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Tuesday, November 14, 2023

‘ट्वेल्थ फेल’ से युवाओं को सबक़


बात 1984 की है, मैं इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे कर यूरोप में घूम रहा था। तब मेरी उम्र 28 बरस थी। बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में कुछ युवा छात्र छात्राओं से बातचीत के दौरान मैंने उनके भविष्य की योजनाओं के विषय में पूछा। सबने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी रुचि बताई। एक जर्मन लड़की कुछ नहीं बोली। तो मैंने उससे भी वही प्रश्न किया। इससे पहले कि वो कुछ कह पाती उसके बाक़ी साथियों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, शी इज़ फिट टू बी ए सिविल सर्वेंट। अर्थात् ये सरकारी अफ़सर बनने के लायक़ है। तब भारतीय युवाओं और पश्चिमी युवाओं की सोच में कितना भारी अंतर था। जहां एक तरफ़ भारत के, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि के युवा सरकारी नौकरी के लिए बेताब रहते थे और आज भी रहते हैं। वहीं पश्चिमी समाज में सरकारी नौकरी में वही जाते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता कम होती है। 



भारत के जिन राज्यों में रोज़गार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध थे, वहाँ के युवाओं की सोच भी कुछ-कुछ पश्चिमी युवाओं जैसी थी। मसलन गुजरात के युवा व्यापार में, महाराष्ट्र के युवा वित्तीय संस्थाओं में, दक्षिण भारत के युवा प्रोफेशनल कोर्स में, हरियाणा और पंजाब के युवा कृषि आदि में आगे बढ़ते थे। पिछले कुछ वर्षों से भारत में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है। जबकि दूसरी तरफ़ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भरमार हो गई है। नतीजतन तमाम डिग्रियाँ बटोरे करोड़ों नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। सरकारी संस्थाएँ नौकरी के लुभावने विज्ञापन देकर इन करोड़ों नौजवानों से मोटी रक़म परीक्षा शुल्क के नाम पर वसूल लेती हैं। फिर परीक्षाओं में घोटाले और पेपर लीक होने जैसे कांड बार-बार होते रहते हैं। जिससे इन युवाओं की ज़िंदगी के स्वर्णिम वर्ष और इनके निर्धन माता-पिता की गाढ़ी कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। कोई बिरले होते हैं जो इस अंतहीन अंधेरी गुफा में अपने लिए प्रकाश की किरण खोज लेते हैं। उनका संघर्ष प्रेरणास्पद तो होता है पर वह एक औसत युवा के लिए दूर की कौड़ी होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी ज़माने में लाखों युवा देश भर से भाग कर हीरो बनने मुंबई जाते थे पर दो-चार की ही क़िस्मत चमकती थी। मनोरंजन के साथ गहरा संदेश देने में माहिर विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ एक ऐसे ही नौजवान की ज़िंदगी पर आधारित है जिसने चंबल के बीहड़ में निर्धन परिवार में जन्म लेकर, तमाम बाधाओं को झेलते हुए, केवल अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से आईपीएस बन कर दिखाया। इस फ़िल्म का ये मुख्य पात्र मनोज कुमार शर्मा आजकल मुंबई बड़ा पुलिस अधिकारी है। 



इस फ़िल्म में ऐसे संघर्षशील लाखों नौजवानों की ज़िंदगी का सजीव प्रदर्शन किया गया है। जिसे देख कर हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग अंदर तक हिल जाते हैं। मध्यम वर्ग के बच्चे तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद चाह कर भी जो हासिल नहीं कर पाते उसे कुछ मज़दूरों के बच्चे अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल करके पूरे समाज को आश्चर्यचकित कर देते हैं। पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय आईएएस या आईपीएस की नौकरी में जाने का प्रवेश द्वार हुआ करता था। पिछले चार दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसके प्रवेश द्वार बन गये हैं। उत्तरी दिल्ली का मुखर्जी नगर इसका बड़ा केंद्र है। पिछले साढ़े चार दशकों से मैं दिल्ली में रहते हुए कभी मुखर्जी नगर नहीं गया था। केवल सुना था कि वो कोचिंग संस्थानों का मछली बाज़ार है। विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी पैनी नज़र से मुखर्जी नगर की जो हक़ीक़त पेश की है वह न सिर्फ़ युवाओं के लिए बल्कि उनके माता पिता के लिए भी आँखें खोल देने वाली है। हो सकता है कि चोपड़ा का उद्देश्य फ़िल्म की कैच लाइन री-स्टार्ट से युवाओं को प्रेरित करना हो। पर मेरी नज़र में उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया है। देश के दूर-दराज इलाक़ों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं की नंगी हक़ीक़त दिखा दी है। वे सचेत हो जाएँ और अपने नौ-निहालों के कोरे आश्वासनों से प्रभावित हो कर अपना घर लुटा न बैठें। 


इस संदर्भ में मैं अपने दो व्यक्तिगत अनुभव पाठकों के हित में साझा करना चाहूँगा। मेरे वृंदावन आवास पर चित्रकूट के जनजातीय इलाक़े का एक कर्मचारी मेरी माँ से एक लाख रुपया क़र्ज़ माँग रहा था। उद्देश्य था अपने भतीजे को आईआईटी की कोचिंग के लिए कोटा (राजस्थान) भेजना। सामाजिक सेवा में  सदा से रुचि रखने वाली मेरी माँ उसे ये रक़म देने को तैयार थीं। पर इससे पहले उन्होंने उस लड़के का इंटरव्यू लेना चाहा। जिससे यह पता चला कि उसका मानसिक स्तर साधारण पढ़ाई के योग्य भी नहीं था। माँ ने समझाया कि इसे कोटा भेज कर पैसा बरबाद मत करो। इसे कोई हुनर सिखवा दो। इस पर वो कर्मचारी बहुत नाराज़ हो गया और बोला, आप बड़े लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आईआईटी में पढ़ें। इसके बाद उसने कहीं और से क़र्ज़ लेकर उस लड़के को कोटा भेज दिया। दो साल बाद दो लाख रुपये बर्बाद करके वो लड़का बैरंग लौट आया। आजकल वो वृंदावन में बिजली मरम्मत का काम करता है। 


दूसरा अनुभव बिहार के चार लड़कों के साथ हुआ। इनमें से तीन हमारे संस्थान में दो दशकों से कर्मचारी  हैं। तीनों बड़े मेहनती हैं। चौथा भाई आईपीएस बनने बिहार से रायपुर (छत्तीसगढ़) चला गया। चार बरस तक तीनों भाई दिन-रात मेहनत करके उसकी हर माँग पूरी करते रहे। अपने बच्चों का पेट काट कर उस पर लाखों रुपया खर्च किया। वो लगातार इन्हें झूठे आश्वासन देता रहा। एक बार इन भाइयों ने मुझ से पैसा माँगा। ये कह कर कि हमारा भाई आईपीएस में चुन लिया गया है और अब ट्रेनिंग के लिए लंदन जायेगा। मैंने सुनकर माथा पीट लिया। उनसे उस भाई का फ़ोन नंबर माँगा और उससे तीखे सवाल पूछे तो वो घबरा गया और उसने स्वीकारा कि पिछले चार बरसों से वो अपने तीनों भाइयों को मूर्ख बना रहा था। 


मैं विधु विनोद चोपड़ा की इस फ़िल्म को इसीलिए ज़्यादा उपयोगी मानता हूँ कि जहां एक तरफ़ ये मनोज शर्मा की ज़िंदगी से प्रेरणा लेने का संदेश देती है, वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की इस भयावयता को बिना लाग-लपेट के ज्यों-का-त्यों सामने रख देती है। जिससे युवा और उनके माता-पिता दोनों सचेत हो जाएँ। इसलिए इस फ़िल्म को हर शहर और गाँव के हर स्कूल में दिखाया जाना चाहिए। चाहे ये काम सरकार करे या स्वयंसेवी संस्थाएँ। ‘ट्वेल्थ फेल’ फ़िल्म की पूरी टीम को इस उपलब्धि के लिए बधाई।    

Monday, December 6, 2021

क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कम हुआ अपराध?


देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम, 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों की पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में टाइगर सरकार ने लखनऊ और नॉएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी। दावा यह किया गया था कि इससे अपराध को रोकने और क़ानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा। पर असल में
हुआ क्या ? 

कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है।वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करता थी। जिसे धीरे-धीरे और राज्यों में भी लाया गया।  

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के भाग (4) के तहत हर जिला अधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिकार होते हैं। साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियाँ भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नही हैं, वे आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश तहत ही कार्य करते हैं। परन्तु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिला अधिकारी और एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के ये अधिकार पुलिस आयुक्त को ही मिल जाते हैं। जिससे वे किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है । 

बड़े शहरों में अक्सर अपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग इसलिए उग्र हो जाते हैं क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। पुलिसवालों की मानें तो प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का अधिकार पुलिस को मिलेगा तो आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर जल्दी कार्रवाई हो सकेगी। इस सिस्टम से पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वे कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है। हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है, इसके बाद यह रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।

पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाये रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रैफिक सुरक्षा आदि के लिये करता है। इसका नेतृत्व डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता, सार्वजनिक शिकायतों के निवारण में उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय यह देखा गया था कि कई ज़िलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसलिए भीड़ पर क़ाबू पाने में वहाँ की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लम्बित पड़े इस प्रस्ताव को गम्भीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। 

सवाल यह आता है की इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ? जानकारों की माने तो कुछ हद तक अपराध रोकने में यह व्यवस्था ठीक है जैसे दंगे के समय लाठी चार्ज करना हो तो मौक़े पे मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं। प्रायः देखा जाता है की यदि किसी मुजरिम को गिरफ़्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटो के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनो पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं यह तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही यह तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं। 

चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार जिन-जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहाँ प्रति लाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर, जयपुर में 2011 में जब यह व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आँकड़ा 30 प्रतिशत है। फ़रीदाबाद में 2010 के बाद से यह आँकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गोहाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहाँ भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई। इन आँकड़ों से एक गम्भीर सवाल ज़रूर उठता है कि इस व्यवस्था को लागू करने से पहले क्या इस विषय में गहन चिंतन हुआ था या नहीं? 

ब्यूरो के आँकड़ों के एक अन्य टेबल से यह भी पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए लोगों में से दोषसिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97, मुंबई में 16.36, दिल्ली में 17.20, बेंगलुरु में 17.32, वहीं इंदौर जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहाँ इसका दर 40.13 प्रतिशत है। यानी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ़्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफ़ी अधिक है।

जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने बिना गम्भीर विचार किए कृषि क़ानूनों को लागू करने के बाद वापिस लिया। उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले सरकार को इस विषय में जानकारों के सहयोग से इस मुद्दे पर गम्भीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए, रातों-रात बदलाव नहीं करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आँकड़ों के अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।

Monday, March 5, 2018

एक योद्धा आई.ए.एस. की प्रेरणास्पद जिंदगी

ब्रज परिक्रमा के विकास के लिए सलाह देने के सिलसिले में हरियाणा के पलवल जिले के डीसी. मनीराम शर्मा से हुई मुलाकात जिंदगी भर याद रहेगी। अपने 4 दशक के सार्वजनिक जीवन में लाखों लोगों से विश्वभर में परिचय हुआ है। पर मनीराम शर्मा जैसा योद्धा एक भी नहीं मिला। वे एक पिछडे गांव के, अत्यन्त गरीब, निरक्षर मजदूर माता-पिता की गूंगी-बहरी संतान हैं। फिर भी पढ़ाई में लगातार 10 सर्वश्रेष्ठ छात्रों में आने वाले मनीराम ने तीन बार आईएएस. की परीक्षा पूरी तरह उत्तीर्ण की। फिर भी भारत सरकार उनके दिव्यांगों का हवाला देकर, उन्हें नौकरी पर लेने को तैयार नहीं थी। भला हो ‘टाइम्स आफ इंडिया’ की संवाददाता रमा नागराजन का जिसने जुनून की हद तक जाकर मनीराम के हक के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी। इंडिया गेट पर हजारों लोगों के साथ ‘कैडिंल मार्च’ किये। रमा का कहना था कि ‘गूंगा-बहरा’ मनीराम नहीं ‘गूंगी-बहरी’ सरकार है।

आखिर ये संघर्ष सफल हुआ और मनीराम शर्मा को मणिपुर काडर आवंटित हुआ। मैंने जब रमा नागराजन को इस समर्पित पत्रकारिता के लिए बधाई दी, तो उसका कहना था कि मैंने कुछ नहीं किया, सबकुछ मनीराम के अदम्य साहस, कड़े इरादे और प्रबल इच्छा शक्ति के कारण हुआ। वास्तव में मनीराम के संघर्ष की कहानी जहां एक तरफ पत्थर दिल इंसान को भी पिघला देती है, वहीं इस देश के हर संघर्षशील व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

राजस्थान के अलवर जिले के गांव बंदनगढ़ी में 1975 में जहां मनीराम का जन्म हुआ, वहां कोई स्कूल नहीं था। केवल गांव के मंदिर में कुछ हिंदी धर्मग्रंथ रखे थे। इस तरह श्री रामचरित मानस जी व श्रीमद्भागवत् जी को मनीराम ने दर्जनों बार घोट-घोटकर पढ़ा। ये भी इस गूंगे-बहरे बच्चे को पिता की मार से बचकर करना पढ़ता था, जो इसे भेड़ चराने को कहते थे। दुर्भाग्यवश बहरापन उसके परिवार में है। उसकी मां, दादी व दोनो बहनें भी बहरी थी।

मनीराम को तपती रेत पर नंगे पैर 5 किमी. चलकर स्कूल जाना पड़ता था। उसके मन में एक ही लगन थी कि बिना पढ़े-लिखे, वह अपने परिवार को इस गरीबी से उबार नहीं पायेगा। उसने इतनी मेहनत की कि दसवीं और बारहवी में बोर्ड की परीक्षा में क्रमशः पांचवी और सांतवी स्थिति पर आया। माता-पिता के लिए पटवारी या स्कूल का अध्यापक बनना, किसी कलैक्टर बनने से कम नहीं था। जो अब वो बन सकता था। पर उसे तो आगे जाना था। उसके प्राध्यापक ने उसके पिता को राजी कर लिया कि मनीराम को अलवर के कालेज में भेज दिया जाए, जहां ट्यूशन पढ़ाकर मनीराम ने पढ़ाई की और राज्य की लिपिक वर्ग की परीक्षा में सफल हो गया। पर वो आगे बढ़ना चाहता था । उसे पीएचडी करने का वजीफा मिल गया। पीएचडी तो की पर मन में लगन लग गई कि आईएएस में जाना है। सबने हतोत्साहित किया कि बहरे लोगों के लिए इस नौकरी में कोई संभावना नहीं है, पर उसने फिर भी हिम्मत नहीं हारी।

2005 के संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। फिर भी भारत सरकार ने उसे बहरेपन के  कारण नौकरी देने से मना कर दिया। मनीराम ने हिम्मत नहीं हारी और 2006 में फिर ये परीक्षा पास की। इस बार उन्हें पोस्ट एंड टैलीग्राफ अकांउट्स की कमतर नौकरी दी गई। जो उन्होंने ले ली। तब उन्हें पहली बार एक बड़े डाक्टर ने बताया कि आधुनिक तकनीकी के आपरेशन से उनका बहरापन दूर हो सकता है। पर इसकी लागत 7.5 लाख रूपये आयेगी। मनीराम के क्षेत्र के सांसद ने विभिन्न संगठनों से 5.5 लाख जुटाये, बाकी कर्ज लिया। आपरेशन सफल हुआ और इस तरह 25 वर्ष बाद मनीराम शर्मा सुन सकते थे। पर इतने साल बहरे रहने के कारण उनकी बोली स्पष्ट नहीं थी। जब कुछ सुना ही नहीं, तो बोल कैसे पाते? ‘स्पीच थेरेपी’ के लिए एक लाख रूपया और बहुत समय चाहिए था। पर उन्हें तो लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाना था। मनीराम ने इन विपरीत परिस्थतियों में कड़ा अभ्यास जारी रखा। नतीजतन अब वो बोल और सुन सकते थे।

एक बार फिर उसी सिविल सेवा परीक्षा में बैठे और 2009 में फिर तीसरी बार उत्तीर्ण हुए। इस बार उन्हें मणिपुर में उप जिलाधिकारी बनाया गया। 2015 में उनका काडर बदलकर हरियाणा मिल गया। तब से वे मुस्तैदी से अपना दायित्व निभा रहे हैं। उनके हृदय में गरीबों और दिव्यांगों के लिए सच्ची श्रद्धा है। जिनके कल्याण के कामों में वे जुटे रहते हैं। पिछले महीने जब मैं उनसे मिला, तो वे गदगद हो गये और बोले कि अपने छात्र जीवन से वे मेरे बारे में और मेरे लेखों को अखबारों में पढ़ते आ रहे हैं। जिस बच्चे के माता-पिता निरक्षर और मजदूर हों और गांव में अखबार भी न आता हो, उसने ये लेख कैसे पढ़े होंगे? मनीराम बताते हैं कि दूसरे गांव के स्कूल से आते-जाते रास्ते में चाट-पकौड़ी के ठेलों के पास जो अखबार के झूठे लिफाफे पड़े होते थे, उन्हें वे रोज बटोरकर घर ले आते थे। फिर पानी से उनका जोड़ खोलकर उनमें छपी दुनियाभर की खबरे पढ़ते थे। इससे उनका सामान्य ज्ञान इतना बढ़ गया कि उन्हें सिविल सेवा परीक्षा में सामान्य ज्ञान में काफी अच्छे अंक प्राप्त हुए। क्यों है न कितना प्रेरणास्पद मनीराम शर्मा का जीवन संघर्ष ?

Monday, July 24, 2017

पुराने तरीकों से नहीं सुधरेंगी धर्मनगरियाँ


योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।



धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतिृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।



इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़जे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।



माना कि विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शाहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?



पिछले हफ्ते जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईनकरप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये  जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।



पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी भले इंसान हैं, संत हैं और पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। ऐसे में भगवान ही मालिक है कि क्या होगा?



चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी उद्देश्य रहा है, इसलिए संघ नेतृत्व को चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतिओं में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आऐ, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी ऐसा कर पायेंगे, ये आसान नहीं। क्योंकि रांड सांड, सीढी संयासी, इनसे बचे तो सेवे काशी

Monday, July 3, 2017

नौकरशाही की बदलती भूमिका

पिछले दिनों उ.प्र. में एक अजीब वाकया हुआ। एक युवा महिला आईएएस अधिकारी ने, जो कि मुख्य विकास अधिकारी के पद पर तैनात है, एक संस्कारवान युवा को अकारण 4 घंटे के लिए अवैध रूप से अपमानित करके थाने में बिठवाया और जब थाने ने बाइज्जत उस युवा को जाने दिया, तो इस महिला अधिकारी ने एक झूठी एफआईआर लिखवाकर मीडिया में बयान दिये कि इस युवा ने उसको धमकाया, उस पर चीखा चिल्लाया, उसे आक्रामक अंगुली दिखाई और सरकारी काम में बाधा पैदा की।

अगले दिन जब अखबारों से उस युवा को यह पता चला कि उसके खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज हो गयी है। तो उसने सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा लिखकर उसी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को ईमेल से अपनी काउंटर एफआईआर भेजी। जिसका एक मुख्य बिंदु यह भी था कि उस अधिकारी के कमरे में उस सुबह के 11 बजे उस वक्त सामान्य वीडियो रिकॉडिंग चल रही थी। युवक ने मांग की पुलिस इस विडियो रिकॉर्डिंग को अपने कब्जे में ले ले, तो दूध का दूध और पानी का पानी समाने आ जायेगा। इस पर वह महिला अधिकारी समझौते की मुद्रा में आ गयी और जिलाधिकारी की पहल पर दोनों पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता हो गया। हालांकि इस प्रक्रिया में उस युवक और उसकी प्रतिष्ठित संस्था को मीडिया में बदनाम करने का असफल प्रयास किया गया, जो तथ्यों के अभाव में टिक नहीं पाया।

उल्लेखनीय है कि वह युवा आईआईटी से बीटैक, एम टैक कम्प्यूटर सांइस से करके, सामाजसेवा के कार्यों में लगा है। उसकी पत्नी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (दिल्ली) से पढ़कर डॉक्टर हैं। उस युवा के श्वसुर 1978 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं। जिस संस्था के लिए वह युवा कार्य करता है, वह एक अति प्रतिष्ठित संस्था है। जिसकी उपलब्धियों की प्रशंसा स्वयं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री करते हैं। जो भारत सरकार और उ.प्र. सरकार की सलाहकार है। जिसने अपने क्षेत्र में बिना सरकारी व विदेशी आर्थिक मदद के विकास के बड़े-बड़े काम किये हैं।

मुझे जब इस घटना की जानकारी मिली, तो मैंने दोनों पक्षों के बयानों को, अपने हजारों अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों को भेज दिया, यह मूल्यांकन करने के लिए कि वे तय करें कि कौन सही है और कौन गलत। चूंकि उस महिला अधिकारी के आरोपों का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है और पुलिस के बार-बार मांगने पर वह अपने कमरे की वीडियो रिकॉर्डिंग देने को तैयार नहीं है। इसी से सिद्ध हो जाता है कि उसने द्वेष की भावना से यह अपराध किया। वैसे भी उसके आचरण की प्रसिद्धि यही है कि वह महिला अपने 5 साल की नौकरी में हर पोस्टिंग पर इसी तरह के नाहक विवाद खड़ी करती रही है और बार-बार उसके तबादले होते रहे हैं।

यहां रोचक बिंदु यह है कि जहां देशभर के 300 से ज्यादा आईएएस अधिकारियों ने इस महिला के अहमकपन की भत्र्सना की, वहीं उ.प्र. के आईएएस अधिकारियों में से कुछ ने अपने व्हाट्एप्प ग्रुप में यह बात उठाई कि इस तरह तो कोई भी युवक हमें धमका कर चला जायेगा। इसलिए हमें एकजुट होकर अपनी साथी महिला का साथ देना चाहिए। पर उस महिला के दुव्र्यवहार की ख्याति पूरे प्रदेश में फैल चुकी है, इसलिए इस प्रस्ताव पर उ.प्र. के आईएएस अधिकारी सहमत नहीं हुए और मामला ठंडा पड़ गया।

चिंता का विषय यह है कि क्या कोई भी आईएएस अधिकारी ऐसे झूठे आरोप लगाकर, ऐसी पृष्ठभूमि के मेधावी युवक को 4 घंटे तक अवैध रूप से थाने में बिठा सकता है? क्या वे बिना सबूत के किसी भी नागरिक पर सरकारी काम में बाधा पहुंचाने का झूठा आरोप लगा सकते हैं? क्या वे खुद ही शुरू करवाई गई, पुलिस की जांच में सहयोग न करके वीडियो रिकाॅर्डिग जैसे प्रमाण दबा सकते हैं ? क्या ऐसा दुराचरण करने वाली महिला आईएएस अधिकारी के आचरण की बिना जांच किये, उसके साथी, उसकी रक्षा में खड़े होकर नैतिकता का परिचय दे रहे थे? अगर इन प्रश्नों के उत्तर ‘नहीं’ में हैं, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ क्या प्रशासनिक कदम उठाये जा सकते है, जो वह ऐसा अपराध दोबारा न करे?

मुख्य विकास अधिकारी का काम कानून व्यवस्था बनाना नहीं, बल्कि क्षेत्र का विकास करना होता है। मुख्य विकास अधिकारियों के कार्यालयों में प्रायः हर प्रोजेक्ट में, हर स्तर पर जो कमीशन खाया जाता है, उसकी जानकारी प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर जिले के छुटभैये ठेकेदार तक को होती है। उसके बाद भी ऐसी सीनाजोरी?

विकास का कार्य कोई सरकार अकेले नहीं कर सकती। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं और निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूरी होती है। पर इस रवैये से तो विकास नहीं किया जा सकता। आज जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार सवा सौ से ज्यादा उच्च अधिकारियों को कामचोरी के आरोप में जबरन सेवानिवृत्त कर चुकी है और बाकी का मूल्यांकन जारी है, तो क्या ये जरूरी नहीं होगा कि भारत सरकार का कार्मिकी विभाग इस हादसे की पूरी निष्पक्षता से जांच या अध्ययन करवाये और इसे आईएएस की ट्रेनिंग में एक केस स्टडी की तरह पढ़ाया जाए? नागरिकों के अधिकारों का हनन कर, समाज की निष्काम सेवा करने वालों को अपमानित कर और दलालो व रिवश्वत देने वालों को महत्व देकर कोई भी सरकार विकास नहीं करवा सकती। योगी जी को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए, जिससे उनकी प्रजा के साथ ऐसी बदसलूकी करने की कोई हिम्मत न करे। आईएएस अधिकारियों को भी आत्म विश्लेषण करना चाहिए की ऐसी परिस्थिति में वे सच का साथ देंगे या झूठ का?

Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।