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Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, March 29, 2021

सीएसआर का धंधा सबसे चंगा


भारत के आयकर विभाग के सर्वोच्च अधिकारी ने गोपनीयता की शर्त पर बताया की सीएसआर (निगमित सामाजिक दायित्व) के नाम पर बरसों से इस देश में बड़े घोटाले हो रहे हैं। उन्होंने मेरे सहयोगी रजनीश कपूर से पूछा कि आपने ब्रज में इतने सारे जीर्णोद्धार के, इतने प्रभावशाली तरीक़े से कार्य किए हैं, इसमें अब तक कितने करोड़ रुपया खर्च कर चुके हैं? रजनीश ने कहा कि 18 वर्षों में लगभग 23 करोड़ रुपए। यह सुनकर वे अधिकारी उछल पड़े और बोले,
इतना सारा काम केवल 23 करोड़ में। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। तब बोले कि मेरे पास ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं की एक लम्बी सूची है जिनका सालाना बजट कई सौ करोड़ रुपए से लेकर हज़ार करोड़ रुपय तक है। लेकिन इनमें से ज़्यादातर एनजीओ ऐसी हैं जिनके पास ज़मीन पर दिखाने को कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। ये सारा गोलमाल देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा टैक्स बचाने के लिए किया जाता है। लेकिन अब मोदी सरकार ने निर्देश दिए हैं कि ऐसा फ़र्जीवाड़ा करने वालों पर लगाम कसी जाए। 


दरअसल जब से यह क़ानून बना कि एक सीमा से ऊपर उद्योग या व्यापार करने वालों को अपने मुनाफ़े का कम से कम 2 फ़ीसदी सामाजिक कार्यों पर खर्च करना अनिवार्य होगा। तबसे ज़्यादातर औद्योगिक घरानों ने धर्मार्थ ट्रस्ट या एनजीओ बना लिए और सीएसआर का अपना फंड इनमें ट्रांसफ़र करके टैक्स बचा लिया। इनमें से कुछ ने इस फंड से सामुदायिक सेवा के अनेक तरह के कार्य किए और आज भी कर रहे हैं। पर ज़्यादातर ने इस फंड का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए ही किया। मसलन अगर किसी उच्च अधिकारी या मंत्री से कोई बड़ा फ़ायदा लेना था तो उसकी पत्नी या बच्चों के बनाए एनजीओ को बिना जाँचे परखे उदारता से दान दिया और कभी उस पैसे के इस्तेमाल का हिसाब नहीं माँगा। न यह जा कर देखा कि क्या ये पैसा वाक़ई उस काम में खर्च हुआ जिसके लिए ये दिया गया था? स्पष्ट है कि जब उद्देश्य दान की शक्ल में रिश्वत देने का था तो उनकी बला से वो एनजीओ उस पैसे से कुछ भी करे। नतीजतन इन मंत्रियों और अधिकारियों के परिवारों ने सेमिनार, शोध, सर्वेक्षण, वृक्षारोपण, शिक्षा प्रसार, स्वास्थ्य सेवाएँ, पेयजल व महिला सशक्तिकरण जैसे लोकप्रिय मदों के तहत झूठे खर्चे दिखाए और उस पैसे से खुद मोटा वेतन और तमाम भत्ते लिए और गुलछर्रे उड़ाए। 


यह क्रम जैसा यूपीए सरकार में चल रहा था वैसा ही आज भी चल रहा है। जो एनजीओ निष्ठा से, समर्पण से, पारदर्शिता से और गंभीरता से अपने उद्देश्यों के लिए रात दिन ज़मीनी स्तर पर ठोस काम करतीं हैं उन्हें सीएसआर का अनुदान लेने में चप्पलें घिसनी पड़ती हैं। तब जा कर उन्हें चूरन चटनी की मात्रा में अनुदान मिलता हैं। पर जो एनजीओ अनुदान के पैसे पर गुलछर्रे उड़ती है और ज़मीन पर फ़र्जीवाड़ा करती है उन्हें करोड़ों रुपए के अनुदान बिना प्रयास के मिल जाते हैं। इनसे कोई नहीं पूछता की तुमने इतने पैसे का क्या किया? इसकी अगर आज ईमानदारी से जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। सीएसआर फंड को खर्च करने का तरीक़ा बड़ा व्यवस्थित है। हर कम्पनी में, चाहे निजी हो, चाहे सार्वजनिक - सीएसआर का काम देखने के लिए एक अलग विभाग होता है। जिसके अधिकारियों का यह दायित्व होता है की वे किसी एनजीओ से आनेवाले प्रस्तावों का, उनकी गुणवत्ता और उपयोगिता का गम्भीरता से मूल्यांकन करें। यदि वे संतुष्ट हो तभी अनुदान स्वीकृत करें। अनुदान देने के बाद उस एनजीओ के काम पर तब तक निगरानी करें जब तक कि वह अपना उद्देश्य पूरा ना कर ले। 25 लाख तक के अनुदान के मामलों में प्रायः यह सावधानी बरती जाती है। पर जो बड़ी मात्रा में मोटे अनुदान दिए जाते हैं, उसमें प्रस्ताव की गुणवत्ता का मूल्यांकन गौण हो जाता है क्योंकि उनकी स्वीकृति के निर्देश मंत्री, मंत्रालय के उच्च अधिकारी या प्रतिष्ठान के अध्यक्ष से सीधे आते हैं और मूल्यांकन की कार्यवाही तो महज़ ख़ानापूर्ति होती हैं। 


सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में सीएसआर के लिए एक सलाहकार समिति बनाने का भी प्रावधान होता है, जिसमें नियमानुसार ऐसे अनुभवी और योग्य सदस्य मनोनीत किए जाने चाहिए जिनका सामाजिक सेवा कार्यों का गहरा अनुभव हो। पर अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं होता। केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ता या उनसे जुड़े संगठनों के कार्यकर्ता इन समितियों में नामित कर दिए जाते रहे हैं और आज भी किए जाते हैं। इनका उद्देश्य ईमानदारी से समाज सेवा करना नहीं बल्कि अपने चहेतों की स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान दिलवाकर अपना उल्लू सीधा करना होता है। यही कारण है कि सी एस आर का बजट तो बहुत खर्च होता है पर उसकी तुलना में ज़मीन पर काम बहुत कम दिखाई देता है। 


जब राजनेताओं से इस विषय पर बात करो तो उनका कहना होता है कि हमारे कार्यकर्ता बरसों हमारे पीछे झंडा लेकर दौड़ते हैं। इस उम्मीद में कि जब हम सत्ता में आएँगे तो उन्हें कुछ आर्थिक लाभ होगा। इसलिए हमारी मजबूरी है कि हम इन कार्यकर्ताओं को ऐसी कम्पनियों में पद देकर उपकृत करें। ये तर्क राजनैतिक दृष्टि से ठीक हो सकता है पर समाज की दृष्टि से ठीक नहीं है। इस देश का यह दुर्भाग्य है कि आम आदमी को लक्ष्य करके उसका दुःख दर्द दूर करने के लिए तमाम योजनाएँ और कार्यक्रम चलाए जाते हैं। पर उनका एक अंश ही उस आम आदमी तक पहुँचता है। बाक़ी रास्ते में ही सोख लिया जाता है। सीएसआर की भी यही कहानी है। जब सारे कुएँ में ही भांग पड़ी हो वहाँ कुछ समझौता करके चलना पड़ेगा। भारत सरकार को चाहिए कि सीएसआर फंड का एक हिस्सा, जो एक तिहाई भी हो सकता है, ‘सामाजिक जागरूकता’ जैसे मद में खर्च करने के लिए निर्धारित कर दे। इस मद में जो आवंटन हो वो राजनैतिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता के लिए उपलब्ध करा दिया जाए। पर बाक़ी का 70 फ़ीसदी किसे और किस काम के लिए दिया जाता है इस पर सख़्त नियम बनें और निजी और सार्वजनिक कम्पनियों को पारदर्शिता के साथ इन नियमों का पालन करने की बाध्यता कर दी जाए। इससे ईमानदार और समाज के प्रति समर्पित लोगों को भी प्रोत्साहन मिलेगा और समाज सेवा के नाम पर खर्च किये जा रहे धन का सदुपयोग होगा।        

Monday, June 17, 2019

मोदी जी हम टैक्स चोर नहीं हैं!


जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हमारी सहपाठी रहीं भारत की वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश की जनता से आगामी बजट के लिए रचनात्मक सुझाव मांगे है। इसकी प्रतिक्रिया में एक डॉक्टर ने भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी को एक रोचक पत्र लिखा है। जिसमें डॉक्टर का कहना कि मोदी जी हम टैक्स चोर नहीं हैं। फिर हम क्यों टैक्स चोरी करते हैं? ये पत्र उन्होंने हर उस व्यापारी या प्रोफेश्नल की तरफ से लिखा है, जिसकी क्षमता आयकर देने की है।

वे लिखते हैं कि हमें अपने घर, दफ्तर और कारखानों में जेनरेटर चलाकर बिजली पैदा करनी पड़ती है, क्योंकि सरकार 24 घंटे बिजली नहीं दे पाती। हमें सबमर्सिबल पंप लगाकर अपनी जलापूर्ति करनी पड़ती है, क्योंकि जल विभाग हमें आवश्यकतानुसार पानी नहीं दे पाता। हमें अपनी सुरक्षा के लिए सिक्योरिटी गार्ड भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि पुलिस हमारी रक्षा नहीं करती। हमें अपने बच्चों को मंहगे प्राइवेट स्कूलों में पढाना पड़ता है, क्योंकि सरकारी स्कूलों की हालत बहुत खराब है। हमें अपना इलाज भी मंहगे प्राइवेट अस्पतालों में करवाना पड़ता है, क्योंकि सरकारी अस्पताल खुद ही आई.सी.यू. में पड़े हैं। हमें आवागमन के लिए अपनी कारें खरीदनी पड़ती हैं, क्योंकि सरकारी ट्रांस्पोर्ट व्यवस्था की हालत खस्ता है।

सेवानिवृत्त होने के बाद एक आयकरदाता को इज्जत से जिंदा रहने के लिए सरकार से मिलता ही क्या है? कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। बल्कि उसकी जिंदगीभर की मेहनत की कमाई से सरकार जो कर उघाती है, वह राजनेता वोटों के लालच में बड़ी-बड़ी खैरात बांटकर लुटा देते हैं। प्रश्न ये है कि हमारे कर की आय से सरकार क्या-क्या करती है? अदालत चलाती है? जहां वर्षों न्याय नहीं मिलता। थाने बनाये गए हैं? जहां केवल राजनेताओं और आला-अफसरों की सुनी जाती है। आम आदमी की तो शिकायत भी रिश्वत लेने के बाद दर्ज होती है। स्कूल और अस्पतालों के भवनों को बनाने पर सरकार खूब खर्च करती है, जो कुछ सालों में खंडहर हो जाते हैं। सरकार सड़के बनवाती है, जिसमें 40 फीसदी तक कमीशन खाया जाता है। यह सूची बहुत लंबी है।

पश्चिमी देशों में जिस तरह की सामाजिक सुरक्षा सरकार देती है, उसके बाद वहां के नागरिक टैक्स चोरी क्यों करें ? जब हर सुविधा उन्हें सरकार से ही मिल जाती है, तो उन्हें चिंता किस बात की? जबकि हमारे यहां अरबों-खरबों रूपया केवल नेताओं और अफसरों के ठाट-बाट, सैर-सपाटों और ताम-झाम पर खर्च होता है। जनता पर खर्च होने के लिए बचता ही क्या है?

एक कारखानेदार 2 से 10 फीसदी मुनाफे पर उत्पादन करता है। जबकि सरकार को अपनी आय का 30 फीसदी अपनी व्यवस्था चलाने पर ही खर्च करना होता है। ये कहां तक न्याय संगत है?

यही कारण है कि भारत में कोई सरकार को कर अदा नहीं करना चाहता। हम टैक्स बचाते हैं, अपने परिवार की परवरिश के लिए और बुढ़ापे में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। जबकि ये सब जिम्मेदारी अगर सरकार लेती, तो हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ती।

दूसरी तरफ अगर सरकार ये घोषणा करे कि उसे सेना के लिए या बाढ़ व तूफान में राहत पहुंचाने के लिए 1000 करोड़ रूपये चाहिए, तो हम सब देशवासी इतना धन 2 दिन में जमा करवा सकते हैं और करवाते भी हैं। सरकार की ऐसी किसी भी मांग पर हम सभी करदाता खुले दिल से सहयोग करने में आगे बढ़ेंगे। इससे स्पष्ट है कि हम सरकार का सहयोग करना चाहते हैं। हम सरकार की उन रणनीतियों और कार्यक्रमों के लिए धन देने को भी तैयार हैं, जिनसे देश की सुरक्षा हो, गरीबों को न्याय मिले और हम सबका जीवन आराम से गुजरे। पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। इसलिए आम करदाता कर देने से बचता है।

जरूरत इस बात की है कि इन सरकारी सेवाओं को सुधारा जाऐ और हमें चोर बताने से पहले जिले से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों और नेताओं की कड़ाई से नकेल कसी जाए। जो अभी तक नहीं हो पाया है। चाहे वह राज्य किसी भी दल द्वारा शासित क्यों न हो, आम आदमी को तो हर जा-बेजा बात के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इससे जनता में सरकार की छवि खराब होती है।

जब भ्रष्टचारी अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों पर लगाम कसी जायेगी, तो इसके तीन लाभ होंगे। एक तो भ्रष्टाचार और कालेधन पर प्रभावी रोक लग सकेगी। दूसरा आम जनता के बीच मोदी जी इतने लोकप्रिय हो जाऐंगे कि अगली बार दुगने मतों से जीतेंगे। तीसरा इस देश का आम व्यक्ति ईमानदारी से इतना कर देगा कि सरकार का खजाना कभी खाली न हो। बशर्ते जनता के इस धन का पारदर्शिता से सार्थक उपयोग हो, उसको एय्याशी में बर्बाद न किया जाए।

पिछले 5 वर्षों में मोदी जी ने भारत सरकार में भ्रष्टाचार को रोकने में भारी सफलता हासिल की है। अब दिल्ली के 5 सितारा होटलों में आपको हाई प्रोइफल दलाल कहीं दिखाई नहीं देते। क्योंकि अब कोई ये दावा नहीं कर सकता कि तुम मुझे इतना रूपया दो, तो मैं तुम्हारा काम करवा दूंगा। अब इससे एक कदम और आगे जाने की जरूरत है। प्रांतों और जिलों में भी इसी संस्कृति का अविलंब परिचय मिलना चाहिए। तभी जनता को लगेगा कि ‘मोदी है, तो मुमकिन है’।

Monday, October 29, 2012

गडकरी और वडेरा

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कांग्रेस की अध्यक्ष के दामाद राबर्ट वडेरा पर अपनी कम्पनियों में आर्थिक अनियमितताएं बरतने का आरोप है। आरोप अभी सिद्ध होने बाकी है। पर मीडिया में छवि दोनों की खराब हो चुकी है। सार्वजनिक जीवन में कहावत है ‘बद अच्छा बदनाम बुरा‘ जो कुछ इन दोनों ने किया है वह देश का लगभग हर व्यापारी करता है। जिससे उसका मुनाफा बढ सकें या कालाधन सफेद हो सके। वैसे कानूनी मापदंडो पर दोनो के ही खिलाफ कोई जघन्य अपराध बनेगा इसकी सम्भावना विशेषज्ञ अभी नही देख पा रहे है। इसलिए दोनों के पक्षधर अपने-अपने मंचो से इनका बचाव करने में जुटे है। अगर अनियमितताएं पायी गयी तो कानून के मुताबिक दोनों को सजा भुगतनी पड सकती है। पर अगर  अनियमितताएं नही पायी जाती तो भी छवि तो बिगड ही चुकी। अन्तर इतना है कि राबर्ट वडेरा अपनी सास के बल पर सत्ता का लाभ लेने के आरोपी है। जबकि नितिन गडकरी उस राष्ट्रीय दल के अघ्यक्ष है जिसका घोषित लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाना है। इसलिए उन पर त्यागपत्र देने का नैतिक दबाब बनाया जा रहा है।
 
दरअसल पूर्वी व उत्तरी भारत और पश्चिमी व दक्षिणी भारत की राजनैतिक संस्कृति में बुनियादी अन्तर है। जहां पश्चिमी व दक्षिणी भारत में ज्यादातर राजनेता व्यापार के साथ राजनीति करते हैं ? उनके कारखाने, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, होटल और कृषि सम्बन्धी बडे- बडे व्यवसाय होते हैं, वहीं पूर्वी व उत्तरी भारत में राजनेताओं को केवल राजनीति के काम में लिप्त पाया जाता है। इसलिए यहां के समाज में व्यापारी को राजनेता स्वीकारने की प्रथा नहीं है। इसीलिए देश के अब तक के सभी प्रधानमंत्री भी गैर-व्यवसायी हुए हैं। जब नितिन गडकरी को संघ के दबाव में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तो उत्तर भारत में काफी नाक भौं सिकोंड़ी गयीं। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि राजनितिज्ञ का सार्वजनिक जीवन हो या निजी जीवन, दोनों के लिए धन की जरूरत होती है। अगर सीधे रास्ते धन नहीं आयेगा तो गलत तरीके से कमाया जायेगा। बिना इस समस्या का हल निकाले राजनीति इसी तरह बदनाम होती रहेगी। अब वो जमाने चले गये जब राजनीति में केवल त्याग और सेवा की भावना से आया जाता था।
 
अब अगर व्यापार की दृष्टि से देखें तो नितिन गडकरी की बेनामी कम्पनियां वही कर रही है जो सारे देश मे हो रहा है। इसे करवाने वाले चार्टर्ड एकाउटेन्ट है। जो अपने ग्राहक को इस तरह घुमाकर काला धन सफेद करने की सलाह देते हैं। गडकरी के मामले में सवाल उठाया जा सकता है कि उन्हें काला धन सफेद करने की क्या जरूरत आन पड़ी ? ऐसा कौन-सा काम था जो वे काले धन से नहीं कर सकते थे ? जहां तक राबर्ट वडेरा का प्रश्न है असुरक्षित ऋण लेना कोई अपराध नहीं है। मित्रों के बीच ऐसा लेन देन अक्सर हुआ करता है। जब ब्याज भी नहीं लिया जाता और कभी कभी तो उसे ‘बैड डैट‘ बताकर अपनी ‘बैलेन्स शीट‘ से हटा दिया जाता है। हाँ अगर राबर्ट वडेरा ने राजनैतिक सम्बन्धों का दुरूपयोग कर अनुचित लाभ कमाया है तो उसे भ्रष्टाचार ही माना जायेगा।
 
देश के सामने बडी विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। कुछ ‘स्वयंभू जननेताओं‘ के नित्य नये नाटकों को देखकर मध्यम वर्ग के मन में सत्ता वर्ग के खिलाफ घृणा और आक्रोश बढाता जा रहा है। जबकि राजनेता और अफसरशाही मोटी चमड़ी किए बैठे हैं और अपने आचरण को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में देश में अराजकता फैलने का पूरा खतरा है। आवश्यकता इस बात की है कि जागरूक जनता सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति सजग और सतर्क रहे। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए सतत दबाव डाले। कोई एक अन्ना या केजरीवाल या बाबा रामदेव या वी पी सिंह या जयप्रकाश नारायण देश से भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म नहीं कर सकता, इसके लिए हर स्तर पर उठकर खडे होना होगा। अपना मसीहा खुद बनना होगा।
 
अगर हम अपने जीवन, अपने परिवार व अपने समाज से भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग और सार्वजनिक धन की बर्बादी नहीं रोक सकते तो हम कैसे उम्मीद करते हैं कि कोई मीडिया का मसीहा देश को सुधार देगा ? इससे तो हताशा ही हाथ लगेगी। संघर्ष के साथ ही हमें जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखना होगा। रस्सी को इतना ही खीचें कि गांठ लग जाये पर रस्सी न टूटे। कल तक कांग्रेस पर तोपें दागने वाले अन्ना और केजरीवाल हतप्रभ रह गये जब उन पर नितिन गडकरी के खिलाफ सबूत छिपाने का आरोप लगा। जब टाईम्स नाउ टी वी ने गडकरी पर हमला बोला तो टीम केजरीवाल ने तोपों का रूख अपने आप भाजपा की तरफ मुडा पाया। खिसियाकर अब वे दावा कर रहे हैं कि उन्होनें जनता के सामने सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामलें में कांग्रेस और भाजपा एक से है। कितना हास्यादपद दावा है ? यह बात तो 1993 में जैन हवाला कांड उजागर कर हम 20 वर्ष पहले ही सिद्ध कर चुके थे। टीम केजरीवाल के प्रमुख साथियों ने षडयंत्र नहीं किया होता तो आज भ्रष्टाचार इतना न बढता। इसलिए पहले यह समझना होगा  कि जब दूसरों पर उंगली उठाने वालों के ही दामन साफ नहीं हैं तो वे देश को साफ नेतृत्व कैसे देगें ? फिर गडकरी और वडेरा को दोष देने से क्या हासिल होगा ?