदी सरकार पर हमले का सबब बना। ओलंपिक पदक विजेता महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के आरोपों पर मोदी सरकार की चुप्पी और बाद में उन्हें पुलिस के ज़ोर पर धरने से हटाने को लेकर भी सरकार की बार-बार खिंचाई की गई। मणिपुर में भारी हिंसा के बावजूद प्रधान मंत्री का महीनों तक वहाँ न जाना भी बड़े विवाद का कारण बना हुआ है। ऐसे तमाम गंभीर सवालों पर प्रधान मंत्री का लगातार चुप रह जाना और एक बार भी संवाददाता सम्मेलन न करना, लोकतंत्र के करोड़ों मतदाताओं को आजतक समझ में नहीं आया।



उधर हर चुनाव में प्रधान मंत्री का आक्रामक प्रचार और विपक्षियों को भ्रष्ट बता कर हमला करना। जबकि दूसरी तरफ़ प्रधान मंत्री द्वारा ही बार-बार भ्रष्ट बताए गये विपक्षी नेताओं को भाजपा में शामिल करवा कर उनके साथ सत्ता में भागीदारी करना भी एक बड़े विवाद का कारण रहा है। इस सबसे देश में ऐसा माहौल बना कि विपक्ष इसे अघोषित आपातकाल कहने लगा। किंतु स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ छोड़ने को कोई क्षेत्रीय दल तैयार न था। इसलिए विपक्ष के दल जहाँ एक तरफ़ भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ आपस में भी एक दूसरे पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आए। यहीं कारण है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करने वाले विपक्ष के नेता अपने-अपने क्षेत्रों में तो कामयाब हुए पर राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार को चुनौती नहीं दे पाए। आज भी जनाधार वाले ये तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए केंद्र में सत्ता पाने का उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा। 



विपक्ष को इस अंधकार से निकालने की पहल कुछ तो प्रांतीय नेताओं ने की जिनके प्रयास से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। दूसरा काम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने किया। जिन राहुल गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हर आम आदमी को गले लगा कर अपनी छवि में चार चाँद लगा दिये। बिना मीडिया से डरे, हर दिन सैंकड़ों संवाददाताओं के तीखे सवालों के सहजता से उत्तर दिये। संसद में मोदी सरकार पर इतना कड़ा हमला बोला कि उनकी संसद सदस्यता ही ख़तरे में पड़ गई। पर राहुल गांधी के इस नए तेवर ने और कर्नाटक विधान सभा में कांग्रेस की जीत ने राहुल गांधी को एक आत्मविश्वास दिया कि वे बाँहें फैला कर हर विपक्षी दल को ‘इंडिया’ गठबंधन में जोड़ सके। इसी से भारतीय लोकतंत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। 


पर जिस ज़ोर-शोर से ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई थी वो गर्मी अब धीरे-धीरे शांत होती जा रही है, ऐसा प्रतीत होता है। पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल तृण मूल कांग्रेस पर कांग्रेस के नेता अधिरंजन चौधरी ने जो हमला बोला उससे इस गठबंधन में दरार पड़ने का संदेश गया। उधर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के द्वारा वायदा करने बावजूद सपा को 5-7 टिकटें नहीं दी गईं। जिसपर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की। हर योद्धा जानता है कि युद्ध जीतने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, सुविचारित रणनीति, टीम में एकता और अनुशासन, सामने वाले की व स्वयं की क्षमता का सही आँकलन और सही मौक़े पर सही निर्णय लेने की राजनैतिक समझ की ज़रूरत होती है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन को वास्तव में अपना लक्ष्य हासिल करना है तो उसे सहयोगी दलों के पारस्परिक संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा अन्यथा ‘टीम इंडिया’ बनने से पहले ही बिखर जाएगी।   

Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, March 27, 2023

राजनैतिक बयानबाज़ी और मानहानि


 
राहुल गांधी के ताज़ा विवाद पर पक्ष और विपक्ष तलवारें भांजे आमने-सामने खड़ा है। इस विवाद के क़ानूनी व राजनैतिक पक्षों पर मीडिया में काफ़ी बहस चल रही है। इसलिए उसकी पुनरावृत्ति यहाँ करने की आवश्यकता नहीं है। पर इस विवाद के बीच जो विषय ज़्यादा गंभीर है उस पर देशवासियों को मंथन करने की ज़रूरत है। चुनाव के दौरान पक्ष और प्रतिपक्ष के नेता सार्वजनिक रूप से एक दूसरे पर अनेक आरोप लगाते हैं और उनके समर्थन में अपने पास तमाम सबूत होने का दावा भी करते हैं। चुनाव समाप्त होते ही ये खूनी रंजिश प्रेम और सौहार्द में बदल जाती है। न तो वो प्रमाण कभी सामने आते हैं और न ही जनसभाओं में उछाले गये घोटालों को तार्किक परिणाम तक ले जाने का कोई गंभीर प्रयास सत्ता पर काबिज हुए नेताओं द्वारा किया जाता है। कुल मिलाकर ये सारा तमाशा मतदान के आख़िरी दिन तक ही चर्चा में रहता है और फिर अगले चुनावों तक भुला दिया जाता है। 


हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता का यह एक उदाहरण है जो हम आज़ादी के बाद से आजतक देखते आए हैं। हालाँकि चुनावों में धन तंत्र, बल तंत्र व हिंसा आदि के बढ़ते प्रयोग ने लोकतंत्र की अच्छाइयों को काफ़ी हद तक दबा दिया है। पिछले चार दशकों में लोकतंत्र को पटरी में लाने के अनेक प्रयास हुए पर उसमें विशेष सफलता नहीं मिली। फिर भी हम आपातकाल के 18 महीनों को छोड़ कर कमोवेश एक संतुलित राजनैतिक माहौल में जी रहे थे। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में राजनीति की भाषा में बहुत तेज़ी से गिरावट आई है और इस गिरावट का सूत्रपात्र सत्तापक्ष के दल और संगठनों की ओर से हुआ है। ‘ट्रॉल आर्मी’ एक नया शब्द अब राजनैतिक पटल पर हावी हो गया है। किसी भी व्यक्ति को उसके पद, योग्यता, प्रतिष्ठा, समाज और राष्ट्र के लिए किए गये योगदान आदि की उपेक्षा करके ये ‘ट्रॉल आर्मी’ उस पर किसी भी सीमा तक जा कर अभद्र टिप्पणी करती है। माना जाता है कि हर क्रिया की विपरीत और समान प्रक्रिया होती है। परिणामत: अपने सीमित संसाधनों के बावजूद विपक्षी दलों ने भी अपनी-अपनी ‘ट्रॉल आर्मी’ खड़ी कर ली है। कुल मिलाकर राजनैतिक वातावरण शालीनता के निम्नतर स्तर पर पहुँच गया है। हर वक्त चारों ओर उत्तेजना का वातावरण पैदा हो गया है जो राष्ट्र के लिए बहुत अशुभ लक्षण है। इससे नागरिकों की ऊर्जा रचनात्मक व सकारात्मक दिशा में लगने की बजाय विनाश की दिशा लग रही है। पर लगता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व को इस पतन की कोई चिंता नहीं है। 

जिस आरोप पर सूरत कि अदालत ने राहुल गांधी को इतनी कड़ी सज़ा सुनाई है उससे कहीं ज़्यादा आपराधिक भाषा का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में सत्ताधीशों के द्वारा सार्वजनिक मंचों पर बार-बार किया गया है। मसलन किसी भद्र महिला को ‘जर्सी गाय’ कहना, किसी राज्य की मुख्य मंत्री को उस राज्य के हिंजड़ों की भाषा में संबोधन करना, किसी बड़े राजनेता की महिला मित्र को ‘50 करोड़ को गर्ल फ्रेंड’ बताना, किसी बड़े राष्ट्रीय दल के नेता का बार-बार उपहास करना और उसे समाज में मूर्ख सिद्ध करने के लिए अभियान चलाना, किसी महिला सांसद को सांकेतिक भाषा में सूर्पनखा कह कर मज़ाक़ उड़ाना। ये कुछ उदाहरण हैं ये सिद्ध करने के लिए कि ऊँचे पदों पर बैठे लोग सामान्य शिष्टाचार भी भूल चुके हैं। 


यहाँ 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय की एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। जब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के संदर्भ में घोषणा की थी कि वे भारत से एक हज़ार साल तक लड़ेंगे। इस पर भारत कि प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने रामलीला मैदान की एक विशाल जनसभा में बिना पाकिस्तान या भुट्टो का नाम लिये बड़ी शालीनता से ये कहते हुए जवाब दिया कि, वे कहते हैं कि हम एक हज़ार साल तक लड़ेंगे, हम कहते हैं कि हम शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से रहेंगे। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब भारत के प्रधान मंत्रियों ने अपने ऊपर तमाम तरह के आरोपों और हमलों को सहते हुए भी अपने पद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। चाहे वे किसी भी दल से क्यों न आए हों। क्योंकि प्रधान मंत्री पूरे देश का होता है, किसी दल विशेष का नहीं। इस मर्यादा को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।(3.21)’ अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं।

इस संदर्भ में सबसे ताज़ा उदाहरण जम्मू कश्मीर के उप-राज्यपाल श्री मनोज सिन्हा का है जिन्होंने पिछले हफ़्ते ग्वालियर के एक शैक्षिक संस्थान में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि, गांधी जी के पास कोई लॉ की डिग्री नहीं थी। क्या आप जानते हैं कि उनके पास एक भी यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं थी। उनकी एकमात्र योग्यता हाई स्कूल डिप्लोमा थी। बीएचयू वाराणसी के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट का गूगल युग में ऐसा अहमक बयान किसके गले उतरेगा? जबकि सारा विश्व जानता है कि गांधी जी कितने पढ़े लिखे थे और उनके पास कितनी डिग्रियाँ थी? श्री सिन्हा के इस वक्तव्य से करोड़ों देशवासियों की भावनाएँ आहत हुई हैं। क्या देशभर की अदालतों में श्री सिन्हा के ख़िलाफ़ मानहानि के मुकदमें दायर किए जायें या राष्ट्रपति महोदया से, अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए,  उन्हें पद मुक्त किए जाने की अपील की जाए? क्योंकि श्री मनोज सिन्हा कोई बेपढ़े-लिखे आम आदमी नहीं हैं बल्कि वे एक संवैधानिक पद को सुशोभित कर रहे हैं। 

जब शासन व्यवस्था में सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की भाषा में इतना हल्कापन आ चुका हो तो ये पूरे देश के लिए ख़तरे की घंटी है। इसे दूर करने के लिए बिना राग द्वेष के समाज के हर वर्ग और राजनैतिक दलों के नेताओं को सामूहिक निर्णय लेना चाहिए कि ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना शब्दावली के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होगा। अन्यथा अभद्र भाषा की परिणीत निकट भविष्य में पारस्परिक हिंसा के रूप में हर जगह दिखने लगेगी। यदि ऐसा हुआ तो देश में अराजकता फेल जाएगी जिसे नियंत्रित करना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगा।    

Monday, February 27, 2023

राहुल गांधी की नई भूमिका क्या हो?


पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधान मंत्री वैश्विक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। कमज़ोर विपक्ष या विपक्षहीन पक्ष लोकतंत्र के पतन का रास्ता तैयार करता है। इसके साथ ही न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार व जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें। अनुभव ये बताता है कि हमारा देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमज़ोर करने का हर संभव प्रयास करता है। पर स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड या अमरीका जैसे देशों में सत्तापक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्रायः नहीं किए जाते। इसलिए उनका लोकतंत्र आदर्श माना जाता है।
 


किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए ज़रूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौक़ा न दिया जाए। तभी आर्थिक प्रगति भी संभव होती है। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। 

भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के ज़माने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बैठाना शुरू कर दिया। इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ। पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में ये काम नागालैंड, गोवा व मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेज़ी से हुई। 


मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत अस्थिर कर दिया है। ये हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ रहा है और ना ही उमंग। हर ओर हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है। जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है। सरकार पर एक आरोप जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर अपनी रणनीति बना रही है वहीं, विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ़ से एक आरोप यह लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधान मंत्री के पद के लिए कोई एक सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधान मंत्री के चेहरे के लड़ा था। पर बाद में डॉ मनमोहन सिंह के रूप में, 10 बरस तक एक ज्ञानी, शालीन, बेदाग़ प्रधान मंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। मुख्यतः ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर व अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधान मंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। जबकि राहुल गांधी ने आजतक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। 


विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता अपने दिल में ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरुद्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतज़ार करना होगा। इस बीच में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षों से देख ही रहे हैं। फिर भी अगर वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए अब उनके पास सोचने विचारने का समय नहीं है। विपक्ष के लिये तो यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। जैसे भाजपा और संघ परिवार बारह महीने चुनावी मोड में रहता है और साम, दाम, दंड या भेद से सरकार बनाते हैं। आज भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल गांधी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल गांधी के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आजतक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल गांधी के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी वह पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो। इस ज़मीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल गांधी निर्णय कर चुके हैं उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनना बल्कि समाज के आम आदमी को हक़ दिलाने के लिए एक संवेदनशील भूमिका में रहना है। जहां वे जनता का दुख-दर्द सरकार तक पहुँचा सकें। अगर यह सच है तो ये राहुल गांधी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मज़बूत करने में उनकी नयी भूमिका बन सकती है।  

जहां कांग्रेस ये मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिये वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मज़बूत हैं और वहाँ कांग्रेस का वजूद लुप्तप्रायः है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोवेश यही स्थिति है। इस हक़ीक़त को समझ और स्वीकार करके अगर राहुल गांधी एक बड़ा दिल दिखाते हैं और देश के हर बड़े विपक्षी नेता से आमने-सामने बैठ कर देश की राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो सभी विपक्षी दलों को जोड़ने में वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा  सकते हैं। यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पायेगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन रोज़गार, महंगाई, किसानों व मज़दूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग़ नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर अगर बाक़ी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिये चुनौती तगड़ी होगी। पर इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी। 

Monday, January 9, 2023

राहुल की यात्रा पर संघ का रवैया


जिस दिन से राहुल गांधी ने, कन्याकुमारी से, ‘भारत जोड़ो पद यात्रा’ शुरू की है उस दिन से भाजपा के प्रवक्ता, उसकी आईटी सेल और उसके नेता राहुल गांधी का मज़ाक़ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। और इनका साथ दे रहा है इनका ‘गोदी मीडिया’। बावजूद इसके राहुल कि यात्रा हर दिन सफलता के नये सोपान तय कर रही है। भाजपा का आँकलन था कि केरल के बाहर निकलते ही ये यात्रा फुस्स हो जाएगी। पर उनकी आशा के विपरीत दक्षिण भारत के राज्यों में राहुल गांधी को जानता का जो भारी प्यार और समर्थन मिला है उसने भाजपा नेतृत्व को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। 

पिछले आठ साल से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ बताने वाली भाजपा हिंदी प्रदेशों में राहुल की यात्रा को मिल रहे भारी समर्थन से विचलित हो गई है। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है, कि इस यात्रा की सफलता इस बात की गारंटी नहीं देती कि इस लोकप्रियता को राहुल गांधी वोटों में बदल पाएँगे। अगर वे ऐसा कर पाए तो निश्चित रूप से ये उनकी ऐतिहासिक विजय होगी। अगर नहीं भी कर पाए तो भी लोगों के बीच लगातार पैदल चल कर और हर वर्ग के लोगों से आत्मीयता से मिल कर, राहुल गांधी ने वो हासिल कर लिया है जिसे आजतक देश के गिने-चुने नेता ही हासिल कर पाए थे। उस दृष्टि से राहुल का क़द बहुत बढ़ गया है। 


भाजपा की चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जो जनता राहुल को सर आँखों पर बिठा रही है वो वही जनता है जिसने 2014 व 2019 में नरेंद्र मोदी को सर आँखों पर बिठाया था। पर गत आठ वर्षों में देश में फैली भारी बेरोज़गारी, सुरसा सी बढ़ती महंगाई और माध्यम वर्गीय व्यापारियों व कारखानेदारों की तबाही ने उसी जनता को निराश और हताश कर दिया है। अब उसे भाजपा शासन में राहत मिलने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही। जनता की इसी नब्ज को पहचान कर मौक़े देख कर पाला पलटने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने अब अचानक राहुल गांधी की यात्रा की प्रशंसा करना शुरू कर दिया है।      

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने राहुल गांधी को उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के लिए पत्र लिखकर शुभकामनाएँ भेजी हैं। इस पत्र से राजनीतिक गलियारों में एक नई चर्चा शुरू हो गई है। हालांकि ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष स्वामी गोविंद देव गिरि और श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ सदस्य चंपत राय ने भी शुभकामनाएँ दी हैं। सवाल ये उठ रहा है कि ऐसी शुभकामनाओं के पीछे क्या संदेश छुपा हो सकता है?

महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने अपने पत्र में कहा, आपकी भारत जोड़ो यात्रा मंगलमय हो। आपका जो देश जोड़ने का ख्वाब है, वो पूर्ण हो, जिस लक्ष्य को लेकर आप चल रहे हैं, उसमें आपको सफलता मिले। आप स्वस्थ रहें, दीर्घायु रहें। देश के हित में जो भी कार्य कर रहे हैं, वह सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय है। इसी मंगलकामना के साथ शुभ आशीर्वाद। प्रभु रामलला का आशीर्वाद आप पर बना रहे। उधर चंपत राय ने तो राहुल गांधी की इस यात्रा को प्रशंसनीय तक कह डाला। इतना ही नहीं उन्होंने सभी को यात्रा कर भारत का अध्ययन करने को कहा।


उल्लेखनीय है कि जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की गई थी तो संघ के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने कांग्रेस के प्रति सहानुभूति जताई थी। यह तक की 1984 के लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी को मिली आशातित सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका रही थी। इसी तरह जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफ़ोर्स मामले को लेकर हल्ला मचा रहे थे तब भी संघ ने उनका समर्थन किया था। अन्ना हज़ारे के आंदोलन में भी संघ समर्थन में था। जब भी कोई दल भले ही वो संघ की विचारधारा से मेल न रखता हो, यदि राष्ट्रीय पटल पर ताक़त के साथ उभरने लगता है तो संघ फ़ौरन उसका समर्थन कर देता है। सवाल है कि ऐसे में इन बयानों से क्या संघ केंद्र की भाजपा सरकार को आईना दिखा रहा है?

बढ़ती हुई महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर संघ और भाजपा की बीच जो वैचारिक दूरी आई है वह भी किसी से नहीं छुपी है। इसलिए ऐसे बयानों को मात्र व्यंग की दृष्टि से देखा जाना ठीक नहीं होगा और इसीलिए इन संदेशों को मात्र शुभकामना संदेश भी नहीं समझा जाना चाहिए। गौर इस बात पर भी किया जा सकता है कि भाजपा नेता राहुल की यात्रा को ‘भारत तोड़ो यात्रा’ बता रहे हैं। वहीं चंपत राय के बयान को लें तो उन्होंने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यात्रा की आलोचना नहीं की है। लेकिन भाजपा नेता लगातार राहुल की यात्रा को विफल बता रहे हैं। अगला सवाल ये है कि भाजपा नेता संघ से अलग बातें क्यों कर रहे हैं? इसका तर्क यह दिया जा सकता है कि केंद्र में भाजपा सरकार चला रही है और सरकार का पक्ष लेना भाजपा  नेताओं की मजबूरी है।


यदि राहुल गांधी या किसी भी दल का कोई भी नेता भारत को ‘जोड़ने’ के लक्ष्य से कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल यात्रा करता है, तो इसके विरोध में केवल वही दल आएगा जो कि भारत को ‘जोड़ने’ के ख़िलाफ़ हो। दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर जैसे ही ये बयान आए तो राहुल की यात्रा को मीडिया में जगह मिलने लगी है।

कांग्रेस के विरोधी दल पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे थे। भाजपा समेत सभी विरोधी दल इस बात का कोई जवाब नहीं दे रहे कि जिसे वे अब तक पप्पू कह कर प्रचारित करते रहे वह हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। ऐसी हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उन नेताओं में सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? कुल मिलाकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने भाजपा के सामने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। शायद इसीलिए संघ एक बीच का रास्ता अपनाने पर मजबूर हुआ है।  

Monday, December 5, 2022

‘पप्पू’ में बहुत गहराई है- प्रियंका गांधी



कुछ हफ़्तों पहले सोशल मीडिया पर प्रियंका गांधी का एक अंग्रेज़ी वीडियो जारी हुआ। उसमें उन्होंने अपने भाई राहुल गांधी के व्यक्तित्व के बारे में काफ़ी कुछ कहा। उनके इस वक्तव्य से राहुल गांधी के व्यक्तित्व की अनेक उन बातों का पता चला जिनकी चर्चा कभी एकतरफ़ा हो चुके मीडिया ने नहीं की। इन दिनों जब राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ काफ़ी चर्चा में हैं, तो पाठकों के साथ इस वीडियो का ज़िक्र करना उचित होगा।


प्रियंका गांधी अपने भाई को अपना सबसे करीबी मित्र बताते हुए अपने बचपन को याद करती हैं। किस तरह उनका बचपन दर्दनाक हादसों और हिंसा का साक्षी रहा। इन दोनों ने अपनी दादी, इंदिरा गांधी को दूसरी माँ के रूप में पाया। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के समय राहुल की उम्र मात्र 14 साल की थी। वे कहती हैं कि चार जनों के एक छोटे परिवार के पारस्परिक स्नेह ने ही उनको सभी कठिनाइयों का सामना करने की ताक़त दी। 


1991 में जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो राहुल विदेश में पढ़ रहे थे। इस निर्मम हत्या कांड ने बहन भाई को झकझोर कर रख दिया था। उस कठिन समय में भी राहुल ने प्रियंका से कहा कि उनके मन में किसी तरह का गुस्सा नहीं है। राहुल को अक्सर उनके मुक्त विचारों के लिये विपक्ष से निंदा का सामना करना पड़ता है। उनके साहस का मज़ाक़ उड़ाया जाता रहा। इसके बावजूद वे कभी भी क्रोधित नहीं हुए और न ही अपने अंदर किसी के प्रति घृणा को उत्पन्न होने दिया। 



विपक्ष द्वारा हर रोज़ उन्हें पप्पू कहकर अपमानित किया जाता रहा, उनकी पढ़ाई लिखाई पर सवाल उठाए गये। सवाल भी उन लोगों ने उठाए जिनके बड़े-बड़े नेता भी अपने पढ़े लिखे होने का सही प्रमाण आज तक नहीं दे पाये।


प्रियंका कहती हैं कि बावजूद इस सबके राहुल ने सूझबूझ और हिम्मत दिखा कर विपक्षी नेताओं को गले लगाने का साहस भी दिखाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि राहुल ने धार्मिक किताबें भी पढ़ी हैं। फिर वो चाहे हिंदू, इस्लाम, बौद्ध या ईसाई धर्म की किताबें हों। राहुल ने वेद, शैव और उपनिषदों को जानने का भी प्रयास किया है।


अपने निजी जीवन में वे एक साधारण व्यक्तित्व वाले आम इंसान हैं। प्रियंका याद करते हुए बताती हैं कि एक दिन जब वे उनके घर गईं तो वे अपनी अलमारी की सफ़ाई कर रहे थे। प्रियंका के पूछने पर राहुल ने बताया कि वे अपने सामान को केवल दस वस्तुओं में सिमेट रहे हैं। वे बताती हैं तब से राहुल के पास न तो उन दस वस्तुओं से अधिक कुछ है न ही उससे अधिक रखने कि इच्छा है। किसी ने कभी राहुल गांधी को महँगे कपड़े या चश्मे पहने नहीं देखा होगा। 


राहुल जापानी आत्मरक्षा ‘आइकीडो’ में ‘ब्लैक बेल्ट’ हासिल कर चुके हैं। साथ ही वे अपने पिता की ही तरह एक योग्य पायलट भी हैं।


कम लोगों को पता होगा कि राहुल गांधी प्रशिक्षक स्तर के गोताखोर होने के नाते एक साँस में 75 मीटर गहराई तक समुद्र में छलाँग लगा सकते हैं। उनकी शारीरिक क्षमता का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि वे भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा आयोजित पर्वतारोहण के कार्यक्रम में भी भाग ले चुके हैं। 



सामाजिक आंदोलनों व विभिन्न संस्कृति के लोगों को समझने की नीयत से राहुल दुनिया के कई देशों में यात्रा कर चुके हैं। प्रियंका गांधी के अनुसार राहुल को अपने सहयोगियों व समर्थकों के लिए सामाजिक न्याय, सच्चाई व समानता बहुत महत्व रखती है। वे लोकतंत्र में पूरा विश्वास रखते हैं। वे अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म, भाषा व संस्कृति की आज़ादी में भी पूरा विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि इस राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप की स्थापना जनता द्वारा और जनता के लिए ही हुई।


प्रियंका के इस वीडियो को देख कर राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ ऐसा पता चला जो शायद देश के ज़्यादातर लोगों को पता नहीं होगा। सोचा क्यों इसे व्हाट्सएप पर अपने साढ़े सात हज़ार संपर्कों को भी भेजा जाए। इस पर बहुत सारी रोचक प्रतिक्रियाएँ आईं। अधिकतर लोगों का कहना था कि राहुल गांधी अपने पिता की तरह एक साफ़ दिल इंसान हैं। उनके व्यक्तित्व में झूठ बोलने या अपने बारे में बढ़-चढ़ कर दिखावा करने की प्रवृत्ति नहीं है। पर इन टिप्पणीयों के साथ ही कई टिप्पणियाँ ऐसी भी आईं जिन में कहा गया कि राहुल गांधी एक अच्छे इंसान तो हैं पर कुशल राजनेता नहीं हैं। कुछ की राय यह थी कि राहुल गांधी को नाहक राजनीति में धकेला जा रहा है। प्रश्न है कि देश की राजनीति में सत्ताधारी भाजपा को मिलाकर कितने नेता ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व राहुल गांधी के निकट भी हो। बहुत से अपराधी, बलात्कारी, माफ़ियाओं और कम पढ़े लिखे लोगों को चुनने वाली इस देश की जनता के लिए क्या राहुल गांधी इतने बेकार हैं कि उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए? लोकतंत्र में अगर समाज विरोधियों की भूमिका है, तो राहुल गांधी जैसे व्यक्ति की क्यों नहीं हो सकती?



दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर यही मीडिया पिछले कुछ वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहा। जबकि ये तथाकथित ‘पप्पू’ हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। जो हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उनमें सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की समाप्ति के बाद राहुल गांधी राजनीति में क्या हासिल कर पाएँगे ये तो भगवान या इस देश के मतदाता ही जानते हैं। पर इस लंबी यात्रा में चल कर और आम जनता से घुलमिल कर राहुल गांधी ने वो प्राप्त किया है जो भारत के सैंकड़ों वर्षों के इतिहास में किसी ने प्राप्त नहीं किया। क्योंकि उन्होंने ऐसी हिम्मत ही नहीं दिखाई। इस देश की राजनीति में कभी भी विपक्ष का सत्ता पक्ष द्वारा इतना अपमान नहीं किया गया जितना पिछले आठ वर्षों में सार्वजनिक मंचों से किया गया है। अगर ऐसी अपमानजनक टिप्पणियाँ करने वाले नेताओं और दल के दामन बेदाग़ होते तो उनकी बात का असर पड़ता। पर असर नहीं पड़ा तभी तो ब्लैकमेलिंग के हमले सह कर भी विपक्ष सीना तान कर खड़ा है। यूँ राजनीति में दूध का धुला तो कोई नहीं होता।   

Monday, November 1, 2021

केरल में जीने का ये नायाब तरीक़ा


केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहाँ से लोक सभा चुनाव लड़ने गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था। इत्तेफ़ाक देखिए कि पिछला हफ़्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाड़ियों पर बिताया। यूँ तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियाँ बिताने का मौक़ा मिला है। पर वायनाड का यह अनुभव बिल्कुल अनूठा था। ख़ासकर इसलिए कि इस यात्रा ने ज़िंदगी जीने का एक नया तरीक़ा दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इस नए अनुभव को साझा कर लूँ।

   

दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की एक सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के एक पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला इस्टेट’ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊँचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अन्दाज़ हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कौटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई है जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष दिखाई देते हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता केवल चाय - कॉफ़ी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लोंग हाउस’ बनाया है। जिसकी रसोई में पारम्परिक से लेकर आधुनिक तरीक़े तक से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएँ हैं।

 


इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहाँ का नियम यह है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का ज़िम्मा एक साथी का होता है। जिसके निर्देशन में रोज़ तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूँकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कौटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं और भोजन के साथ विविध विषयों पर गम्भीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्स’ का आनंद लेते हैं। इस ‘लोंग हाउस’ की बाल्कनी से चारों तरफ़ जहां भी निगाह जाती है 50-50 मील दूर तक घना जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियाँ करते रहते हैं।

 

यहाँ चंदन, रोज़वुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हज़ारों वृक्ष हैं। यहाँ का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। हिंसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है। ‘लोंग हाउस’ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिज़ॉर्टस’ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से सम्पर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का ये तरीक़ा बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं होती।

 

अनजाने प्रदेश में जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी बोलते हों, वहाँ उत्तर भारतीय लोगों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है। ‘इलामाला इस्टेट’ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शर्तें बिल्कुल साफ़ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती। पर जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो ये, कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। जहां के लोग नियम और क़ानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकी केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर तक ही सीमित रहता है।

 

इसी तरह सड़क पर आप यह देख कर हैरान रह जाएँगे कि लोगों के घर के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है और ख़ाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क के किनारे रखे रहते हैं और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बाँट कर फिर सड़क पर रख देता है और दूध की गाड़ी ख़ाली कैन उठा लेती है और भरे छोड़ देती है। अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वॉल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ़ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज़्यादातर सड़कें घुमावदार हैं और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफ़िक जाम की समस्या नहीं होती। क्योंकि सभी वाहन चालक एक सीधी क़तार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाज़ी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में हिंदूओँ की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं और सभी एक दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाक़े से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।

 

वायनाड में बाणासुर बांध, प्राग ऐतिहासिक गुफाएँ, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल भी हैं। पर यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ होने वाली चाय, कॉफ़ी और मसालों की खेती। जहां तक आपकी निगाह जाती है वहाँ तक आपको यही हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। पर इन बाग़ानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और आसाम से बड़ी तादाद में यहाँ आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहाँ गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं होता। बल्कि एक पहाड़ी ज़िला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर यहाँ का मौसम सुहावना ही रहता है। पर अभी तक वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है। क्योंकि इस ज़िले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में जाकर वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग करना रोमांचक ही नहीं सुखद है। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहाँ भी इस तरह मिलजुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनन्द से कट सके।

Monday, November 30, 2020

अलविदा अहमद भाई


यूँ तो हर जाने वाले के बाद उसकी अकीदत में क़सीदे गढ़े जाते हैं। राजनीति में तो दुश्मन भी आकर घड़ियाली आंसू बहाते हैं। काश मरने वाले को अपनी इन तारीफ़ों का ट्रेलर उसके जीते जी मिल जाए तो उसके दिल को कितना सुकून मिले। ब्रज में पिछली सदी में एक महान संत हुए थे, ग्वारिया बाबा। उन्होंने वृंदावन वसियों की सभा बुला कर कहा कि जो कुछ श्रद्धांजलि तुम मेरे मरने के बाद मुझे दोगे वो आज मेरे सामने ही दे दो। सब ने इसे मज़ाक़ समझा पर बाबा गम्भीर थे। फ़र्श बिछाए गए और शोक सभा प्रारम्भ हो गई। बाबा दूर कौने में बैठ कर सुनते रहे और बोलने वाले एक के बाद एक उनके गुणों का यशगान करते गये। सभा समाप्ति पर बाबा ने सबका धन्यवाद किया। इत्तफ़ाक देखिए कि कुछ दिनों बाद ही बाबा ने समाधि ले ली।
 

अहमद भाई पटेल कोई संत नहीं थे, राजनीतिज्ञ थे। राजनीति में ऊँच-नीच सबसे होती है। ग़लत और सही निर्णय भी होते हैं। दोस्त और दुश्मन भी बनते-बिगड़ते रहते हैं। क्योंकि राजनीति एक ऐसी काजल की कोठरी है कि जिसमें, ‘कैसो ही सयानो जाए - काजल को दाग भाई लागे रे लागे’। न पहले के सत्तारूढ़ दल में संत थे और न आज हैं। संतों का राजनीति से क्या काम? इसलिए अहमद भाई का मूल्यांकन एक राजनीतिज्ञ की तरह ही किया जाना चाहिए। जैसे साम, दाम, दंड, भेद अपना कर अमित भाई शाह ने भाजपा को मज़बूत बनाया है और अपने नेता नरेंद्र भाई मोदी के प्रति पूर्ण निष्ठा का प्रमाण दिया है, वैसे ही अहमद भाई पटेल ने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के प्रति अपनी निष्ठा रखते हुए कांग्रेस को मज़बूत बनाया और उसे सत्ता में बनाए रखा। लेकिन उन्होंने खुद कभी कोई मंत्रिपद नहीं लिया और अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा भी मीडिया में नहीं मचने दिया। 


अब तक बहुत सारे राजनेता, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी, मीडियाकर्मी और कांग्रेस के करोड़ों कार्यकर्ता अहमद भाई की बेमिसाल शख़्सियत का गुणगान अपने शोक संदेशों में कर चुके हैं। इसलिए मैं उन्हें यहाँ नहीं दोहरा रहा हूँ कि वो कितने सहृदय थे, अहंकार शून्य थे, विनम्र थे, सबकी मदद करने के लिए तय्यार रहते थे और सभी राजनैतिक दलों से उनके मधुर सम्बंध थे। मैं तो अहमद भाई पटेल की उस बात को रेखांकित करना चाहूँगा जो भाजपा सहित सभी राजनेताओं को उनसे सीखनी चाहिए।वो थी अपने दुश्मन की भी योग्यता का सम्मान करना। 


जैन हवाला कांड में कांग्रेस के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व सांसदों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इस दृष्टि से 1996 के बाद मैं कांग्रेस का दुश्मन ‘नम्बर एक’ माना जा सकता था। पर आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हुआ। चाहे माधव राव सिंधिया हों, राजेश पाइलट हों, कमाल नाथ हों, अर्जुन सिंह हों। ऐसे किसी भी बड़े नेता ने मेरे साथ कभी असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। बल्कि ये कहा कि तुमने अपना पत्रकारिता धर्म निभाया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं। हद्द तो तब हो गई जब हवाला कांड के कुछ वर्ष बाद ही तब की मेरी राष्ट्रीय छवि को ध्यान में रखते हुए अहमद भाई ने मुझे कांग्रेस में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश की राजनीति सम्भालने का प्रस्ताव रखा। पता चला कि सोनिया गांधी ने इसका विरोध ये कह कर किया कि, ‘विनीत नारायण ने हमारे दल की छवि का सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है। वो कैसे हमारे दल में नेता बन सकता है?’ इस पर अहमद भाई का कहना था कि, ‘विनीत नारायण ने जो कुछ भी किया वो एक पत्रकार के नाते किया। वो जब दल में शामिल हो जाएगा तो दल के हिसाब से काम करेगा।’ इस पर तय यह हुआ कि अम्बिका सोनी मुझे चाय पर बुलाएँ और मुझसे लम्बी बात करके ये तय करें कि मेरी कांग्रेस में क्या भूमिका रहेगी। अहमद भाई के सुझाव पर मैं अम्बिका जी के साथ डेढ़ घंटा बैठा पर उनसे मैंने साफ़ कहा कि मेरी रुचि रचनात्मक कार्यों में है, राजनीति में नहीं। और मैं हर दल से मधुर सम्बंध बना कर सही दूरी रखना चाहता हूँ। ये उन दिनों की बात है जब मैं ब्रज सेवा शुरू कर चुका था। इसलिए भी मेरी ब्रज के अलावा कहीं और रुचि नहीं थी। 



इसके 7 साल बाद मेरे पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में 9 तुग़लक़ रोड, नई दिल्ली पर केंद्र सरकार के अनेक मंत्री व भाजपा सहित अनेक दलों के राष्ट्रीय नेता भी बधाई देने आए। उस समय अहमद भाई पटेल की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती थी। पर वे चुपचाप आए, वर वधू को आशीर्वाद दिया और एक कोने में सोफ़े पर जा कर बैठ गए। वहाँ कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और अधिकारियों से कहने लगे कि हमने तो विनीत जी को उत्तर प्रदेश का ज़िम्मा सौंपने का प्रस्ताव दिया था। पर इन्होंने हमारी बात नहीं मानी। वरना आज ये कांग्रेस के बड़े नेता होते। ऐसे तमाम अवसर आए जब अहमद भाई मेरे पारिवारिक उत्सवों में चुपचाप आए और बिना हड़बड़ी के काफ़ी देर बैठ कर गए। इस मामले में मैं आडवाणी जी की भी दाद दूँगा कि वे मेरे सभी पारिवारिक उत्सवों में आशीर्वाद देने आए। बिना ये सोचे कि हवाला कांड में आरोपित होने से उनके राजनैतिक कैरियर को कितना बड़ा झटका लगा था। 


मैंने 35 वर्ष की पत्रकारिता में लगभग सभी दलों के बड़े राजनेताओं के साथ समय बिताया है। पर कभी किसी की अंधभक्ति नहीं की। कभी किसी की आलोचना करने में कसर नहीं छोड़ी। जो सही लगा उसे सही कहा और जो ग़लत लगा उसे ग़लत। पर मानना पड़ेगा कि उन सब राजनेताओं की पीढ़ी बहुत गम्भीर, सौम्य, सहनशील और उदार थी। अहमद भाई पटेल उसी पीढ़ी के एक चमचमाते सितारे थे। जिनकी कमीं उनके राजनैतिक दुश्मनों को भी खलेगी। आज की राजनीति में इस शालीनता और लोकतांत्रिक मूल्य की भारी कमी महसूस की जा रही है। अलविदा अहमद भाई।      

Monday, February 17, 2020

बेरोजगारी की बढ़ती समस्या

अभी हाल ही में प्रधान मंत्री ने संसद में काफी गम्भीरता से राहुल गांधी के ‘डंडे मार कर भगाने’ वाले बयान का जवाब दिया। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से लगातार इस सवाल को उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में कहा कि हाल ही में पेश हुए आम बजट में भी सरकार ने बेरोजगारी पर कोई बात नहीं की। 

भारत सरकार के सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में पिछले पैतालीस वर्षों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी गत 4 वर्षों में हुई है। 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंता वाली बात ये है कि देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई भी सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है। इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है। जिस पर गौर करना जरूरी है। 

अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?

काले धन पर लगाम लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो साहसिक फैसले लिए। जिसका लाभ क्रमशः सामने आऐगा। फिलहाल इससे अर्थव्यस्था को झटका लगा है, उससे शहर का मध्यम और निम्न वर्ग काफी प्रभावित हुआ है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उन व्यापारियों का कारोबार ठप्प हो गया या दस फीसदी रह गया, जो सारा लेनदेन नगद में करते थे। इतनी बड़ी तादाद में इन व्यापारियों का कारोबार ठप्प होने का मतलब लाखों करोड़ों लोगों का रोजगार अचानक छिन जाना है। इसी तरह ‘रियल इस्टेट’ की कीमतों में कालेधन के कारण जो आग लगी हुई थी, वो ठंडी हुई। सम्पत्तियों के दाम गिरे। पर बाजार में खरीदार नदारद हैं। नतीजतन पूरे देश में भवन निर्माण उद्योग ठंडा पड़ गया। ये अकेला एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मजदूर, राजमिस्त्री, कारीगर, सुपरवाईजर, इलैक्ट्रशियन, प्लम्बर, बढ़ई, आर्किटैक्ट, इंजीनियर, भवन सामग्री विक्रेता और उसका सेल्स स्टाफ समेत एक लंबी फौज हर शहर और कस्बे में जुटी थी। सम्पत्ति की मांग तेजी से गिर जाने के कारण शहर शहर में भवन निर्माण का काम लगभग ठप्प हो गया है। इससे भी बहुत बड़ी संख्या मंे बेरोजगारी बड़ी है। इतना ही नहीं इन सबके ऊपर आश्रित परिवार भी दयनीय हालत में फिसलते जा रहे हैं। आए दिन कर्जे में डूबे युवा उद्यमी सपरिवार आत्महत्या जैसे दुखद कदम उठा रहे हैं। 

उधर बैंकों से लाखों करोड़ लूटकर विदेश भाग गऐ बड़े आर्थिक अपराधियों के कारण बैंकों ने अपना लेनदेन काफी सीमित और नियंत्रित कर दिया है। जिसके कारण बाजार में वित्तिय संकट पैदा हो गया है। इस माहौल में भविष्य की अनिश्चितता और पारस्परिक विश्वास की कमी के कारण निजी स्तर पर भी पैसा जुटाना व्यापारियों और उद्यमियों के लिए नामुमकिन हो गया है। जिसका सीधा प्रभाव बेरोजगारी बढ़ाने में हो रहा है। इस माहौल में मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाने के लिए कई उपाय कर रही है। पर अभी तक उसके सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। जो चिंता की बात है। अगर इसी तरह बेरोजगारी बढ़ती गई तो समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ने की सम्भावना और भी बढ़ जाऐगी। जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।