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Monday, May 8, 2023

विवादों में न घिरें सरकारी जाँच एजेंसियाँ !


बीते शुक्रवार को किसी समय देश की सबसे बड़ी रही निजी एयरलाइन के यहाँ सीबीआई के छापे पड़े। जेट एयरवेज़ पर 538 करोड़ रुपये के बैंक घोटाले के आरोप के चलते ये छापे पड़े। पिछले कई महीनों से जेट एयरवेज़ के नए स्वामी जालान कार्लॉक समूह को लेकर काफ़ी विवाद भी चल रहा है। अब इन छापों से जेट एयरवेज़ के गड़े मुर्दे फिर से बाहर आने लग गए हैं। इसके साथ ही लंबित पड़ी शिकायतों पर बहुत देरी से कार्यवाही करने वाली जाँच करने वाली एजेंसियाँ भी सवालों के घेरे में आएँगी।


ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी एयरलाइन जेट एयरवेज़ ने केवल बैंक घोटाला ही किया है। इस समूह ने देश के नागर विमानन क्षेत्र में अपनी दबंगई के चलते कई नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई और नागर विमानन मंत्रालय व अन्य मंत्रालयों ने आँखें बंद रखीं। 2014 से हमने जेट एयरवेज़ की तमाम गड़बड़ियों की सप्रमाण लिखित शिकायतें नागर विमानन मंत्रालय, डीजीसीए, गृह मंत्रालय, प्रधान मंत्री कार्यालय, सीवीसी और सीबीआई को दी। परंतु जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल की ताक़त के चलते इन शिकायतों पर कछुए की चाल पर ही कार्यवाही हुई। आख़िरकार जब ये कंपनी दिवालिया हुई तो सभी शिकायतें भी ठंडे बस्ते में चली गयीं। परंतु आज जब सीबीआई ने बैंक घोटाले की शिकायत पर कार्यवाही शुरू की तो सवाल उठा कि केवल बैंक घोटाले पर ही जाँच क्यों? जेट एयरवेज़ पर नागर विमानन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना। सोने व विदेशी मुद्रा की तस्करी करना। अपनी कंपनी के खातों में गड़बड़ी करना। कंपनी की सुरक्षा जाँच को लेकर गड़बड़ी करना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशी नागरिक को अपनी कंपनी में उच्च पद पर रखना। बिना ज़रूरी इजाज़त के ग़ैर क़ानूनी ढंग से विमान को विदेश में उतारना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशों में बेनामी सम्पत्ति अर्जित करना। अप्रवासन क़ानून तोड़ कर ‘कबूतर बाज़ी’ करना। पायलटों को तय समय सीमा से अधिक उड़ान भरवा कर यात्रियों की जान से खेलना। इन मामलों पर जाँच कब होगी?          



प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 9 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा।       


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत सरकार की श्रेष्ठ जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 



केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 9 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’  

 

मामला कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर लगे आरोपों का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो, नीरव मोदी विजय माल्या जैसे भगोड़ों का हो या किसी भी अन्य घोटाले का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, March 6, 2023

मज़बूत लोकतंत्र में सांविधानिक संस्थाएँ निष्पक्ष हों !


भारत के चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने पिछले गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस फ़ैसले के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति पर केंद्र का सीधा हस्तक्षेप घटेगा। कोर्ट ने इस फ़ैसले को सुनाते समय इस बात पर ज़ोर डाला कि संविधानिक संस्थाओं का निष्पक्ष होना लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। सभी राजनैतिक दलों द्वारा इस फ़ैसले का स्वागत किया जा रहा है।
 

सुप्रीम कोर्ट के 378 पन्नों के इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे 1997 का ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ का फ़ैसला है। इस फ़ैसले में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व सीवीसी के निदेशकों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल को लेकर दिशा निर्देश दिये गये थे। जिससे जाँच एजेंसियों को सरकारी दख़ल से अलग रख कर निष्पक्ष व स्वायत्त रूप से कार्य करने की छूट दी गई थी। परंतु सवाल उठता है कि क्या जाँच एजेंसियाँ सरकार के दबाव से मुक्त हुई? ऐसा क्या हुआ कि उसी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा? 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल माँग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया था। पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को याद किया और कहा है, देश को टी एन शेषन जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है। 


सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की। इन याचिकाओं में माँग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी एक कॉलोजियम की प्रक्रिया से होना चाहिये। इस बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि ये चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिससे चयनकर्ता समिति में तीन सदस्य हों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री व लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष। यह माँग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है। अगर उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले। इस फ़ैसले के आधार पर जब तक संसद द्वारा क़ानून पास नहीं हो जाता तब तक इसी फ़ैसले के दिशा निर्देशों के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियाँ होंगी। 

पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए जिस तरह मुख्य जाँच एजेंसियों के निदेशकों की नियुक्ति व सेवा विस्तार किए जा रहे हैं उससे इन जाँच एजेंसियों की स्वायत्ता और निष्पक्षता पर स्वाल उठ रहे हैं। यदि किसी जाँच एजेंसी के निदेशक को इस बात का पता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत उसकी नियुक्ति पारदर्शिता से हुई है तो उसे उसके दो साल के निश्चित कार्यकाल से कोई नहीं हटा सकता। ऐसी स्थित में वो बिना किसी सरकारी दखल या दबाव के अपना काम निष्पक्षता से कर सकता है। परंतु यदि उस निदेशक के नियुक्ति पत्र में कुछ ऐसा लिखा जाए कि उस निदेशक का कार्यकाल एक निश्चित अवधी ‘या अगले आदेश तक’ वैध है तो उस पर अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी दबाव बना रहता है। ऐसे में वो निदेशक कितना स्वायत्त या निष्पक्ष रहेगा कहा नहीं जा सकता। 


भाजपा के वरिष्ठ नेता स्व॰ अरुण जेटली ने राज्यसभा में दिए एक बयान में कहा था, ये ख़तरा बड़ा है, रिटायर होने के बाद सरकारी पद पाने की इच्छा रिटायर होने से पहले के जज के फ़ैसलों को प्रभावित करती है, ये न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा है। एक अन्य बयान में जेटली ने कहा था, रिटायर होने से पहले दिए जाने वाले फ़ैसले रिटायर होने के बाद मिलने वाले पद के प्रभाव में दिए जाते हैं। जेटली का ये बयान न सिर्फ़ जजों पर लागू होता है बल्कि जाँच एजेंसियों और कुछ संविधानिक पदों पर नियुक्त लोगों पर भी लागू होता है। ऐसे में यदि सुप्रीम कोर्ट ने इन नियुक्तियों को लेकर एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है तो ये एक अच्छी पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

परंतु सरकार जिस भी दल की हो वो ऐसी नियुक्तियों के लिए भेजे जाने वाले नामों के पैनल में केवल अपने चहेते अधिकारियों के ही नाम भेजती है। ऐसे में नियुक्त करने वाली समिति के पास इन्हीं नामों में से एक का चयन करने का विकल्प रहता है। यदि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की सूची को सार्वजनिक किया जाए और बेदाग़ छवि वाले सेवानिवृत अधिकारियों की राय को भी लिया जाए तो ऐसी नियुक्तियों को निष्पक्ष माना जा सकता है। इस दिशा में व्यापक दिशा निर्देशों की भी आवश्यकता है। यदि ऐसा होता है तो आम जनता का विश्वास न सिर्फ़ नियुक्ति की प्रणाली में बढ़ेगा बल्कि इन संस्थाओं की कार्यशैली पर भी बढ़ेगा। 


जाँच एजेंसियाँ हो या चुनाव आयोग या कोई अन्य सांविधानिक संस्था यदि वो निष्पक्ष और स्वायत्त रहती है तो लोकतंत्र मज़बूत रहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र ख़तरे में आ सकता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत करते हुए इस क़ानून का रूप दिया जाना चाहिए और इसे सुनिश्चित किया जाए कि सभी नियुक्तियों को पारदर्शिता से किया जाए न कि पक्षपात के साथ। 

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपने हर चुनाव अभियान में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सभी विपक्षी दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। जबकि भाजपा ईमानदार सरकार देने का वायदा करती है। पिछले हफ़्ते कर्नाटक के भाजपा विधायक के बेटे को किसी ठेकेदार से 40 लाख की रिश्वत लेते लोकायुक्त ने गिरफ़्तार करवाया। बाद में उसी विधायक के बेटे के घर से 8 करोड़ रुपये भी बरामद हुए। इसी राज्य में पिछले वर्ष एक ठेकेदार ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि भाजपा सरकार का मंत्री उससे 40 प्रतिशत कमीशन माँग रहा है। दावा तो हर राजनैतिक दल यही करता है कि वो एक ईमानदार सरकार देगा पर सत्ता में आते ही हर दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है। कर्नाटक का तो यह एक उदाहरण है पर क्या जनता ये कह सकती है कि उनके राज्य में भाजपा के सत्ता के आने बाद भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया या कम हो गया? ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। तो क्या वजह है कि पिछले वर्षों में सीबीआई और ईडी के छापे केवल विपक्षी दलों के नेताओं पर ही पड़े हैं, सत्तारूढ़ नेताओं पर नहीं? इन विवादों से बचने के लिए ये ज़रूरी है कि मोदी जी जाँच एजेंसियों और संविधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता और स्वायत्ता सुनिश्चित करें।   

Monday, November 21, 2022

इतने बड़े घोटालों की जाँच में पक्षपात क्यों हो रहा है?



बैंकों का धन लूटकर विदेशों में धन शोधन करने वाले बड़े औद्योगिक घरानों की जाँच को लेकर जाँच एजेंसियाँ आए दिन विवादों में घिरी रहती हैं। मामला नीरव मोदी का हो, विजय माल्या का हो या मेहुल चोक्सी का हो, इन भगोड़े वित्तीय अपराधियों को जेल की सलाख़ों के पीछे भेजने में हमारे देश की बड़ी जाँच एजेंसियाँ लगातार विफल रही हैं। ऐसी नाकामी के कारण ही इन एजेंसियों पर चुनिन्दा आरोपियों के ख़िलाफ़ ही कारवाई करने के आरोप भी लगते रहे हैं। 


पिछले दिनों कानपुर की रोटोमैक पेन कंपनी के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 750 करोड़ रुपए से अधिक के बैंक फ्रॉड का मामला दर्ज किया है। पेन बनाने वाली इस नामी कंपनी पर आरोप है कि इन्होंने कई बैंकों से ऋण लेकर आज तक नहीं लौटाए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 7 बैंकों के समूह के लगभग 2919 करोड़ रुपये इस कंपनी पर बकाया हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक फ्रॉड का यह मामला नया नहीं है। बैंक को चूना लगाने वाली यह कंपनी जून 2016 में ही नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) घोषित कर दी गई थी। छह साल बाद 2022 में जब सीबीआई द्वारा इस कंपनी पर कार्यवाही शुरू हुई तब तक कंपनी के कर्ताधर्ता विक्रम कोठारी का निधन भी हो चुका था। जाँच और कार्यवाही में देरी के कारण बैंकों को करोड़ों का चूना लग चुका था। 


देश में कोठारी जैसे अनेक लोग हैं जो बैंक से लोन लेते हैं। यदि वो छोटे-मोटे लोन लेने वाले व्यापारी होते हैं तो उनके ख़िलाफ़ बहुत जल्द कड़ी कार्यवाही की जाती है। परंतु आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि बैंकों के धन की बड़ी चोरी करने वाले आसानी से जाँच एजेंसियों के हत्थे नहीं चढ़ते। इसका कारण, बैंक अधिकारी और व्यापारी की साँठ-गाँठ होता है। ऋण लेने वाला व्यापारी बैंक के अधिकारी को मोटी रिश्वत के भार के तले दबा कर अपना काम करा लेता है और किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। जब ऋण और उस पर ब्याज मिला कर रक़म बहुत बड़ी हो जाती है तो तेज़ी से कार्यवाही करने का नाटक किया जाता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 



रोटोमैक कांड के आरोपियों की सूची में कानपुर का एक और समूह है जिस पर जाँच एजेंसियों की कड़ी नज़र नहीं पड़ी। आरोप है कि इस समूह ने विभिन्न बैंकों के साथ सात हज़ार करोड़ से अधिक रुपये का घोटाला किया है। इस समूह ने फ़र्ज़ी कंपनियों का जाल बिछा कर बैंकों के साथ धोखा किया है। इस समूह के मुख्य आरोपीयों, उदय देसाई और सरल वर्मा की कंपनियाँ - एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड, रोटोमैक कांड के सह-अभियुक्त भी हैं। इसके चलते इनकी गिरफ़्तारी भी हुई थी। लेकिन कोविड और स्वास्थ्य कारणों के चलते इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दी गई। ग़ौरतलब है कि सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफ़आईओ) में इस समूह के ख़िलाफ़ 2019 से विभिन्न बैंकों द्वारा 8 एफ़आईआर दायर हो चुकी हैं। परंतु वर्मा और देसाई बंधुओं पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।  


उदय देसाई ने दिल्ली उच्च न्यायालय में विदेश जाने की गुहार लगा कर एक याचिका दायर की। कोर्ट ने जुलाई 2022 के अपने आदेश में याचिका रद्द करते हुए इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया कि विभिन्न जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अनेक गंभीर मामलों के बावजूद आरोपियों को केवल एक ही बार पूछताछ के लिए बुलाया गया। जाँच एजेंसियों ने सघन जाँच और पूछताछ की शुरुआत ही नहीं की। 



सोचने वाली बात है कि हज़ारों करोड़ के घोटाले के आरोपियों को केवल एक ही बार बुला जाँच एजेंसियों को इस बात का इत्मीनान हो गया कि आरोपियों को दोबारा पूछताछ के लिए नहीं बुलाना चाहिए? क्या एक ही बार में पूछताछ से जाँच एजेंसियाँ संतुष्ट हो गई? क्या आरोपी एक ही बार में एजेंसियों के ‘कड़े सवालों’ का संतोषजनक जवाब दे पाये? क्या ये प्रमुख जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों से ऐसे ही, केवल एक बार ही जाँच और पूछताछ करती हैं? इस से कहीं छोटे मामलों में विपक्षी नेताओं या नामचीन लोगों के ख़िलाफ़ भी इन एजेंसियों का क्या यही रवैया रहता है? क्या इन आरोपियों की करोड़ों संपत्ति को ज़ब्त किया गया? क्या इनकी बेनामी संपत्तियों तक ये एजेंसियाँ पहुँच पाईं? सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मृत्यु के बाद जिस तरह बॉलीवुड के सितारों को लगातार पूछताछ के लिए बुलाया गया था क्या वैसा कुछ इनके भी साथ हुआ? अगर नहीं तो क्यों नहीं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो, उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। जैसा हमने पिछली बार भी लिखा था कि मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो कुछ चुनिन्दा लोगों पर, अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अन्य मामलों को छोड़ अगर देसाई और वर्मा बंधुओं के मामले को ही लें तो यह बात सच साबित होती है। 


दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर को जब एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड के घोटालों से संबंधित सभी दस्तावेज़ मिले तो उन्होंने इन आरोपों को सही पाया। कपूर ने 6 मई 2022 को इन सभी एजेंसियों को सप्रमाण पत्र लिख कर देसाई और वर्मा द्वारा किए गए हज़ारों करोड़ रुपये के घोटालों की जाँच की माँग की थी। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती? 


घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, April 4, 2022

डॉ अर्चना शर्मा की शहादत से सबक


दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की ख़ुदकुशी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अख़बार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली। पत्रकार होने के नाते डॉ शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ जिसने पुलिस की एफ़आईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घण्टों के भीतर ही डॉ अर्चना शर्मा फाँसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में ये प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जब संवाददाता एकतरफ़ा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्रायः ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रक़म वसूली जा सके। ये बात दूसरी है कि ऐसी ज़्यादातर खबरें जाँच पढ़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं। पर तब तक उस व्यक्ति की तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही
  जाती है। ये बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। 



प्रेस काउन्सिल औफ़ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय व पत्रकारों के संगठनों को इस विषय में गम्भीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया, जिससे उनकी नौकरियाँ भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखने से पहले ये भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण ज़रूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फ़ायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुक़द्दमा नहीं झेलना पड़ता। 


डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने एफ़आईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ शर्मा पर धारा 302 लगा दी। यानी उन्हें साज़िशन हत्या करने का दोषी करार कर दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुषप्रवृत्ति फैलती जा रही है। जब पुलिस बिना किसी तहक़ीक़ात के केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफ़आईआर में तमाम बेसर-पैर की धाराएँ लगा देती है। जिन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती और उसके लिए न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है। पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहला, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रक़म वसूलनी होती है। दूसरा, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है। तीसरा कारण होता है जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुक़द्दमें में फँसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा हाल ही में आई एक फ़िल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है। 


ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1977 में जब जनता सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आजतक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफ़ारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं। पर केंद्र और राज्य की कोई भी सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए क़ानूनों के तहत हमारी पुलिस आजतक काम कर रही है। जिसका ख़ामियाज़ा भारत का आम आदमी हर रोज़ भुगत रहा है। देशभर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों व वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए एक देश व्यापी अभियान लगातार चलाना चाहिए। जिससे सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएँ। 


दरअसल आज़ादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर व धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूँकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फ़ोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षों में मौक़ा मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात, बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसी है और उसमें सुधार के बिना आम जनता को न्याय नहीं मिल सकता। 


इस मामले में डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है उन्होंने जान बूझ कर इस मामले अकारण तूल दिया। जिसका उद्देश केवल डॉ अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थित को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गयी है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि डॉ अर्चना शर्मा के मामले प्रथमदृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण क्रमशः अपनी आदर्श स्थित से नीचे गिरता जा रहा है। जहां कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत ज़रूरत है। हालाँकि डॉ अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है और इसलिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।    

Monday, November 22, 2021

सीबीआई और ईडी निदेशकों का सेवा विस्तार


ताज़ा अध्यादेश के ज़रिए भारत सरकार ने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों के कार्यकाल को 5 वर्ष तक बढ़ाने की व्यवस्था की है। अब तक यह कार्यकाल दो वर्ष का निर्धारित था। अब इन निदेशकों को एक-एक साल करके तीन साल तक और अपने पद पर रखा जा सकता है। पहले से ही विवादों में घिरी ये दोनों जाँच एजेंसियाँ विपक्ष के निशाने पर रही हैं। इस नए अध्यादेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है, जो अगले संसदीय सत्र में इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है।
 

इन दो निदेशकों के दो वर्ष के कार्यकाल का निर्धारण दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत किया गया था। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी जब हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। क्योंकि तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने। 



ताज़ा अध्यादेश में सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर दी गई है। जिससे यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। इस तरह यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन सकती हैं। क्योंकि केंद्र में जो भी सरकार रही है उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


बेहतर होता कि सरकार इस अध्यादेश को लाने से पहले लोक सभा के आगामी सत्र में इस पर बहस करवा लेती या सर्वोच्च न्यायालय से इसकी अनुमति ले लेती। इतनी हड़बड़ी में इस अध्यादेश को लाने की क्या आवश्यकता थी? सरकार इस फ़ैसले को अपना विशेषाधिकार बता कर पल्ला झाड़ सकती है। पर सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है। 


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 7 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 7 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


इसलिए इस अध्यादेश के मामले सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दख़ल देकर इसकी विवेचना करनी चाहिए। इन महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियों के निदेशकों के कार्यकाल का विस्तार 5 वर्ष करना मोदी जी की ग़लत सोच नहीं है, पर यहाँ दो बातों का ध्यान रखना होगा। पहला; ये नियुक्ति एकमुश्त की जाए, यानी जिस प्रक्रिया से इनका चयन होता है, उसी प्रक्रिया से उन्हें 5 वर्ष का नियुक्ति पत्र या सेवा विस्तार दिया जाए। दूसरा; अधिकारियों में सरकार की चाटुकारिता की प्रवृत्ति विकसित न हो और वे जनहित में निष्पक्षता से कार्य कर सकें इसके लिए उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद सेवा विस्तार न दिया जाए बल्कि इन महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं अधिकारियों के नामों पर विचार किया जाए जिनका सेवा काल अभी 5 वर्ष शेष हो। अगर सरकार ऐसा करती है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और नहीं करती है तो ये जाँच एजेंसियाँ हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगी और नौकरशाही में भी हताशा बढ़ेगी।


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी जैसे बहुत सारे महत्वाकांक्षी फ़ैसले लेते आए हैं। जिससे उनकी उत्साही प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हर फ़ैसला जितने गाजे-बाजे और महंगे प्रचार के साथ देश भर में प्रसारित होता है वैसे परिणाम देखने को प्रायः नहीं मिलते। क्योंकि उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली है और समाज का एक वर्ग उन्हें बहुत चाहता है इसलिए शायद वे संसदीय परम्पराओं व अनुभवी और योग्य सलाहकारों से सलाह लेने की ज़रूरत नहीं समझते। अगर वे अपने व्यक्तित्व में ये बदलाव ले आएँ कि हर बड़े और महत्वपूर्ण फ़ैसले को लागू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर आम जनता से न सही कम से कम अनुभवी लोगों से सलाह ज़रूर ले लें तो उनके फ़ैसले अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार कोई भी नया क़ानून बनाने से पहले जनमत संग्रह ज़रूर कराती है। भारत अभी इतना परिपक्व लोकतंत्र नहीं है पर 135 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फ़ैसले सामूहिक मंथन से लिए जाएं तो यह जनहित में होगा।

Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, January 14, 2019

मकड़जाल में सीबीआई

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को बड़ी राहत देते हुए 77 दिन बाद पुनः अपने पद पर बिठा दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘विनीत नारायण फैसले’ के तहत सीबीआई निदेशक का 2 वर्ष का निधार्रित कार्यकाल ‘हाई पावर्ड कमेटी’ जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, की अनुमति के बिना न तो कम किया जा सकता है, न उसके अधिकार छीने जा सकते हैं और न ही उसका तबादला किया जा सकता है। इस तरह मोदी सरकार के विरूद्ध आलोक वर्मा की यह नैतिक विजय थी। पर अपनी आदत से मजबूर आलोक वर्मा ने इस विजय को अपने ही संदेहास्पद आचरण से पराजय में बदल दिया।

सीबीआई मुख्यालय में पदभार ग्रहण करते ही उन्हें अपने अधिकारियों से मिलना-जुलना, चल रही जांचों की प्रगति पूछना और नववर्ष की शुभकामनाऐं देने जैसा काम करना चाहिए। पर उन्होंने किया क्या? सबसे विवादास्पद व्यक्ति डा. सुब्रमनियन स्वामी से अपने कार्यालय में दो घंटे तक कमरा बंद करके गोपनीय वार्ता की और कमरे के बाहर लालबत्ती जलती रही। जिसके तुरंत बाद उन्होंने उन सभी अधिकारियों के तबादले रद्द कर दिये, जिन्हें 23 अक्टूबर और उसके बाद सरकार ने सीबीआई से हटाया था। जबकि श्री वर्मा को अदालत का स्पष्ट आदेश था कि वे कोई भी नीतिगत फैसला नहीं लेंगे, जब तक कि ‘हाई पावर्ड कमेटी’ उनके खिलाफ लगे भ्रष्टाचार आरोपों की जांच नहीं कर लेती। इस तरह श्री वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की अवमानना की।

इससे भी महत्वपूर्णं बात ये है कि देश के 750 से ज्यादा सांसदों में से अकेले केवल डा. सुब्रमनियन स्वामी ही क्यों आलोक वर्मा को चार्ज मिलते ही उनसे मिलने पहुंचे। इससे दिल्ली के सत्ता और मीडिया के गलियारों में पिछले कई महीनों से चल रही इस चर्चा को बल मिलता है कि आलोक वर्मा डा. स्वामी के नेतृत्व में सरकार के विरूद्ध चलाये जा रहे षड्यंत्र का हिस्सा हैं। इतना ही नहीं इससे यह भी संदेह होता है कि श्री वर्मा ने उन दो घंटों में डा. स्वामी को सीबीआई की गोपनीय फाईलें अवैध रूप से दिखाई होंगी। उनके इस आचरण का ही परिणाम था कि सलैक्ट कमेटी ने उन्हें अगले दिन ही फिर से कार्यमुक्त कर दिया।

इससे पहले प्रधानमंत्री कार्यालय को सूचित किया गया था कि डा. सुब्रमनियन स्वामी, आलोक वर्मा, ईडी के हटाऐ गए सह निदेशक राजेश्वर सिंह व ईडी के सेवामुक्त हो चुके तत्कालीन निदेशक करनेल सिंह मिलकर प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध कोई बड़ी साजिश रच रहे हैं। डा. स्वामी दावा तो यह करते हैं कि वे भ्रष्टाचार से लड़ने वाले योद्धा हैं, पर उनके आचरण ने बार-बार यह सिद्ध किया है  कि वे घोर अवसरवादी व्यक्ति हैं, जो अपने लाभ के लिए कभी भी किसी को भी धोखा दे सकते हैं। इतना ही नहीं उन्हें यह अहंकार है कि वे किसी को भी ईमानदार या भ्रष्ट होने का सर्टिफिकेट दे सकते हैं। इन अधिकारियों के विषय में ऐसे तमाम प्रमाण हैं, जो उनकी नैतिकता पर प्रश्न चिह्न खड़े करते हैं। पर डा. स्वामी गत 6 महीनों से इन्हें भारत का सबसे ईमानदार अफसर बताकर देश को गुमराह करते रहे। इसका कारण इन सबकी आपसी सांठ-गांठ है। जिसका उद्देश्य न जनहित है और न राष्ट्रहित, केवल स्वार्थ है। इस आशय के तमाम प्रमाण पिछले 6 महीनों में मैं ट्विटर्स पर देता रहा हूं।

अब आता है मामला राफेल का । आलोक वर्मा के बारे में यह हल्ला मच रहा है  कि वे राफेल मामले में प्रधानमंत्री को चार्जशीट करने जा रहे थे। इसलिए उन्हें आनन-फानन में हटाया गया। जब तक इस मामले के तथ्य सामने न आऐ, तब तक इस पर कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर एक बात तो साफ है कि अगर किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह का भ्रष्ट आचरण किया जाता है, जो कानून की नजर में अपराध है, तो उसके प्रमाण कभी नष्ट नहीं होते और न ही वह केस हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है। इसलिए अगर वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध राफेल मामले में सीबीआई के पास कोई प्रमाण है, तो वे आज नही तो कल सामने आ ही जाऐंगे।

सवाल है आलोक वर्मा को अगर ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा थी, तो उन्होंने राकेश अस्थाना के खिलाफ मोर्चा क्यों खोला? उन्हें चाहिए था कि वे प्रधानमंत्री को ही अपना निशाना बनाते। तब देश इस बात को मानता कि वे निष्पक्षता से राष्ट्रहित में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उधर सीबीआई के सह निदेशक राकेश अस्थाना ने एक वर्ष पहले ही भारत के कैबिनेट सचिव को आलोक वर्मा के कुछ भ्रष्ट और अनैतिक आचरणों की सूची दी थी। जिसकी जानकारी मिलने के बाद आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना की तरफ अपनी तोप दागनी शुरू कर दी। उधर वे डा. स्वामी के नेतृत्व में एक बड़ी साजिश को अंजाम देने में जुटे ही थे। कुल मिलाकर सारा मामला सुलझने के बजाए और ज्यादा उलझ गया। नतीजतन उन्हें समय से तीन महीने पहले घर बैठना पड़ गया। जहां तक राकेश अस्थाना के विरूद्ध आरोपों की बात है, तो उनकी जांच पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से होनी चाहिए। तभी देश का विश्वास सीबीआई पर  टिका रह पाऐगा। आज तो सीबीआई की छबि अपने न्यूनतम स्तर पर है।

चलते-चलाते मैं अपनी बात फिर दोहराना चाहता हूं कि लगातार सीबीआई के तीन निदेशकों  का भ्रष्ट पाऐ जाना, यह सिद्ध करता है कि ‘ विनीत नारायण फैसले’ से जो चयन प्रक्रिया सर्वोच्च् अदालत ने तय की थी, वह सफल नहीं रही। इसलिए इस पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को पुनर्विचार करना चाहिए। दूसरी बात सीबीआई को लगातार केंद्र सरकारे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को ब्लैकमेल करने का हथियार बनाती रही हैं।। इसलिए अदालत को इस पर विचार करना चाहिए कि कोई भी केंद्र सरकार विपक्षी दलों के नेताओं के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में जो भी जांच करना चाहे, वह अपने शासन के प्रथम चार वर्षों में पूरी कर ले। चुनावी वर्ष में तेजी से कार्यवाही करने के पीछे, जो राजनैतिक द्वेष की भावना होती है, उससे लोकतंत्र कुंठित होता है।  इसलिए सीबीआई में अभी  बहुत सुधार होना बाकी है।

Monday, October 29, 2018

सीबीआई में घमासान क्यों?

पिछले एक हफ्ते से सभी टीवी चैनलों, अखबारों, सर्वोच्च आदालत और चर्चाओं में सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रहे घमासान की चर्चा है। लोग इसकी वजह जानने को बैचेन हैं। सरकार ने आधी रात को सीबीआई भवन को सीलबंद कर इन दोनों को छुट्टी पर भेज दिया। तब से हल्ला मच रहा है कि सरकार को सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने का कोई हक नहीं है। क्योंकि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ में सीबीआई निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष की सीमा में निर्धारित कर दिया गया था, चाहे उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख निकल चुकी हो। ऐसा करने के पीछे मंशा यह थी कि महत्वपूर्णं मामलों में सरकार दखलअंदाजी करके अचानक किसी निदेशक का तबादला न कर दे। 
पर इस बार मामला फर्क है। यह दोनों सर्वोच्च अधिकारी आपस में लड़ रहे थे। दोनों एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे और दोनों पर अपने-अपने आंकाओं के इशारों पर काम करने का आरोप लग रहा था। स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि अगर सख्त कदम न उठाऐ जाते, तो सीबीआई की और भी दुर्गति हो जाती। हालांकि इसके लिए सरकार का ढीलापन भी कम जिम्मेदार नहीं।

एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर बोलते हुए सरकारी फैसले से कई दिन पहले मैंने ही यह सुझाव दिया था कि इन दोनों को फौरन छुट्टी पर भेजकर, इनके खिलाफ जांच करवानी चाहिए। तब उसी पैनल में प्रशांत भूषण मेरी बात से सहमत नहीं थे। इसलिए जब ये फैसला आया, तो प्रशांत भूषण और आलोक वर्मा दोनों ने इसे चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और उनके सहयोगी जजों ने जो फैसला दिया, वो सर्वोत्तम है। दोनों के खिलाफ दो हफ्तों में जांच होगी और नागेश्वर राव, जिन्हें सरकार ने अंतरिम निदेशक नियुक्त किया है, वो कोई नीतिगत निर्णंय नहीं लेंगे। अब अगली सुनवाई 12 नवंबर को होगी।

दरअसल 1993 में जब ‘जैन हवाला कांड’ की जांच की मांग लेकर मैं सर्वोच्च न्यायालय गया था, तो मेरी शिकायत थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के इस आंतकवाद से जुड़े घोटाले को राजनैतिक दबाब में सीबीआई 1991 से दबाये बैठी है। पर 1997 में जब हवाला केस प्रगति कर रहा था, तब प्रशांत भूषण और इनके साथियों ने, अपने चहेते कुछ नेताओं को बचाने के लिए, अदालत को गुमराह कर दिया। मूल केस की जांच तो ठंडी कर दी गई और सीबीआई को स्वायतता सौंप दी गई और सीवीसी का विस्तार कर दिया। इस उम्मीद में कि इस व्यवस्था से सरकार का हस्तक्षेप खत्म हो जाऐगा।

आज उस निर्णय को आए इक्कीस बरस हो गए। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने राजनैतिक लाभ के लिए सीबीआई का दुरूपयोग नहीं करते? क्या सीबीआई के कई निदेशकों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे? क्या सीबीआई में ‘विनीत नारायण फैसले’ या ‘सीवीसी अधिनियम’ की अवहेलना करके पिछले दरवाजे से बडे़ पदों अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? अगर इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में हैं, तो यह स्पष्ट है कि जो अपेक्षा थी, वैसी पारदर्शिता और ईमानदारी सीबीआई का नेतृत्व नहीं दिखा पाया। इसलिए मेरा मानना है कि इस पूरे फैसले को पिछले 21 वर्षों के अनुभव के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुनः परखा जाना चाहिए और जो विसंगतियां आ गईं हैं, उन्हें दूर करने के लिए एक संवैधानिक बैंच का गठन कर ‘विनीत नारायण फैसले’ पर पुर्नविचार करना चाहिए । ऐसे नये निर्देश देने चाहिए, जिनसे ये विसंगतियां दूर हो सके।

मैं स्वयं इस मामले में पहल कर रहा हूं और एक जनहित याचिका लेकर जल्दी ही सर्वोच्च अदालत में जाऊंगा। पर उससे पहले मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों, जागरूक वकीलों और चिंतकों को संदेश भेजा है कि सीबीआई और प्रर्वतन निदेशालय के सुधार के लिए वे मुझे mail@vineetnarain.net पर अपने सुझावों को ईमेल से भेजें। जिन्हें इस याचिका में शामिल किया जा सके। मुझे उम्मीद है कि माननीय न्यायालय राष्ट्रहित में और सीबीआई की साख को बचाने के उद्देश्य से इस याचिका पर ध्यान देगा।

वैसे भारत के इतिहास को जानने वाले अपराध शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा कोई समय नहीं हुआ, जब पूरा प्रशासन और शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो। भगवत् गीता के अनुसार भी समाज में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का हिस्सा विद्यमान रहता है। जो गुण विद्यमान रहता है, उसी हिसाब से समाज आचरण करता है। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रशासन में ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका, मीडिया, धर्मसंस्थानों, शिक्षा संस्थानों व निजी उद्यमों में ज्यादा से ज्यादा सतोगुण बढ़े और तमोगुण कम से कम होता जाऐ। इसलिए केवल कानून बना देने से काम नहीं चलता, ये सोच तो शुरू से विकसित करनी होगी। सीबीआई भी समाज का एक अंग है और उसके अधिकारी इसी समाज से आते हैं। तो उनसे साधु-संतों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
पर लोकतंत्र की रक्षा के लिए और आम नागरिक का सरकार में विश्वास कायम रखने के लिए सीबीआई जैसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी होना पड़ेगा। अन्यथा इनसे सबका विश्वास उठ जाऐगा।